प्रवचन पीयूष [प्रथम भाग]

[स्वामी नंदनाचार्य और स्वामी निर्मलानन्द]

आदरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं बहनो !
हमलोग वैदिक, ईसाई, इस्लाम बौद्ध, जैन, सिक्ख, आदि किसी भी धर्म, मजहब, सम्प्रदाय, रिलिजन आदि के क्यों न हों, जब परस्पर एक दूसरे से मिलते हैं, भेंट होती है, तो कुशल समाचार पूछा करते हैं। कोई आपस में गुड मॅार्निंग (Good morning) करते हैं, कोई सलाम अलैकुम करते हैं, कोई प्रणाम, नमस्कार आदि करते हैं और जिज्ञासा करते हैं-खैरियत कहिए, कुशल कहिए। कुशल पूछने पर उत्तर में वे कहते हैं-‘कुशल है।’ किन्तु थोड़ी देर बातचीत के बाद वे अपनी सारी बातें बताने लग जाते हैं कि कुशलता कहाँ तक है अर्थात् दुखभरी कहानी सुनाने लग जाते है। सन्त कबीर साहब कहते है-
“ कुशल कुशल के पूछते, जग में रहा न कोय ।
जरा मुई न भय मुआ, कुशल कहाँ ते होय ।।”
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम से मिलने के लिये जब विभीषण आते है, तो भगवान श्रीराम लोकाचार व्यवहार के अनुसार करते हुए उनसे पूछते है-
“ कहु लंकेस सहित परिवारा ।
कुशल कुठाहर बास तुम्हारा ।।
खल मंडली बसहु दिनु राती ।
सखा धरम निबहइ केहि भाँति ।।
मैं जानउँ तुम्हारी सब रीती ।
अति नय निपुन न भाव अनीती ।।”
हे लंकेश! सपरिवार कुशल से तो हो? तुम तो खल-मंडली में रहते हो। अपने धर्म का निर्वहन किस तरह करते हो? मैं तुम्हारी सारी रीति जानता हूँ। तुम अतिशय न्याय-निपुण हो तुम्हारे अंदर अनीति नहीं है। क्या समाचार है तुम्हारा, कहो। विभीषण उत्तर देते हैं-
“ अब पद देखि कुशल रघुराया ।
जौ तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया ।।”
हे प्रभु ! तुम्हारे चरणों को छोड़कर और कहाँ कुशल है। जब तुम्हारी चरणों में, तुम्हारी शरण में उपस्थित हुआ हूँ, तब अब कुशल है। इसके पहले कुशल कहाँ है?
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि हमलोग यात्र करते हैं। यात्र करते समय कोई पूछे कि कहाँ जाते हो, तो हमलोग समझ लेते हैं कि हमारी यात्र अशुभ हो गई। यात्र के समय कोई छींक दे, तो भी हम कहते हैं, हमारी यात्र खराब हो गई। अथवा यात्र के समय कोई रोने लग जाय, तब भी कहते हैं कि यात्र शुभ नहीं। गोस्वामीजी कहते हैं-छिकने से या टोकने से या रोने से, इन तीनों से किसी एक का भी होना, अकुशलता का चिह्न है। तुमने जो संसार में यात्र आरम्भ की है, उसमें तुम्हारे लिए तीनों घटनाएँ घटित हुई हैं। जब तुमने संसार में जन्म लिया, तब क्या-क्या हुए सुनो-
“ जनमत पहले छींक भई, पीछे दीना रोय ।
ता पीछे पुनि प्रश्न करि, कुशल कहाँ ते होय ।।”
बच्चा पहले जब जन्म लेता है, तब प्रथमतः वह छींकता है। छींकने के बाद रोने लग जाता है और तत्पश्चात् पूछने लग जाता है-कहाँ-कहाँ-कहाँ----? लोग कहते हैं बच्चा कहता है-बच्चा चेहाउँ-चेहाउँ- चेहाउँ कहता है। ये तीनों ही बातें अपशकुनवाली हैं। हमारी यात्र शुभ कहाँ से होगी? प्रश्न होता है शुभ का, कुशल का उपाय क्या है? गोस्वामीजी कहते हैं-जरा सोचकर देखो, जब तुम माता के गर्भ में थे, उस समय से ही तुम्हारा कष्ट आरम्भ हो गया। एक कोठरी में तुम बन्द थे। जाड़ा, गर्मी, बरसात-सभी ऋतुएँ बीत गयीं। उस बंद कोठरी में साँस कैसे लेते थे, क्या खाते-पीते थे, कब सोते थे, कब जगते थे, किस तरह करवट बदलते थे, जाड़े के समय में कौन वहाँ रजाई ओढ़ाता था, गर्मी में वहाँ कुलर कौन लगाता था, कौन पंखा झलता था? कैसे वह एयर कन्डीसन कम्पार्टमेंट बना हुआ था, जिसमें तुम थे। किस तरह रहते थे वहाँ, तुम्हारी देख-रेख उस स्थान में कौन करता था?
“ सोनित पुरीष व मूत्र मल कृमि कर्दमावृत सोवई ।
कोमल शरीर गंभीर वेदन सीस धुनि-धुनि रोवई ।।”
पाखाना-पेशाब, पीव-लार से मिश्रित स्थान में तुम्हारा यह शरीर था। मल-मूत्र के कीड़े जब तुम्हारे कोमल शरीर में काटते थे, तो तुम वहाँ छटपटाते थे। बेचारे पिताजी को तो पता ही क्या! जिस माता के गर्भ में तुम थे, वह बेचारी माता भी तुम्हारी छटपटी से छुटकारा का कुछ उपाय नहीं कर सकती थी। जैसे तुम उलटते-पुलटते थे, उनको वेदना होती थी। गर्भस्थ शिशु की वेदना अलग है और माता की वेदना अलग। तब उस गर्भावस्था में तुमने प्रभु से प्रार्थना की थी-
“ दस मास रहे गर्भ में रह्यो,
तबहीं प्रभु से हम कौल कियो ।
मैं बाहर हूँ हरि भक्ति करूँ,
तेहि कारण मोहि निकाल दियो ।
इत आय जगत में भूल गयो,
तेहि कारण लोग भए दुखिया ।
कवि गंग कहै मन चेत करो,
भजु राम सिया जन्म दिया ।।”
उस समय हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं-हे प्रभो ! इस कष्टमय-जीवन से, इस दुःखमय स्थान से निकालो। प्रभु हमारी प्राथर्ना सुनते हैं और वहाँ से निकालकर इस संसार में ला देते हैं। इस संसार में आते ही हम कहने लग जाते हैं-कहाँ-कहाँ-कहाँ? हमने जो माता के गर्भ में रहकर प्रभु से प्रार्थना की थी कि संसार में जाकर तुम्हारी भक्ति करूँगा, भजन करूँगा, वह हम भूल गए। गर्भावस्था में हमने जो प्रतिज्ञा की थी, उसके अनुकूल नहीं चल सकने के कारण विविध प्रकार के कष्ट हमारे सामने आने लग गये। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं अगर दुःखों से छूटना चाहते हो, तो भगवद्भजन करो।
“ तब लगि कुशल न जीव कहँ, सपनेहु मन विस्त्राम ।
जब लगि भजसि न राम कहँ, सोक धाम तजि काम ।।”
यदि हम कुशल चाहते हैं, सुखमय जीवन चाहते हैं, तो हमें ईश्वर की भक्ति करनी चाहिये।
यह संसार एक विशाल कारागार है। कारागार का विस्तृत क्षेत्र है। उस विस्तृत क्षेत्र के भीतर कई कमरे बने हुए रहते हैं, जिनमें अपराधियों को, दुष्टकर्मियों को रखा जाता है। उस चाहरदिवारी के भीतर कमरे में बन्द व्यक्ति कभी सुख का अनुभव नहीं कर सकता। वहाँ चाहे जितनी भी सुव्यवस्था क्यों न हो, फिर भी वहाँ रहनेवाला कष्ट का ही अनुभव करता है। उसी प्रकार यह विशाल ब्रह्माण्ड भी एक कारागार है, इसमें हमलोगों का एक-एक शरीर एक-एक कोठरी है और एक-एक कोठरी में एक-एक जीव बंदी बनकर पड़ा हुआ है। इस बन्दीगृह में उसको सुख कहाँ मिलेगा? इस बन्दीगृह से वह छूट जाय, निकल जाय, तभी उसको सुख मिल सकता है; अन्यथा नहीं।
इस शरीर को कितना भी सुख-सुविधा मिल जाय, फिर भी दुःख से छुटकारा नहीं मिल सकता है। इस शरीर में आना ही दुःख को निमंत्रण देना है। ऐसा कोई नहीं मिलेगा, जो कहे की हमको कोई दुःख नहीं, कोई चिन्ता नहीं, कोई क्लेश नहीं, कोई पीड़ा नहीं, कोई समस्या नहीं। यह घर-घर की बात है। घर-घर की ही बात नहीं हर सर की बात है। सारी दुनिया घूमकर ढूँढ़ आइये, ऐसा कोई सर नहीं मिलेगा, जिस सर में कोई समस्या नहीं। इसलिए संत राधा स्वामी ने कहा-‘पहला बंधन पड़ा देह का।’ अगर देह का बंधन नहीं पड़े, तो कोई बंधन नहीं पड़ेगा। शरीर में आना ही सब दुःखों को बुलाना है। तब प्रश्न उदय होता है कि शरीर में हम नहीं आवें, इसका उपाय क्या है? हमारे गुरुदेव कहते हैं-
“ आवागमन सम दुख दूजा, है नहीं जग में कोई ।
इसके निवारण के लिए, प्रभु भक्ति करनी चाहिए ।।”
कहते-कहते कबीर साहब की वाणी में आया है-
‘तन धर सुखिया कोई न देखा, जो देखा सो दुखिया हो। उदय अस्त कि बात कहत हैं, सबका किया विवेका हो।’ कहते-कहते कबीर साहब ने यहाँ तक कह दिया कि-
“ साँच कहौं तो कोइ न मानै, झूठ कहा नहीं जाई हो ।
ब्रह्मा विष्णु महेसुर दुखिया, जिन यह राह चलाई हो ।।”
जब ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर ही दुखिया है, तो जनसाधारण की बात ही क्या है। आप किसी चिड़ियाँ को पिंजड़े में रखिये और उसको उत्तम-से-उत्तम भोजन दीजिये। उसके लिए अच्छी-से-अच्छी व्यवस्था कीजिये; लेकिन जो स्वच्छ आकाश में स्वतंत्र उड़नेवाली है, वह सुखी नहीं हो सकती है। उसी तरह यह जीव है।
“ ईश्वर अंस जीव अविनासी ।
चेतन अमल सहज सुख रासी ।।
सो माया वस भयेउ गुसाईं ।
बंधेउ कीर मरकट की नाईं ।।”
यह जीव बंधन में पड़ गया है। कीर कहते हैं-सुग्गा को और मरकट कहते हैं-बंदर को। सुग्गा फँसानेवाला उस जंगल में जाता है, जिसमें बहुत-से सुग्गे रहते हैं। वह एक डाल पर एक नली बाँध देता है और नली के नीचे कुछ खाने की चीज बाँधकर लटका देता है। सुग्गा आता है और उस नली पर बैठता है। उस खाद्य वस्तु को खाने के लिए जैसे ही वह नीचे झुकता है, नली के साथ उसका चंगुल भी घूम जाता है। परिणामतः वह नीचे लटक जाता है, सुग्गा यह समझने लग जाता है कि किसी ने हमको पकड़ लिया है। यद्यपि सुग्गे ने ही स्वयं अपने चंगुल से नली को पकड़ रखा है। मोहवश वह उसे छोड़ नहीं सकता है और न उड़ सकता है। पकड़नेवाला उसे पकड़कर ले जाता है। इसी तरह बंदर फँसानेवाला बंदर पकड़ने के लिए उस जंगल में जाता है, जहाँ अधिक बंदर रहते हैं। वहाँ वह एक घड़ा में, जिसका मुँह छोटा होता है, उसी अनुपात से एक मिठाई डाल देते हैं और मिठाई के कुछ टुकड़े उसके अगल-बगल में रख देता हैं। बंदर आता है, उन टुकड़ों को खाता है। स्वाद अच्छा लगता है। अब वह उस घड़े में देखता है कि क्या है? उससे मिठाई कि सुंगध उसको मिलती है। वह अपना हाथ घड़े में घुसाता है। उसका हाथ तो सरलतापूर्वक उस घड़े में घुस जाता है; लेकिन जब मिठाई पकड़ लेता है और हाथ निकालना चाहता है, तो निकल नहीं पाता है। उसका हाथ तो घड़े के मुँह में आकर अटक जाता है। बंदर ने स्वयं मिठाई पकड़ी है, पर वह समझ लेता है कि किसी ने उसको पकड़ लिया है। बंदर पकड़नेवाला उसको पकड़कर ले जाता है। उसी तरह हमने माया पकड़ ली है; लेकिन हम समझते हैं कि माया ने हमको पकड़ लिया है। यह जीव माया को पकड़कर रखा है। सामान्यता लोग कहा करते हैं कि क्या करें, हम माया से नहीं छूट सकते हैं। जबतक इस माया के बंधन में हम पड़े रहेंगे, विभिन्न प्रकार के दुःखों को हम भोगते रहेंगे। इस जेल से, इस कारागार से छूटने का यत्न संत-सदगुरु बतलाते हैं। जबतक भगवन्नाम नहीं लें, भगवद्भजन नहीं करें, हम इस कारागार से नहीं छूट सकते।
“ तुलसीदास एहि जीव मोह रजु
जोइ बाँधे सोइ छोड़ै ।”
वही प्रभु हमको इस बंधन से मुक्त कर सकते हैं, दूसरे कोई नहीं। इसलिए हमको प्रभु को भजन करना चाहिए। हम कहेंगे कि हम तो कुछ-न-कुछ भजन करते ही हैं-राम-राम, शिव-शिव, वाह गुरु, सत्तनाम, राधेश्याम आदि। जरा सोचकर देखिये, भगवान का नाम तो हम लेते हैं; लेकिन मायिक बंधनों से छूटते क्यों नहीं है? आवागमन का चक्र हमारा छूटता क्यों नहीं है? इसी प्रसंग की एक कथा है-एक साधु बाबा थे। वे भिक्षाटन कर भोजन करते थे। जिस दरवाजे पर जाते थे, कहते थे-‘राम-राम करै भवसागर तरै, राम राम करै भवसागर तरै।’ गृहपति आकर साधु बाबा को कुछ भोजन देते थे। साधु बाबा भोजन करते और चल देते थे। प्रतिदिन का यही कार्यक्रम था उनका। एक दिन वे ऐसे दरवाजे पर पहुँचे, जहाँ एक सुग्गा पिंजड़े में बंद था। वह सुग्गा भी राम-राम रटता रहता था। साधु बाबा प्रतिदिन की भाँति टेर लगाई-‘राम-राम करै भवसागर तरै।’ पिंजड़ेवाले सुग्गे ने कहा-‘राम-राम करै, लौह पिंजड़ पड़ै।’ सुग्गा की बात सुनकर साधु बाबा ने कहा, ‘अरे तुम क्या बोलता है?’ सुग्गा ने कहा-‘आप क्या कहते है?’ साधु बाबा ने कहा-‘मैं कहता हूँ कि ‘राम-राम करै, भवसागर तरै।’ पिंजड़ेवाले सुग्गे ने कहा-‘बाबा मैं कहता हूँ, ‘राम-राम कहै, लौह पिंजड़ पड़ै।’ साधु बाबा ने पूछा, ‘ऐसा तुम क्यों कहते हो?’ सुग्गा ने उत्तर दिया-‘बाबा! आप कहीं किताब में पढ़े होंगे अथवा किसी साधु-महात्मा ने आपको बहका दिया है कि राम-राम कहने से भवसागर पार होता है। बाबा आपका जो ज्ञान है, वह श्रवण और अध्ययन ज्ञान है; किन्तु मेरा अनुभव ज्ञान है। देखिये, जो सुग्गा राम-राम नहीं कहता है, वह स्वतंत्र घूमता-फिरता है और इच्छा अनुसार भोजन-विश्राम करता है। एक अभागा सुग्गा मैं ही हूँ, जो कि राम-राम कहता हूँ, और लोहे के पिंजड़े में पड़ा हूँ।’ साधु बाबा ने कहा-‘अरे! राम-राम तो तुम कहते हो; लेकिन राम-राम कहने की कला जानते हो?’ सुग्गा ने कहा-‘बाबा राम-राम तो कहता हूँ, पर कला क्या होती है? नहीं जानता हूँ।’ साधु बाबा ने कहा-‘कला नहीं जानते हो, इसलिए पिंजड़े में बँधे हुये हो।’ सुग्गा ने कहा-‘तो बाबा! कृपा कर मुझे कला सिखला दीजिये।’ साधु बाबा ने क्रिया बतला दी। सुग्गा क्रिया करने लग गया। करते-करते उसका प्राण स्पन्दन रुद्ध होने लगा। एक दिन वह क्रिया करके पिंजड़े में पड़ा हुआ था। उसका प्राणस्पन्दन बन्द था। गृहपति आया, उसको खिलाने के लिये। पिंजड़ा खोलता है, तो देखता है कि सुग्गा की साँस की क्रिया बन्द है। यह तो मर गया है। गृहपति ने सुग्गे को पिंजड़े से निकालकर जैसे ही फेंकता है कि वह फुर्र से आकाश में उड़ गया। यह तो एक कथा है; लेकिन वास्तविकता क्या है। यह सुनिये, गुरु गोरखनाथजी महाराज कहते हैं-
“ सप्त धातु का काया प्यंजरा,
ता माहीं जुगति बिन सुवा ।
सतगुरू मिलै तो उबरै बाबू,
नहिं तो परलै हूवा।।”
हमलोग का शरीर एक पिंजड़े के समान है। रस, रक्त, मेद, मज्जा, मांस, अस्थि और वीर्य; इन सात धातुओं से बना हुआ यह शरीर-रूपी पिंजड़ा है। इसमें जीवात्मा-रूपी सुग्गा बैठा हुआ है। इसको राम-राम, शिव-शिव, वाह गुरु, सतनाम आदि जो कहने के लिए सिखा दिया जाता है, वह बोलता है। बेचारा सुग्गा जीवन-भर राम-राम, शिव-शिव, आदि ईश्वरवाचक शब्द बोलता है; लेकिन बिल्ली आकर जब उसके गर्दन मचोड़ती है, तो उस समय टाँय-टाँय के शिवा मुँह से कुछ भी नहीं निकलता है। उसी तरह हमलोग राम-राम, शिव-शिव, वाह गुरु, सतनाम आदि जितना भगवन्नाम लेना है, ले लें; लेकिन जब यमराज आयेगा, तो बाप को पुकारेंगे, माई को पुकारेंगे, बेटा को पुकारेंगे कि यमराज से कोई बचाओ; पर कोई बचानेवाला नहीं मिलेगा। (श्रोताओं की ओर से श्री सद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)!
उस राम-नाम या सतनाम कहने की कला क्या है? तो गोरखनाथजी महाराज कहते हैं-सतगुरु मिलै तो उबरै बाबू।’ अगर सच्चे सदगुरु मिल जाएँ और उनकी सद्युक्ति हमको मिल जाय, साथ ही सदाचार समन्वित होकर हम उसकी साधना करने लग जाएँ, तो निश्चय ही हम इस संसार-सागर से पार उतर जाएँगे। फिर कभी भी दुःख का मुख नहीं देखेंगे, जगत से निकल जायेंगे।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 88वें वार्षिक महाधिवेशन के सुअवसर पर बरारी भागलपुर (बिहार) में दिनांक 18-4-1999 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जुलाई 1999 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
आज संसार में अनेक प्रकार के धर्म फैले हुए हैं। यदि उन सभी धर्म का हम विवेक विलोचन से अवलोकन करें, तो पायेंगे कि वैदिक, ईसाई और इस्लाम; इन तीन धर्मों के लोगों की बहुलता है। ये तीनों धर्म आस्तिक हैं। संस्कृत में दो शब्द हैं-अस्ति और नास्ति। जो ईश्वर के लिए कहते हैं-अस्ति अर्थात् ईश्वर है, वे आस्तिक कहलाते हैं और जो कहते हैं-नास्ति अर्थात् ईश्वर नहीं हैं, वे नास्तिक कहलाते हैं।
यह सन्तमत अस्ति अर्थात् सर्वधर्म-समन्वय मत है। विश्व का प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद है। उसमें एक मंत्र आया है-‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।’
वह परम प्रभु परमात्मा एक है; किन्तु विद्वज्जन अनेक नामों से अभिहित करते हैं। ईसाई गॉड या स्वर्गस्थ पिता कहते हैं, मुसलमान अल्लाह या खुदा और चीनी तितीन कहते हैं। पारसी अहुरमज्द कहते हैं, यहूदी जेहोवा कहते हैं, वैदिक धर्मावलम्बी ब्रह्मा या परमात्मा कहते हैं। इस तरह विभिन्न धर्मों के अवलम्बन करनेवाले परमात्मा को विभिन्न नामों से अभिहित करते हैं। अनेक नामों से अभिहित करने का मतलब यह नहीं होता कि परमात्मा अनेक हैं। देशान्तर के कारण भाषान्तर है और भाषान्तर के कारण शब्दान्तर है, किन्तु तत्त्वान्तर नहीं है। तत्त्व रूप में वह परमात्मा एक-ही-एक है। आब कहें, वाटर कहें या जल कहें; वस्तु एक-ही-एक है। यद्यपि ये तीन शब्द हुए, तथापि चीजें तीन नहीं हुईं।
तीन बच्चे तमाशा दिखला रहे थे। लोग तमाशा देख रहे थे। तमाशा देखनेवालों में से किसी व्यक्ति ने तीनों बच्चों को कुछ पैसे दिये और कहा इन पैसे से जो इच्छा हो, खरीद कर खा लेना। तमाशा समाप्त होने के बाद तीनों बच्चे आपस में विचार करने लगे कि इन पैसों से क्या खरीदा जाय? क्या खाया जाए? उनमें सें एक बच्चे ने कहा-‘हमें तो वाटरमेलन पसंद है’, अगर खरीदकर लाओ तो मिलकर खाएँ। दूसरे ने कहा-‘देखो, मुझे तो हिन्दवाना पसंद है, अगर हिन्दवाना खरीदकर लाओ तो तीनों मिलकर खाएँ।’ तीसरे बच्चे ने कहा-‘नहीं भाई! मुझे तो तरबूज पसंद है। अगर तरबूज खरीदकर लाओ, तो हम तीनों ही प्रेम से खाएँ।’ जो बच्चे थोड़ी देर पहले तमाशा दिखलाकर लोगों को आीांदित कर रहे थे, वे तीनों आपस में ही झगड़ने लगे। एक कहता है- वाटरमेलन चाहिए, दूसरा कहता है-हिन्दवाना चाहिए और तीसरा कहता है-तरबूज चाहिए। जिन्होंने पैसे दिये थे, उन्होंने पूछा-बच्चे! तुमलोग आपस में क्यों झगड़ रहे हो? तीनों ने अपनी-अपनी फरियाद रखी। उक्त सज्जन ने उनसे माँगकर पैसे ले लिए और कहा कि जो तुमलोग चाहते हो, मैं तुमलोगों को वही दूँगा। वे बाजार से तरबूज खरीदकर ले आये और कपड़े से ढँक दिया। फिर पूछा कि अब बताओ क्या चाहिए? जो ईसाई लड़का था, उसने कहा-मुझे तो वाटरमेलन (ॅंजमतउमसवद) चाहिए। एक टुकड़ा उसके हाथ में देते हुए पूछा-यही चाहिए? लड़के ने कहा-हाँ, यही तो मुझे चाहिए। दूसरा लड़का, जो इस्लाम धर्म का था, उससे पूछा-तुमको क्या चाहिए? उसने कहा-मुझे हिन्दवाना चाहिए। उसी का दूसरा टुकड़ा उसके हाथ में देते हुए पूछा-क्या यही तुमको चाहिए? लड़के ने उत्तर दिया-हाँ। तीसरा लड़का जो वैदिक धर्मावलम्बी था, उससे उक्त सज्जन ने पूछा-‘तुमको क्या चाहिए? उसने कहा-‘मुझे तो तरबूज चाहिए।’ बचा हुआ टुकड़ा उसके हाथ में दे दिया। वे तीनों बच्चे खुश हो गए।
एक दूसरे की भाषा को नहीं जानने के कारण वे तीनों बच्चे आपस में झगड़ रहे थे। यदि एक दूसरे की भाषा को जानते, तो आपस में झगड़ते नहीं। उसी तरह गॉड, अल्लाह या परमात्मा कहने से वे प्रभु तीन नहीं हो जाते। वे तो एक-ही-एक है। हम आपस में एक-दूसरे की भाषा नहीं समझने के कारण उन बच्चों की तरह झगड़ते हैं।
“ क्या हिन्दू क्या मुसलमान क्या ईसाई जैन ।
गुरू भक्ति पूरण बिना कोई न पावै चैन ।।”
(सन्त राधास्वामी साहब)
“ जे पहुँचे ते कहि गये तिनकी एकै बात ।
सबै सयाने एकमत तिनकी एकै जात ।।”
(सन्त दादू साहब)
परम प्रभु परमात्मा एक-ही-एक है, यह ज्ञान हमलोगों को बचपन में दी जाती है। पर उस सीख को हमलोग सीख नहीं पाते है। आप अंग्रेजी, उर्दू, फारसी, अरबी पढ़िये या भारती भाषा देवनागरी पढ़िये, जो बच्चे पढ़ने जाते हैं, उन बच्चे को पहला अक्षर क्या सिखलाया जाता है-अंग्रजी में-‘।’ उर्दू, फारसी, अरबी में ‘अलिफ’ और देवनागरी में ‘अ’ हमें क्या सिखलाता है। जरा इसपर ध्यान दें। ‘।’ का अर्थ होता है एक, ‘अलिफ’ का भी अर्थ होता है ‘एक’। ‘।’ से अ होता है, अलिफ से अ होता है और देवनागरी में पहला अक्षर अ ही है। यह क्या संदेश देता है? एक अच्छे कामिल फकीर हुए पंजाब में बुल्लेशाह। उन्होंने कहा-‘एक अलिफ पढ़ो छुटकारा अर्थात् जो एक अलिफ को पढ़ लेता है, उसको मुक्ति मिल जाती है, नजात मिल जाता है, उसका ैंसअंजपवद हो जाता है। प्रश्नोदय होगा कि हमलोगों ने कितनी बार अलिफ पढ़ा, जिसका ठिकाना नहीं; पर मुक्ति मिली नहीं, नजात मिला नहीं, क्यों?
हजरत अनवर अली रोहतकी ने एक पुस्तक लिखी जिसका जिसका नाम है-‘कानूने इश्क’। उस पुस्तक की पृष्ठ संख्या 204 में उन्होंने लिखा है-अलिफ पढ़ने से छुटकारा है। वह तख्ती पर सबसे पहले लिखा जानेवाला अक्षर नहीं। वह वजूदे मुतल्लिक (निराकार व निर्लिप्त प्रभु) है। जो कोई उस अलिफ को पड़ लेता है, उसको मुक्ति मिल जाती है।’
बचपन में गुरु नानकदेवजी महाराज मौलवी साहब के यहाँ पढ़ने के लिए गए। मौलवी साहब ने पढ़ाया-पढ़ो ‘अलिफ’ । गुरु नानकदेवजी महाराज पढ़ते हैं ‘अलिफ’। मौलवी साहब पढ़ाते हैं-‘पढ़ो, बे।’ गुरु नानकदेवजी महाराज पढ़ते हैं ‘बे’। गुरु नानकदेवजी महाराज ने पूछा-मौलवी साहब! अलिफ का अर्थ क्या होता है? मौलवी साहब ने उत्तर दिया-‘अलिफ का अर्थ होता है-एक। ‘पुनः गुरु नानकदेवजी महाराज ने पूछा- ‘मौलवी साहब! ‘बे’ का क्या अर्थ होता है? मौलवी साहब ने उत्तर दिया-‘दूसरा।’ गुरु नानकदेव ने कहा मौलवी साहब! पहले इस एक को जान लेने दीजिये, फिर दूसरा जानूँगा।’ वह एक कौन है? अलिफ क्या संदेश देता है? अलिफ एक खड़ी लकीड़ है, जो नीचे से ऊपर एक है। यह बतलाता है कि वह एक परब्रह्म परमात्मा है, अल्लाह है, खुदा है, गॉड है; जो नीचे से ऊपर तक परिव्याप्त है, वही सर्वव्यापक राम है। उस एक को जानें।
‘बे’ का अर्थ होता है-दूसरा। हमलोग देवनागरी पढ़ने जाते हैं, वहाँ पढ़ते हैं-‘अ’। ‘अ’ स्वर है। पहले 16 स्वर पढ़ते हैं। उसके बाद हमलोग व्यंजन पढ़ते हैं। प्रत्येक व्यंजन में स्वर समाहित रहता है। व्यंजन से हम स्वर को निकाल नहीं सकते। उसी तरह वह परब्रह्म परमात्मा सबसे पहले का है; बाद में यह सृष्टि है। सृष्टि के कण-कण में वह व्यापक है। जिस तरह हम व्यंजन से स्वर को निकाल नहीं सकते, उसी तरह हम परब्रह्म परमात्मा को हम इस सृष्टि से निकाल नहीं सकते। वह सर्वव्यापक है, कोई कण उससे खाली नहीं है। सन्त पलटूदासजी महाराज कहते हैं-
“ पूरब में राम है पश्चिम में खुदाय है ,
उत्तर और दक्खिन कहो कौन रहता ।
साहिब वह कहाँ है कहाँ फिर नहीं है,
हिन्दू और तुरक तोफान करता ।।
हिन्दू और तुरक मिलि परे हैं खैंचि में ,
आपनी वर्ग दोउ दीन कहता ।
दास पलटू कहै साहिब सब में रहै ,
जुदा ना तनिक मैं साँच कहता ।।”
जो वैदिक धर्मावलम्बी लोग हैं, वे पूरब मुँह बैठकर पूजा करते हैं। जो इस्लाम धर्म को माननेवाले हैं, वे पश्चिम मुँह होकर नमाज पढ़ते हैं। सन्त पलटू साहब का कहना है, यदि पूरब में राम और पश्चिम में खुदा हुए, तो उत्तर और दक्षिण में कौन हैं? क्या ये दोनों दिशाएँ खाली हैं? नहीं, नहीं, वे सब में है।
आप कुरान मजीद पढ़कर देखिये। उसके पारा-1, सुरा-2 अलबकरा में लिखा है-पूर्व और पश्चिम सब अल्लाह के हैं। जिस ओर भी तुम अपना रुख करोगे, उसी ओर अल्लाह का रुख है। अल्लाह सर्वव्यापी है और सब कुछ जाननेवाला है। अखिल ब्रह्माण्ड के नायक वह एक-ही-एक है। उस एक को हम जानें। सन्त कबीर साहब से जब हम पूछते हैं कि इस सम्बन्ध में आपका क्या विचार है, तो वे कहते हैं-
“ मेरा मालिक एक तू, दूजा कहा न जाय ।
दूजा साहब जो कहौं साहब खड़ा रिसाय ।।”
वह एक-ही-एक है; दो-चार, पाँच-सात, दस-बीस नहीं है। हम गुरु नानकदेवजी महाराज से पूछते हैं कि परमात्मा कितने हैं, तो वे कहते हैं-
“ सतगुरु दिआ अमृत पिआ और न जाना दूजा तिआ ।
एको एक सु अपर परंपरु परखि खजाने पाइदा ।।”
सभी सन्तों ने यह बतलाया है कि वह एक-ही-एक है, उस एक को जानो। उस एक को कहाँ जानोगे? सन्त दादूयालजी महाराज कहते हैं-
“ भाई रे घर में ही घर पाया ।
सहजि समाइ रह्यौ तो माहीं, सतगुरु खोज बताया ।।
ता घर काज सबै फिर आया, आपै आप लखाया ।
खोलि कपाट महल के दीन्हे, थिर अस्थान दिखाया ।।
भय और भ्रम सब भागा, साचा सोई मन लाया ।
प्यंड परे जहाँ जिव जावै, ता में सहज समाया ।।
निहचल सदा चलै नहि कबहूँ, देख्या सबमें सोई ।
ताही सूँ मेरा मन लागा, और न दूजा कोई ।।
आदि अंत सोई घर पाया, इव मन अनत न जाई ।
दादू एक रंगै रंग लागा, ता में रह्या समाई ।।”
जो एक-ही-एक है, उसके रंग में रँग गया। क्या हुआ रँगने से? सन्त कबीर साहब ने उत्तर दिया-
“ लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल ।
लाली देखन मैं गयी, मैं भी हो गयी लाल ।।”
अब हम सन्त सुन्दरदासजी से पूछें, वे इस सम्बन्ध में क्या कहते हैं? वे कहते हैं-
“ एक ही सबके उर अन्तर,
प्रभु कूँ कहु क्यूँ नहीं व्यापै ।।
संकट माँहि सहाय करै पुनि,
सो अपनो पति क्यूँ बिसरावै ।।
चारि पदारथ और जहाँ लौं,
आठहु सिद्धि नवो निधि पावै ।।
सुन्दर छार पड़ै तिनके मुख,
जो हरि कूँ तजि आन को ध्यावै ।।”
सब सन्तों का यही विचार है कि एक की टेक पकड़ो, तुम्हारा जीवन नेक होगा।
बादशाह अकबर के दरबार में नौ रत्न रहते थे। उनमें कवि गोष्ठी भी थी। कवि लोग बादशाह को अपनी-अपनी कविता सुनाया करते थे। उन कवियों में एक थे-कवि श्रीपति। उनकी जितनी भी कविताएँ होतीं, ईश्वरपरक होतीं। बादशाह को खुश करने की कविताएँ वे नहीं बनाते थे। सब दरबारी कवियों ने विचारा कि श्रीपति कवि केवल ईश्वरपरक कविताएँ लिखते हैं, बादशाह अकबर की प्रशंसा में कविताएँ कभी नहीं लिखते। बादशाह से यह बात कहलवा दी जाय की कल की जो कविता बने, उसमें यह पंक्ति अवश्य रहनी चाहिए कि-‘करो सब आस अकब्बर की’। यदि श्रीपति यह पंक्ति देते हैं, तो उनकी जो ईश्वरवाली टेक है, वह टूटेगी। यदि वे यह पंक्ति नहीं देते हैं, तो बादशाह अकबर की नजर में गिरेंगे। बादशाह से यह बात कहलवा दी गई। दूसरे दिन सभी कवि अपनी-अपनी कविता बनाकर लाए। सबने अपनी-अपनी कविता सुनाई। अब सब प्रतीक्षा करने लगे कि श्रीपतिजी की कविता कैसी होती है। जब श्रीपतिजी की बारी आई तो उन्होंने अपनी कविता इस प्रकार सुनाई-
“ एकहि छाड़ि जो दूजो भजै,
सो जरै रसना अस लब्बर की ।
अबकी गुनिया दुनिया जो बनी,
सब बाँधत फैट अडम्बर की ।।
कवि श्रीपति आसरो रामहिं को,
हम फैट गहो बड़ जब्बर की ।
जिनको उस एक की टेक नहीं,
तो करो सब आस अकब्बर की ।।”
अब हम गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज से पूछना चाहते हैं कि ईश्वर के सम्बन्ध में उनकी राय कैसी बनी है। क्योंकि कुछ लोगों की भावना यह है कि कबीर साहब, गुरु नानकदेवजी प्रभृति निरगुनिया सन्त थे और गोस्वामी तुलसीदास जी सगुनिया भक्त थे। वास्तव में कोई केवल सगुनिया और कोई केवल निरगुनिया सन्त नहीं होते। आरम्भ में सभी सन्त सगुनिया होते हैं और अन्त में सभी सन्त निरगुनिया होते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी को भी मान्य है कि परम प्रभु परमात्मा एक है; यथा-‘एक अनीह रूप अनामा । अज सच्चिदानन्द परधामा ।।’ परमात्मा एक है, अनीह-इच्छा रहित है, अरूप है और अनामा-जिसका नाम न हो, ऐसा है। कौन किसको नाम देता है? सन्त कबीर साहब ने कहा है-‘पिता जनम की जानै पूत।’ पुत्र का नाम पिता रख सकता है। पिता का नाम पुत्र कैसे रखेगा? जिसने सारी सृष्टि का सृजन किया है, सजाया है, सँवारा है, उसका नाम कौन देगा? इसलिए उसका कोई नाम नहीं, वह अनामी है।
“ जो कोई चाहे नाम तो नाम अनाम है ।
लिखन पड़न में नहीं निःअच्छर काम है ।।
रूप कहौं अनरूप पवन अनरेख ते ।
अरे हाँ रे पलटू गैव दृष्टि से
सन्त नाम वह देखते ।।”
हमलोग जो भी नाम मुँह से उच्चारण करेंगे, वह वर्णात्मक होगा, सगुण होगा। परम प्रभु परमात्मा निर्गुण निराकार है। मुँह से जो कुछ भी कहेंगे, वह वाणी का विषय होगा। परमात्मा अवाघ्गमनसगोचर है। गोस्वामीजी ने उस परमात्मा को राम के रूप में देखा। राम किसको कहते हैं? ‘रम’ धातु से ‘राम’ शब्द बनता है, जिसका अर्थ होता है रमना, रमण करना। जो सबमें रमण करता है, वह है-‘राम’। गोस्वामी तुलसीदासजी-सगुण ब्रह्म भगवान राम का अवतार चैत शुक्ल नवमी को हुआ था। उस राम में नौ अंक समाहित हैं।
आप कहेंगे राम में रा और म दो ही अंक तो हैं, लेकिन नहीं; य और र = 2 और अ, आ = 2 और प, फ, ब, भ, म = 5 अंक अर्थात् 2+2+5 = 9। इस तरह राम में नौ अंक समाहित हैं। गोस्वामीजी ने राम को ब्रह्म रूप में देखा। आप कहेंगे कि राम में नौ अंक समाहित हैं, तो ब्रह्म में भी नौ अंक होना चाहिए। ब्रह्म शब्द में भी नौ अंक है-प, फ, ब = 3, य, र = 2; य, र, ल, व, श, ष, स, ह = 8; प, फ, ब, भ, म = 5 अर्थात् 3+2+8+5 = 18 यानी 1+8 = 9।
अस्तु अब गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के शब्दों में नौ की निराली महिमा भी सुनिये-
“ तुलसी राम सनेह करू, त्यागू सकल उपचार ।
जैसे घटे न अंक नौ, नौ के लिखे पहाड़ ।।”
जितने पहाड़े हैं, उन सबको आप लिखिए। सबमें न्यूनाधिकता होती है; किन्तु नौ का पहाड़ा है, जिसमें एक रसता रहती है। जिस तरह नौ का पहाड़ा एकरस रहता है, उसी तरह राम एकरस रहता है। कौन राम-रमन्ति रामः, जो सबमें रमण करता है। इसलिए-‘राम ब्रह्म रूप परमारथ रूपा। अविगत अलख अनादि अनूपा।।’ अविगत अर्थात् सर्वव्यापी, अलख-इन आँखों से नहीं देखने योग्य, अनादि-जिसका आदि नहीं और अनूपा-जिसकी उपमा नहीं हो।
“ निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै ।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै ।।
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनीस हरिहि बखानहीं ।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं ।।”
(रामचरितमानस)
यदि किसी कुशल स्वर्णकार के पास हम स्वर्ण हार बेचने के लिए जाएँ, तो वह हार की नहीं स्वर्ण की कीमत देगा; क्योंकि स्वर्णकार की दृष्टि में हार नहीं रहता, स्वर्ण रहता है। इसी तरह जो आत्मज्ञ है, तत्त्वज्ञ है, उनकी दृष्टि शरीर पर नहीं रहती, शरीरी पर रहती है। एक जेवर को तोड़कर हम दूसरा जेवर भी बना सकते हैं, पर स्वर्ण एक ही रहता है, उसमें परिवर्तन नहीं होता है। इसी तरह शरीर कितने भी क्यों न हो जाय, पर उसमें जो निवास करनेवाली आत्मा है, वह एक ही है। सभी सन्तों ने उस एक को ही पकड़ने के लिए कहा है। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
जो उसको स्वरूपतः जान लेता है, उसे कुछ जानने की जरूरत नहीं रह जाती। गोस्वामीजी कहते हैं-
“ राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।”
रूप, सरूप और स्वरूप; ये तीन तत्त्व हैं। इन स्थूल आँखों से हम जो कुछ भी देखते हैं वह है-रूप। रूप के सहित जो है वह है-सरूप और जो निज रूप है वह है-स्वरूप। उसी सम्बन्ध में गोस्वामीजी ने कहा-‘राम स्वरूप तुम्हार’ स्वरूप यानी निज रूप कैसा हाता है? उसका उत्तर वे किस तरह देते हैं-
“ अनुराग सों निजरूप जो जग तें विलच्छन देखिये ।
संतोष सम शीतल सदा दम देहवन्त न लेखिये ।।
निर्मल निरामय एकरस तेहि हरस शोक न व्यापई ।
त्रयलोक पावन सो सदा जाकी दसा ऐसी भाई ।।”
(विनय पत्रिका)
कुछ वर्ष पहले मैं दिल्ली (अॅाल इण्डिया मेडिकल इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस) होस्पिटल में कान दिखलाने गया था। डॉक्टर ने कान देखा और जो दवा आदि बतानी थी, उन्होंने बता दी। पश्चात् डॉक्टर साहब ने मुझसे पूछा-‘बाबा ! आप किनकी उपासना करते हैं?’ मैंने कहा, ‘एक ईश्वर की।’ उन्होंने कहा-‘मैं भी पूजा करता हूँ।’ मैंने पूछा, ‘आप किनकी पूजा करते हैं?’ उन्होंने कहा-‘मैं भगवान राम की पूजा करता हूँ, कृष्णजी की पूजा करता हूँ, हनुमानजी की पूजा करता हूँ, देवीजी की पूजा करता हूँ, गणेशजी की पूजा करता हूँ-----।’ इस प्रकार कई देवताओं के नाम बतलाकर उन्होंने पूछा-‘बाबा! ठीक करता हूँ न?’ मैंने उत्तर दिया-‘पूजा करते हैं, यह तो ठीक करते हैं; लेकिन बहुदेव उपासी बने हैं, यह ठीक नहीं है। किसी एक देव को पकड़िए।’ उन्होंने कहा-‘बाबा! एक को पकड़ने से और सब देवता नाराज हो जाएँगे तब? मैंने कहा-‘सबमें जो बड़ा हो, आप उसको पकड़ लीजिए।’ उन्होंने कहा-‘बाबा किनको बड़ा कहूँ, किनको छोटा कहूँ?’ मैंने कहा, ‘सुनिए नाराज होने की बात जहाँ तक है, तो हमलोगों के वैदिक धर्म में 33 कोटि देवता है। मान लीजिए आपने समय निकालकर एक कोटि देवता की पूजा कर ली, तो भी 32 कोटि देवता आपसे नाराज रहेंगे। आजकल तो वोट का जमाना है। एक कोटि आपके तरफ रहेंगे और बत्तीस कोटि दूसरी तरफ, तो आपकी हार होगी या जीत, सो समझिये। (श्रोताओं की ओर से श्रीसदगुरु महाराज की जय-ध्वनि) उन्होंने कहा-‘हाँ बाबा! आप कहते तो ठीक है, लेकिन थोड़ी-थोड़ी सबकी पूजा अच्छी है।’ मैंने देखा भीतर से उनका मन मान नहीं रहा है, तो मैंने कहा-‘डॉक्टर साहब! एक बात बताइए, जिस समय आपने एम0बी0बी0एस0 पास किया था, उस समय आप कितने रोगों की चिकित्सा करते थे?’ उन्होंने कहा शरीर में जितने रोग है उन सभी रोगों की मै चिकित्सा करता था। मैंने पूछा-‘और आजकल ?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘आजकल मै सिर्फ कान की चिकित्सा करता हूँ।’ मैंने पूछा-‘आप आज बड़े डाकटर है या उस समय थे?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘उस समय मैं साधारण एम0बी0बी0एस0 डॉक्टर था और आज तो कान का विशेषज्ञ, बड़ा डॉक्टर बन गया हूँ।’ मैंने कहा-‘ठीक उसी तरह बहुदेव उपासी बने रहेंगे, तबतक साधारण भक्त रहेंगे और जब एक ईश्वर को पकड़ियेगा, तो बड़े भक्त बन जाएँगें। (श्रोताओं की ओर से श्रीसदगुरु महाराज की जय-ध्वनि)
“ एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय ।
जो गहि सेवै मूल को फूलै फलै अघाय ।।
अक्षय पुरुष एक पेड़ है, निरंजन वाकि डार ।
तिरदेवा साखा भये, पात भये संसार ।।”
उसी एक ईश्वर को पकड़ने के लिए संतमत बतलाता है। उस ईश्वर-राम के सम्बन्ध में सन्त कबीर साहब कहते हैं-
“ आवै जाय सो माया साधो, आवै जाय सो माया ।
है प्रतिपल काल नहीं वाको, ना कहु गया न आया ।।”
वह परमात्मा राम कहीं आता और कहीं जाता नहीं है। जो सर्वत्र है ही, वह कहाँ जाएगा और कहाँ से आएगा? जैसे आकाश कहीं से आता और जाता नहीं, उसी प्रकार ‘राम’ हैं। पुनः कबीर साहब कहते है-
“ राम निरंजन न्यारा रे, अंजन सकल पसारा रे ।।
अंजन उतपति वो ॐकार, अंजन मांड्या सब विस्तार ।
अंजन ब्रह्मा शंकर इंद, अंजन गोपी संगि गोब्यंद ।।
अंजन वाणी अंजन वेद, अंजन कीया नाना भेद ।
अंजन विद्या पाठ पुरान, अंजन फोकट कथहि गियान ।।
अंजन पाती अंजन देव, अंजन की करै अंजन सेव ।
अंजन नाचै अंजन गावै, अंजन भेष अनंत दिखावै ।।
अंजन कहौं कहाँ लग केता, दान पुंनि तप तीरथ जेता ।
कहै कबीर कोइ बिरला जागै, अंजन छाड़ि निरंजन लागै ।।”
अध्यात्म रामायण में लिखा है-भगवान श्रीराम लंका पर विजय प्राप्त कर, सीताजी का उद्धार कर अयोध्या आ गए। श्रीराम राजसिहांसन पर आसीन थे। देव-मुनि लोग स्तुति-प्रार्थना करके चले गए। हनुमानजी हाथ जोड़े वहाँ खड़े थे। भगवान राम कहते हैं-सिते! यह हनुमान हमारा तुम्हारा अनन्य सेवक है, बहुत बड़ा त्यागी है, पाप-रहित और ज्ञान का पात्र है। इसको तुम तत्त्वज्ञान का उपदेश करो। सीताजी बोली-हे हनुमान! ये राम निराकार, निर्विकार हैं। राजा दशरथ के यहाँ जन्म लेना, विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करनी, अहिल्या का उद्धार, करना जनकपुर जाकर सीता के साथ विवाह करना, धनुष भंग करना, बालि का हनन कराना, सुग्रीव के साथ मित्रता करनी, समुद्र पर पुल बँधवाना, लंका पर आक्रमण कर रावण का सवंश संहार करना, सीता का उद्धार करना, पुष्पक विमान से अयोध्या आना; ये सारे-के-सारे काम तो मेरे किए हुए हैं। राम तो अचल है, सुख-दुःख, हानि-लाभ से परे है। उनके नजदीक रहने के कारण सारे-के-सारे कार्य तो मैं सम्पादन करती हूँ; लेकिन अज्ञानी जन ये सारे कर्म राम के ऊपर आरोपित करते हैं। वास्तव में राम न चलते हैं, न फिरते हैं; न हिलते हैं, न डोलते हैं, न खाते हैं, न पीते हैं ; न हँसते हैं, न बोलते हैं; ये तो निर्विकार हैं। योगवाशिष्ठ में यही बात लिखी है, जो कि वशिष्ठजी ने भगवान राम से कही है। अब गुरु नानक देवजी से पूछना चाहेंगे कि राम के विषय में वे क्या कहते हैं-
“ रामो रम रमो सुनि मनु भीजै ।
हरि हरि नामु अम्रितु रसु मीठा, गुरमति सहिजे पीजै ।।
कासट महि जीउ है वसंतरु मथि संजमि काढ़ि कढ़ीजै ।
राम नामु है जोति सबाई ततु गुरमति काढ़ि लईजै ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं कि राम तो सर्वत्र हैं; लेकिन हम देख नहीं पाते हैं। जिस तरह लकड़ी में आग समाहित है, व्यापक है; हम लकड़ी को देखते हैं, आग को नहीं देखते हैं। आग को हम कैसे देखते हैं-जब लकड़ी का हम घर्षन करते हैं। उसी तरह राम हमारे अंदर है। जब ध्यान का घर्षण करेंगे, तो राम के दर्शन होंगे। एक भक्त ने कहा है- “ जिमि दूध के मथन से निकसत है घी जतन से ।
तिमि ध्यान की लगन से परब्रह्म ले निहारा ।।”
मेंहदी में लाली है, दूध में घृत है। हम मेंहदी को तो देखते हैं, लाली को नहीं देखते हैं। दूध को तो देखते हैं, घृत को नहीं देखते हैं। मेंहदी को घिसने से लाली मिलती है और दूध का मंथन करने से घृत मिलता है। उसी तरह ध्यान की मथानी से मंथन करने पर अपने अंदर प्रभु राम के दर्शन होंगे। उपनिषद् में आया है-
“ स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम् ।
ध्यान निर्मथनाभ्यासाद्देव पश्येन्निगूढ़वत् ।।”
अरणि के मथने से अग्नि पैदा होती है। उपनिषद् कहता है-‘स्वदेहमरणिं कृत्वा’ अर्थात् स्वदेह को अरणि बनाओ। प्रश्नोदय होगा स्वदेह कौन-सा है? हमारा यह स्थूल शरीर है, इसके भीतर सूक्ष्म शरीर है, सूक्ष्म शरीर के भीतर कारण शरीर है और कारण के भीतर महाकारण शरीर है; ये चारो जड़ शरीर हैं, स्वदेह नहीं, हम चेतन-स्वरूप हैं। चेतन शरीर में हम रहते हैं। वह चेतन शरीर स्वदेह है, हमारी देह है। जिस शब्द को प्रणव, ओ3म्, स्फोट, उद्गीथ प्रभृति नामों से अभिहित करते हैं, वह चेतन शब्द है। वह शब्द जड़मंडल में पकड़ा नहीं जा सकता है। चेतन मंडल में ही चेतन शब्द को पकड़ सकेंगे। इसलिए चेतन शरीर को नीचे की अरणि और प्रणव को ऊपर की अरणि बतलाया है। चेतन शरीर यानी कैवल्य शरीर में रहकर उस प्रणव नाद को पकड़ सकेंगे। उसी के आधार से सर्वाधार-परम प्रभु परमात्मा तक पहुँच सकेंगे। गुरुदेव के वचन में आया है-
‘सार शब्द ही नाह मिलावै और नहीं कोई ।’
योगशास्त्र में सार-शब्द को प्रणव कहा गया है- ‘तत्त्ववाचकः प्रणवः।’
परम प्रभु परमात्मा वाच्य है और उनका वाचक है-प्रणव। जो वाचक को पकड़ता है, वह वाच्य से जा मिलता है। हम प्रणव के स्वरूप को जानें; क्योंकि प्रणव को जानकर ही हम परम प्रभु परमात्मा को जान सकते हैं। उस प्रणव को हम कैसे जानेंगे? इसके लिए संत सदगुरु से सद्युक्ति जानकर तदनुसार साधन-भजन करें। परम कल्याण होगा। (श्रोताओं द्वारा श्रीसद्गुरु महाराज की जय-घोष)।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय सन्तमत सत्संग के 88वेँ वार्षिक महाधिवेशन के सुअवसर पर बरारी, भागलपुर (बिहार) में दिनांक 18-4-1999 ई0 के अपराह्णकालीन सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, सितम्बर 1999 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
बात आज की नहीं, एक सौ से अधिक वर्ष पूर्व की है। अमेरिका के शिकागो शहर में विश्व- धर्म-सम्मेलन हुआ था। उसमें विभिन्न देशों के, विभिन्न धर्मों के लोग यत्र-तत्र से एकत्र हुए थे। भारत की ओर से उसमें भाग लेने के लिए मद्रास एक पंडित और स्वामी विवेकानंदजी गए हुए थे। पाश्चात्य देशों के लोग यह समझते थे कि भारत अध्यात्म-ज्ञान से हीन है। वहाँ के लोग मूर्तिपूजक हैं; सिर्फ स्थूल-पूजा जानते हैं। इसलिए उसका जो धर्मग्रंथ हेागा, वह भी अध्यात्म-विद्या से हीन होगा। वहाँ जितने धर्मों के लोग आए थे, सभी के धर्मग्रंथों को ऊपर-नीचे रखकर सजावट की गयी थी। वेद को वे लोग हेय दृष्टि से देखते थे, इसलिए उसे नीचे रखकर उसके ऊपर अन्य धर्मग्रंथों को रखा गया था।
जब स्वामी विवेकानंदजी के बोलने का समय आया, तो पुस्तकों की सजावट पर उन्होंने कहा, ‘पुस्तकों की जो सजावट की गयी है, वह वैसी ही है, जैसी होनी चाहिए। पुस्तकों की यह सजावट बतला रही है कि जितने भी धर्मग्रंथ हैं, सबका मूल वेद है। वेद के आधार पर ही सभी, धर्मग्रंथ टिके हुए हैं। अगर वेद को नीचे से खिसका दिया जाए, तो सारे धर्मग्रंथ लुढ़क जाएँगे। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि।) उसी तरह आपलोग नीचे बैठे हुए हैं और मुझे ऊपर बिठाया है। अगर आपलोग अपना हाथ खिसका लें, तो मैं भी कहाँ लुढ़क जाऊँगा, ठिकाना नहीं!
सज्जनो! संतमत संतों का मत है। यहाँ जाति- पाँति की कोई बात नहीं है। धर्म, मजहब, सम्प्रदाय, रिलिजन (त्मसपहपवद) आदि की कोई बात नहीं है। सभी संतों का जो मत है, वह ‘संतमत’ है। हिन्दू, मुसलमान, जैन, बौद्ध, सिक्ख, ईसाई, पारसी प्रभृति कोई भी हों, सब एक है, मानव मानव एक है। मानव-धर्म एक धर्म है। परमात्मा के दरबार से न हिन्दू आया है, न मुसलमान आया है, न बौद्ध आया है, न सिक्ख आया है। वहाँ से मानव आया है। वही मानव आज विभिन्न धर्मों को ग्रहण करके विभिन्न धर्मावलंबी कहलाता है। लेकिन सभी मानव एक है। एक बड़े अच्छे कामिल फकीर हो गये, जिनका नाम था-दीन दरवेश। उन्होंने कहा-
“ िहन्दू कहै हम बड़े मुसलमान कहै हम ।
एक मूँग दो फाड़ है, कुण ज्यादा कुण कम ।।
कुण ज्यादा कुण कम कभी करियो मत कजिया ।
एक भजत है राम दूजे रहमान से रजिया ।।
कहै ‘दीन दरवेश’ दोई सरिता मिलि सिन्धू ।
सबका मालिक एक है, क्या मुसलमान क्या हिन्दू ।।”
उस एक ही परम प्रभु परमात्मा के हम सभी संतान हैं। उस प्रभु तक कैसे पहुँचा जाय, प्रभु के दर्शन कैसे हो, इसके लिए संतमत बतलाता है। रास्ता का आरंभ कहाँ से होता है? जो जहाँ बैठा रहता है, वह वहाँ से चलता है। इस विशाल पंडाल के अंतर्गत यत्र-तत्र से लोग एकत्र हुए हैं और जहाँ तहाँ बैठे हुए हैं। यहाँ बैठे हुए लोग यदि घर जाना चाहें, तो वे कहाँ से चलेंगे? जो जहाँ बैठे हैं, वे वहाँ से चलेंगे। उसी तरह जीव जब पीव के दर्शन के लिए चलेगा, तो जहाँ वह बैठा है, वहाँ से चलेगा। प्रश्नोदय होता है कि जीव कहाँ है और पीव कहाँ है? मुण्डकोपनिषद् में आया है-
“ एक वृक्ष पै दो पक्षी, अति सख्य भाव से थे रहते ।
खाते एक फलों को थे, और एक बिना खाये हँसते ।।”
एक पेड़ है, उसकी डाल पर दो पक्षी रहते हैं। एक भोक्ता है, वह फल खाता है और दूसरा द्रष्टा है, जो देखता है।
यह शरीर ही वह वृक्ष है। इसपर जीवात्मा और परमात्मारूपी दो पक्षी रहते हैं। जीवात्मा भोक्ता है, इसलिए रोता है और आत्मा द्रष्टा है, इसलिए हँसता है। जीवात्मा और परमात्मा दोनों इसी शरीर में हैं। हम इस शरीर में कहाँ बैठे हुए हैं? ब्रह्मोपनिषद् में लिखा है-जीव जाग्रत् और स्वप्न में पुनः पुनः आता- जाता रहता है। जीव का वासा जाग्रत् में नेत्र में, स्वप्न में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीयावस्था में मस्तक में होता है।
“ जाग्रत्स्वप्ने तथा जीवो गच्छत्यागच्छते पुनः ।
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निं संस्थितम् ।।”
संत दरिया साहब बिहारी ने कहा है-
जानिले जानिले सत्त पहचानिले,
सुरति साँची बसै दीद दाना ।
और संत तुलसी साहब के घटरामायण में है-
“ सत सुरति समझि सिहार साधो,
निरखि नित नैनन रहो ।”
अर्थात जीव का वासा जाग्रतावस्था में आँख में होता है। अतएव आँख से ही चलना है। एक फकीर हुए हाथरस में, उन्होंने कहा-
“ क्यों भटकता फिर रहा तू, ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए ।।”
दिलवर का दीदार चाहते हो, परमात्मा का साक्षात्कार चाहते हो, तो रास्ता शहरग में है। ‘शहरग’ कहते हैं ‘सुषुम्ना’ को। वह सुषुम्ना कहाँ है? हमारे शरीर के अंदर है। हमारे शरीर में 72 करोड़ नाड़ियाँ हैं, जिनमें एक सौ एक नाड़ियाँ मुख्य हैं। उन एक सौ एक नाड़ियों में नौ नाड़ियाँ मुख्य हैं। उन नौ नाड़ियों में तीन मुख्य हैं और उन तीन नाड़ियों में एक नाड़ी सुषुम्ना प्रमुख है। योगशिखोपनिषद् में आया है-
“ एकोत्तरं नाडिशतं तासां मध्ये परा स्मृता ।
सुषुम्ना तु परे लीना विरजा ब्रह्मरूपिणी ।।”
इड़ा तमोगुणी और पिंगला रजोगुणी नाड़ी है। इन दोनों के मध्य में सुषुम्ना सतोगुणी नाड़ी है। एक बंगाली महात्मा हुए पंचानन भट्टाचार्य। उन्होंने कहा है-इड़ा बायीं ओर रहती है और पिंगला दायीं ओर। ये दोनों नाड़ियाँ क्रमशः तमोगुणी और रजोगुणी हैं। उन दोनों के बीच में सुषुम्ना नाड़ी है, जो सत्वगुणी है। योगशिखोपनिषद् में लिखा है-
“ इडा तिष्ठति वामेन पिंगला दक्षिणेन तु ।
तयोर्मध्ये परं स्थानं यस्तद्वेद स वेदवित् ।।”
अर्थात् इड़ा बाईं ओर रहती है और पिंगला दाहिनी ओर। उन दोनों के बीच में श्रेष्ठ जो स्थान है (सुषुम्ना), उसको जो जानता है, वही वेदज्ञ है, ज्ञानी है। वे ही आगे चलकर आत्मज्ञानी होंगे। जिनको सुषुम्ना का पता नहीं है, आज्ञाचक्र का पता नहीं है, उनको कभी मुक्ति नहीं मिल सकती है; क्योंकि मुक्ति का रास्ता यही है। भगवान शंकर कहते हैं-
“ वामदक्षे निरुन्धन्ति प्रविशन्ति सुषुम्नया ।
ब्रह्मरन्ध्रं प्रविश्यान्तस्ते यान्ति परमां गतिम् ।।”
अर्थ-(जो) बाएँ और दाहिने को रोककर सुषुम्ना में प्रवेश करते हैं, वे ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश कर मुक्ति को प्राप्त करते हैं। जिस रंध्र से ब्रह्म के पास जाना होता है। वह ब्रह्मरंध्र है, वही आज्ञाचक्र है। इसको आधार चक्र, सुषुम्ना और दशम द्वार भी कहते हैं। जबतक लोग नौ द्वार में रहते हैं, तबतक दुःखमना और जब दशवें द्वार में जाते हैं, तब मिल जाता है सुखमना अर्थात् हम सुख में चले जाते हैं। जबतक हम नौ द्वार में रहेंगे, तबतक अंधकार में रहेंगे। अंधकार में रहने से क्या होता है, इसपर राधा स्वामी साहब कहते हैं-
“ इस नगरी में तिमिर समाना, भूल भरम हरबार ।
खोज करो अंतर उजियारी, छोड़ चलो नौ द्वार ।।”
जबतक अंधकार में रहेंगे, तबतक हमसे कितनी बार भूलें होंगी, ठिकान नहीं। इसलिए दसवें द्वार की खोज करो। एक दिन मैं बैठा हुआ था। एक व्यक्ति टेपरिकार्डर बजाते हुए रास्ते से चला जा रहा था-
श्याम तुम आना एक बार ।
पहले रहा एक दुर्योधन अब तो हुए हजार ।
श्याम तुम आना एक बार ।
पहले काला एक नाग था अब काला बाजार ।
श्याम तुम आना एक बार ।
आज हर जगह कालाबाजार का धंधा फैला हुआ है। कारण एक ही है कि दशवें द्वार का पता नहीं है।
एक साधु बाबा जंगल की एक झोपड़ी में रहते थे। उस देश का राजा जंगल में शिकार करने गया। वह घूमते हुए साधु की कुटिया के पास पहुँचा। उसने देखा, साधु बाबा के पास एक झोपड़ी के सिवा कुछ भी नहीं है। सोचने लगा, बाबा क्या खाते होंगे, कैसे रहते होंगे आदि। लौटकर वह राजमहल आया और अपने सिपाही को कुछ पैसे देकर बाबा के पास भेज दिया और कहा कि बाबा से कह देना राजा ने ये पैसे दिये हैं, इनसे आप अपने लिए व्यवस्था कर लें। सिपाही साधु बाबा के पास जाकर राजा को मन्तव्य बताया। साधु बाबा ने सिपाही से कहा कि राजा को पैसे वापस कर देना और कह देना कि ये पैसे किसी गरीब को दे देना। सिपाही ने जाकर राजा से सारी बातें कहीं। राजा के मन में हुआ कि कुछ कम पैसे थे, इसलिए बाबा ने स्वीकार नहीं किया। राजा ने अपने मंत्री को उससे अधिक पैसे देकर साधु बाबा के पास भेजा। बाबा ने मंत्री को भी वही बात कही कि मुझे पैसे की आवश्यकता नहीं है, किसी गरीब को दे देना। मंत्री जब पैसे लौटाकर लेता आया, तो राजा के मन में हुआ कि इतने कम पैसे से क्या होगा, अधिक पैसे लेकर मैं स्वयं जाऊँगा। राजा ने अपने साथ काफी पैसे लेकर साधु बाबा के पास गया और उनसे कहा कि मैं इस देश का राजा हूँ। आप साधु हैं, वैरागी हैं और मेरे राज्य में रहते हैं। आपको जाड़ा, गर्मी, बरसात में कष्ट होता होगा। ये पैसे आप रख लीजिए और इनसे अपने लिए उत्तम व्यवस्था कर आराम से रहिये।’ साधु बाबा ने कहा, ‘राजन्! ये पैसे किसी गरीब को दे देना।’ राजा से रहा नहीं गया, उसने उनसे कहा, ‘बाबा! आप कहते हैं, किसी गरीब को दे देना, आपसे अधिक गरीब भी कोई हो सकता है क्या? आपको रहने के लिए घर नहीं, तन पर वस्त्र नहीं, खाने की कोई व्यवस्था नहीं, जंगल में फल-मूल मिलता है, तो खाते हैं, नहीं तो भूखे रहते हैं। आपसे गरीब कौन होगा?’ साधु बाबा ने उत्तर दिया,‘राजन्! तुम मुझको समझ नहीं पाये। मैं राजाओं का भी राजा और बादशाहों का बादशाह हूँ। तुम क्या चाहते हो, बोलो’ राजा ने कहा,‘बाबा! मैं क्या चाहूँगा, मैं तो आपके दुःख से दुःखी हूँ कि आपके रहने, खाने-पीने आदि किसी प्रकार की व्यवस्था नहीं है।’
साधु बाबा ने कहा, ‘उधर देखो!’ राजा देखता है कि भोजन सामगियों की ढेर लगी है। राजा कहता है, ‘बाबा! आप कितनी दूर से जल लाते होंगे।’ बाबा ने कहा,‘उधर देखो।’ राजा देखता है कि दरिया बह रही है, उसमें पानी-ही-पानी है। साधु बाबा ने पूछा, ‘और देखोगे? देखो उस तरफ।’ राजा उस तरफ देखता है, तो चाँदी का पहाड़ था। साधु बाबा ने कहा, ‘अब उस तरफ देखो।’ राजा उस तरफ देखता है, तो सोने का पहाड़ था। साधु बाबा ने कहा,‘अब उस तरफ देखो।’ राजा देखता है कि उस तरफ हीरा, लाल आदि जवाहिरात के पहाड़ हैं। पुनः साधु बाबा ने कहा, ‘मेरे क्या नहीं है, मेरे पास ऐसी जड़ी है कि जितने लोहे को में सटा दूँ, वे सब लोहे सोना हो जाएँगे। तुम अपने पैसे लेकर जाओ, मुझे इसकी जरूरत नहीं है।’ राजा घर तो चला आया, पर रात में उसे नींद नहीं आ रही थी। वह सोचने लगा कि बाबा के पास लोहे को सोना बनाने की जड़ी है, कुछ लोहा ले जाते, तो सोना बनाकर ले आते। ऐसा विचारकर रात में जब सब लोग सो गये, तो कुछ गदहों और खच्चरों पर लोहों को लादकर वह राजा चला जंगल की ओर। साधु बाबा की कुटिया के बाहर कुछ आवाज मालूम पड़ी, साधु बाबा ने पूछा, ‘कौन है?’ राजा ने हाथ जोड़कर कहा, ‘बाबा! मैं वही राजा हूँ, जो दिन में आपके पास आया था।’ साधु ने पूछा, ‘दिन में आये तो ठीक है, पर अभी इतनी रात में क्यों आए?’ राजा ने कहा, ‘बाबा! आपने कहा था कि आपके पास सोना बनानेवाला जड़ी है। आप तो साधु-फकीर हैं, आपको सोने की क्या जरूरत; पर मैं तो राजा हूँ, मुझे सोने की जरूरत होती है। इसीलिए गदहों और खच्चरों पर लादकर कुछ लोहा लाया हूँ। जरा इन्हें सोना बना दीजिए।’ साधु बाबा ने कहा, ‘अरे! तुम तो मेरे लिए कहते थे कि मुझ-सा गरीब कौन होगा? जरा सोचो, अभी रात का समय है, दुनिया सो रही है और तुम जगकर गदहे और खच्चरों पर लोहों को लादकर जंगल में मेरे पास आये हो, तुम्हीं बोलो, मैं गरीब हूँ या तुम गरीब हो?’ राजा बोला, ‘मैं ही गरीब हूँ।’ (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि।)
साधु बाबा ने कहा, ‘अभी सोना नहीं बनाऊँगा, तुम अपने घर जाओ। तुम कुछ दिनों तक मेरी खिदमत कर। तेरी सेवा से जब मैं प्रसन्न होऊँगा, तब सोना बना दूँगा।’ राजा ने सोचा, ‘बाबा की थोड़ी सेवा ही सही; किन्तु ढेर-का-ढेर सोना तो बन जाएगा। वह साधु बाबा की सेवा में रह गया। जब कुछ दिनों तक सेवा में रहा, तो साधु बाबा ने उसे योग की कुछ क्रिया बतला दी। राजा मनोयोग पूर्वक क्रिया करने लग गया। उसकी साधना में कुछ उन्नति हो गयी। साधु बाबा ने देखा कि राजा अब स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश कर गया है, तो उसको बुलाया और कहा, ‘राजन्! मैंने तुमसे कहा था कि जब तुम्हारी सेवा से मैं प्रसन्न हो जाऊँगा, तो तुम्हारे लोहे को सोना बना दूँगा। तुमने मेरी सेवा के साथ-साथ साधना भी की है। अब जितना सोना लाना है, ले आओ, मैं सोना बना दूँगा।’ राजा ने कहा, ‘गुरुदेव! आपकी कृपा से अब मैं खुद ही जान गया हूँ कि सोना कैसे बनाया जाता है। अतएव आपसे सोना बनवाने की आवश्यकता नहीं रही।
वह कौन-सी विद्या है कि एक राजा भी एक फकीर की खिदमत करता है? वह नौ-द्वार की विद्या नहीं है, दशम द्वार की विद्या है। जो दशम द्वार में प्रवेश करता है, वह इन्द्रियजयी हो जाता है, इन्द्रियों के बहाव में नहीं बहता है। विषयानंद को छोड़कर आत्मानंद की ओर बढ़ता है। वह आनंद ऐसा है कि कभी अंत होता नहीं है।
“ आनन्दे आनन्द बाड़े प्रतिक्षण ।
दशेन्द्रिय थाके शून्य ते बंधन ।
रिपुचय पराजय सकलि आनंदमय ।
अनुभव मात्र रय आर पाय सब लय ।
जेमन जीवने जीवन थाके ना ।”
योगशिखोपनिषद् में लिखा है, ‘जो सुषुम्ना में प्रवेश करते हैं, तो चन्द्र-सूर्य लय हो जाते हैं।
‘सुषुम्नायां प्रवेशेन चन्द्रसूर्यो लयं गतौ ।’
यह सूर्य और चन्द्र का होना क्या है? ये संतों के सांकेतिक शब्द हैं। यह सूर्य और चन्द्र कहाँ हैं, उसका पता संत कबीर साहब बतलाते हैं-
“ गगन की ओट निशाना है ।
दहिने सूर्य चन्द्रमा बायें, तिनके बीच छिपाना है ।।”
हमलोगों की जो दृष्टिधारें हैं, दायीं धार उष्ण और बायीं धार शीत हैं। दृष्टि की दोनों धाराएँ समानान्तर रेखाएँ हैं; किन्तु गुरु की कृपा से क्रिया विशेष द्वारा समानान्तर रेखाओं को मिलाकर एक किया जाता है। जहाँ दृष्टि की दोनों धारें मिलकर एक हो जाती हैं, वहाँ चन्द्र-सूर्य लय हो जाते हैं-मिलकर एक हो जाते हैं। संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ चन्द सूरज सुन संजम कीना ,
इंगल पिंगल पट पौरी ।”
इड़ा और पिंगला को मिलाना ही दायीं-बायीं धार को मिलाना है और चंद्र-सूर्य को मिलाना है। हमारे गुरु महाराज कहते हैं-
“ पिंगल दहिन गंग सूर्य, इंगल चंद जमन बाईं ।
सरस्वति सुषमन बीच, चेतन जलधार नाईं ।।”
इसी विषय को हम गुरु नानकदेवजी महाराज की वाणी में इस प्रकार पाते हैं-
“ दिन महि रैणि रैणि महि दीनी ,
अरु उसन सीति विधि सोई ।
ताकि मति गति अवरु न जानै ,
गुरु बिन समझ न होई ।।”
‘दिन महि रैणि’-दिन में रात करो और ‘रैणि महि दीनी’ रात में दिन करो। ‘उसन सीति विधि सोई’-यह उष्ण और शीत की विधि है। निगेटिव और पोजिटिव को मिलाकर एक करने की यह विधि है। लेकिन इस विधि को सब कोई नहीं जानते हैं; क्योंकि ‘गुरु बिन समझ न होई’-जबतक सच्चे सद्गुरु नहीं मिलेंगे, इसका भेद नहीं मिलेगा।
इस तरह की बातें कुरानशरीफ में भी है; लेकिन अलंकारिक भाषा में होने के कारण सर्व साधारण के लिए बोधगम्य नहीं है। उसमें लिखा है-‘इब्राहिम ने अपने पिता से कहा-----------देखते-देखते उनपर रात छा गयी, अँधेरा हो गया। अँधेरा होने के बाद देखता है कि एक तारा निकल आया। इब्राहिम कहता है-यह मेरा प्रभु है। देखते-देखते वह तारा विलीन हो जाता है, चन्द्रमा उदय हो आता है। इब्राहिम कहता है, ‘वह मेरा प्रभु नहीं था, मेरा प्रभु यह है।’ देखते-देखते चन्द्रमा विलीन हो जाता है और सूर्य निकल आता है। इब्राहिम कहता है, नहीं! जो बदलनेवाला है, वह मेरा प्रभु नहीं है। अब सूर्य-आफताब निकल आया है, यह मेरा प्रभु है---- आदि।
जो सगलेनसीरा यानी दृष्टि-साधन की क्रिया करते हैं, वे अपने अंदर ऐसा देखते हैं। महर्षि मेँहीँ- पदावली में है-
“ छट छट छट-छट बिजली छटकै ,
भोर का तारा दिखाता है ।
चन्दा उगत उदय हो रविहू ,
धूर शब्द मिल जाता है ।।”
हजरत मूसा ने अपने शिष्यों से कहा था कि मैं तबतक सफर करता रहूँगा, जबतक दो दरिया मिल नहीं जाएगी। मूसा सफर करता रहा, करते-करते दो दरिया निकल मिल गयी और उससे एक मछली निकलकर आगे चली गयी।
ये दो दरिया और मछली क्या हैं? यह बाहर दुनिया की दरिय ओर बाहर की मछली नहीं है। इड़ा और पिंगला-गंगा और यमुना नदी है। ये दोनों धारें जहाँ जाकर मिलती हैं, तो सुरत आगे बढ़ती है। सुरत का आगे बढ़ना ही दरिया से मछली का आगे निकलना है। मछली के संदर्भ में हमारे गुरु महाराज कहते हैं-
“ सुखमन के झीनानाल से अमृत की धारा बही रही ।
मीन सुरत धार धर भाठा से सीरा चढ़ि रही ।।”
मीन कहते हैं-मछली को। अब संत कबीर साहब की वाणी सुनिये, वे क्या कहते हैं। जो कोई अंतस्साधना करते हैं, तो वे अंतर्ज्योति और अंतर्नाद को प्राप्त करते हैं। उन्हीं को वर्णित मछली का सही ज्ञान होता है।
“ विमल विमल अनहद धुनि बाजै ,
सुनत बने जाको ध्यान लगे ।।
सिंगी नाद संख धुनि बाजै ,
अबुझा मन जहाँ केलि करे ।
दह की मछली गगन चढ़ि गाजै ,
बरसत अमी रस ताल भरे ।।”
कबीर साहब यहाँ मछली की चर्चा करते हैं और कहते हैं-‘दह की मछली गगन चढ़ि गाजै’ अर्थात् पानी में रहनेवाली मछली आकाश में विचरण करती है। जिनको संतों की सांकेतिक परिभाषिक शब्दों का ज्ञान नहीं है, वे कहेंगे-अरे! मछली दरिया में, समुद्र में चलेगी कि आकाश में उड़ेगी? उत्तर में निवेदन है कि कथित ‘मछली’ पृथ्वीतल पर के जल की मछली नहीं है और न बाह्याकाश की बात कही गयी है। यह अंतराकाश की बात है, जबकि साधक पिंड में गोता लगाकर ब्रह्मांड की सैर करता है। इसके स्पष्टीकरण के लिए संत कबीर साहब की वाणी सुनिये-
“ डुबकी मारी समुँद में, निकसा जाय अकास ।
गगन मंडल में घर किया, हीरा पाया दास ।।”
विचारणीय विषय है। डुबकी लगाते हैं समुद्र में और निकलते हैं आकाश में। यह कैसी बात है? ये संतों की पारिभाषिक शब्द हैं। जो अपने अंदर डुबकी लगाते हैं, तो उनकी सुरत ऊर्ध्वगामी होकर आगे बढ़ती है। तुलसी साहब के वचन में आया है-
“ सहस कँवल दल पार में, मन बुद्धि हिराना हो ।
प्राण पुरुष आगे चले, सोइ करत बखाना हो ।।”
संत गुलाल साहब कहते हैं-
‘उलटि देखो घट में जोति पसार ।’
जो कोई उलटते हैं अर्थात् बहिर्मुख से अंतर्मुख होते हैं, नौ द्वार से दशम द्वार में प्रवेश करते हैं, तो उन्हें अंतःप्रकाश मिलता है।
“ बिनु बाजे तहँ धुनि सब होवै,
विगसि कमल कचनार ।।”
वहाँ कोई बाजा नहीं है; लेकिन सभी प्रकार के बाजों की आवाजें होती हैं। ‘विगसि कमल कचनार’ का तात्पर्य है विभिन्न प्रकार के प्रकाश प्रकाशित होते हैं।
“ पैठि पताल सूर ससि बाँधौ, साधौ त्रिकुटी द्वार ।
गंग जमुन के वारपार बिच, भरतु है अमिय करार ।।”
संत गुलाल साहब कहते हैं-पाताल में पैठकर सूर्य-चन्द्रमा को बाँधो। यह पाताल में पैठना क्या है? यह है अपने अंदर में प्रवेश करना। जो अपने अंदर प्रवेश करते हैं, वे चन्द-सूर्य को एक कर लेते हैं। वही इड़ा-पिंगला है, वही गंगा-यमुना है।
“ इंगला पिंगला सुखमन सोधो, बहत शिखर मुख धार ।
सुरति निरति ले बैठ गगन पर, सहज उठै झनकार ।।
सोहं डोरि मूल गहि बाँधो, मानिक बरत लिलार ।
कह गुलाल सतगुरु बर पायो, भरो है मुक्ति भंडार ।।”
जो कोई अंतस्साधना करता है, वे अंधकार से प्रकाश में जाते हैं। हमलोग पाठ करते हैं-‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’, ‘असतो मा सद्गमय’, ‘मृत्योर्मा अमृतंगमय।’ गंभीरतापूर्वक जरा सोचिये, पाठ करते- करते इतनी उम्र हो गयी; लेकिन क्या कभी भेंट हुई अंधकार के पार-प्रकाश से। संत सूरदासजी महाराज कहते हैं-
“ तेल तूल पावक पुट भरि धरि, बनै न दिया प्रकासत ।
कहत बनाय दीप की बातें, कैसे हो तम नासत ।।”
अँधेरे में कोई बैठा हुआ हो और कहे कि दिया लाओ, बत्ती लाओ, तेल लाओ, माचिस लाओ, तिल्ली घीसो, दिया जलाओ; तो क्या प्रकाश हो जाएगा? अरे! दीप, तेल, बत्ती और माचिस लाइए और उसे जलाइये, तब प्रकाश होगा। केवल कहने से नहीं होगा। उसी तरह हमलोग कहते हैं-तमसो मा ज्योतिर्गमय; ॐ भुर्भुवः तत्सवितुर्वेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् । लेकिन प्रकाश कहाँ? प्रकाश में जो जाने की कला है, उसको जानिये और कीजिए, तब प्रकाश होगा।
ऋषियों ने कितना सुन्दर कहा है-तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय, मृत्यो र्मा अमृतंगमय। तीनों का एक दूसरे से अन्योन्याश्रय संबंध है। जबतक हम तम में रहेंगे, तबतक असत् में रहेंगे और तबतक हम मृत्यु के मुख में रहेंगे। जब तम से प्रकाश में जाएँगे, तबतक असत् में रहेंगे और तबतक हम मृत्यु के मुख में रहेंगे। जब तम से प्रकाश में जाएँगे, तो असत् से सत् में जाएँगे। और मृत्यु के मुख से निकलकर अमृतत्व का लाभ करेंगे।
निश्चित, दृढ़, टलनेवाली नहीं; ऐसी अमृत की धारा अपने अंदर है। वह अमृत प्रकाश और शब्दरूप में सबके अंदर है। गुरु नानकदेव जी महाराज कहते हैं-
“ रिमझिम बरसे अंम्रित धारा,
मनु पीवै सुनि शबदु विचारा ।
अनद विनोद करै दिन राती,
सदा सदा हरि केला जीउ ।।”
अपने अंदर ज्योति और शब्द की चर्चा होती है। यह ज्योति और नाद क्या है? हमारे गुरुदेव कहा करते थे कि जैसे कोई बच्चा अपनी माँ की गोद में जाना चाहे या पिता की गोद में बैठना चाहे तो जैसे ही बच्चा माँ या पिता की गोद की ओर बढ़ता है, वैसे ही उसके माता-पिताजी अपने दोनों हाथों को फैलाकर उसको अपनी गोद में बिठा लेते हैं। उसी तरह जो साधक अपने अंदर-अंदर चलकर प्रभु से मिलना चाहते हैं, परमात्मा की गोद में बैठना चाहते हैं, तो परमात्मा पहले अपना बायाँ हाथ देते हैं, वह है प्रकाश और फिर आगे बढ़ने पर दायाँ हाथ देते हैं, वह है शब्द। जो प्रकाश और शब्द को पकड़ लेता है, वह परमात्मा की गोद में जाकर बैठ जाता है। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि।)
जो परमात्मा की गोद में जाकर बैठ गया, उसको उतारेगा कौन? कोई नहीं उतार सकता। यह अंतः साधना की बात है।
हमारे शरीर में जबतक गर्मी है, नाड़ियाँ चलती हैं, हृदय की धड़कन है, श्वास-प्रश्वास की गति है, तबतक शरीर जीवित है। हृदय की धड़कन और श्वास की गति बंद हो जाए, शरीर की गति समाप्त हो जाए, तो शरीर मृत हो जाएगा। जैसे शरीर में गर्मी और शब्द है, तो शरीर जीवित है; शरीर में गर्मी और शब्द यानी धड़कन नहीं रहे तो शरीर मृत है। उसी तरह जिस धर्म में ज्योति और नाद की साधना है, वह जीवित धर्म और जिसमें ये दोनों नहीं हैं, वह धर्म मृत है।
संतमत का ज्ञान बतलाता है कि अंधकार से प्रकाश में जाओ, प्रकाश से शब्द में जाओ और उस शब्द को पकड़कर आगे बढ़ो।
गुरु नानकदेवजी कहते हैं-‘पंच शब्द धुनकार धुन’। हमारे अंदर पाँच नौबत के पाँच केन्द्रीय शब्द हैं। उस एक-एक केन्द्रीय शब्द को पकड़कर आगे बढ़ो। हमारे गुरुदेव कहते हैं-
“ बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक-एक को ।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।
पंचम बजै धुर घर से, जहाँ आप विराजैं ।
गुरु की कृपा से ‘मेँहीँ’, तहँ पहुँचि खोजना ।।”
स्थूल-सूक्ष्म की जो संधि है, वह पहला केन्द्र है। सूक्ष्म-कारण की संधि दूसरा केन्द्र है। महाकारण- कारण की संधि तीसरा केन्द्र है। महाकारण-कैवल्य की संधि चौथा केन्द्र है। कैवल्य और परम प्रभु परमात्मा के बीच में पाँचवाँ केन्द्र है। एक-एक केन्द्र के एक-एक नौबत हैं। शब्द में अपनी ओर खींचने का गुण होता है। जो स्थूल और सूक्ष्म की संधि पर अपनी दृष्टि को, सुरत को टिकाता है, तो वहाँ उसको सूक्ष्म का केन्द्रीय शब्द सुनायी पड़ता है। उससे खिंचकर वह वहाँ जाता है। सूक्ष्म के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर कारण के केन्द्र पर पहुँचता है, महाकारण के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर कैवल्य के केन्द्र पर जाता है और कैवल्य के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर वह परम प्रभु परमात्मा से मिलकर एकमेक हो जाता है।
यह जीव जहाँ से आया है, उस ओर को उलटना होता है। अर्थात् यह निःशब्द से शब्द में, शब्द से प्रकाश में, प्रकाश से शब्द में आया है। अब इसको अंधकार से प्रकाश में, प्रकाश से शब्द में और शब्द से निःशब्द में पहुँचना है। महर्षि मेँहीँ-पदावली में है-
“ तम प्रकाश अरु शब्द, निशब्द की कोठरी ।
चारो कोठरिया अहइ, अन्दर घट कोट री ।।
तू उतरि पर्यो तम माहि, पीव निःशब्द में ।
यहि तें परि गयो दूर, चलो निःशब्द में ।।
नयन कँवल तम माँझ, से पंथहि धारिये ।
सुनि धुनि जोति निहारि, के पंथ सिधारिये ।।”
जो कोई मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि साधन और नादानुसंधान की साधना करते हैं, वे चलते-चलते अंधकार से प्रकाश में, प्रकाश से शब्द में और शब्द से ‘निशब्दं परमं पदम्’ में जाकर परमात्मा से मिलकर एक हो जाते हैं। इसी को मौलाना रूम के शब्दों में हम कह सकते हैं-
“ खुदा जुदा की एक सूरत नुकता भेद बताता है ।
नुकता ऊपर नुकता नीचे नुकता आता जाता है ।।”
तथा-
“ नुकते के हेर फेर से तुमसे जुदा हुआ ।
नुकता जो धरा सर पर खुद ही खुदा हुआ ।।”
‘खे’ और ‘जिम’ दोनों की आकृति एक-सी होती है; केवल बिन्दा का अंतर होता है। ‘खे’ के ऊपर बिंदा होता है और ‘जिम’ के नीचे बिन्दा होता है। जब ऊपर में बिन्दा होता है, खे से खुदा हो जाता है और जब नीचे बिन्दा होता है, तो ‘जिम’ से जुदा हो जाता है। उसी तरह जब हमारी सुरत नीचे आएगी, तो हम खुदा से जुदा हो जाएँगे और जब अपनी सुरत को सम्हाल करके ऊपर ले जाएँगे। संत कबीर साहब के वचन में है-
“ सुरत फँसी संसार में, ताते पड़िगा दूर ।
सुरत बाँधि सुस्थिर करो, आठो पहर हजूर ।।”
और संत राधास्वामी साहब कहते हैं-
“ सहस कँवल दल त्रिकुटी धाओ ।
भँवर गुफा सतलोक निहार ।
अलख अगम के पार सिधाओ ।
राधास्वामी चरण सम्हार ।।”
हम अपनी फैली हुई दृष्टि धाराओं को-सुरत को समेटें। समेटने को आरंभ आज्ञाचक्र से करें। यह संतमत की साधना है। इसमें बाह्य उपकरण की कोई आवश्यकता नहीं है; इसको सब कोई कर सकते हैं।
भगवान श्रीराम ने अपनी प्रजा को उपदेश देते हुए कहा था-
“ सरल सुखद मारग यह भाई ।
भगति मोरि पुरान श्रुति गाई ।।”
(रामचरितमानस)
यह अंतस्साधना नर-नारी, धनी-गरीब, विद्वान- अविद्वान सबके लिए है, सभी जातियों और सभी देशों के लोगों के लिए है। इस मार्ग पर चलकर सबको अपना परम कल्याण बनाना चाहिए। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन 88वें महाधिवेशन बरारी, भागलपुर-3, बिहार में
दिनांक 19-4-1999 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग के शुभ अवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, नवम्बर+दिसम्बर 1999 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द आदरणीया, माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
आपलोगों को ज्ञात है कि यह संतमत का सत्संग है। संतमत सर्वधर्म समन्वय मत है। इसके द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। यदि कोई पूछे कि इसकी आवश्यकता क्या है, तो गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने इसका बहुत सुन्दर उत्तर दिया है-
“ राकापति षोडस उअहिं, तारागण समुदाय ।
सकल गिरिन्ह दव लाइये, बिनु रवि राति न जाय ।।”
“ ऐसेहि बिनु हरि भजन खगेसा ।
मिटहि न जीवन केर कलेसा ।।”
सोलहो कलाओं से युक्त चन्द्रमा उग जाएँ या सोलह कलाओं से युक्त सोलह चन्द्रमा उदय हो जाएँ, जितने तारे हैं सारे-के-सारे आकाश में निकल आएँ, पृथ्वी पर जितने पर्वत हैं सबमें आग लगा दी जाए; कल्पना कीजिए कितना प्रकाश होगा! किन्तु कितना ही प्रकाश क्यों न हो, जबतक सूर्योदय नहीं होगा, रात का अन्त नहीं होगा। उसी प्रकार जागतिक पद, प्रतिष्ठा, वैभव कितना ही क्यों न मिल जाय, जबतक कोई ईश्वर भक्ति नहीं करेगा, तबतक उसे दुःख से मुक्ति नहीं मिलेगी। इसीलिए संतमत के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। यह ईश्वर-भक्ति अंधभक्ति नहीं, ज्ञान-योग युक्त ईश्वर-भक्ति है। भक्ति क्यों करनी है, कैसे करनी है, किसकी करनी है? जबतक हम यह जानेंगे नहीं, तबतक क्या करेंगे? इसलिए पहले ज्ञान की आवश्यकता है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ जाने बिनु न होहिं परतीती ।
बिनु परतीति होहिं नहिं प्रीती ।।
प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई ।
जिमि खगेस जल कै चिकनाई ।।”
पहले कुछ जानना होता है, उसी को ज्ञान कहते हैं। ज्ञान होने से श्रद्धा उमड़ती है। श्रद्धा बढ़ती है तो सेवा करते हैं। यह है भक्ति। लेकिन भक्ति हम करें पर मन उसमें नहीं रहे, कहीं अन्यत्र घूमता हो तो यह भक्ति नहीं है। भक्ति में मनोयोग भी होना चाहिए। यही है ज्ञान, योग और भक्ति; तीनों का मिश्रित रूप। अगर भक्ति से ज्ञान और योग को हम निकाल दें तो अंधभक्ति हो जाएगी। अंधभक्ति कैसी होती है, इस संबंध में एक दृष्टान्त सुनिये।
एक सज्जन ने एक साधु बाबा को भोजन का निमंत्रण दिया। वैशाख-जेठ का महीना था। बहुत गर्मी पड़ रही थी। साधु बाबा उनके यहाँ भोजन करने के लिए आए। थाली परोस दी गई। साधु बाबा भोजन करने और गृहपति उनको पंखा झलने लग गए। संयोग से तभी एक बुढ़िया पहुँचती है। वह देखती है कि साधु बाबा को वे सज्जन भोजन करा रहे हैं और अपने से पंखा झल रहे हैं। वह बेचारी गरीबनी बुढ़िया मन-ही-मन कहने लगी हे भगवान! हमको भी योग्यता दो कि हम भी साधु-भोजन करावें और पंखा झलें। अगहन-पूस का महीना आया, धान कटने लग गया। बेचारी कहीं से धान काटकर लाई और चूड़ा कूटकर ठिकाने से रखा। माघ का महीना आ गया। एक दिन उसने साधु बाबा को भोजन का निमंत्रण दिया। सारी व्यवस्था करते-करते शाम हो गई। साधु बाबा के आते-आते कुछ रात बीत गई। माघ का महीना, जाड़े की रात और बेचारी बुढ़िया साधु बाबा के सामने चूड़ा-दही परोस देती है। जब साधु बाबा भोजन करने लग गए तो वह पंखा झलने लग गई। साधु बाबा ने कहा-‘मैया! पंखा नहीं झलो, ठंढ लगती है।’ बुढ़िया कहती है-‘बाबा! वह धनी आदमी था, पंखा झलता था तो आपको अच्छा लगता था। मैं गरीबनी हूँ तो मेरा पंखा झलना आपको अच्छा नहीं लगता?’ साधु बाबा ने कहा-‘मैया! वह गर्मी का दिन था, यह तो माघ की रात है। पंखा झलने से कष्ट होता है।’ इसपर बुढ़िया कहती है-‘बाबा! आपको कुछ भी हो, मैं अपनी भक्ति छोड़ नहीं सकती।’
यह अंधभक्ति है। इसीलिए भगवान शंकर ने बह्माजी से कहा था-
“ योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः ।
योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।।
तस्माज्ज्ञानं च योंग च मुमुक्षुर्द्दढमभ्यसेत् ।।”
ज्ञानहीन योग और योगहीन ज्ञान मोक्षप्रद नहीं हो सकता। इसलिए मुमुक्षु को ज्ञान और योग; दोनों का आलंबन लेना चाहिए। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू।
जहँ नहिं राम प्रेम परधानू।।”
वह ज्ञान अज्ञान है, वह योग कुयोग है, जहाँ राम की भक्ति नहीं है। ज्ञान, योग और भक्ति; तीनों की आवश्यकता है। चिड़िया आकाश में उड़ती है तो उसे पर, पूँछ और पग तीनों चाहिए। तीनों में से किसी एक की कमी से चिड़िया आकाश में उड़ नहीं सकती। उसी तरह ज्ञान, योग और भक्ति; इन तीनों मे से किसी से हीन होने पर अन्तराकाश में गमन नहीं हो सकता। आवश्यकता तीनों की है। भले ही कोई ज्ञान की, कोई योग की और कोई भक्ति की प्रधानता देते हैं, पर यह बात दूसरी है।
आचार्य विनोबा भावे थे। उनके दादाजी को मिठाई खाने की बहुत आदत थी। विनोबाजी की दादीजी उन्हें मिठाइयाँ बनाकर खिलाती थीं। जब भी वे मिठाई खाते तो कहते कि चीनी की मात्र कुछ कम है। विनोबाजी की दादीजी ने मिठाई में चीनी की मात्र बढ़ा दी। खाते ही वे बोले-‘आज की मिठाई अच्छी बनी है, पर थोड़ी चीनी और मिला दिया करो।’ अगली बार और चीनी मिलाई। उन्होंने जब खाया तो बोले-‘मिठाई पहले से मीठी बनी है, पर कुछ और चीनी मिला देती तो और भी अच्छा होता।’ विनोबाजी की दादीजी ने सोचा कि मैं चीनी की मात्र बढ़ाती जाती हूँ और ये कहते हैं कि चीनी कुछ कम है। परेशान होकर उसने सिर्फ चीनी की ही मिठाई बनाई। उसमें कुछ भी मिलाया नहीं। इस बार जब वे मिठाई खाने लग गए तो कहते हैं-‘सब दिनों से आज तुमने अच्छी मिठाई बनाई है, पर तुमने थोड़ी कंजूसी कर ही दी। थोड़ी चीनी और मिला देती तो क्या होता?’ (श्रोताओं की ओर से सद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि) इसपर विनोबाजी की दादी ने जवाब दिया। ‘इसमें और चीनी मैं कहाँ से मिलाऊँ, ये तो सारी-की-सारी चीनी ही है।’
इसी तरह ज्ञान, योग और भक्ति में लोग अपनी रुचि के अनुसार किसी एक की प्रधानता देते हैं; लेकिन तीनों समान रूप से आवश्यक है।
अभी आपलोगों ने नवधा भक्ति का पाठ सुना है। भक्ति किसको कहते हैं? ‘भज्’ धातु में ‘त्तफ़न्’ प्रत्यय लगाने से ‘भक्ति’ शब्द बनता है, जिसका अर्थ होता है-सेवा। कोई भूखा है, उसे भोजन करा दिया; कोई प्यासा है, उसे पानी पिला दिया; कोई बीमार है, उसकी दवाई करा दी; किसी की आवश्यकता की जो हम पूर्ति करते हैं, वह उसकी सेवा कहलाती है। लेकिन जहाँ पर ईश्वर-भक्ति की बात है तो ईश्वर को क्या अभाव है, उन्हें क्या आवश्यकता है कि हम उसकी पूर्ति करेंगे और उनकी सेवा होगी?
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’-मैं अपने भक्तों की रक्षा करता हूँ। कुरआन-शरीफ के अलबकरा में लिखा है-‘जो अल्लाह पर ईमान लाते हैं, अल्लाह उसकी रक्षा करते हैं, सहायता करते हैं और उसे अंधकार से प्रकाश में लाते हैं।’ ईसा मसीह ने कहा है कि तुम्हारा पिता जानता है कि तुम्हारी क्या आवश्यकता है। परमात्मा सबकी जरूरतों को देखता है। जो दुनिया की सेवा करता है, उस ईश्वर की हम क्या सेवा करेंगे?
हम गंगा सेवन करते हैं तो क्या गंगाजी का पैर दबाते हैं या उसको कुछ खिलाते-पिलाते हैं, क्या करते हैं? गंगाजी का जल पीते हैं, उसमें स्नान करते हैं, उसकी हवा में घूमते-फिरते है; यह गंगा सेवन है। औषधि को हम खा लेते हैं; यह औषधि सेवन है। जो श्रद्धालु भक्त हैं, वे अपने घर से पैदल ही देवघर जाते हैं। देवघर जाना शिवजी की सेवा है। उसी तरह जो हमारे प्रभु हैं, हम उनके पास जाएँगे, यही उनकी सेवा होगी। कैसे वहाँ जाएँगे, क्या उपाय है, यही बतलाया गया है, नवधा-भक्ति में। कहते हैं-
‘प्रथम भगति संतन कर संगा।’
भगवान श्रीराम यह नहीं कहते कि ‘प्रथम भगति भगवान कर संगा।’ कहते हैं-‘सन्तन कर संगा।’ संत कैसे होते हैं? किसी ने यही प्रश्न रामकृष्ण परमहंसजी से पूछा था। उन्होंने उत्तर दिया था-अरे! आलू-बैगन की सब्जी कभी खाए हो, कितना मुलायम होता है। उसी तरह साधु का हृदय बहुत मुलायम होता है। उसी तरह साधु का हृदय बहुत मुलायम होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी रामचरितमानस में कहते है-
“ संत हृदय नवनीत समाना ।
कहा कविन्ह पै कहइ न जाना ।।
निज परिताप द्रवइ नवनीता ।
पर दुःख द्रवइ संत सुपुनीता ।।”
कवियों ने संतो के हृदय की उपमा मक्खन से दी है, लेकिन यह उपमा सटीक नहीं है; क्योंकि मक्खन तो अपनी गर्मी पाकर पिघलता है, पर संतजन दूसरों के दुःख से दुःखी होकर पिघलते हैं।
प्रभु ईसा मसीह को क्रॉस पर लटका दिया गया। यह उनके जीवन की अंतिम घड़ी थी। वे प्रार्थना करते हैं-‘ऐ मेरे ईश्वर! जो मेरे साथ इस तरह का व्यवहार कर रहे हैं, वे नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं। वे अज्ञानी हैं, इसलिए उन अज्ञानियों के अपराध को तुम क्षमा करना। क्रॉस पर लटके हुए हैं और अपने ही हत्यारों के लिए प्रभु से प्रार्थना करते हैं।
स्वामी दयानंदजी महाराज के रसोइया ने उन्हें दूध में चीनी की जगह सीसे का बुरादा मिलाकर पिला दिया। जब सीसा चुभने लग गया तो वे समझ गए; कहा-‘प्रभु यह तुम्हारी ही मौज है।’ उनका नाम था स्वामी दयानंद, दया करने में ही वे आनंद मानते थे। रसोइया को बुलाकर कहा-‘देखो, जो मुझमें श्रद्धा रखनेवाले हैं, उन्हें अगर मालूम हो गया कि तुमने मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया है, तो तुम्हारी जान नहीं बचेगी। इसलिए ये पैसे लो और जल्दी से भाग जाओ। देखिये, संत का हृदय कैसा होता है।
“ संत विटप सरिता गिरि धरनी ।
परहित हेतु सबन्हि कै करनी ।।”
संतजन सामान्यजन की भाँति स्त्री-परिवार, भाई-बंधु के लिए नहीं मरते। उनका विशाल हृदय होता है। उनका ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ होता है-समस्त संसार ही उनका कुटुम्ब होता है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
“ विश्व उपकार हित व्यग्रचित सर्वदा,
त्यक्त मद मन्यु कृत पुण्य रासी।
जत्र तिष्ठन्ति तत्रैव अज सर्व हरि,
सहित गच्छन्ति क्षीराब्धि वासी।।”
विश्व कल्याण के लिए जो हमेशा व्यग्र रहते हैं, जो गर्व और क्रोध को त्यागकर बहुत से पुण्य करते हैं, ऐसे संत जहाँ रहते हैं वहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश सब उपस्थित होते हैं।
इसीलिए भगवान श्रीराम प्रथम भक्ति संतों का संग बतलाते हैं। प्रथम भक्ति के बाद भगवान श्रीराम कहते हैं-दूसरि रति मम कथा प्रसंगा। संत जो कहें उसको प्रेमपूर्वक मन देकर सुनें। ऐसा नहीं कि मन कहीं, तन कहीं, तब लाभ होगा नहीं।
“ सुनि समुझहिं जन मुदित मन, मज्जहि अति अनुराग ।
लहहिं चारि फल अछत तनु, साधु समाज प्रयाग ।।”
अगर संतों के वचनों को हम ठीक से सुनें, उनके आदेश और उपदेश के परिवेश में अपने को रखें तो हमारा भवक्लेश निःशेष होगा।
जब कथा प्रसंग में हमारा प्रेम होगा, तब मन में उत्कंठा होगी कि हम भी भक्ति करें, प्रभु दर्शन करें। लेकिन भक्ति कैसे करें? भगवान श्रीराम कहते हैं-
“ गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।
चौथि भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।।”
गुरु की हम खोज करेंगे। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
“ तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।”
तत्वदर्शी के पास जाओ, प्रणिपात करो, परिप्रश्न करो; वे तुम्हारी जिज्ञासा का समाधान करेंगे। गुरु कहते किसको हैं-
“ गुरु नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोइ ।
ज्ञान मरजान जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोइ ।।
ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहे प्रकास ।
निरगुन कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु तुलसीदास ।।”
जो अज्ञान से ऊपर उठकर ज्ञान के पद में प्रतिष्ठित हैं, तब ज्ञान की बात कहते हैं। अंधकार से परे प्रकाश में प्रतिष्ठित होकर, तब प्रकाश की बात कहते हैं। सगुण से परे निर्गुण में प्रतिष्ठित होकर, तब निर्गुण की बात कहते हैं; वे गुरु हैं। संत पलटू दासजी महाराज कहते हैं-
‘धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव।’
गुरु नानक देवजी महाराज बतलाते है कि गुरु कैसे होते हैं-
“ घर में घरु दिखाइ देह सो सतगुरु परखु सुजाणु ।
पंच सबदु धुनिकार धुनि बाजै सबदु निसाणु ।।”
संत राधास्वामी साहब कहते हैं-
“ गुरु सोइ जो शब्द सनेही ।
शब्द बिना दूसर नहिं सेई ।।
शब्द कमावै सो गुरु पूरा ।
उन चरणन की हो जा धूरा ।।”
जो आन्तरिक शब्दभेदी हैं वैसा गुरु चाहिए। हमारे गुरु महाराज कहते हैं-
“ मुक्ती मारग जानते, साधन करते नित्त ।।
साधन करते नित्त, सत्त चित जग में रहते ।
दिन दिन अधिक विराग, प्रेम सत्संग सों करते ।।
दृढ़ ज्ञान समुझाय, बोध दे कुबुधि को हरते ।
संशय दूर बहाय, सन्तमत स्थिर करते ।।
‘मेँहीँ’ ये गुण धर जोई, गुरु सोई सत्चित्त ।
मुक्ती मारग जानते साधन करते नित्त ।।”
गुरु हम क्यों करें, गुरु की आवश्यकता क्या है? आप माया के पीछे दौड़े जा रहे हैं और माया भागी जा रही है। कहा गया है-‘माया छाया एक सी।’ सूर्य जब पूर्व में उदय होता है, आप उस ओर पीठ कर दीजिए, छाया पश्चिम जाएगी। अब आप उस छाया को पकड़ने के लिए चलिए। जैसे-जैसे आप बढ़ते जाएँगे, छाया भी बढ़ती जाएगी। सूर्य जब पश्चिम तरफ चला जाता है तो पश्चिम तरफ पीठ देकर आप पूरब मुँह हो जाइए, छाया आपके सामने होगी। फिर आप पकड़िये छाया को, नहीं पकड़ सकेंगे। लेकिन जब दोपहर का समय होता है, सूर्य सिर के ऊपर रहता है तो छाया पैर के नीचे आ जाती है। मतलब क्या हुआ? जबतक गुरु को पीठ किए रहेंगे, तबतक माया भी आपसे भागती रहेगी; उसे प्राप्त नहीं कर सकते हैं। जब गुरु को सिर पर रखिएगा तो माया पैर के नीचे आ जाएगी।
“ गुरु को सिर पर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं ।
कह कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहिं ।।”
गुरु क्या नहीं कर सकते? वे हर तरह से रक्षा करते हैं।
बहुत वर्ष पहले की बात है। गुरु महाराज अपने कमरे में सोए हुए थे। अपने कमरे के बगल में उन्होंने मेरे लिए एक कमरा बनवाया था। मैं उसी में सोया हुआ था। रात का समय था; मैं स्वप्न देखने लगा कि गुरुदेव कह रहे हैं-‘चलो गंगा स्नान करने के लिए।’ गुरुदेव के साथ मैं भी गंगा स्नान करने चला गया। गुरु महाराज जल में प्रवेश किए, मैं भी जल में प्रवेश किया। गुरु महाराज ने अपनी लंगोटी धोकर मुझे रखने के लिए दिया। मैं लंगोटी लेकर पानी में डुबा-डुबाकर उसे साफ करने लगा। इसी क्रम में मेरे हाथ से एक लंगोटी पानी में बह गई। मैं उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़ने लगा। तबतक देखता हूँ कि गुरु महाराज ने स्नान करने के लिए पानी में डुबकी लगाई तो ऊपर ही नहीं हुए। मेरा सिर चकरा गया; बहुत चिन्ता और व्याकुलता हो गई कि अब क्या करें? मैं सोचने लगा कि जब गुरुमहाराज ही नहीं रहे तो मैं ही जी कर क्या करूँगा! मैं अपनी जान देने को उद्यत हो गया। (यह तो स्वप्न की बात हुई।) इतने में अपने कमरे से गुरु महाराज आवाज देकर पुकारते हैं-‘संतसेवीजी!’ मैं उठकर दौड़ता हुआ उनके चरणों में गया और प्रणाम किया। गुरु महाराज पूछते हैं-‘क्या स्वप्न देख रहे थे?’ मैं मौन रहा, क्या कहता? मेरे नेत्रें से अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। धन्य हैं गुरुदेव।
जो गुरु शिष्य के स्वप्न के दुःख को नहीं देख सकते, वे जाग्रत के दुःख को कैसे देखेंगे! गुरु में आस्था होनी चाहिए। जो गुरु में आस्था रखते हैं, गुरु उनकी व्यवस्था करते हैं। हमारी दृढ़ आस्था रहेगी तो सुदृढ़ व्यवस्था होगी। संत और सद्गुरु में थोड़ा-सा अंतर होता है कि जो संत होते हैं, उनका उपदेश सामूहिक होता है, पर जो सद्गुरु होते हैं, वे व्यक्तिगत रूप से हमें शिक्षा-दीक्षा देते हैं।
“ गुरु से ज्ञान जो लीजिए, शीश दीजिए दान ।
बहुतक भोंदू बहि गए, राखि जीव अभिमान ।।”
कबीर साहब तो यहाँ तक कह गए कि-
‘शीश दिये जो गुरु मिले, तौ भी सस्ता जान।’
गुरु की सेवा किस तरह करनी चाहिए-‘तीसरि भगति अमान’ मान रहित होकर। ऐसा नहीं कि लोगों को दिखाने के लिए सेवा करो। मान सहित होकर गुरु की सेवा करोगे तो क्या होगा? कबीर साहब कहते हैं-
“ अहं अग्नि हिरदय जरै, गुरु से चाहै मान ।
तिनको जम न्योता दिया, हो हमरे मेहमान ।।”
सेवा-भक्ति में अहंकार को त्यागना आवश्यक है।
“ जाँक जमके कर्ले पूजा। अहंकार हय मने मने ।
तूमी लूकिये ताँरे कर्वे पूजा। जानबे ना रे जगज्जने ।।”
भगवान श्रीराम ने भक्ति की कितनी अच्छी क्रमबद्धता बतलायी है। संत का संग है, सत्संग है, सद्गुरु की सद्शिक्षा-दीक्षा है, फिर स्तुति-प्रार्थना है। उसके बाद कहते हैं-
“ मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा ।
पंचम भजन सो वेद प्रकासा ।”
मंत्र किसको कहते हैं? जिससे मन का त्रण हो, वह है मंत्र। मंत्र का शब्द बहुत लंबा नहीं होना चाहिए। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ मंत्र परम लघु जासु बस, विधि हरि हर सुर सर्व ।
महामत्त गजराज जिमि, बस कर अंकुस खर्व ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी के अनुसार मंत्र परम लघु होना चाहिए। यह नहीं समझना चाहिए कि परमलघु होने से उसकी महिमा भी छोटी-सी होगी।
“ रविमण्डल देखत लघु लागा।
उदय होत त्रिभुवन तम भागा।।”
सूर्य देखने में छोटा लगता है, पर उसके उदय होने से त्रिभुवन प्रकाशित होता है। होम्योपैथी जो दवा होती है, उसमें दवा की मात्र जितनी कम होती है, उसकी पोटेन्सी (शक्ति) उतनी अधिक होती है। उसी तरह मंत्र जितना छोटा होता है, उतना ही अधिक प्रभावशाली होता है। वाचिक जप से उपांशु जप विशेष है, उपांशु से श्वास जप विशेष है और श्वास जप से मानस जप विशेष है। मानस जप सब जपों का प्राण है। इस मानस जप में मानस ध्यान भी सन्निहित होता है; क्योंकि जब हम किसी का नाम लेते हैं तो उसका रूप हमारे सामने आता है। मान लीजिए हमारे चार बेटे हैं तो जिस बेटा का नाम लेकर हम पुकारेंगे, उसी का रूप हमारे सामने आएगा। हम कहेंगे कटहल-कटहल तो आम का रूप हमारे सामने नहीं आएगा। जो नाम लेते हैं, उसी का रूप हमारे सामने आता है। इसलिए जिस इष्ट मंत्र का हम जप कर रहे हैं, उसी का रूप हमारे सामने आएगा। मंत्र जप के साथ मानस ध्यान यह पंचम भक्ति में है।
पहली भक्ति से पाँचवीं तक स्थूल भक्ति है, सगुण साकार भक्ति है। अब आगे बढ़ते हैं सूक्ष्म-सगुण साकार भक्ति की ओर। वह भक्ति कौन-सी है-
“ छठ दमसील बिरति बहु कर्मा।
निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।”
छठी भक्ति है दम की साधना यानी इन्द्रिय निग्रह का स्वभाववाला बनना। हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। ये हमारी दशों इन्द्रियाँ विषय में जा रही हैं। इन दशों को हम रोकें। कैसे रोकेंगे, इसके लिए छठी भक्ति है-दृष्टियोग की क्रिया।
हमारे गुरुदेव कहा करते थे कि रात का समय है, अंधेरा है। कोई व्यक्ति अपने कमरे में सोया हुआ है। पाँच व्यक्ति उसके कमरे में आता है। दो व्यक्ति उसके दोनों हाथों को खींचता है, दो व्यक्ति उसके दोनों टाँगों को खींचता है और एक व्यक्ति उसके सिर को खींचता है। पाँचों व्यक्ति उसको पाँच तरफ खींच रहा है तो उसको क्या बल मालूम पड़ेगा? अगर पाँचो व्यक्ति उसे छोड़ दे और वह उठकर बैठ जाए; अब वह किसी एक को दोनों हाथों से पकड़ ले तो क्या होगा? शरीर का सारा बल हाथ में आ जाएगा। उसी तरह हमारी पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ जो पाँच विषयों में जाती हैं, इसलिए हमें कोई ताकत नहीं मालूम पड़ती है। लेकिन पाँचो विषयों को छोड़कर जब हम दृष्टियोग की क्रिया करते हैं तो समूची चेतन धाराएँ आकर एक स्थान पर मिल जाती हैं, पूर्ण सिमटाव हो जाता है। पूर्ण सिमटाव से ऊर्ध्वगति होती है और अंधकार से प्रकाश में चले जाते हैं। पिण्ड छूट जाता है, ब्रह्माण्ड में चले जाते हैं। पिण्ड छूट जाता है, ब्रह्माण्ड में चले जाते हैं। ये इन्द्रियाँ बाहर ही रह जाती हैं। इस प्रकार दम की साधना हो जाती है। विरति बहु कर्मा-बहुत से कर्मों से विरत रहना चाहिए। फिर भगवान श्रीराम कहते हैं-‘निरत निरंतर सज्जन धर्मा।’ सज्जनों के धर्म में रहो। अर्थात् सज्जन झूठ नहीं बोलते, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार नहीं करते हैं। इन पंच पापों से बचकर रहो, एक ईश्वर पर विश्वास करो, वे अपने अंदर मिलेंगे इसका दृढ़ निश्चय रखो, सत्संग करो, ध्यान करो और गुरु-सेवा करो। इस तरह पाँच विधि कर्म हैं और पाँच निषेध कर्म हैं। इन दश बातों का पालन करो। पंच विधि कर्मों को करना और पंच निषेध कर्मों का त्याग करना, यह सज्जनों का धर्म है।
भगवान श्रीराम ने सातवीं भक्ति बतलाते हुए कहा है-‘सातवँ सम मोहिमय जग देखा।’ जो शम की साधना करते हैं उन्हें, ही समता प्राप्त होती है। जबतक कोई शम की साधना नहीं करे, उसका मनोनिग्रह नहीं होगा, मन वश में नहीं होगा। इसीलिए संत कबीर साहब ने कहा-‘शबद खोजि मन बस करै, सहज जोग है येह।’ जो नादानुसंधान करता है मन उसके वश में हो जाता है। नादविन्दूपनिषद् में आया है-
“ मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः ।
नियामनसमर्थोऽयं निनादो निशिताघ्कुशः ।।”
जिस तरह मदमस्त गजराज जंगल में जाकर कदली-वन को उजाड़ता है और जब महावत आकर उसके माथे पर अंकुश मारता है तो हाथी आगे नहीं बढ़कर पीछे भागता है; उसी तरह हमारा मन मदमस्त गजराज है जो विषय-वाटिका में विचरण करता है। जब इसे शब्द रूपी अंकुश लगता है तो यह विषय से निर्विषय की ओर मुड़ता है। इसीलिए सातवीं भक्ति है-नादानुसंधान। सभी संतों ने नादानुसंधान की साधना की है। ईसा मसीह अपनी नादानुसंधान साधना के बारे में बतलाते हुए कहते हैं-जब मैंने नादानुसंधान की साधना की तो पहले मुझे बिगुल जैसी आवाज मालूम पड़ी। हजरत मुहम्मद साहब गुफा में बैठकर साधना किए थे। सूफी धर्म के प्रवर्तक जिलानी ने भी इसी गुफा में बैठकर नादानुसंधान की साधना की थी। भगवान शंकराचार्य ने कहा है-
“ नादानुसन्धान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महे तत्त्वपदं लयानाम् ।
भवत्प्रसादात् पवनेन साकं विलीयते विष्णुपदे मनो मे ।।”
“ सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा ।
नाद एवानुसन्धेयो योगसाम्राज्यमिच्छता ।।”
भगवान शंकराचार्यजी महाराज कहते हैं कि भगवान शंकर ने मनोलय के सवा लाख साधन बतलाए हैं और कहा कि सबमें नादानुसंधान श्रेष्ठ है।
“ करते अनहद ध्यान के, ब्रह्म रूप होय जाय ।
चरणदास यों कहत है, बाधा सब मिट जाय ।।”
संत चरणदासजी महाराज कहते हैं कि जो नादानुसंधान की साधना करते हैं, उसकी सारी बाधाएँ मिट जाती हैं और वह ब्रह्मरूप हो जाता है।
यह सातवीं भक्ति परमप्रभु परमात्मा से मिला देता है। जो सर्वव्यापी परमात्मा को प्राप्त कर लेता है उसकी दृष्टि सम दृष्टि हो जाती है। वह तब ‘सियाराम मय सब जग जानीं देखता है, ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ देखता है।
छठी भक्ति दृष्टियोग सूक्ष्म-सगुण-साकार उपासना है। सातवीं भक्ति में पहले अनहद नाद की साधना है, जो सूक्ष्मतर-सगुण-निराकार उपासना है। तत्पश्चात् अनाहत नाद की उपासना सूक्ष्मतम- निर्गुण-निराकार उपासना है। साधना की यहाँ समाप्ति हो जाती है और यहाँ पहुँचकर साधक पूर्णता प्राप्त करता है। मुण्डक उपनिषद् में आया है-
“ यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय ।
तथा विद्वान् नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।”
जिस तरह निरंतर बहती हुई नदियाँ अपने नाम-रूप को त्यागकर समुद्र में अस्त हो जाती है, उसी तरह विद्वान नाम-रूप का अवलंब लेकर नाम-रूप से परे अरूपी अनामी परमात्मा में जाकर एक हो जाते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में-
“ सोइ जानइ जेहि देहु जनाई।
जानत तुम्हहिं तुम्हइ होई जाई।।”
यही ज्ञान संतमत का सत्संग बतलाता है। सबको ईश्वर की भक्ति करके अपना कल्याण बनाना चाहिए। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 19-04-1999 ई0 को अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महाधिवेशन, बरारी, भागलपुर (बिहार) में अपराह्नकालीन सत्संग
के सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, फरवरी 2002 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
महात्मा गाँधी ने कहा है-‘ब्रह्मचर्य के सम्पूर्ण पालन का अर्थ ब्रह्मदर्शन है।’ इस दृष्टि से ब्रह्मप्राप्त्यर्थ जितनी आचारणीय चर्याएँ हैं, सभी ब्रह्मचर्य के अन्तर्गत हैं। ब्रह्मचारी का अष्टमैथुन से दूर रहना अत्यावश्यक है।
“ स्मरणं कीर्त्तनं केलि प्रेक्षणं गुह्यभाषणम् ।
संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिया निष्पत्तिरेव च ।।
एतन्मैथुनमष्टांग प्रवदन्ति मनीषिणः ।
विपरीत ब्रह्मचर्य एतत् एवाष्ट लक्षणम् ।।”
(1) नारी के संदर्भ में कहीं पढ़े, सुने या चित्र में अथवा प्रत्यक्ष रूप में देखे हुए का ध्यान, चिन्तन अथवा स्मरण करना, (2) नारियों के रूप, गुण और अंग-प्रत्यंग का वर्णन करना, (3) नारियों के साथ किसी प्रकार का खेल-खेलना अथवा हँसी-मजाक करना (4) काम-भाव से मोहित होकर नारियों की ओर देखना, (5) इसके साथ एकान्त में बातचीत करनी, (6) नारी से मिलने के लिए उत्सुक हो संकल्प लेना, (7) उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना और (8) प्रत्यक्ष रूप से संभोग करना; ये अष्टमैथुन हैं।
सद्ब्रह्मचारी वर्णित अष्टमैथुन में से किसी एक में भी नहीं बरतते। उनका संपूर्ण जीवन संयमित होता है। एक साधक को सर्वेश्वर-साक्षात्कार, हेतु जितने प्रकार के संयमों की आवश्यकता होती है, प्रायः वे सभी संयम ब्रह्मचारी के लिए अपेक्षित होते हैं। ब्रह्मचारी का आहार-विहार, शयन-जागरण प्रभृति सभी दैनन्दिन चर्याएँ संयमित होनी चाहिए। अधिक खानेवाला, बिल्कुल नहीं खानेवाला, अधिक सोनेवाला अथवा बिल्कुल नहीं सोनेवाला व्यक्ति ब्रह्मचारी नहीं बन सकता। युवा ब्रह्मचारी के लिए दिवा-शयन वर्जित है। इसी प्रकार ब्रह्मचारी को ब्राह्ममुहूर्त्त में जागरण कर ब्रह्मचिन्तन करना आवश्यक है।
रसनेन्द्रिय पर विजय प्राप्त किए बिना कोई जननेन्द्रिय पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता। ब्रह्मचारी का शाकाहारी होना आवश्यक है। ‘जैसा खाय अन्न, वैसा होय मन’ के अनुसार ब्रह्मचारी को राजसी और तामसी भोजन से दूर रहकर सात्त्विकाहारी और स्वल्पाहारी होना चाहिए।
श्रीमद्भगवद्गीता में सात्त्विक, राजस और तामस; ये तीन प्रकार के भोजन बतलाए गए हैं। यथा-
“ आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः ।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ।।”
अर्थात् आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ानेवाले एवं रसयुक्त चिकने, स्थिर रहनेवाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय; ऐसे आहार सात्त्विक पुरुषों को प्रिय होते हैं।
“ कटवम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरुक्षविदाहिनः ।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ।।”
अर्थात् कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, अति गरम, तीक्ष्ण, रूखे, दाहकारक एवं दुःख, चिन्ता और रोगों को उत्पन्न करनेवाले आहार राजस पुरुष को प्रिय होते हैं।
“ यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ।।”
अर्थात् जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है।
सात्त्विक भोजन पर महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के विचार पठनीय हैं-‘सात्त्विक आहारों में भी अल्प-अल्प’ छहो स्वाद होते हैं, परन्तु ये जब विशेष मात्र में होते हैं, तब सात्त्विक नहीं रहते हैं। विशेष औंटा हुआ गाय का दूध, भैंस का दूध, मत्स्य, मांस और पक्षी, कछुवा, मछली, मुर्गी आदि सब प्रकार के अण्डजों के अण्डे गुण में बहुत गर्म हैं। ये उत्तेजक और वीर्य-रक्षा में बाधक हैं। ये सात्त्विक आहार नहीं हैं।
सात्त्विक आहारों में भी भोजन की मात्र का संतुलन होना चाहिए; क्योंकि मात्र-भेद से गुण-भेद होता है। यही कारण है कि कन्द, मूल, फलादि आहारी कपि को अतिकामाचारी की संज्ञा से अभिहित किया गया है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ घास पात जो खात है, ताहि सतावै काम ।
हलुवा पूड़ी खाय जो, ताकी जानै राम ।।”
आहार-विहार के विषय में भगवान श्रीकृष्ण के ये विचार हैं-
“ युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।।”
-श्रीमद्भगवद्गीता 6/17
अर्थात् जो मनुष्य आहार-विहार में, दूसरे कार्यों में, सोने-जागने में परिमित रहता है, उसका योग दुःख-भंजक हो जाता है।
ब्रह्मचारी को कामोद्दीपक दृश्य, खान-पान, राग-रंग, संग, नाच-गान, अश्लील साहित्यादि से दूर रहना चाहिए। महात्मा गाँधीजी ने अपनी आत्मकथा में ब्रह्मचर्य व्रत के संबंध में लिखा है-‘यह असि- धारावत् है। इस व्रत में सदा जाग्रत रहने की आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य में शरीररक्षण, बुद्धिरक्षण और आत्म- रक्षण है।’
इसमें संदेह नहीं की ब्रह्मचर्य व्रत क्षुरे की धार पर चलने के सदृश है; क्योंकि ब्रह्मचर्य व्रत-पालन का अर्थ होता है, प्रकृति के विरुद्ध युद्ध करना। कहने की आवश्यकता नहीं, सांसारिक विद्याओं की शिक्षा के लिए विभिन्न प्रकार के विद्यालय होते हैं, किन्तु काम-कला की शिक्षा के लिए कहीं कोई विद्यालय, महाविद्यालय या विश्वविद्यालय नहीं; फिर भी बिना शिक्षा-दीक्षा वा परीक्षा के ही सबके सब गृहस्थ इसमें उत्तीर्ण होते रहते हैं। बुद्धिजीवी प्राणी मानव की तो बात ही क्या, बुद्धिहीन पशु-पक्षी भी इसमें प्रवीण देखे जाते हैं। फिर भी जो कोई इस महाव्रत का पूर्णरूपेण पालन कर पाते हैं, वे महान बन जाते हैं। सूर्य दिन में प्रकाशित होता है और चन्द्रमा रात्रि में, किन्तु ब्रह्मनिष्ठ ब्रह्मचारी अहर्निशि प्रकाशित होते रहते हैं। इतना ही नहीं, अपने ज्ञानालोक से वे जगत को भी आलोकित करते हैं।
ब्रह्मचारी को हम दो श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं-(1) अखंड ब्रह्मचारी और (2) खण्ड ब्रह्मचारी। किसी भी समय किसी भी कारण से जिनका शुक्र क्षरण नहीं हुआ हो, वे अखड ब्रह्मचारी और शास्त्रनुसार केवल संतानोत्पत्ति निमित्त अपनी ऋतुमती पत्नी के साथ सहवास करनेवाले खंड ब्रह्मचारी वा आदर्श ब्रह्मचारी कहलाते हैं।
सच्छास्त्रें में ब्रह्मचर्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है-‘ब्रह्म आचरति स ब्रह्मचारी।’ वेद कहता है-
‘ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत ।’
मानव भी ब्रह्मचर्यरूपी तपस्या से तपकर, देव बनकर मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है। भगवान शंकर कहते हैं-
“ न तपस्तप इत्याहुर्ब्रह्मचर्य तपोत्तमम् ।
ऊधर्वरेता भवेद्यस्तु स देवो न तु मानुषः ।।”
-ज्ञानसंकलिनी तंत्र
अर्थात् तप को तप नहीं कहते हैं, ब्रह्मचर्यानुष्ठान ही तपस्या कहकर विशेष प्रसिद्ध किया गया है। जो मनुष्य ऊर्ध्वरेता हैं, वे देवतुल्य कहे गए हैं; यथा-
‘मरणं विन्दुपातेन जीवनं विन्दु धारणात् ।’
अर्थात् वीर्यनाश मृत्यु और वीर्य धारण जीवन है। वस्तुतः वीर्य अनमोल वस्तु है। यह एक ऐसा रत्न है, जिसको यत्न के साथ सुरक्षित रखना चाहिए। ब्रह्मचर्य पालन से तनबल, मनबल और आत्मबल बढ़ता है। ब्रह्मचारी निर्भीक, सत्साहसी और अप्रमादी होते हैं। उनमें सौन्दर्य, माधुर्य, विलक्षण प्रतिभा, अदम्य उत्साह प्रभृति दैवी गुण कूट-कूटकर भरे रहते हैं। वे ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी और दृढ़निश्चयी होते हैं।
लंकाधिपति दशकंधर-सुत मेघनाद था और अवधपति दशरथ-सुत शेषनाग था। मेघनाद इन्द्रजित था और लक्ष्मणजी इन्द्रियजित थे। यही कारण है कि इन्द्रियजित लक्ष्मण ने इन्द्रजित मेघ को जीता। जिस दशमस्तक की प्रभुता के समक्ष देव-दानव, यक्ष-रक्ष, गन्धर्व-किन्नर, नर प्रभृति सभी नतमस्तक थे, उसके मस्तक को ब्रह्मचारी पवनसुत ने नीचे झुकाया। जिस दशानन के पदाघात से पृथ्वी प्रकम्पित होती थी, जिसकी गर्जना से सुरलोक की गर्भवती सुररमणी का गर्भपात हो जाता था, उस महाबलवान रावण के अभिमान के अवसानकर्त्ता वीर्यवान हनुमान ही तो थे। शाकाहारी मारुति के मुष्टिक प्रहार से ‘महिष खाय और मदिरा पाना’ करनेवाला रावण मूर्छित हो गया और जब होश में आया तो उनके बल-विक्रम की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगा। पवनसुत ने कहा-‘रावण! तुम मेरी प्रशंसा क्या कर रहा है। अरे! मेरे पौरुष को धिक्कार है, जो कि मेरी मार खाकर भी तुम मरे नहीं।’ विचारणीय विषय है, जिसकी स्तुति दशमुख-सा प्रतापी राजा निजमुख से करे, वह व्यक्ति कैसा होगा? उसके विलक्षण व्यक्तित्व का कारण क्या? उत्तर होगा-अखंड ब्रह्मचर्य बल।
यह तो त्रेता युग की बात हुई। अब द्वापर युग पर ध्यान दीजिए। भगवान श्रीकृष्ण ने कौरवों और पाण्डवों से कहा था कि वे महाभारत के युद्ध में अस्त्र धारण नहीं करेंगे, राजा शान्तनु-सुत देवव्रत ने प्रतिज्ञा की कि यदि भगवान श्रीकृष्ण से अस्त्र नहीं ग्रहण करवाया, तो वह शान्तनु-सुत और गंगा माता का पुत्र नहीं। मात्र कहा ही नहीं, बल्कि उन्होंने अपने वचन को भगवान से कर्म में परिणत करवाकर ही छोड़ा।
आजीवन ब्रह्मचर्य पालन की भीषण प्रतिज्ञा करने के कारण देवव्रत का नाम ‘भीष्म’ पड़ा। अतएव यह स्वयंसिद्ध है कि ब्रह्मचर्य के बल पर भीष्म ने भगवान से अस्त्र धारण करवाया। ऐतिहासिक और पौराणिक गाथाओं से प्रमाणित है कि ब्रह्मचारी के तप-तेज के समक्ष पाक-रिपु की सेना टिक न सकी और वह पराजित हो पलायन कर गई।
ब्रह्मचारी व्यक्ति की सर्वत्र विजय होती है। आदर्श ब्रह्मचारी महात्मा गाँधी ने ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का नारा बुलंद कर परतंत्र भारत को स्वतंत्र बनाया। आर्य समाज के प्रवर्त्तक बालब्रह्मचारी स्वामी दयानंद सरस्वतीजी ने गिरे समाज को वैदिक संस्कार से संस्कृत कर ऊपर उठाया। बालब्रह्मचारी स्वामी विवेकानन्दजी ने विश्वधर्म सम्मेलन, अमेरिका के शिकागो शहर में दिक्-दिगन्त से आए दिग्गज विद्वानों को अपने प्रवचन से प्रभावित कर वहाँ भारत के अध्यात्म-ज्ञान का झंडा फहराया, कौन नहीं जानता। यह ब्रह्मचर्य का ही चमत्कार था।
सत्य ही कहा है-‘एकतश्चतुरा वेदः ब्रह्मचर्य तथैकतः’ अर्थात् एक तरफ चारो वेदों का पुण्य और दूसरी तरफ ब्रह्मचर्य का पुण्य; दोनों में ब्रह्मचर्य का पुण्य ही विशेष है।
संतमत के बीज का वपन करनेवाले बाबा देवी साहब बालब्रह्मचारी थे। उस बीज को सुरक्षित रखकर अंकुरित, पल्लवित और फलित करनेवाले महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज अखंड ब्रह्मचारी हैं, जिन्होंने अपने त्याग, तपस्या, कठोर साधना और अखंड ब्रह्मचर्य के बल पर स्वानुभव ज्ञान को रूस, अमेरिका, इंगलैंड, आस्ट्रेलिया, जापान, स्वीडेन प्रभृति देशों को संदेश के रूप में दिया। कितना गिनाया जाए, ब्रह्मचर्य की महिमा अमित है।
ब्रह्मचर्य पालन के साथ भगवद्भजन करनेवाले के जीवन में संत कबीर साहब के इस वचन का प्रत्यक्षीकरण होता है-‘पानी में आग लगी, अन्धे को सूझै।’ अर्थात् जो बाह्याकर्षण की ओर से अपनी आँखें बन्द कर लेता है, मन मोड़ लेता है, तो अन्तस्साधना करने पर उस वीर्यवान भाग्यवान के अंदर ब्रह्मज्योति ज्योतित होती है। इतना ही नहीं, ऐसे साधक के अन्दर अन्तर्नाद-ब्रह्मनाद भी प्रकट होता है, जो ब्रह्म से मिलाकर तादात्म्य स्थापित कराता है। फिर तो ब्रह्मवत् कौन कहे, ब्रह्म ही हो जाता है। यह है ब्रह्मचर्य की महिमा।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 6-6-1999 ई0 को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, फरवरी 2000 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोग पूर्व वक्ता से हिन्दू और मुसलमान विषयक प्रवचन सुन रहे थे। साथ ही शिक्षा संबंधी बातें भी आपलोगों ने सुनीं। अब और कुछ सुनें-किसी सज्जन ने संत कबीर साहब ने पूछा, ‘आप हिन्दू हैं या मुसलमान?’ उन्होंने उत्तर दिया-
“ हिन्दू कहूँ तो मैं नहीं, मुसलमान भी नाहिं ।
पाँच तत्व का पूतला, गैबी खेलै माहिं ।।”
अबतक जितने संत हुए, कभी किसी ने हिन्दू और मुसलमान में भिन्नता का भाव प्रदर्शित नहीं किया, बल्कि उन्होंने सबको एकता और समता का उपदेश दिया। एक बड़े कामिल फकीर हुए दीन दरवेश, उन्होंने कहा-
“ हिन्दू कहै सो हम बड़े, मुसलमान कहै हम्म ।
एक मूंग दो फाड़ है, कुन ज्यादा कुन कम्म ।।
कुन ज्यादा कुन कम्म, कभी करियो मत कजिया ।
एक भजत है राम, दूजे रहमान से रजिया ।।
कहै दीन दरवेश दोइ सरिता मिलि सिन्धू ।
सबका मालिक एक है क्या मुस्लिम क्या हिन्दू ।।”
परमात्मा के दरबार में धर्म-मजहब, जाति- पाँति का कोई भेद-भाव नहीं है। संत दादू दयालजी ने कहा-
“ जे पहुँचे ते कहि गये, तिनकी एकै बात ।
सबै सयाने एक मत, तिनकी एकै जात ।।”
वस्तुतः अल्लाह ने न तो हिन्दू बनाया है, न मुसलमान ही बनाया है; न सिक्ख, न बौद्ध, न जैन, न ईसाई आदि ही बनाया है। यह तो हमलोगों ने बनाया है। उस अल्लाह ने इंसान बनाकर भेजा है। आप देखिये, परमात्मा ने सभी इंसान को एक-सा बनाया है। अर्थात् सबको दो आँखें, दो कान, एक मुँह, एक नाक, दो हाथ, दो पैर और मल-मूत्र त्याग के दो द्वार दिये हैं। किसी भी व्यक्ति के शरीर में किसी भी इन्द्रिय की न्यूनाधिकता नहीं। चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, स्त्री हो या पुरुष कोई भेद नहीं है। भेद तो हमलोग करते हैं; क्योंकि हमारी बुद्धि संकुचित है, परिपक्व और परिमार्जित नहीं है। अगर हमारी बुद्धि परिमार्जित हो जाए, तो कोई भिन्नता नहीं रह जाएगी।
इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहब थे। उनका जन्म 560 ई0 में कुरैश वंश में हुआ था। इनकी माता का नाम आम्ना और पिता का नाम अब्दुल्ला था। जिस समय ये अपनी माता के गर्भ में थे, उसी समय इनके पिताजी का देहावसान हो गया था। जब हजरत साहब की उम्र पाँच साल की हुई, तब इनकी माताजी की मृत्यु हो गयी। इनके चाचा थे-अबू तालिब। उन्होंने ही इनका लालन-पालन किया। बचपन में जैसे भगवान श्रीकृष्ण गौओं को चराया करते थे, उसी तरह वे भी पशुओं को चराते थे।
जिस समय इनकी उम्र 46 साल की हुई, इनको एक फरिश्ता जिब्राइल के दर्शन हुए। जबसे इनको देवदूत के दर्शन हुए, तबसे उनपर आयतें उतरनी शुरू हुईं। इनकी बढ़ती देखकर वहाँ के कुछ लोग इनसे जलने लग गये। हजरत मुहम्मद साहब सभी कष्टों को सहते रहे। अंत में उनलोगों ने इन्हें मार डालने का षड्यंत्र रचा। तब 53 वर्ष की अवस्था में ये मक्का से मदीना चले गये और वहाँ से इन्होंने इस्लाम धर्म का प्रचार किया। 63 वर्ष की अवस्था में वे इस संसार को त्यागकर चले गये।
हजरत मुहम्मद साहब ने प्रत्येक इस्लाम धर्मावलंबी के लिए पाँच बातें बतलायीं-रोजा, नमाज, जकात, हज और तौहीद।
हजरत साहब की पाँच बातों में एक तौहीद भी है। अभी हमारे निकट डॉ0एम0क्यू0 तौहीद साहब बैठे हुए हैं। ये कुछ वर्ष पूर्व भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति थे। अब अवकाश प्राप्त हैं। ये जैसे विद्वान हैं, वैसे ही इनमें विनयशीलता भरी हुई है। इनको देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है। ये तो एक तौहीद साहब हैं, मैं तो चाहता हूँ कि सारा संसार ही तौहीदमय हो जाए। यदि ऐसा हुआ तो विश्व का कल्याण हो जाएगा। (श्रोताओं की ओर से करतल- ध्वनि) ‘तौहीद’ अरबी भाषा का स्त्रीलिंग शब्द है, जिसका अर्थ होता है-एकेश्वरवाद। लोग एक ईश्वर को नहीं मानकर मुश्रिक बने हुए हैं, बहुदेव उपासी बने हुए हैं; लेकिन जबतक हम एक ईश्वर को नहीं पकड़ेंगे, हमारा पूर्ण कल्याण संभव नहीं है। हजरत मुहम्मद साहब सदाचारी और ईमानदार थे। वे धर्म की रीढ़ थे। धर्मप्रचार के लिए उन्होंने अपना सब कुछ कुर्बान किया। हमें चाहिए कि उस धर्म के मर्म को समझकर उसका आचरण करें।
आज साक्षरता दिवस मनाया जा रहा है। जरा हमलोग साक्षरता शब्द पर ध्यान दें-स + अक्षर = साक्षर। उर्दू, फारसी या अरबी भाषा की पढ़ाई ‘अलिफ’ अक्षर से शुरू होती है। जब हम अंग्रेजी पढ़ने जाते हैं, तो श्।श् से प्रारंभ करते हैं और देवनागरी में ‘अ’ आरंभ करते हैं। अब देखिये, तीनों में कितना साम्य है। ‘अलिफ’ से ‘अ’ होता है, ‘।श् से भी ‘अ’ होता है और देवनागरी में तो ‘अ’ है ही। हम उस अलिफ को समझें। अलिफ की आकृति एक सीधी खड़ी रेखा होती है। वह सीधी खड़ी रेखा बतलाती है कि सबका मालिक एक है। दूसरी जगह अलिफ (।) का ‘एक’ अर्थ होता है और ‘ए’ (।) का अर्थ भी एक होता है। यदि हम अल्लाह लिखना चाहेंगे, तो बिना अलिफ के नहीं लिख सकते। इसलिए यह अतिशयोक्ति नहीं कि ‘अलिफ’ (।) यानी ‘अ’ ईश्वरवाचक शब्द है, जो एक ईश्वर या अल्लाह की ओर इंगित करता है। ‘अक्षर’ शब्द का अर्थ होता है-जिसका कभी क्षरण नहीं हो अर्थात् अविनाशी तत्व को अक्षर कहते हैं। वह ‘अलिफ’ बतलाता है कि ‘अल्लाह सर्वव्यापक है।’ कुरआन मजीद अल-बकरा सूरा 2, पारा 2 में लिखा है-‘पूर्व और पश्चिम सब अल्लाह के हैं। जिस ओर भी तुम रुख करोगे, उसी ओर अल्लाह का रुख है। अल्लाह सर्वव्यापी और सब कुछ जाननेवाला है।
अब हम भारती भाषा के ‘अ’ पर विचार करें। भारती भाषा में हमलोग स्वर और व्यंजन पढ़ते हैं। पहले स्वर होता है, पीछे व्यंजन। प्रत्येक व्यंजन में स्वर समाया हुआ रहता है। व्यंजन में से स्वर को कोई निकाल नहीं सकते। उसी तरह पहले का है यह परमात्मा, अल्लाह। उसके बाद हुई है यह सृष्टि। सारी सृष्टि में परमात्मा व्यापक है, कोई उसको निकाल नहीं सकते। वह अल्लाह कैसा है? आप कुरआन शरीफ पढ़कर देखिए, उसमें लिखा है कि वह ईश्वर-अल्लाह दयालु है, कृपालु है, मेहरवान है। जब हम कुरआन शरीफ का पहला पन्ना पढ़ना आरंभ करते हैं, तो उसमें सूरे-फातिहा आता है। उस सूरे फातिहा में लिखा है-‘ऐ कयामत के दिन का मालिक! मुझे सीधा रास्ता दिखला, मुझे वह रास्ता दिखला, जिसपर तुम्हारी मेह्र हुई है। मुझे वह रास्ता नहीं दिखला, जिसपर तुम्हारी क्रूर दृष्टि रही है।’
विचारणीय विषय है कि अल्लाह की क्रूर दृष्टि किस पर रहती है? जो बुरे-बुरे कर्मों को करते हैं, जो मार-काट, लूट-पाट, अत्याचार, अनाचार, दुराचार, व्यभिचार, बलात्कार प्रभृति दुष्कर्मों को करते हैं। खुदा उनको दोजख की आग में जलाते हैं। खुदा की मेह्र नजर उनपर होती है, जो शुभकर्म करते हैं अर्थात् जो रोजा (उपवास), नमाज (प्रार्थना), जकात (दान), परोपकार आदि अच्छे-अच्छे कर्मों को करते हैं। खुदा उन्हें बहिश्त में भेजते हैं, जहाँ उनको खाने-पीने, रहने आदि में सभी प्रकार से आराम होता है। तीसरी बात है कि ‘सीधा रास्ता दिखला’। यह सीधा रास्ता क्या है? यह कहीं बाहर में नहीं है।
“ बेहोशिये इंसान से यह ख्याल जुदा है ।
जाहिर में है मुहम्मद बातिन में खुदा है ।।”
खुदा का पास जाने का जो मार्ग है, वही सीधा रास्ता है। वह रास्ता कहाँ है? एक कामिल फकीर का कलाम है-
“ क्यों भटकता फिर रहा तू, ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए ।।”
शहरग यानी सुषुम्ना में जाने के लिए और वहाँ से खुदा के पास जाने के लिए रास्ता एक है। उस रास्ते पर चलने के लिए हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि का कोई भेद नहीं है। सभी धर्म, सभी जाति, सभी वर्ग के लोग इस पर चल सकते हैं। आप कुरआन मजीद के अलबकरा सूरा 2, पारा 2 मे पढ़िये, उसमें लिखा है कि ‘आरंभ में सबलोग एक ही मार्ग के माननेवाले थे।’ पर आज लोग अनेक मार्गों में भटक रहे हैं और अनेक प्रकार के दुःख पा रहे हैं। यदि हम सही ढंग से एक ‘अलिफ’ पढ़ लें, तो कल्याण हो जाएगा।
पंजाब में एक बड़े अच्छे फकीर हुए बुल्लेशाह। इन्होंने लिखा है-‘एक अलिफ पढ़े छुटकारा।’ अगर कोई एक ‘अलिफ’ को पढ़ लेता है, तो उसको नजात मिल जाती है। यूँ तो हमलोगों ने कितनी ही किताबों को पढ़कर बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ प्राप्त ही हैं, दिन में कितनी बार अलिफ पढ़ते ही हैं; लेकिन वह कौन-सा अलिफ है, जो हमें भव-दुःख से छुटकारा दिला सकता है।
हजरत अनवर अली रोहतकी ने एक पुस्तक लिखी है-‘कानूने इश्क।’ उसकी पृष्ठ संख्या 204 पर उन्होंने लिखा है-जिस अलिफ को पढ़कर छुटकारा मिल जाता है वह उर्दू, फारसी या अरबी का पहला अक्षर नहीं है; वह तख्ती पर लिखा जानेवाला अक्षर नहीं है। वह वजूदेमुतलिक यानी निराकार व अलिप्त प्रभु है। अनुभव की चीज है। यह ज्ञान सीना है, सफीना नहीं। लिखने में आने योग्य नहीं है।
गुरु नानकदेवजी महाराज बचपन में एक मौलवी साहब के पास पढ़ने के लिए गए। मौलवी साहब ने कहा-‘पढ़ो, अलिफ ।’ वे पढ़ते हैं- ‘अलिफ ।’ मौलवी साहब ने पुनः कहा-‘पढ़ो, बे ।’ गुरु नानकदेव ने पढ़ा-‘बे ।’ गुरु नानकदेवजी पूछते हैं-‘मौलवी साहब! ‘अलिफ’ का अर्थ क्या होता है?’ मौलवी साहब ने उत्तर दिया-‘एक ।’ फिर उन्होंने पूछा-‘बे’ का क्या अर्थ होता है? मौलवी साहब ने उत्तर दिया-‘दूसरा।’ इसपर गुरु नानकदेवजी ने कहा-‘मौलवी साहब! पहले मुझे उस एक को पढ़ लेने दीजिए, पीछे दूसरा पढूँगा।’ (श्रोताओं की ओर से करतल ध्वनि)।
गुरु नानकदेवजी ने कौन-सा अलिफ पढ़ा कि वे इतने महान हो गये। स्वयं हजरत मुहम्मद साहब बहुत पढ़े-लिखे, बड़े विद्वान नहीं थे। उनके ऊपर जो आयतें उतरीं, सो कैसे? जिनका हृदय शुद्ध होता है, पवित्र होता है, पाक-साफ होता है, उन्हीं के अंदर खुदा की आयतें, अल्लाह की आवाज, परमात्मा की वाणी आती हैं।
जिस दिन उस एक परमात्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाएगा, तो सबमें उसी एक को देखेंगे। न काला, न गोरा देखेंगे, न लंबा, न नाटा देखेंगे; न हिन्दू, न मुसलमान देखेंगे; न बौद्ध, न जैन आदि देखेंगे। जड़-चेतन सबमें एक-ही-एक अल्लाह को, परमात्मा को देखेंगे।
सभी संतों ने कहा कि उस एक को जानो। उसको जानने के लिए कहीं बाहर में भटकने की जरूरत नहीं है, अपने अंदर खोजो; लेकिन इसके लिए अपने को पाक-साफ करना होगा। एक कामिल फकीर ने कहा है-
“ दिल का हुजरा साफ कर, जाना के आने के लिए ।
ध्यान गैरों का उठा, उसको बिठाने के लिए ।।
चश्मे दिल से देख यहाँ, जो जो तमाशे हो रहे ।
दिलसताँ क्या क्या है, तेरे दिल सताने के लिए ।।
एक दिल लाखों तमन्ना, उस पै और ज्यादा हविस ।
फिर ठिकाना है कहाँ, उसको बिठाने के लिए ।।
नकली मंदिर-मस्जिदों में, जाय सद अफसोस है ।
कुदरती मस्जिद का साकिन, दुख उठाने के लिए ।।
कुदरती काबे की तू, मेहराब में सुन गौर से ।
है आ रही धुर से सदा, तेरे बुलाने के लिए ।।
क्यों भटकता फिर रहा तू, ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए ।।
मुर्शिदे कामिल से मिल, सिदक और सबूरी से तकी ।
जो तुझे देगा फहम, शहरग के पाने के लिए ।।
गोश बातिन हो कुशादा, जो करे कुछ दिन अमल ।
ला इलाह अल्लाह हो, अकबर पै जाने के लिए ।।”
यह शरीर कुदरती काबा है, मस्जिद है, इसी में अल्लाह को खोजो, वे जरूर मिलेंगे। हम जो मंदिर, मस्जिद, मठ, गिरिजाघर आदि बनाते हैं, वह तो पूजागृह है, जहाँ हम घर के कोलाहल से दूर एकांत में बैठकर प्रभु का नाम लेते हैं। न मस्जिद में खुदा बैठे हैं, न मंदिर में राम बैठे हैं और न गिरिजाघर में गॉड बैठे हैं। सच्ची पूजा हम किस तरह करें, इसकी जानकारी के लिए हमें गुरु के पास जाना होगा।
“ मुर्शिदे कामिल से मिल, सिदक और सबूरी से तकी ।
जो तुझे देगा फहम, शहरग के पाने के लिए ।।”
मुर्शिद कामिल अर्थात् पूरे गुरु के पास जाओ, वे ही तुमको इस राज की सीख देंगे। दूसरा कोई नहीं सिखला सकेगा। बाहरी विद्या की शिक्षा तो बाहर के अध्यापक दे सकते हैं, जो अंदर की विद्या है, उसकी शिक्षा-दीक्षा के लिए अंदर के ज्ञान रखनेवाले अध्यापक के पास जाना होगा।
हमलोग इबादत करते हैं, नमाज पढ़ते हैं। वास्तव में इबादत है क्या? किसी शायर का कलाम है-
“ इबादत है किसी नाशाद को फिर शाद कर देना ।
इबादत है किसी बरबाद को आबाद कर देना ।।
यही सीखा है सागर हमने, मुर्शद के कदम छूकर ।
खुदा से हो अगर मिलना, पता खुद का लगा लेना ।।”
जबतक खुद का पता नहीं मिलेगा, खुदा का पता नहीं मिलेगा। जिस दिन, जिस क्षण खुद का पता मिल जाएगा; उसी दिन, उसी क्षण खुदा का भी पता मिल जाएगा, तब खुदा खोया हुआ नहीं रहेगा। जिस क्षण आत्मदर्शन हो जाएगा, उसी क्षण परमात्म-दर्शन हो जाएगा। यह दृढ़तापूर्वक जान लेना चाहिए कि परमात्म-दर्शन चर्मचक्षु से नहीं होता। इसलिए संत कबीर साहब ने स्पष्ट कहा-
“ श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींहीँ तें सब लेखा ।
सब के मध्य निरंतर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
चुन चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना ।।
जैसे ऐना सब दरसावै जो कुछ वेष बनावै ।
ज्यों अनुमान करै साहब को त्यों साहब दरसावै ।।
जाहि रूह अल्लाह के भीतर तेहि भीतर के ठाईं ।
रूप अरूप हमारि आस है हम दूनहुँ के साईं ।।
जो कोउ रूह आपनी देखा सो साहब को पेखा ।
कहै कबीर स्वरूप हमारा साहब को दिल देखा ।।”
यदि कोई एक बूँद जल की पहचान कर ले, तो उसको लोटे-जल की, घड़े-जल की, कुएँ के जल की, नदी-जल और समुद्र-जल यानी सब जल की पहचान हो जाएगी। वह सबमें एक-ही-एक जल को देखेगा। उसी तरह जो कोई अपनी रूप, अपनी आत्मा की पहचान कर लेगा, वह हाथी, घोड़े, बैल, ऊँट, मानव, जड़-चेतन सबमें एक ही परमात्मा को देखेगा। तब वहाँ जाति-धर्म की भिन्नता का कोई प्रश्न ही नहीं रह जाएगा।
जितने भी नर-नारी हैं, चाहे वे किसी भी जाति के, किसी भी धर्म के हों, शिक्षा सबके लिए है। हम अपनी अल्प बुद्धि के कारण जाति और धर्म में, अमीर और गरीब में, नर और नारी में भेद करते हैं। हम सब एक ईश्वर की संतान हैं, एक बनकर रहें। एकता में बल होता है। हमारे शरीर पर जो कपड़े हैं, एक-एक सुत से जुड़कर बने हैं। इस कपड़े से हमारी प्रतिष्ठा ढकी हुई है, एक-एक सूत को अलग-अलग निकाल दीजिए, तो हम प्रतिष्ठाहीन हो जाएँगे। इसलिए आपस में मानव-मानव मिल-जुल कर प्रेम से रहें, फिर तो कल्याण-ही-कल्याण है।
आपलोगों ने जो आज साक्षरता दिवस मनाया है, बहुत अच्छा किया है। आधिभौतिक और आध्यात्मिक दोनों विद्याओं को साथ लेकर चलें, तो अत्युत्तम हो। आपलोगों की उत्साह को देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मैं चाहता हूँ कि आपलोगों की शुभ-उन्नति हो।
इस मदरसा और मस्जिद के लिए जो बन पड़ा है, हमने भी सहयोग किया है; हम सब एक हैं, दो नहीं। इस पावन आयोजन के लिए आपलोगों को मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। (श्रोताओं की तरफ से करताल की ध्वनि)
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन मुस्तफापुर मस्जिद, भागलपुर में दिनांक
8-9-1999 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जुलाई 2000 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
साधु-संत लोग ईश्वर-प्राप्ति के लिए बतलाते हैं। उस ईश्वर की प्राप्ति अपने अंदर होगी, बाहर में नहीं होगी। कतिपय लोगों की धारणा है कि ईश्वर के पास जाने के अनेक मार्ग हैं। जैसे पटना जाने के लिए चारो तरफ से रास्ते हैं, वैसे ही परमात्मा के पास जाने के लिए भी विभिन्न मार्ग हैं; किन्तु यह भ्रामक धारणा है। परमात्म-प्राप्ति का एक ही मार्ग है और वह अपने अंदर का मार्ग है। किसी फकीर ने बड़ा ही अच्छा कहा है-
“ बेहोशिये इन्सान से यह ख्याल जुदा है ।
जाहिर में है मुहम्मद बातिन में खुदा है ।।”
बातिन का अर्थ होता है-भीतर। परमात्मा या खुदा की प्राप्ति अपने अंदर होगी। अभी आपलोगों ने संत कबीर साहब की वाणी सुनी। ये भी इसी बात का प्रतिपादन करते हैं। संत कबीर साहब कहते हैं-‘घूँघट के पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।’ घूँघट-पट को, आवरण को हटाओ, तुमको परमात्मा मिल जाएँगे। इस्लाम धर्मावलंबी महिलाएँ भी परदा रखतीं हैं, उसको बुरका कहते हैं। संत पलटू साहब ने कहा है-
“ साहिब साहिब क्या करै साहिब तेरे पास ।।
साहिब तेरे पास याद करु होवे हाजिर ।
अन्दर धसि के देखु मिलैगा साहिब नादिर ।।
मान मनी हो फना नूर तब नजर में आवै ।
बुरका डारै टारि खुदा बाखुद दिखरावै ।।
रुह करै मेराज कुफर का खोलि कुलाबा ।
तीसो रोजा रहै अन्दर में सात रिकाबा ।।
लामकान में रब्ब को पावै पलटू दास ।
साहिब साहिब क्या करै साहिब तेरे पास ।।”
पलटू साहब कहते हैं कि साहब की खोज तुम कहाँ कर रहे हो? साहब यानी परमात्मा तुम्हारे पास हैं। वे तुम्हारे इतने निकट हैं कि उनसे निकट और कोई नहीं हैं।
“ है नेरे सूझत नहीं ल्यानत ऐसो जिन्द ।
तुलसी या संसार को भयो मोतियाबिंद ।।”
-गोस्वामी तुलसीदासजी
जैसे किसी को आँख में मोतियाबिन्द की बीमारी हो जाती है, तो नजदीक में रखी हुई चीज भी उसको नहीं दीखती है। उसी तरह परम प्रभु परमात्मा इतने निकट हैं कि उनसे कुछ और हो नहीं सकता, फिर भी हम उनको नहीं देख रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि सारे संसार के लोगों को मोतियाबिन्द की बीमारी हो गयी है। जब किसी को मोतियाबिन्द की बीमारी हो जाती है, तो उसको डॉक्टर के पास ले जाते हैं। डॉक्टर आँख पर के आवरण को ऑपरेशन करके हटा देते हैं, फिर उसे सूझने लग जाता है। संत कबीर साहब कहते हैं कि तुम्हारे ऊपर से उसी तरह का पर्दा पड़ा हुआ है। संत सद्गुरु के पास जाओ, वे पर्दा हटा देंगे, फिर प्रभु-दर्शन होंगे-‘घूँघट के पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।’
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ मायावश मति मंद अभागी ।
हृदय जबनिका बहु विधि लागी ।।
ते सठ हठ वश संशय करहीं ।
निज अज्ञान राम पर धरहीं ।।”
“ काम क्रोध मद लोभ रत, गृहासक्त दुःखरूप ।
ते किमि जानहिं रघुपतिहि, मूढ़ पड़े तमकूप ।।”
संत कबीर साहब ने जिसको घूँघट कहा, संत पलटू साहब ने उसी को बुरका कहा और गोस्वामी तुलसीदासजी ने यवनिका की संज्ञा दी। यवनिका कहिए, बुरका कहिए, घूँघट कहिए या पर्दा कहिए-सब एक ही चीज है। इसी को हटाना है। गोस्वामीजी कहते हैं-‘बहु विधि लागी’। यह पर्दा एक ही नहीं है, ‘बहुविधि’-बहुत तरह के हैं। वे किस तरह के हैं? हम अपने गुरुदेव की वाणी में पढ़ते हैं-
‘घट तम प्रकाश व शब्द पट त्रय, जीव पर हैं छा रहे ।’
तीन तरह के पर्दे हैं-तम, प्रकाश और शब्द। इन तीनों परदों को यदि हम हटा सकें, तो प्रभु के दर्शन हो जाएँगे। कबीर साहब के वचन में आया है-
“ सब घट मेरा साइयाँ, सूनी सेज न कोय ।
बलिहारी वा घट की, जा घट परगट होय ।।”
प्रभु सबके अंदर विराजमान हैं। जो अपने अंदर प्रवेश करेंगे, वे ही प्रभु के दर्शन कर पाएँगे। इसलिए हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए? इस संबंध में वे कहते हैं-‘कटुक वचन मत बोल रे।’ कटुवचन मत बोलो, तब कैसा बोलो? शास्त्र सम्मति है-
‘सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यं अप्रियम्।’
अर्थात् सत्य बोलो, प्रिय बोलो। ऐसा सत्य न बोलो, जो अप्रिय हो। भगवान बुद्ध ने कहा-‘मधुर वचन बोलो, सत्य बोलो, कटुवचन नहीं बोलो। कटुवचन बोलने से उसका कटु उत्तर मिलेगा, जिससे तुमको दुःख होगा।
भगवान महावीर ने कहा, ‘तुम अपने लिए दूसरों से जिस प्रकार की अपेक्षा रखते हो, उसी तरह दूसरों के लिए तुमको सोचना चाहिए। तुम सुख की इच्छा रखते हो, इसलिए दूसरों को भी सुख पहुँचाओ। दूसरों से तुम मधुर वचन सुनना चाहते हो, तो तुम दूसरो से मधुर वचन बोलो। दूसरों का कटु-व्यवहार तुमको अच्छा नहीं लगता, तो तुम दूसरों से कटु- व्यवहार मत करो।
इसी से मिलती-जुलती बातें हम महर्षि मेँहीँ-पदावली में पाते हैं-‘सत्य सोहाता वचन कहिये।’ पुनः संत कबीर साहब कहते हैं-
“ धन यौवन का गरब न कीजै,
झूठा पंचरंग चोल रे ।।”
यह शरीर नाशवान है। धन और जवानी का घमंड मत करो। ये सब स्थिर रहनेवाले नहीं हैं-
“ कोई न स्थिर सबहिं बटोही ।
सत्य शान्ति एक स्थिर वो ही ।।”
परम प्रभु परमात्मा के अतिरिक्त दुनिया की सारी चीजें अस्थिर हैं। अस्थिर से प्रेम करोगे, तो उसके वियोग में तुमको दुःख होगा और जो स्थिर तत्व है, उससे प्रेम करोगे, तो कभी वियोग नहीं होगा, स्थिर सुख मिलेगा। वह स्थिर तत्व क्या है? परम प्रभु परमात्मा। वे कभी बिछुड़नेवाले नहीं हैं। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ न पल बिछुड़ें पिया हमसे, न हम बिछुड़ें पियारे से ।
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ।।
जो बिछुडे़ हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते ।
हमारा यार है हममें, हमन को इंतिजारी क्या ।।”
परम भक्तिन मीराबाई ने कहा था-
“ जाके पिय परदेश बसत है, लिख लिख भेजै पाती ।
मेरे पिय मेरे हिये बसत है, न कहुँ आती न जाती ।।
मैं तो गिरिधर के संग राती ।।”
वह प्रभु हमारे अंदर हैं। इसीलिए-
“ निज तन में खोज सज्जन, बाहर न खोजना ।
अपने ही घट में हरि हैं, अपने में खोजना ।।”
उस प्रभु को किस तरह खोजो? उपाय है-
“ दोउ नैन नजर जोड़ि के, एक नोक बना के ।
अन्तर में देख सुन-सुन, अन्तर में खोजना ।।”
बाहर की चीज को खोजने के लिए हम आँखें खोलकर खोजते हैं। जो चीज हमारे भीतर है, उसके लिए क्या करना होगा? क्रिया उलटनी होगी अर्थात् आँखें बंद कर खोजना होगा। दूसरी बात यह कि बाहर की चीज को पसरी हुई निगाह से देखते हैं। भीतर की चीज को देखने के लिए सिमटी निगाह से देखना होगा। वह सिमटी निगाह कैसी होनी चाहिए, तो कहा, ‘एक नोक बना के।’ अर्थात् दृष्टि की दोनों धारों को मिलाकर-एक बनाकर; इससे पूर्ण सिमटाव होगा, ऊर्ध्वगति होगी, आवरण भेदन होगा। फलतः तम मंडल को पार कर जाएँगे।
जिज्ञासा हो सकती है-दृष्टि को कितनी दूर तक ले जाएँ, कहाँ मिलाएँ? तो इसके उत्तर में वे कहते हैं-
‘तिल द्वार तक के सीधे, सुरत को खैंच ला ।’
हाथरस में एक संत हुए तुलसी साहब। उन्होंने कहा-
“ तिल परिमाने लगे कपाटा ।
मकर तार जहँ जीव का बाटा ।।
इतना भेद जानै जो कोई ।
तुलसीदास साध है सोई ।।”
वह कपाट तिल परिमाण के समान है अर्थात् बहुत छोटा है। संत जन कहते हैं-वहाँ अपनी दृष्टि को स्थिर करोगे, तो एकविन्दुता के साथ नादानुभूति होगी। संत पलटू साहब कहते हैं-
‘विन्दु में तहँ नाद बोलै, रैन दिवस सुहावनं ।’
अर्थात् दिन-रात सुहावना लगनेवाला विन्दु और नाद मिलता है। तत्पश्चात् इसके आगे का मार्ग-दर्शन देते हैं-
“ अनहद धुनों को सुन-सुन, चढ़-चढ़ के खोजना ।।3।।
बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक-एक को ।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।4।।
पंचम बजै धुर घर से, जहाँ आप विराजैं ।
गुरु की कृपा से ‘मेँहीँ’, तहँ पहुँचि खोजना ।।5।।”
प्रकाश में जाओगे, तो वहाँ अनहद शब्द मिलता है। बहुत तरह के शब्द होते हैं। उन बहुत तरह के शब्दों में से एक सारशब्द को पकड़ना है। अनहद ध्वनि की साधना करते-करते प्रकाश मंडल को पार कर जाते हैं। प्रकाश का आवरण हटने के बाद शब्दावरण रह जाता है। पहले तो अनहद शब्द होते हैं और अनहद शब्द को पार करने के बाद अनाहत शब्द मिलता है। वह केवल एक-ही-एक है। उस नाद को भी जो कोई पार कर जाते हैं, तब परम प्रभु परमात्मा से मिलन होता है, उनका स्पर्शन होता है, उनसे एकता होती है। इसलिए हमारे गुरु महाराज कहते हैं-
‘कर दृष्टि अरु ध्वनि-योग-साधन, ये हटाना चाहिए ।’
अपने अंदर के इन त्रय आवरणों को दृष्टियोग और नादानुसंधान करके हटाना चाहिए। जब ये तीनों मायिक आवरण हट जाएँगे, तो क्या होगा?
“ इनके हटे माया हटेगी, प्रभु से होगी एकता ।
फिर द्वैतता नहिं कुछ रहेगी, अस मनन दृढ़ चाहिए ।।”
जीव-पीव मिलकर एक होगा, फिर द्वैतता, द्वैतभाव मिट जाएगा। जिस तरह नदी जब समुद्र में जाकर मिल जाती है, तब फिर वह नदी, नदी नहीं रह जाती, समुद्र ही हो जाती है। उसी तरह से जो जीव परमात्मा से जा मिलकर एक हो जाता है, तो फिर वह जीव नहीं रह जाता, पीव हो जाता है।
“ सोइ जानइ जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई ।।”
-गोस्वामी तुलसीदासजी
दैहिक, दैविक और भौतिक-इन त्रितापों से जो मानव संतप्त होता रहता है, सदा के लिए मुक्त हो जाएगा। इसके लिए घरबार, कारबार, परिवार छोड़ने की जरूरत नहीं है। इन सबको देखते हुए भगवद्भजन भी करें। जैसे घड़ा में जल की एक-एक बूँद गिरते-गिरते वह जल से पूर्ण हो जाता है, वैसे ही प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा भजन करते-करते एक दिन पूर्ण होंगे। परमात्मा की प्राप्ति होगी। परम कल्याण होगा।
मेरे प्रिय श्रीबंगाली बाबू ने संतमत-सत्संग सदन का निर्माण कर बहुत बड़ा पुण्य का काम किया है। इसके लिए इनको मैं धन्यवाद देता हूँ, परम पूज्य गुरुदेव इनकी शुभ उन्नतियाँ दें।
इस सदन से ‘बहुजन हिताय’ का काम होगा। अध्यात्मप्रेमी मुमुक्षुगण यहाँ आकर सत्संग-भजन करेंगे तथा अपने मानव जीवन का सफल बनायेंगे।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 25-9-1999 को पटना, बंगाली बाबू डीएसपी साहब के निवास स्थान पर आयोजित सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जनवरी 2000 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
भारतीय वैदिक संस्कृति ऐसी है कि जब बच्चा जन्म लेता है और वह कुछ बोलना चाहता है तो उसके अभिभावक उसे ईश्वर वाचक शब्द सिखलाते हैं। राम, कृष्ण, शिव, विष्णु, हरि, सत्तनाम, ओऽम, वाहगुरु आदि नामों के उच्चारण बच्चों से करवाते हैं। वही बच्चा जब बड़ा होता है, कुछ पढ़-लिख लेता है, सोचने-समझने लगता है, तो उसके मन में विचार उत्पन्न होता है कि हमारे अभिभावक जिस भगवान के नाम का उच्चारण करते थे, वे भगवान कैसे हैं, उनका रूप कैसा है, वह नाम क्या है? आदि।
नाम कहते हैं-शब्द को। जिस शब्द के द्वारा किसी व्यक्ति या वस्तु की पहचान होती है, वह शब्द उसका नाम कहलाता है। जैसे मेरे सामने यह माइक है, जब हम माइक शब्द का उच्चारण करते हैं, तो जिज्ञासा होती है कि माइक क्या है? बतलाया जाता है कि यह ध्वनि विस्तारक यंत्र है। माइक शब्द से उस वस्तु का ज्ञान हुआ। किसी को हम कहते हैं राम बाबू और किसी को श्याम बाबू। राम बाबू कौन? राम कहने से उस शब्द के द्वारा उस व्यक्ति की पहचान हुई। जिस शब्द के द्वारा राम बाबू की और जिस शब्द के द्वारा श्याम बाबू की पहचान हुई वे शब्द ही उनके नाम हुए। उसी तरह जिस नाम के द्वारा, जिस शब्द के द्वारा प्रभु की पहचान हो, वह शब्द परम प्रभु परमात्मा का नाम हुआ। जिस नाम के द्वारा परम प्रभु की पहचान होती है, वह नाम कौन-सा है? जिसके द्वारा प्रभु की पहचान होती है, वह रूप कौन-सा है? संत कबीर साहब कहते हैं-
“ बिनु गुरु ज्ञान नाम नहिं पैहो, बिरथा जनम गँवाई हो ।।
जल भरि कुम्भ धरे जल भीतर, बाहर भीतर पानी हो ।
उलटि कुम्भ जल जलहि समैहैं, तब का करिहौ ज्ञानी हो ।।
बिन करताल पखावज बाजै, बिनु रसना गुन गाया हो ।
गावनहार के रूप न रेखा, सतगुरु अलख लखाया हो ।।
है अथाह थाह सबहिन में, दरिया लहर समानी हो ।
जाल डारि का करिहौ धीमर, मीन के ह्वै गा पानी हो ।।
पंछीक खोज व मीन कै मारग, ढूँढ़े न कोइ पाया हो ।
कहै कबीर सतगुरु मिल पूरा, भूले को राह बताया हो ।।”
जबतक सच्चे सतगुरु नहीं मिलेगें, तबतक सच्चे नाम (सार-शब्द) की पहचान नहीं होगी। परिणामतः ‘वृथा जनम गँवाई हो।’ तुम्हारा जन्म व्यर्थ चला जाएगा। नाम तो लेते हो, किन्तु जिस नाम को ले रहे हो उससे तुम्हारा कल्याण नहीं होगा, तुम्हारा जन्म व्यर्थ में चला जाएगा। सुनकर आश्चर्य हो सकता है कि भगवान का नाम भी लेते हैं और जन्म भी व्यर्थ में चला जाएगा, ऐसा क्यों? संत कबीर साहब का वचन है-
“ नाम रटत का भया, हिरदय नाहिं समाय ।
बहुतक गुन सुगना रटे, अंत बिलाई खाय ।।”
राम-राम, शिव-शिव, सत्तनाम एवं वाहगुरु कुछ भी हम सुग्गा को सिखला देते हैं, तो वह उस शब्द को रट कर उच्चारण करते रहता है; लेकिन जिस समय बिल्ली उसके गले को पकड़ती है, उस समय उसके मुँह से राम-राम, शिव-शिव, सत्तनाम, वाहगुरु, नहीं निकलता है, सिर्फ टॉय-टॉय करके ही जान गँवाता है। उसी तरह जो प्रभु का सच्चा नाम है, उस नाम को नहीं जानकर केवल सुने सुनाये शब्द का जप करते हैं, तो इससे क्या होगा? जब यमराज पकड़ने आएगा तो हम यही कहेंगे-‘हे बेटा! हे माय!’ यमराज के चंगुल में नहीं जाएँ क्या ऐसा कोई उपाय है? गुरु नानक देवजी महाराज कहते हैं कि तुम संसार में क्यों भटक रहे हो? गुरु के चरण-शरण में जाओ वे तुमको मार्ग-दर्शन देंगे।
“ सुनि मन भूले बावरे, गुरु की चरणी लागु ।
हरि जपि नाम धियाइ तू, जम डरपै दुख भागु ।।” ‘हरि जपि नाम धियाइ तू’ तुम ‘हरि’ (परम प्रभु परमात्मा) के नाम का जप करो उनके नाम का ध्यान करो। इससे तुम्हारा दुःख दूर हो जाएगा। अर्थात् वर्णात्मक नाम का जप और ध्वन्यात्मक नाम का ध्यान करोगे तो तुमसे यम डरेगा और तुम्हारे पास दुःख फटकने नहीं पावेगा। गुरु नानकदेव जी पुनः कहते हैं-
“ बिनु सतिगुर सेवे जोगु न होई ।
बिनु सतिगुर भेटे मुकति न कोई ।।
बिनु सतिगुर भेटे नामु पाइआ न जाइ ।
बिनु सतिगुर भेटे महा दुखु पाइ ।।
बिनु सतिगुर भेटे महा गरबि गुबारि ।
नानक बिनु गुर मूआ जनमु हारि ।।”
कतिपय सज्जन ऐसा कहते हैं कि कबीर साहब, गुरु नानकदेव जी, तो निर्गुणियाँ संत थे, इसलिए वे इस तरह की बात कहते हैं। तुलसीदासजी सगुणियाँ संत थे, वे ऐसा नहीं कहते हैं। तुलसीदासजी क्या कहते हैं, सो भी सुन लीजिए-
“ चौदह चारो अष्टदश, रस समझव भरपूर ।
नाम-भेद जाने बिना, सकल समझ महँ धूर ।।
भेद जाहि बिधि नाम महँ, बिन गुरु जान न कोइ ।
तुलसी कहहिं बिनीत बर, जौं बिरंचि सिव होइ ।।”
वेदों और अठारह पुराणों को रट कर कण्ठस्थ कर लीजिए, व्याकरण भी पढ़ लीजिए; लेकिन बिना गुरु के भेद को जाने सब धूल के समान है इसलिए-
“ भेद यह गुप्त पाना किसी ग्रंथ से ।
है असंभव समझ लो किसी संत से ।।”
बिना संत सद्गुरु के उस नाम के भेद को कोई जान नहीं सकता। चाहे ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समान ही क्यों न हो। श्रीमद्भागवत् पुराण में हमलोग पढ़ते हैं-
“ शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयम् ।
अनन्तपारं गम्भीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत् ।।”
शब्दब्रह्म अत्यन्त दुर्बोध है। हमलोग जिस नाम का उच्चारण मुँह से करते हैं और कान से सुनते हैं, यह इन्द्रियमय शब्द है। मन के द्वारा जिस शब्द को ग्रहण करते हैं, या मन से जो शब्द उद्भूत होता है, वह मनोमय शब्द है। जिस शब्द को प्राण के द्वारा ग्रहण करते हैं, वह प्राणमय शब्द है। ये शब्द के भेद हैं। इन तीनों भेदों को जानें। अगर नहीं जानते हैं, बिना जानें ही करते हैं, तो क्या होगा? ‘वृथा जनम गँवाई हो।’ हम आए थे प्रभु का भजन करने; लेकिन विषयों में रमकर प्रभु को भूल गए। अनमोल मानव तन को व्यर्थ में गँवा दिए।
‘आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास।’
सार-शब्द, ओऽम्, स्फोट, प्रणव आदि नामों से प्रभु की पहचान होती है।
“ ध्वनि प्रथम स्फुटित परा धारा,
जिनसे कहिये स्फोट है सो ।”
सबसे पहले सार-शब्द प्रस्फुटित हुआ इसीलिए उसे स्फोट, उद्गीथ कहते हैं। उद्गीथ का मतलब यहाँ का गीत नहीं, वहाँ (परमात्मधाम) का गीत है, भगवान के मुँह से निःसृत गीत है। इस लोक का गीत नहीं उस लोक (अर्थात् परलोक) का गीत (शब्द) है। इस माइक की आवाज जहाँ तक जाएगी, इस उत्थित नाद (शब्द) को जो कोई सुनेगा वह उस आवाज के सहारे यहाँ तक आ जाएगा। उसी तरह प्रभु के यहाँ से निःसृत आवाज (सार-शब्द ) को जो सुनेगा, उसको पकड़कर प्रभु तक पहुँच जाएगा। इसलिए उस नाद को अर्थात् नाम (सार-शब्द) को जानो। कबीर साहब कहते हैं-
“ जल भरि कुंभ धरे जल भीतर,
बाहर भीतर पानी हो । उलटि कुंभ जल जलहि समैहैं,
तब का करिहों ज्ञानी हो ।।”
गंगाजी में घड़ा डुबो दीजिए, घड़ा पानी से भर जाएगा, फिर उस पानी को गंगाजी में मिला दीजिए। अब हम उसे अलग करना चाहेगें तो अलग नहीं हो सकता। दोनों पानी मिलकर एक हो जाएगा। उसी तरह से प्रभु हमारे चारो तरफ बाहर-भीतर सब जगह हैं; लेकिन हम परख नहीं पाते, क्योंकि हमारी वृत्ति बहिर्मुखी है। इसके लिए वृत्ति को अंतर्मुखी करना होगा अर्थात् उलटना होगा। संत कबीर साहब एक उदाहरण के माध्यम से समझाते हैं-
“ पानी बिच मीन पियासी,
मोहे सुन सुन आबे हासी ।”
सुनकर बड़ा आश्चर्य होता है कि मछली पानी में रहकर भी प्यासी है! पानी में मछली प्यासी रहे यह कितने आश्चर्य की बात है। उसी तरह यह भी आश्चर्य ही है कि ‘ईश्वर अंस जीव अविनासी’ होते हुए भी हम प्रभु से अलग हैं। प्रभु में हम हैं और हममें प्रभु हैं, फिर भी भेंट नहीं होती है। मछली पानी में रहती है, पानी में ही चलती-फिरती है और अपना विकास भी पानी में रहकर ही करती है। अपना सारा कार्य पानी में ही रहकर करती है और पानी में रहकर ही बच्चा भी जनती है। फिर भी वे तबतक प्यासी रहती है जबतक उलट नहीं जाती। आपने देखा होगा कभी-कभी मछली उलटती है, जब वह उलटती है, तब उसके पेट में पानी जाता है; उसी तरह से हमको उलटना होगा। हमारा बहिर्मुखी मन इस नौ दरवाजे वाले शरीर में, नौ रास्तों से बाहर भाग रहा है। जबतक इस तरह से भागता रहेगा तबतक हम चैन (शांति) रूपी पानी नहीं पी पाएँगे। मछली की तरह मन को उलटना होगा। उलटने से ही हम दशवें दरवाजे का पानी पी सकेंगे। और वह पानी नहीं, वह तो अमृत है। अमृत अर्थात् जिसको पीने वाला कभी मरता नहीं। हमारे पूज्य श्री सद्गुरुदेव जी महाराज की वाणी में आया है-
“ सुखमन के झीना नाल से अमृत की धारा बहि रही ।
मीन सूरत धार धर भाठा से सीरा चढ़ि रही ।।
गुरु-मंत्र जप गुरु-ध्यान कर गुरु-सेव कर अति प्रीति कर ।
गुरु की आज्ञा मान प्यारे कर सदा गुरु की कही ।।
उस नाल का झीना दुआरा गुरु तुझे देंगे बता ।
दोउ नैन नासा मध्य सन्मुख सूई अग्र दर ले लही ।।
तम फटे जोती भरे आकाश का तू सैर कर ।
शब्द अनहत सार में मिल लह ले सतपद को सही ।।
दुख दर्द भव के सब मिटैं सतगुरु चरण नित सेइये ।
गुरु-भक्ति बिन कछु ना बने ‘मेँहीँ’ सकल सन्तन कही ।।”
सुषुम्ना में अमृत की धारा बह रही है। उस धारा तक जाने के लिए सूक्ष्म रास्ता से गुजरना होता है। वह रास्ता झीना है, उसे कैसे पकड़ेंगे? एक छोटी मछली होती है, जिसे सफरी कहते हैं। वह भाठा से सीरा की ओर उलटी दिशा में चली जाती है। उसी तरह आँख बंद करने से हमें अंधकार मालूम होता है, इसी अंधकार में हम हैं। अंधकार से अपने को प्रकाश में ले चलो। अंधकार से उलटकर अपने को समेटो। समेटने से ऊर्ध्वगति होगी। ऊर्ध्वगति से आवरण भेदन होगा, तब उस अमृत का लाभ मिलेगा। इसका पता तो गुरु ही बता सकते हैं। वह रास्ता कहाँ है? तो पूज्य गुरुदेव कहते हैं-
‘दोउ नैन नासा मध्य सन्मुख, सूई अग्र दर ले लही ।’
दृष्टि की धारें जहाँ मिलती हैं, वहीं वह रास्ता है। इस सूक्ष्म स्थान पर अपने को टिकाओ तब क्या होगा? तम फ़टे जोती भरे आकाश का तू सैर कर । अर्थात् तुम्हारे सामने जो अंधकार का पर्दा है, वह फट जाएगा। ज्योति अर्थात् प्रकाश के आकाश में प्रवेश कर जाओगे। वहाँ पर शब्द मिलेगा, जिस शब्द के लिए कहा गया है-शब्द अनहत सार में मिल लह ले सतपद को सही । वह प्रभु का शब्द है, प्रभु के पास से आया हुआ शब्द है, प्रभु के मुँह से निःसृत शब्द है। वह शब्द तुमको खींचकर प्रभु तक पहुँचा देगा। तब क्या होगा? गुरु नानक साहब के शब्दों में-‘बहुरि न होइअै जउला जीउ।’ अर्थात् जिस तरह से जल में जल के मिल जाने के बाद उस जल को अलग नहीं कर सकते, उसी तरह से हम भी प्रभु में मिलकर एकमेक हो जाएँगे फिर अलग नहीं हो सकेंगे। ऐसा होने का परिणाम क्या होगा? हम प्रभु प्रभु हम एकहि होई, द्वन्द्व अरु द्वैत रहे नहीं कोई। इससे दुःख दर्द, क्लेश आदि सब नष्ट हो जाएँगे; लेकिन यह सब होगा कैसे? गुरु की भक्ति से, गुरु की सेवा से, इसलिए कहा-
“ गुरु-भक्ति बिन कछु ना बने
‘मेँहीँ’सकल सन्तन कही ।।”
गुरु-आदेश के परिवेश में अपने को रखेंगे तो, कल्याण होगा।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 26-09-1999 ई0 को पटना स्थित अनीशाबाद में डी0एस0पी0 श्रीबंगाली बाबू के निवास स्थान पर प्रातःकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, अक्टूबर 2007 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं बहनो!
श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण का महावाक्य है-
“ यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
परित्रणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।।”
अर्थात् जब-जब अधर्म का उत्थान और धर्म का पतन होता है, तब-तब मैं साधुओें की रक्षा, दुष्टों के विनाश और धर्म की संस्थापना के लिए युग-युग में जन्म लेता हूँ।
“ जब जब होय धर्म की हानी ।
बाढ़इ असुर अधम अभिमानी ।।
करइ अनीति जाइ नहिं बरनी ।
सीदहिं विप्र धेनु सुर धरनी ।।
तब तब धरि प्रभु विविध शरीरा ।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ।।”
जैसे विप्र, धेनु, सुर और संत के विकास ओर दुष्टों के विनाश हेतु भगवान का अवतार होता है; वेैसे ही सुरों के रक्षण और असुरों के भक्षण के लिए भगवती का आविर्भाव होता है।
जैसे भगवान के मच्छ, कच्छ, वाराह, नृसिंह, वामन, परसुराम, राम, कृष्ण आदि चौबीस अवतार माने जाते हैं, उसी प्रकार दुर्गा, चंडिका, अम्बिका, जगदम्बा, चामुण्डा, नारायणी, पार्वती, काली, भगवती प्रभृति देवी भी अवतरित हुई हैं। यों तो देवीजी की नौ मूर्तियों के नाम इस प्रकार हैं-शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री।
यद्यपि भगवान विष्णु के ही चौबीसों अवतार माने जाते हैं, तथापि श्रीराम और श्रीकृष्ण को लोग विशेषावतार की दृष्टि से देखते हैं। इसी प्रकार देवीजी के अवतारों में काली और भगवती जी को विशिष्ट स्थान प्राप्त है।
जैसे रावण-वध के लिए भगवान श्रीराम को और कंस-वध के लिए भगवान श्रीकृष्ण को आना पड़ा; इसी भाँति चण्ड-मुण्ड को मारने के लिए श्रीकालीजी को और महिषासुर को मारने के लिए श्रीभगवतीजी आयी। सभी देवियाँ एक ही हैं।
विजयादशमी को पौराणिक दृष्टि से अवलोकन करने पर देवासुर शक्ति पर देवीशक्ति का प्रभाव प्रतीत होता है। लौकिक दृष्टि से, जहाँ नर शक्ति काम नहीं करती, वहाँ नारी शक्ति कारगर होती है। दुर्गापूजा में सूक्ष्मरूप से नारी जागरण की झाँकी मिलती है। आवश्यकता है-नारी जागरण की। यदि जग की सारी नारियाँ जग जाएँ, तो सब जग जगमग-जगमग हो जाए। ‘नारी’ अबला नहीं; पातिव्रत धर्म पालन कर सबला होती है। यह ऐसी सबला होती है कि उनके समक्ष भगवान को भी झुकना पड़ता है। इतना ही नहीं, पतिव्रता नारी के शाप को भी वे अंगीकार करते हैं। इस संबंध में महाभारत की कथा आपकी याद आती रहेगी। जब राजा धृतराष्ट्र के शतपुत्रें का संहार हो गया, तो कौरव परिवार में हाहाकार मच गया। सौ विधवाओं के करुण क्रन्दन, विलाप और शतपुत्रें की मृत्यु के शोक-संताप से धृतराष्ट्र और गांधारी की आँखों से आँसुओं की अजस्त्र धारा प्रवाहित हो रही है। भगवान श्रीकृष्ण उन दोनों को सान्त्वना देने के लिए गये। उन्होंने विविध भाँति से समझाने की चेष्टा की। धृतराष्ट्र से अधिक दुःखी गांधारी थी। वह बोली, ‘कृष्ण! मेरे शतपुत्रें का विनाश तुमने करवाया है। तुम्हारे कारण ही हमारे ऊपर दुःख का पहाड़ गिर पड़ा है।’ भगवान ने कहा, ‘देवि! मैंने आपके पुत्रें को बहुत प्रकार से समझाया; किन्तु उनलोगों ने मेरी बात एक न सुनी।’ गांधारी ने कहा, ‘कृष्ण! तुम मेरे पुत्रें को समझाने के लिए नहीं, फर्ज अदा करने के लिए आये थे। सुनो, तुमने मेरे वंश का नाश अठारह दिनों में करवाया है। यदि मैं पतिव्रता नारी हूँ, तो तुमको शाप देती हूँ कि तुम्हारे वंश का संहार एक दिन में होगा।’
भगवान ने उस शाप को स्वीकार किया। एक दिन में यदुवंश का नाश हो गया।
अधिक क्या कहा जाए, यदि कोई नारी ब्रह्मचारिणी हो, तब तो कहना ही क्या! स्वयं भगवान उनका सम्मान करते हैं और आदरपूर्वक आवाहन कर पूजन करते हैं।
ज्ञातव्य हो कि दुर्गा दशहरा पर्व उसी उपलक्ष्य में मनाया जाता है। जगज्जननी श्रीभगवतीजी ब्रह्मचारिणी है। भगवान श्रीराम ने आश्विन शुक्ला दशमी तिथि के दिन श्रीदेवी जी का पूजन कर उनसे वरदान पाकर दुर्दान्त राक्षस रावण पर विजय पायी थी। कथा इस प्रकार है-
भगवान श्रीराम रावण के दशशीश भुजा बीस को काटकर धराशायी कर देते थे। अविलंब ही दशों शीश और बीसों भुजाएँ पूर्ववत् बन जाती थीं। इसी प्रकार कितनी ही बार ऐसा होता रहा। भगवान निराश और उदास होकर बैठ गये। सोचने लगे कि जिसकी भुजाएँ और सिर कट जाने पर भी जुट जाए, वह अमर है। उसको कौन मार सकता है? मेरा सारा श्रम निष्फल गया। अब सीता का उद्धार नहीं हो सकता।
भगवान को चिंतित देखकर विभीषण ने कहा, ‘प्रभो! भगवती ने रावण को अपनी गोद में बिठा रखा है। जबतक उनकी गोद से रावण नीचे नहीं हो जाता, तबतक उसको कोई मार नहीं सकता। अतएव आप भगवतीजी का पूजन कर उनसे वरदान प्राप्त करें। एक सहस्त्र कमल पुष्प से पूजा करने पर वे शीघ्र प्रसन्न हो जाती हैं। जब वे प्रसन्न होकर प्रकट हो जाएँ, तब आप उनसे रावण को अपनी गोद से उतारने के लिए प्रार्थना करें।’ भगवान ने पूछा, ‘वे फूल कहाँ मिलते हैं?’ विभीषण ने उत्तर दिया, ‘मानसरोवर में।’ हनुमानजी को भेजकर एक सहस्त्र सुमन मँगवाए। भगवान श्रीराम ने बड़े प्रेम से श्रद्धा-भक्ति संयुक्त होकर भगवती माता की पूजा की; किन्तु देवीजी प्रकट नहीं हुईं। अब तो भगवान अत्यन्त दुःखी और अधीर हो गये। भगवतीजी के प्रकट नहीं होने का कारण ढूँढ़ा जाने लगा। विचार में आया कि पूजा में किसी प्रकार की त्रुटि रही होगी। फूलों की गिनती करने पर नौ सौ निन्यानबे हुए; क्योंकि भगवान की प्रीति-प्रतीति परीक्षण हेतु भगवतीजी ने एक पुष्प को छिपाकर रख लिया था। अब क्या हो? भगवान ने हनुमानजी को एक पुष्प और ले आने की आज्ञा दी। हनुमानजी ने हाथ जोड़कर कहा, ‘प्रभो! अब वहाँ पुष्प नहीं है।’ गंभीर चिंतन के पश्चात् भगवान ने कहा-‘अच्छा, लोग मुझे कमलनयन कहते हैं। अतएव कमल की जगह अपनी आँख ही भगवतीजी को चढ़ा देता हूँ।’ ऐसा कहकर जैसे ही वे अपनी आँख निकालना चाहते थे, भगवती ने प्रकट होकर भगवान का हाथ पकड़ लिया और इच्छित वरदान देती हुई बोली, ‘रावण को मैंने गोद से उतार दिया।’ तब भगवान श्रीराम ने उसका संहार किया।
यह तो हुई पौराणिक कथा। अब इससे संबंधित आध्यात्मिक चर्चा योगीवर पंचानन भट्टाचार्य की वाणी में सुनिये-
“ तीन दिन परे त्रिगुणेर परे स्त्रोतेर
जले ते डूबिल प्रतिमा ।
दश्मीर दशा ये दशम दशा कि बले
बुझाव बुझाते पारी ना ।।
पार्वती चले गैलेन कैलाशे मिसे छेन
सती कूटस्थ पुरुषे ।
सुखे कि दुखे ते हरषे विषादे के आमि
अमार मनेई आसे ना ।।”
भगवतीजी की पूजा आश्विन शुक्ला प्रतिपदा से आरंभ कर नवमी तिथि तक होती है। इन नौ दिनों के अंतर्गत सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथि की पूजा को लोग विशेष महत्व देते हैं। पश्चात् दशमी तिथि में देवीजी की प्रतिमा का विसर्जन करते हैं।
बंग भाषा में कथित तीन दिन से कवि का तात्पर्य तीन गुणों से है। जैसे बाह्य जगत् में तीन तक विशेष रूप से प्रतिमा-पूजन कर चौथे दिन विसर्जन करते हैं, उसी प्रकार अंतस्साधना के साधक की सुरत जब तीन गुणों-रज, सत्व और तम से परे यानी निर्गुण में चली जाती है, तो जड़ात्मिका प्रकृति रूप प्रतिमा विसर्जित हो जाती है। व्यष्टि चेतन समष्टि चेतन में विलीन हो जाता है। समष्टि चेतन को संत तुलसी साहब ने ‘सुरत सिन्ध’ की संज्ञा दी है और कहा है जब सुरत सिन्ध में समा जाती है, तो वहाँ वह खिड़की मिलती है, जो प्रभु-धाम का अत्यन्त निकटवर्ती है। उसी खिड़की में प्रवेश कर जीव का पीव से मिलन होता है। द्वैत मिटकर अद्वैतावस्था हो जाती है।
“ सुरत सिन्ध में जाइ समानी ।
अगम द्वार खिड़की नियरानी ।।
चढ़ि गइ सुरति अगम ठिकाना ।
हिय लखि नैना पुरुष पुराना ।।”
यह तो बहुत ऊँची बात है, जिससे ऊँची बात और हो नहीं सकती। फिर भी जहाँ तक तिथि से संबंधित बातें हैं, उसमें ऐसा है कि साधक की सुरत जब नौ द्वारों से सिमटकर दशवें द्वार में प्रवेश करती है, तो उसको स्थूल शरीर की सुधि नहीं रहती है, गोया स्थूल पिंड विसर्जित हो जाता है। यद्यपि साधक बाह्य शरीर ज्ञान से अचेत रहता है, फिर भी आंतरिक सचेतता रहती है। इस विषय की परिपुष्टि महर्षि मेँहीँ-पदावली में इस प्रकार पाते हैं-
“ साधन में पगि जाइ, अतिहि गम्भीर हो ।
या तन सुधि नहीं रहे, धीर वर वीर सो ।।
साँझ भोर दिन रैन कछू जानै नहीं ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ बाहर जड़वत् रहै ,
माहिं चेतन सही ।।”
दशवें द्वार में प्रवेश करने पर साधक की क्या स्थिति होती है, किस प्रकार वह आनंदातिरेक में झूमता है, गुरु भक्तिन सहजोबाई की अनुभव वाणी से हम लाभ उठाएँ।
“ भया जी हरिरस पी मतवारा ।
आठ पहर झूमत ही बीते, डारि दियो सब भारा ।।
इड़ा पिंगला ऊपर पहुँचे, सुखमन पाट उघारा ।
पीवन लगे सुधा रस जब हीं, दुर्जन पड़ी बिडारा ।।
गंग जमुन बिच आसन मार्यो, चमक चमक चमकारा ।
भँवर गुफा में दृढ़ ह्वै बैठे, देख्यो अधिक उजारा ।।
चित स्थिर चंचल मन थाका, पाँचो का बल हारा ।
चरनदास किरपा सूँ सहजो, भरम करम भयो छारा ।।”
वह हरि रस पान कर मस्त हो जाती है। जग के जंजाल को डालकर आठो पहर उसी रस में मग्न रहती है। किसी ने जिज्ञासा की बाई! वह अमीरस तुमने कहाँ और कैसे पाया? उत्तर देती है-इड़ा-पिंगला के ऊपर सुषुम्ना के पट की उघारने पर।
संतों और सच्छास्त्रें ने इड़ा को गंगा और पिंगला को यमुना कहा है। वह कहती है-गंगा और यमुना के बीच यानी सुषुम्ना में स्थिति पाने पर वहाँ विविध प्रकार की ज्योतियाँ और भँवर गुफा में दृढ़ होकर बैठने पर अत्यधिक ज्योति मिली। संत कबीर साहब की वाणी में भी हम पाते हैं-
“ भँवर गुफा में अति उजियाला ।
अजपा जाप जपै बिनु माला ।।”
अंतर्ज्योति प्राप्त करने से क्या लाभ होता है, इसका वह स्पष्टीकरण करती है कि चित्त स्थिर हो गया, चंचल मन थक गया और पाँचो ज्ञानेन्द्रियाँ शक्तिहीन हो गयीं। योगीवर का कथन है कि दशवें द्वार में जाने पर साधक की जो स्थिति होती है, वह कथन की नहीं, अनुभव करने की बात है। जो चरित्रवान, क्रियावान, भाग्यवान साधक होंगे, वे अवश्यमेव इस विषय को जान सकेंगे कि प्रकाश में पहुँचने पर वासना पर विजय मिलती है।
पार्वती यानी पर्वत पर रहनेवाली (सुरत) जो संसार-सागर में आ गयी थी, वह कूटस्थ पुरुष (परम प्रभु परमात्मा) में मिलकर एक हो गयी। वहाँ सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, मान-अपमान प्रभृति द्वैतभाव का अत्यन्ताभाव हो जाता है, जैसे नदी का जल समुद्र में मिलकर अद्वय हो जाता है। गोस्वामीजी के शब्दों में हम कह सकेंगे-
“ सरिता जल जलनिधि महँ जाई ।
होहि अचल जिमि जीव हरि पाई ।।”
मुण्डक उपनिषद् में आया है-
“ यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय ।
तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।”
गिरि, शिखर, पर्वत की चर्चा संतों की वाणियों में भी पाते हैं-
‘गिरि पर्वत की माछरी, भवसागर आया हो ।’
‘कबीर का घर शिखर पर, जहाँ सिलहिली गैल ।
पाँव न टिकै पिपीलिका, पंडित लादै बैल ।।’
‘सुरत चेत अचेत छोड़ो, तू शिखर की वासिनी ।
माया में मगनो नहीं, यह अहै दारुण फाँसिनी ।।’
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
दुर्गासप्तशती के पंचम अध्याय में श्रीदुर्गा जी की विष्णुमाया, चेतना, बुद्धिरूपा, निद्रारूपा, क्षांतिरूपा, जातिरूपा, लज्जारूपा, शांतिरूपा, श्रद्धारूपा, कान्तिरूपा, लक्ष्मीरूपा, वृत्तिरूपा, स्मृतिरूपा, दयारूपा, तुष्टिरूपा, मातृरूपा, भ्रांतिरूपा, व्याप्तिरूपा, चैतन्यरूपा, आत्मस्वरूपा प्रभृति रूपों में स्तुति की गयी है और चतुर्थ अध्याय में ‘शब्दात्मिका’ रूप में भी अभ्यर्थना की गयी है। यथा-
“ शब्दात्मिका सुविमलग्र्ग्यजुषान्निधान-
मुद्गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम् ।
देवी त्रयी भगवती भवभावनाय
वार्त्ता च सर्वजगतां परमार्त्तिहन्त्री ।।”
‘शब्दात्मिका’ अर्थात् ‘शब्द’ जिनकी आत्मा हो या जो शब्द स्वरूपा हो। जिज्ञासा हो सकती है, जो देवी शब्द स्वरूप है, वह शब्द कैसा? तो कहा, ‘सुविमल।’ प्रश्नोदय होता है, जो सुविमल, अत्यन्त पवित्र शब्द है, उसका क्या समल कान से सुना जा सकता है? यदि नहीं, तो वह क्या है, कहाँ है तथा उसको कौन, कैसे सुन सकता है? संत कबीर साहब ने इसका बड़ा स्पष्ट उत्तर दिया है-
“ विमल विमल अनहद धुनि बाजै,
सुनत बनै जाको ध्यान लगे ।”
अर्थात् वह अनहद शब्द है, अपने अंतरा- काश में होता है और उसको वह सुरत के कान से सुनना है, जिसका ध्यान ठीक-ठीक बनता है।
संत चरणदासजी ने बतलाया है कि वह शब्द जड़ नहीं, क्षर नहीं; बल्कि चेतन है, अक्षर है और सर्वव्यापक है। यह वह शब्द है, जिसके ध्यान करने से जीव पीव हो जाता है। वह शब्दब्रह्म बन जाता है। उसके सारे भ्रम विनष्ट हो जाते हैं, वह अमित तेज धारण करता है, जिसकी उपमा नहीं है।
“ अनहद शब्द अपार दूर सूँ दूर है ।
चेतन निर्मल शुद्ध देह भरपूर है ।।
निःअच्छर है ताहि और निःकर्म है ।
परमातम तेहि मानि वही परब्रह्म है ।।
या के कीने ध्यान होत है ब्रह्म ही ।
धारै तेज अपार जाहिं सब भर्म ही ।।
वा पटतर कोइ नाहिं जो यों ही जानिये ।
चाँद सूर्य्य अरु सृष्टि के माहिं पिछानिये ।।”
महर्षि मेँहीँ-पदावली में है कि निर्मल चेतन शब्द बाहरी ज्ञान से नहीं सुना जाता है। वह आंतरिक कान यानी सुरत के कान से सुना जाता है।
“ मीठी मुरली सुनै सुरत के कान से ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ बड़ा कौतुहल होइ ,
ध्वनिन के ध्यान से ।।”
एक कामिल फकीर का कलाम कितना अच्छा है, सुनिये-
“ कुदरती काबे की तू, मेहराब में सुन गौर से ।
है आ रही धुर से सदा, तेरे बुलाने के लिए ।।”
अगर कोई सगले नसीरा (दृष्टियोग) का ठीक-ठीक अभ्यास करता है, तो उसके भीतर का कान-सुरत का कान खुल जाता है और तब वह उस शब्द को सुनता है, जो परमात्मा से जा मिलाता है।
“ गोश बातिन हो कुशादा, जो करे कुछ दिन अमल ।
ला इलाह अल्लाह हो, अकबर पै जाने के लिए ।।”
वह शब्द ऋक, यजुः और साम का निधान है अर्थात् इसी शब्द से ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद का उद्भव हुआ है।
स्थूल सगुण साकार भगवान श्रीकृष्ण के गायन गीत को श्रीमद्भगवद्गीता कहते हैं। निर्गुण निराकार परब्रह्म परमात्मा से निःसृत निनाद-गीत को उद्गीत (उद्गीथ) कहते हैं।
उद्गीथ के संबंध में श्वेताश्वतरोपनिषद् और छान्दोग्य उपनिषद् में इस प्रकार लिखा है-
“ उद्गीतमेतत्परमं तु ब्रह्म तस्मिंस्त्रयं सुप्रतिष्ठाऽक्षरं च ।
अत्रन्तरं ब्रह्मविदो विदित्वा लीना ब्रह्मणि तत्परा योनिमुक्ताः ।।”
अर्थात् (उद्गीथ) उद्गीत (अर्थात् ॐ) परम ब्रह्म है। उसमें तीन सुप्रतिष्ठित अक्षर (अ, उ, म्) हैं। ब्रह्मज्ञानी लोग भीतरी हालत (रहस्य=गुप्त भेद) जानकर ब्रह्म में लीन हो जाते हैं। (अर्थात् ॐ = उद्गीत में लीन हो जाते हैं) । (अध्याय 1/7)
सृष्टि निर्माण-निमित्त परमात्मा में जब एषणा होती है, तब एक बड़ा घोर ध्वन्यात्मक शब्द होता है। उस शब्द को सुनकर जो जीवन्मुक्त ऋषि होते हैं, वे अ, उ, म् में आरोप कर लेते हैं।
संत कबीर साहब ने इसी शब्द साधना की ओर साधकों का ध्यान आकृष्ट किया है। उन्होंने कहा-
“ साधो शब्द साधना कीजै ।
जेहि शब्द से प्रगट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै ।।”
गुरु नानकदेव भी इसके कायल हैं। उनका कहना है कि शब्द से ही सृष्टि हुई है। यानी शब्द तत्व को वे संसार का बीज मानते हैं; यथा-
“ शब्द तत्तु बीर्ज संसार । शब्दु निरालमु अपर अपार ।।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा । नानक भेदु न शब्द अलेषा ।।
शब्दै सुरति भया प्रगासा । सभ को करै शब्द की आसा ।।
पंथी पंखी सिऊँ नित राता । नानक शब्दै शब्दु पछाता ।।
हाट बाट शब्द का खेलु । बिनु शब्दै क्यों होवै मेलु ।।
सारी स्त्रिष्टि शब्द कै पाछै । नानक शब्द घटै घटि आछै ।।”
वेद, उपनिषद्, कबीर, गुरु नानक आदि सतों की वाणियों से मिलती-जुलती बातें हम संत दादू दयालजी की वाणी में पाते हैं-
“ एक शबद सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोइ ।
आगे पीछे तौ करे, जे बलहीना होइ ।।”
और तो और, ईसाई धर्म का पवित्र ग्रंथ बाइबिल भी इसी विषय की परिपुष्टि करता है; यथा- In the beginning was the word, the word was with God and the word was God कितना गिनाया जाए, शब्दब्रह्म की चर्चा से संतवाणियाँ भरी पड़ी हैं। इस विषय में संत सुंदर दासजी ने बड़ी मार्मिक बात कही है-शब्दब्रह्म और परब्रह्म को अच्छी तरह जानो। पाँच तत्व और तीन गुण को मिथ्या कर मानो तथा अन्यत्र जाकर व्यर्थ की भटकन में मत पड़ो।
“ शब्दब्रह्म परिब्रह्म, भली विधि जानिये ।
पाँच तत्त्व गुण तीन, मृषा करि मानिये ।।
बुद्धिवन्त सब सन्त, कहैं गुरु सोइ रे ।
और ठौर शिष जाइ, भ्रमे जिनि कोइ रे ।।”
देवीत्रयी=भूत, वर्तमान और भविष्य की ज्ञात्री तथा त्रय गुण की विधात्री है। यद्यपि आप निर्गुण हैं, तथापि आपसे ही त्रय गुण-रज, सत्व और तम की उत्पत्ति हुई है। रजगुण = उत्पादक शक्ति, सत्वगुण = पालक शक्ति और तमगुण = विनाशक शक्ति। तात्पर्य यह कि आपमें जगत को उत्पन्न, पालन और विनाशन की शक्ति है।
भगवती यानी भगवाली। ‘भग’ किसको कहते हैं? छह गुणों को ‘भग’ की संज्ञा दी गयी है। वे छह गुण कौन-से हैं? विष्णुपुराण में लिखा है-
“ ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ।।”
अर्थात् समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य-इन छह गुणों से युक्त न को ‘भगवान’ और नारी को ‘भगवती’ कहते हैं।
सृष्टि के धारण-निमित्त आपवार्ता (कृषि, वाणिज्यादि) जीविकारूप हैं तथा सभी लोकों की कठिन बाधाओं, विपत्तियों और दुःखों को नाश करनेवाली है।
विश्व ब्रह्मांड रचना हेतु परम प्रभु परमात्मा से जो प्रथम धारा प्रस्फुटित हुई, वही सच्चिदानंदमयी आद्याशक्ति वा पराप्रकृति है। इसको स्फोट, उद्गीथ (उद्गीत), प्रणव, शब्द ब्रह्म, ब्रह्मनाद, हिरण्यगर्भ, समष्टिप्राण, अक्षर पुरुष, निर्गुण, चेतन, आदिशब्द, आदिनाम, सारशब्द, अनाहत, ध्वन्यात्मक आदि नामों से भी संबोधित करते हैं।
उसी का अवतरण अपरा प्रकृति वा साम्यावस्थाधारिणी मूल प्रकृति (अष्टधा प्रकृति) के रूप में हुआ। जिसके अभ्यन्तर भँवरगुफा, महाशून्य, शून्य, त्रिकुटी, सहस्त्रार, अष्टदल कमल आदि स्थान हैं; ऐसा संतों ने कहा है। अष्टदल कमल की चर्चा कबीर साहब की वाणी मे हम पाते हैं-
“ पछिम दिशा को चलली विरहिन,
पाँच रतन लिये थार भरे ।
अष्ट कमल द्वादश के भीतर,
सो मिलने की चाह करे ।।”
स्थूल मंडल में आद्यादेवी का आविर्भाव स्थूल रूप में यानी अष्ट भुजाधारिणी देवी के रूप में हुआ, जिसकी प्रतिमा का पूजन हमलोग करते हैं।
आवश्यकता है हम देवीजी के स्थूल रूप यानी अष्टभुजी रूप में पूजा का आरंभ करें। उनके सूक्ष्मरूप, अष्टकमल ज्योतिरूप को जानें। पश्चात् अष्टधा प्रकृतिरूप अनहद नाद की साधना कर परा प्रकृतिरूप अनाहत नाद की भी अवधारणा करें और अंत में उनके आत्मस्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त कर अपना परम कल्याण बनाएँ।
जिन सज्जनों ने विजयादशमी के शुभ अवसर पर पावन सत्संग का आयोजन किया है, उन सबको मैं हार्दिक धन्यवाद देता हूँ तथा परम प्रभु से उनकी शुभ उन्नति के लिए प्रार्थना करता हूँ।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 16-10-1999 ई0 को दुर्गास्थान, मोहदीनगर, भागलपुर में आयोजित सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मार्च 2000 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
यह देवघर जिला है। देवघर जिला के अंदर जितने घर हैं-सब देवघर हैं। वैदिक धर्म में तैंतीस कोटि देवता माने गये हैं। उन तैंतीस कोटि देवों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश; ये त्रिदेव विशेष माने गये हैं। जब जिज्ञासा हो कि इन तीनों में कौन बड़े? तो उत्तर में निवेदन है कि स्कन्द पुराण में इस संबंध में एक चर्चा आयी है। एक समय ब्रह्मा और विष्णु आपस में वार्तालाप कर रहे थे। बातचीत के क्रम में ब्रह्मा अपने को बड़ा कह रहे थे और विष्णु अपने को। दोनों में द्वन्द्व पैदा हुआ और वाकयुद्ध शुरू हो गया। जहाँ ब्रह्मा और विष्णु-दोनों आपस में इस तरह का वाद-प्रतिवाद कर रहे हों, वहाँ दोनों में कौन बड़े, कौन छोटे, निर्णय दे तो कौन? दोनों में वाकयुद्ध हो ही रहा था कि दोनों के बीच से एक स्तम्भ पैदा हुआ। वह अग्निर्मय, ज्योतिर्मय था। उस ज्योतिर्मय स्तम्भ को देखकर दोनों स्तम्भित हो गये। चकित हो सोचने लगे कि यह क्या हुआ! ब्रह्माजी हंस पर बैठकर ऊपर आकाश की ओर चले और विष्णुजी नीचे से पाताल की ओर चले कि आखिर इसका ओर-छोर कहाँ है? कुछ देर के बाद ब्रह्मा ऊपर से नीचे लौटते हैं और विष्णु भी नीचे से ऊपर की ओर आते हैं। दोनों का मिलन होता है। ब्रह्मा ने कहा, ‘ऊपर में कहीं पता नहीं चला कि कहाँ अंत है।’ विष्णु ने कहा, ‘नीचे में उसके आरंभ का कुछ पता नहीं है।’ अंत में दोनों ने निर्णय किया कि हम दोनों से ये ही बड़े हैं अर्थात् उन्हीं का नाम हुआ महादेव। यूँ तो सभी ‘देव’ कहलाते हैं; लेकिन भगवान शंकर को महादेव की संज्ञा दी गयी है। महादेव अर्थात् बड़े देव।
स्थानीय पण्डा महाशयगण के द्वारा भगवान शंकरजी के प्रांगण में सत्संग का आयोजन हुआ। यह तो आपलोगों ने भगवान शंकर की आज्ञा का पालन कर पुनीत कर्म का आदर्श दिया है। जबकि भगवान शंकर कहते हैं-
“ गिरिजा संत समागम, सम न लाभ कछु आन ।
बिनु हरि कृपा न होहिं सो, गावहिं वेद पुरान।।”
संतो के समागम के समान कोई दूसरा लाभ ही नहीं है। एक बंगाली महात्मा हुए, उन्होंने बंगभाषा में कहा-
“ करऽ साधु समागम पवित्र हइबे मन।
घुचिंबे मोह अंधकार रे।।”
संत सुदरदासजी महाराज ने भी संत समागम की विशेषता बतलाते हुए कहा है-
“ तात मिले पुनि मात मिले
स्त्रुत भ्रात मिले बनिता सुखदाई।
राज मिले गज बाजि मिले,
सब साज मिले सुन्दर तन पाई।।
लोक मिले सुरलोक मिले,
विधिलोक मिले बैकुण्ठहु जाई।
सुन्दर और मिले सबहिं पर,
संत समागम दुर्लभ भाई।।”
जिन सज्जनों ने इस संत समागम का आयोजन किया है, उन सबको मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। उन्होंने बहुत बड़ा पुण्य का कार्य किया है।
जिज्ञासा हो सकती है कि भगवान शंकर ने जो पार्वतीजी से कहा कि संत-समागम के समान दूसरा लाभ नहीं है, तो वह लाभ क्या है? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज इसका समाधान इस भाँति करते हैं-
“ जब द्रवहिं दीन दयाल राघव साधु संगति पाइये ।
जेहि दरस परस समागमादिक पाप राशि नसाइये ।।”
अर्थात जब परमप्रभु की अनुकम्पा होती है, तो संत समागम मिलता है और पाप राशि का विनाश होता है। इस छन्द के द्वारा गोस्वामीजी संतो के दर्शन, स्पर्शन, समागम के बाद कुछ करने का आदेश देते हैं। वह कुछ क्या करना है-भगवद्भजन करना है। यदि पूछा जाय कि भगवद्भजन से क्या होता है तो गोस्वामीजी उत्तर देते हैं-
“ जबहीं नाम प्रगट भया, भयो पाप का नाश।
जैसे चिनगी आग की, पड़ी पुरानी घास।।”
जिस तरह पुरानी घास पर आग की चिनगी पड़ते ही वह भस्मीभूत हो जाती है, उसी तरह संतों के समागम और उनकी बताई हुई विधि से भगवद्भजन किया जाए तो पाप समूह का नाश हो जाता है, यह संत समागम का फल है।
किसी समय गजानन और षडानन-दोनों भाई प्रांगण में कंदुक क्रीड़ा कर रहे थे। उसी समय चतुराननजी पंचाननजी से भेंट करने के लिए आए। परस्पर आगत-स्वागत और वार्तालाप के पश्चात भगवान शंकर ने ब्रह्माजी से उनके आगमन का कारण पूछा। प्रजापति ने कहा-है उमापति! संसार के सभी प्राणी दैहिक, दैविक और भौतिक; इन त्रितापों से संतप्त हो रहे हैं। इन त्रयमूल को निर्मूल करने का यदि आपके पास कोई निर्मूल उपाय हो तो बतलाइए।
भगवान शंकर ने कहा कि हे ब्रह्मा! इसके लिए कोई ज्ञान को स्थान देते हैं, कोई लोग योग का संयोग बतलाये हैं; किन्तु मेरे विचार से-
“ योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः ।
योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।। 13।।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ।। 131/2।।”
अर्थात् मोक्ष पाने के लिए यानी भवदुःख से त्रण पाने के लिए कोई ज्ञान और कोई योग की बात करते हैं, पर केवल योग और केवल ज्ञान मोक्ष-कार्य में समर्थ नहीं है। इसलिए ज्ञान और योग; दोनों का अभ्यास दृढ़ता के साथ मुमुक्षु को करना चाहिए ।।
अब हम गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज से इस संदर्भ में जिज्ञासा करना चाहेंगे कि वे इसपर क्या समाधान बतलाते हैं। रामचरितमानस में उन्होंने लिखा है-
“ धर्म ते विरति योग ते ज्ञाना ।
ज्ञान मोक्षप्रद वेद बखाना ।।”
जहाँ भगवान विष्णु को योगेश्वर कहा गया है, वहीं भगवान शंकर को योगीश्वर की संज्ञा से अभिहित किया गया है। बल्कि भगवान शंकर जो योग के प्रवर्तक कहे जाते हैं। भगवान शिवजी जो ज्ञान और योग-दोनों का अवलंब लेने कहते हैं, वह कौन-सा योग है? सामान्यतया हमारे यहाँ राजयोग और हठयोग; इन दो योगों की चर्चा है। जब हम श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ते हैं, तो उसके अठारह अध्यायों में अठारह प्रकार के योगों की चर्चा पाते हैं। इतना ही नहीं, वर्णित योगों के अतिरिक्त और भी योगों की बातें उसमें आयी हैं। अब विचारणीय विषय है कि भगवान शिव का किस योग की ओर संकेत है?
श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी महाराज ने अपने योगतारावलि ग्रंथ में लिखा है-
“ सदा शिवोक्तानि सपादलक्षलयावधानानि वसन्ति लोके ।
नादानुसंधानसमाधिमेकं मन्यामहे मान्यतमं लयानाम् ।।”
अर्थात् भगवान शंकर ने सवा लाख साधन बतलाए हैं, जिनमें नादानुसंधान को उन्होंने सर्वश्रेष्ठ बतलाया है। पुनः जिज्ञासा होती है कि इस नाद को हम कहाँ पकड़ें, पकड़ने की क्या विधि है? अतएव यह भी हम भगवान शंकर से ही पूछें, तो उत्तम होगा। उत्तर में भगवान शंकर योगशिखोपनिषद् में कहते हैं-
‘विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम्।। 121/2।।’
अर्थात् जो साधक विन्दुपीठ का भेदन करते हैं, उनको नाद-लिंग की प्राप्ति होती है।
हम शिवालयों में जाते हैं, तो देखते हैं कि वहाँ नीचे जलढरी है और उसके ऊपर लिंग की स्थापना हैं अंतस्साधना के साधक को पहले विन्दु पश्चात् नाद मिलता है। विन्दु जलढरी है और उसके ऊपर नाद लिंगरूप में विराजित है। लिंग का अर्थ होता है-चिह्न। हम बाह्य संसार के शिवालयों में जो लिंग देखते हैं, वह स्थूल चिह्न है। भगवान शंकर कहते हैं कि इसके बाद और भी दूसरा चिह्न है। वह क्या है?
“ विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।”
अर्थात विन्दु और नाद महालिंग है और शिवशक्ति का निकेतन (घर) है। हमारा शरीर शिवालय है। इसमें शिवजी विराजमान हैं और माँ पार्वती विराजती हैं। विन्दुरूप में प्रतिष्ठित हैं हमारी जगज्जननी पार्वतीजी और नादरूप में प्रतिष्ठित हैं जगत्पिता शंकरजी। उस विन्दु और नाद की यदि हम उपासना कर लेते हैं, तो शक्ति और शिव-दोनों की ही उपासना हो जाती है। उसी नाद को पकड़ने के लिए कहा गया है। योगतारावलि ग्रंथ में लिखा है कि आचार्य शंकर ने नादानुसंधान की स्तुति की है।
“ नादानुसंधान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महे तत्त्वपदं लयानाम् ।
भवत्प्रसादात् पवनेन साकं विलीयते विष्णु पदे मनो मे ।।”
“ सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा ।
नाद एवानुसन्धेयो योगसाम्राज्यमिच्छता ।।”
अर्थात् योगसाम्राज्य की इच्छा रखनेवाले को नादानुसंधान की साधना करनी चाहिए।
संतों की वाणियों में विन्दु-नाद की भरपूर चर्चा है। या यूँ कहिये कि विन्दु और नाद की चर्चा से संतवाणियाँ भरी पड़ी हैं। संत पलटू दासजी महाराज कहते हैं-
‘विन्दु में तहँ नाद बोलै, रैन दिवस सुहावनं ।’
संत तुलसी साहब ने विन्दु को तारा की संज्ञा दी है और कहा है कि अपने अंदर तारा देखनेवाले को अनहद नाद का झनकार भी सुनने को मिलता है। यथा-
“ गगन द्वार दीसै एक तारा ।
अनहद नाद सुनै झनकारा ।।”
योग करने की जहाँ तक बात है, गुरु नानक देवजी महाराज कहते हैं-योगी कौन?
“ जोगु न खिंथा जोग न डंडै, जोगु न भसम चड़ाईअै ।
जोगु न मुंदी मूंड़ि मूंड़ाइअै, जोग न सिंञी वाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै, जोग जुगति इव पाईअै ।।
गली जोगु न होई ।
एक द्रिसटि करि समसरि जाणै, जोगी कहीअै सोई ।।”
कहते हैं कि यदिकोई गुदड़ी पहनकर घूमता है, इसलिए वह योगी है, ऐसी बात नहीं है। दंड-कमंडल लेकर फिर रहा है अथवा शरीर में भस्म लगा लिया है, कमर में मूँज की डोरी पहन रखी है; इसलिए वह योगी है, ऐसी बात नहीं। कोई बाल मुड़ा करके या बाल को नोचकर, उखाड़कर फेंक दिया है और घूम रहा है; इसलिए वह योगी है, ऐसी बात नहीं है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ मूड़ मुड़ाए हरि मिलै, तो सब कोइ लेय मुड़ाय ।
बार-बार के मुड़ते, भेंड़ बैकुण्ठ न जाय ।।
केसन कहा विगाड़िया, जो मुड़ी सौ बार ।
मन को क्यों न मुड़िये, जा में विषय विकार ।।”
यदि कोई कहे कि जब बाल मुड़ाने से हरि नहीं मिलते हैं, तब बाल बढ़ाने से, दाढ़ी बढ़ाने से तो भगवान मिल जाएँगे? ऐसी बात नहीं है। यदि बाल-दाढ़ी बढ़ाने से भगवान मिल जाते, तो सबसे पहले जंगलवासी बाघ और सिंह को मिल जाते। उसका बाल तो जन्म से ही बढ़ा हुआ होता है। गुरु नानकदेवजी की दृष्टि में वही योगी होता है, जो अपनी दृष्टिधारों को एक कर सकता है।
‘एक द्रिसटि करि समसरि जाणै, जोगी कहीअै सोई ।’
बाइबिल में लिखा है-‘शरीर का दीपक आँख है। यदि तेरी आँख एक हो तो तेरा सारा शरीर उजियाला होगा और यदि तेरी आँख बुरी है तो देखो तुम्हारे अंदर अंधकार का कितना बड़ा साम्राज्य है।’ यहाँ एक आँख करने के लिए कहा गया है। इसका क्या मतलब है? हमारी दो आँखें हैं, तो क्या एक आँख को निकाल दें, तब दिव्य दृष्टि मिल जाएगी; नहीं। दोनों दृष्टि की धाराओं को मिलाकर एक करने से दिव्यदृष्टि होगी। हमारी दृष्टि की दो धाराएँ हैं। वे दोनों समानान्तर रेखाएँ हैं। समानान्तर रेखाएँ कभी आपस में मिलती नहीं हैं, पर क्रिया विशेष से गुरु-कृपा द्वारा दृष्टि की दोनों धाराओं को मिलाकर एक की जाती है। जहाँ पर दृष्टि की दोनों धाराएँ एक होती हैं, तो क्या होता है? दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है। यहाँ भी दृष्टि की दो धाराएँ हैं-एक निगेटिव दूसरा पोजिटिव। जहाँ दोनों मिलती हैं, वहाँ बल्ब जल उठता है। एमप्लीफायर में देखिये, जहाँ निगेटिव और पोजिटिव धाराएँ मिलती हैं, वहाँ बल्ब जलता है और जहाँ बल्ब जलता है, वहाँ भाइब्रेशन होता है। उसी तरह हमारे अंदर जहाँ बल्ब जलेगा, अंतःप्रकाश मिलेगा, वहीं पर नाद की अनुभूति भी होगी। उसी नाद को पकड़ने के लिए भगवान शंकर कहते हैं। विन्दु को पकड़ो, नाद मिलेगा। पहले विन्दु को पकड़ो, तब नाद तुमसे पकड़ा जाएगा। जबतक विन्दु को नहीं पकड़ोगे, नाद तुमसे पकड़ा नहीं जाएगा। वह नाद क्या है? इसी विषय का स्पष्टीकरण संत तुलसी साहब ने इस भाँति किया है-
“ कुदरती काबे की तू, मेहराब में सुन गौर से ।
है आ रही धुर से सदा, तेरे बुलाने के लिए ।।
क्यों भटकता फिर रहा तू, ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए ।।”
अगर कोई सकलेनसीरा अर्थात् दृष्टियोग का अभ्यास करता है, तो क्या होता है, वे कहते हैं-
“ गोश बातिन हो कुशादा, जो करे कुछ दिन अमल ।
ला इलाह अल्लाह हो, अकबर पै जाने के लिए ।।”
वह नाद मिलेगा, जिस आवाजेगैब को पकड़कर तुम अल्लाह के पास, परम प्रभु परमात्मा के पास पहुँच जाओगे।
यही संतों का ज्ञान है। भगवान श्ांकर भी इसी नाद को पकड़ने के लिए कहते हैं। उपनिषद् में लिखा है, ‘विन्दु नाद कलातीतं यस्तं वेद स वेदवित्।’ जो विन्दु और नाद को जानता है, वास्तव में वही वेदज्ञ है।
सभी संत विन्दु और नाद को पकड़ते हुए परम प्रभु परमात्मा तक जाने का रास्ता बतलाते हैं। इसके लिए घरवार, परिवार, रोजगार छोड़ने के लिए नहीं कहते हैं। घरवार, परिवार, रोजगार में रहिए; सच्ची कमाई कीजिए, अपना जीवन-यापन कीजिए, परिवार का भरण-पोषण कीजिए और जहाँ तक बन पड़े दूसरे का उपकार भी कीजिए। अपने जीवन को पवित्र बनाइये। गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
“ सूचै भाड़ै साचु समावै बिरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।”
पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है। हमलोग सुलतानगंज गंगाजल लाने के लिए जाते हैं, तो किस तरह के बर्तन में गंगाजल लाकर यहाँ बाबा को चढ़ाते हैं। बर्तन को साफ करके, धो करके पवित्र कर लेते हैं, तब पवित्र बर्तन में पवित्र जल लेते हैं और भगवान श्ांकर को चढ़ाते हैं। तब, हम सोचें, जो परम प्रभु परमात्मा परम पवित्र हैं, उनके पाने के लिए हमारा हृदय कैसा होना चाहिए? जबतक हमारा हृदय परम पवित्र नहीं होगा, हम प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। कोयला खान में मजदूरगण काम करते हैं और बाबू भी। मजदूर जो खान में कोयला निकालता है, उसको जमीन पर कहिये बैठने के लिए या कोयला पर कहिये बैठने के लिए, जहाँ कहिये वह मजे में बैठ जाएगा। पर, उसी कोलियरी के ऑफिस में जो बाबू रहते हैं, उनका कपड़ा साफ है, वे कोयला पर नहीं बैठेंगे। उनके लिए साफ स्थान चाहिए। जब बाबू के लिए साफ स्थान चाहिए, तब जो सबके बाबा हैं, पिता हैं, वे कैसे गंदे हृदय में वास करेंगे? इसीलिए-
“ खान पान को प्रथम सम्हारो ।
तब रस-रस अवगुण सब मारो ।।”
तथा-
“ जैसा खाय अन्न । वैसा हो मन ।।
जैसा अन्न जल खाइये, वैसा ही मन होय ।
जैसा पानी पीजिये, वैसी वाणी होय ।।”
‘जैसा अहार वैसी डकार’ यह कहावत प्रसिद्ध है। पितामह की छाती में अर्जुन ने इतने वाण मारे कि वे गिर गये और वाण ही शय्या बन गयी। कौरव और पाण्डव दल के लोग प्रतिदिन उनके दर्शन के लिए, उनसे बातचीत करने के लिए जाते थे। एक दिन का प्रसंग है कि पाँचो भाई पाण्डव द्रौपदी के साथ उनके दर्शनार्थ गये। भीष्म पितामह ने उनलोगों को बहुत अच्छी-अच्छी बातें सुनायीं। ज्ञान की, योग की, जप की, तप की, लोक-व्यवहार आदि विविध तरह की बातें बतायीं। वे बोल रहे थे कि बीच में ही द्रौपदी मुस्करा देती हैं। भीष्म की नजर उसपर पड़ी और वे चुप हो गये। युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर कहा, ‘पितामह! आप बहुत अच्छी-अच्छी बातें हमलोगों को सुना रहे थे। हमलोगों का मन आीांदित हो रहा था। आप बीच में ही क्यों रुक गये?’ भीष्म पितामह ने उत्तर दिया, ‘मैं तो कह ही रहा था; लेकिन बीच में ही द्रौपदी ने मुस्करा दिया। उसकी मुस्कुराहट देखकर ही मुझे रुक जाना पड़ा।’ द्रौपदी ने हाथ जोड़कर कहा, ‘पितामह! क्षमा कीजिए, मुझसे गलती हो गयी। मुझे नहीं हँसना चाहिए था।’ भीष्म पितामह ने कहा, ‘बेटी! जो सम्भ्रान्त परिवार की महिला होती है, वह अनावश्यक हँसती नहीं है। उसके हँसने में कोई राज होता है। तुम प्रतिष्ठित परिवार की बेटी और बहू है। तुम विदुषी है। देव-गंधर्व के समान तुम्हारे पाँचो पति हैं और तुम पतिव्रता नारी है। तुम्हारे हँसने में कुछ कारण अवश्य है; उस कारण को बतलाओ?’ द्रौपदी ने हाथ जोड़कर क्षमा-याचना करती हुई बोली, ‘आप जो इतनी ऊँची-ऊँची बातें हमलोगों को सुना रहे थे, मेरे मन में हुआ कि यह ज्ञान आपको पहले नहीं था। यह ज्ञान आपको आज हुआ है।’ भीष्म पितामह ने कहा, ‘बेटी! ऐसी बात नहीं है। यह ज्ञान मुझे पहले भी था।’ द्रौपदी ने कहा, ‘पितामह! यदि यह ज्ञान आपको पहले था, तो जिस समय कौरवों की सभा में मेरी साड़ी खींची जा रही थी, आपके मुँह से चूँ शब्द नहीं निकला। फिर मैं कैसे मानूँ कि यह ज्ञान आपको पहले भी था?’ पितामह ने उत्तर दिया, ‘बेटी! मैंने कौरवों का कुअन्न खाया था, उसी कुअन्न के दुष्प्रभाव से मेरा मन दूषित हो गया था; इसलिए उचित बात बोल नहीं सका।’
मेरे कहने का तात्पर्य यह कि भोजन का प्रभाव कैसा होता है, इसपर विचार कीजिए। भीष्म पितामह बाल ब्रह्मचारी थे, अष्टवसुओं में से एक थे। उनपर भी अन्न का प्रभाव पड़ा। अतएव आवश्यकता है कि हम अपने खान-पान की सम्हाल करें।
हमारा देश भारतवर्ष एक दिन विश्वगुरु कहलाता था। यहाँ दूसरे-दूसरे देशों के लोग शिक्षा ग्रहण करते थे। आज हम पाश्चात्य देश की शिक्षा ले रहे हैं; वह ऐसी शिक्षा जो शिक्षा नहीं, कुशिक्षा है और हमारी जो सद्शिक्षा थी, वह वे लोग ले रहे हैं।
भारत शाकाहारी देश रहा है। जिस समय त्रेतायुग में राम-रावण का युद्ध हो रहा था, रावण के दल में ऐसे-ऐसे लोग थे-‘महिष खाय अरु मदिरा पाना’ करते थे और राम के दल में बंदर-भालू थे, जो कि सब शाकाहारी- फलाहारी थे। जब रावण के साथ हनुमानजी की मुठभेड़ हुई, तो हनुमानजी ने रावण को घूँसा मारा, जिससे रावण लुढ़ककर पृथ्वी पर गिर पड़ा और अचेत हो गया। जब होश में आया, तो रावण ने हनुमानजी से कहा, ‘शाबाश! धन्य हो, तुम धन्य हो।’ हनुमानजी ने कहा, ‘मैं धन्य नहीं, मुझे धिक्कार हैकि मेरा मुक्का खाकर भी तुम जीवित हो उठ गये।’ विचारणीय विषय है कि मांसाहारी पर शाकाहारी का मुक्का लगता है और वह बेहोश हो जाता है। आप कहेंगे कि यह तो त्रेतायुग की बात है। त्रेता की बात छोड़ दीजिए, कलियुग की बता लीजिए। महात्मा गाँधीजी शाकाहारी थे और अंग्रेज लोग मांसाहारी थे। मस्तिष्क का युद्ध हुआ। दोनों में किसकी विजय हुई? महात्मा गाँधी ने अंग्रेजों को पराजित कर भारत को स्वतंत्र किया।
विदेशों में हुई खोज के आधार पर ब्रिटिश हेल्थ मिनिस्टर मिसेज क्यूरी ने अपना वक्तव्य दिया है कि अंडा किसी को नहीं खाना चाहिए। अंडे के पीले भाग में कॉलेस्ट्राल रहता है, जिसका सीधा अटैक हर्ट पर होता है। बच्चे को अंडा खिलाने से उसे खाज-खुजली, दिनाई आदि चर्मरोग होते हैं। मुर्गी-पालन करनेवाले मुर्गी की सुरक्षा के लिए डी0डी0टी0 छिड़कते हैं। वह डी0डी0टी0 मुर्गी के अन्न में भी जाता है। मुर्गी जब उसको खाती है और अंडा देती है, तो उस अंडे में डी0डी0टी0 चला जाता है। ऐसे प्रत्येक अंडे में पन्द्रह हजार छिद्र होते हैं, जो इन आँखों देखे नहीं जाते, जिससे पता चलता है कि डी0डी0टी0 उसमें प्रवेश किया है। उस अंडे को खाने से डी0डी0टी0 का शरीर पर क्या प्रभाव होगा, यह आप स्वयं समझ सकते हैं। उससे विभिन्न प्रकार के रोग होते हैं। यहाँ के डॉक्टर उन रोगों की पहचान नहीं कर पाते हैं; क्योंकि उनके पास उस तरह के यंत्र उपलब्ध नहीं हैं कि परीक्षण करके रोग बतला सकें। आज इंगलैंड में सत्तर प्रतिशत अंडे की बिक्री बंद हो गयी। और हमारे यहाँ अंडे के संबंध में टी0वी0 पर प्रचार किया जाता है कि ‘संडे हो या मंडे, रोज खाइये अंडे।’
अमेरिका के दो सुप्रसिद्ध डॉक्टरों ने मांस पर रिसर्च किया है। उनको बीस लाख डॉलर पुरस्कृत किया गया है। उन्होंने बतलाया है कि जिस समय किसी जानवर को मारा जाता है, तो उस जानवर को मारनेवाले पर क्रोध उत्पन्न होता है और अपनी मृत्यु को देखकर उसके अंदर करुणा उत्पन्न होती है। जानवर के अंदर उत्पन्न होनेवाले क्रोध और करुणा के मिश्रण से उसके रक्त का यूरिक एसिड निकलकर उसके मांस में चला जाता है। उस जानवर को मारने के बाद जो कोई उसके मांस को खाता है। उनके शरीर में विविध प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। आज अमेरिका में चालीस प्रतिशत लोग शाकाहारी हो गये हैं।
भगवान शंकर शाकाहारी थे। इसलिए उसके भक्तों को भी शाकाहारी होना चाहिए।
संतों का ज्ञान बतलाता है कि अपना मन पवित्र करो, हृदय पवित्र करो, तब उस परम पवित्र परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त कर सकोगे। इसके लिए खान-पान का प्रथम संयमन होना चाहिए। इन्द्रियों का संयमन होना चाहिए। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों से यदि हम अपने को बचाकर रख सकेंगे, तो हममें पवित्रता आएगी; तब हम प्रभु-प्राप्ति पथ की ओर अग्रसर हो सकेंगे। प्रभुं की अनुकम्पा से जब किसी संत सदगुरु के दर्शन होंगे, तो वे मार्ग-दर्शन देंगे। हम उस मार्ग पर चलने लगेंगे, तो चलते-चलते एक-न-एक दिन उस प्रभु को पाकर अपना परम कल्याण बना सकेंगे।
यही भगवान शंकर का उपदेश आपलोगों के सामने सार रूप में रखा। आपलोग बहुत शांत भाव से बैठे रहे, आपलोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद है। इस सत्संग का आयोजन जिन सज्जनों ने किया है, उन्हें भी बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। परम प्रभु परमात्मा से मैं सबके लिए मंगलकामना करता हूँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 23-10-1999 महादेव मंदिर देवघर में रात्रिकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अप्रैल 2000 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
प्राचीन शास्त्रें में मानव जीवन को 100 वर्षों को माना गया है और इस अवधि को चार भागों में बाँटा गया है। यथा प्रथम 25 वर्षों तक ब्रह्मचर्य आश्रम, दूसरे 25 वर्षों तक गृहस्थ आश्रम, तीसरे 25 वर्षों तक वानप्रस्थ आश्रम और चौथे 25 वर्षों तक संन्यास आश्रम। ब्रह्मचर्य आश्रम विद्याध्ययन करने का समय है। जबतक विद्याध्ययन हो, तबतक ब्रह्मचर्य का पालन करें। शिक्षा समाप्ति के पश्चात् गृहस्थ धर्म को स्वीकार कर सकते हैं। विवाह करने पर ही गृहस्थाश्रम होता है, चाहे वे कोई भी कार्य करे। जैसे कोई खेती करे, व्यवसाय करे अथवा अथवा नौकरी करे, फिर भी वह गृहस्थाश्रमी कहलाता है। उसके बाद वानप्रस्थ आश्रम आता है। 75 वर्ष के बाद संन्यास आश्रम आता है, जिसमें त्याग-ही-त्याग होता है।
विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य का पालन करना ही चाहिए। ब्रह्मचर्य में बहुत बल है। जो ब्रह्मचारी होते हैं, वे बड़े ही मेधावी होते हैं। ब्रह्मचारी की स्मरण शक्ति बहुत ही तीव्र होती हैै।
फ्रांस में एक बहुत बड़ा योद्धा हुआ था, उसका नाम था-नेपोलियन बोनापार्ट। वह अपने मित्र के यहाँ रहकर विद्याध्ययन करता था। उस देश में स्त्री-पुरुष में विशेष भेद नहीं रखा जाता है। मित्र की पत्नी उससे मिलने कई बार उसके कमरे में गई; परन्तु पढ़ने की धुन में वह इतना मस्त रहता था कि कमरे में कौन आया, कौन गया, उसे पता नहीं रहता। पढ़ते-पढ़ते वह बहुत बड़ा विद्वान बन गया तथा फ्रांस का सेनानायक बन गया। सेनानायक बनने पर उसके मन में आया कि जिस मित्र के यहाँ रहकर अध्ययन कर मैंने इतना बड़ा पद पाया, उनसे मिलना चाहिए। ऐसा विचारकर नेपोलियन अपने मित्र से मिलने के लिए जाता है। उसका मित्र अपनी पत्नी से कहता है-हमारे यहाँ रहकर जो नेपोलियन पढ़ता था, वह बहुत ऊँचे पद पर चला गया है, वह मिलने आया है। हमलोगों को उनसे मिलना चाहिए, चलो। वह झुँझलाकर कहती है कि कितनी बार उसके कमरे में मैं मिलने के लिए गई थी, उसने सिर उठाकर देखा तक नहीं। वह बड़ा मनहूस आदमी है। मित्र ने कहा कि ऊँचे पद पर रहते हुए भी वह हमसे मिलने के लिए आया है, मन से नहीं, तो कम-से-कम लोक-व्यवहार का ख्याल करके तो मिल जो। जब वह नेपोलियन से मिलने जाती है, तो नेपोलियन पूछता है कि आप मुझे पहचानते हैं? आपके यहाँ रहकर ही मैंने विद्याध्ययन किया था। मित्र की पत्नी ने उत्तर दिया कि, ‘हाँ, मैं पहचानती हूँ। तुम वही मनहूस युवक हो, जिससे मैं कितनी बार उसके कमरे में मिलने के लिए गयी थी; लेकिन उसने मुझे उलटकर देखा तक नहीं।’ नेपोलियन ने उत्तर दिया कि अगर मैं छात्र जीवन में पढ़ाई की ओर ध्यान न देता और आपकी ओर झाँककर देखा होता, तो आज मैं इस पद पर नहीं होता। ब्रह्मचर्य के पालन से ऐसा विकास होता है। विद्यार्थी जीवन ब्रह्मचर्य पालन का होता है।
स्वामी विवेकानंदजी बंगाल में हुए थे। उनके पिताजी एक अच्छे वकील थे, पर अचानक उनका देहान्त हो गया। घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ गयी। स्वामीजी चार-पाँच भाई-बहन थे। सभी दाने-दाने के मोहताज हो गए। एक दिन उनके घर में भोजन के लिए मात्र एक आलू के सिवाय और कुछ नहीं था। बेचारी बूढ़ी माँ क्या करती? उसी एक आलू को टुकड़-टुकड़े करके उबालकर नमक-मशाला मिलाकर कटोरी नरेन्द्र के सामने देती है। नरेन्द्र एक चम्मच पानी लेकर उसे अपनी बहन के सामने कर देते हैं। वह भी एक चम्मच पानी लेती है और दूसरी बहन के आगे कर देती है। इस प्रकार घूमती हुई कटोरी माँ के पास आ गयी। उनकी आँखों से पानी गिर गया। बच्चे भूखे हैं, पर बेचारी करती भी क्या! साहस बटोरकर कहती है, ‘बेटा! तुमलोगों को भाई-बहनों में इतना प्रेम है, तो तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल होगा।’ इस घटना से स्वामी विवेकानंद को बड़ा दुःख हुआ। उनके मन में हुआ कि पढ़-लिख करके भी मैं कुछ कर नहीं पा रहा हूँ, हमारे घर के लोग भूखे मर रहे हैं। उन्होंने नौकरी के लिए कलकत्ता शहर की गली-गली को छान डाली; लेकिन किन्हीं ने नौकरी दी नहीं। उस समय के वे बी0ए0 पास थे। उस समय बी0ए0 की कुछ कीमत थी। कुछ ही नहीं, बहुत कीमत थी। फिर भी कलकत्ता वालों ने उनको नौकर रखने के योग्य नहीं समझा। हारकर वे चले गये रामकृष्ण परमहंसजी के पास और उनसे प्रार्थना की, ‘मेरी आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय है, आप मुझपर दया कीजिए।’ परमहंसजी ने कहा, ‘जाओ माँ से कहो।’ माँ कहने का तात्पर्य माँ काली से था। विवेकानंदजी ने कहा, ‘आप कहिये, आपकी माँ है। आपकी बात सुनेगी, मेरी बात नहीं सुनेगी।’ परमहंसजी ने कहा, ‘वह मेरी माँ है, तेरी माँ है और जगज्जननी-सबकी माँ है। जाकर कहो।’ वे जाते हैं माँ काली के पास। आपनी दयनीय आर्थिक स्थिति के संबंध में कहना भूल जाते हैं और कहने लगते हैं, ‘हे माँ! मुझे ज्ञान दो, मुझे ध्यान दो, मुझे योग दो, भक्ति दो आदि।’ पश्चात् काली मंदिर से वे परमहंसजी के पास आए। परमहंसजी ने पूछा, ‘माँग लिया?’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘जी नहीं, मैं तो अर्थ माँगना भूल गया।’ परमहंसजी ने कहा, ‘जाओ फिर से माँगो।’ दूसरी बार वे फिर गये, तो उन्हीं बातों को दुहराये, ‘ज्ञान दो, ध्यान दो, योग दो-----। पुनः जब परमहंसजी के पास गये, तो उन्होंने पूछा, ‘माँग लिया?’ विवेकानंदजी ने कहा, ‘मैं माँग न सका, भूल गया।’ परमहंसजी ने पुनः माँ काली के पास भेजा। इस प्रकार वे तीन बार वहाँ गये; लेकिन तीनों बार उन्होंने वे ही बातें कहीं, आर्थिक संकट की बात वे नहीं कह पाए। परमहंसजी ने कहा, ‘देखो, तुम्हारे भाग्य में धन है नहीं। तुम तीन बार माँ के पास गये और लौट आए। खैर, मेरे पास आए हो, तो मोटा खाना, मोटा पहनना तुमको मिलता रहेगा। इसमें कभी कमी नहीं होगी।’
अमेरिका के शिकागो शहर में विश्वधर्म- सम्मेलन हुआ था। उसमें विभिन्न देशों के, विभिन्न धर्मों के लोग यत्र-तत्र से एकत्र हुए थे। भारत की ओर से उसमें भाग लेने के लिए मद्रास एक पंडित और स्वामी विवेकानंदजी गए हुए थे। पाश्चात्य देशों के लोग यह समझते थे कि भारत अध्यात्म- ज्ञान से हीन है। वहाँ के लोग मूर्तिपूजक हैं; सिर्फ स्थूल-पूजा जानते हैं। इसलिए उसका जो धर्मग्रंथ हेागा, वह भी अध्यात्म-विद्या से हीन होगा। वहाँ जितने धर्मों के लोग आए थे, सभी के धर्मग्रंथों को ऊपर-नीचे रखकर सजावट की गयी थी। वेद को वे लोग हेय दृष्टि से देखते थे, इसलिए उसे नीचे रखकर उसके ऊपर अन्य धर्मग्रंथों को रखा गया था।
जब स्वामी विवेकानंदजी के बोलने का समय आया, तो पुस्तकों की सजावट पर उन्होंने कहा, ‘पुस्तकों की जो सजावट की गयी है, वह वैसी ही है, जैसी होनी चाहिए। पुस्तकों की यह सजावट बतला रही है कि जितने भी धर्मग्रंथ हैं, सबका मूल वेद है। वेद के आधार पर ही सभी, धर्मग्रंथ टिके हुए हैं। अगर वेद को नीचे से खिसका दिया जाए, तो सारे धर्मग्रंथ लुढ़क जाएँगे। दूसरी बैठक में आयोजकों ने वेद को सबसे ऊपर रख दिया, जिसे देखकर स्वामीजी बोले,‘आज भी पुस्तक की सजावट अच्छी है, वेद सर्वोपरि ग्रंथ है, इसलिए इसे ऊपर रहना ही चाहिए। यह प्रत्युत्पन्नमतित्व ब्रह्मचर्य की विलक्षणता है। अतएव विद्यार्थियों को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
लंका में भगवान श्रीराम जब रावण की भुजाओं ओर सिरों को काटकर गिरा देते थे, तो पुनः वे सिर और भुजाएँ जुड़ जाती थीं। इस प्रकार कई बार होने पर भगवान बहुत चिंतित हुए। सोचने लगे कि रावण अब मारा नहीं जाएगा। सारा श्रम व्यर्थ हो गया। भगवान श्रीराम को चिंतित देखकर विभीषण ने कहा, ‘प्रभो! रावण ऐसे नहीं मरेगा, वह तो भगवती की गोद में बैठा हुआ है। जबतक भगवती उसे अपनी गोद से नहीं उतारेगी, तबतक रावण नहीं मारा जाएगा। भगवती की पूजा हो, तो वह प्रसन्न होकर रावण को अपनी गोद से नीचे उतार देगी और तब आपका कार्य सिद्ध होगा। भगवान श्रीराम ने पूछा, ‘भगवती कैसे प्रसन्न होगी?’ विभीषण ने उत्तर दिया, ‘मानसरोवर से एक हजार कमल के खिले फूल लाकर भगवती की पूजा की जाय, तब भगवती प्रसन्न होगी।’ हनुमानजी को मानसरोवर से एक हजार कमल फूल लाने का दायित्व सौंपा गया। सभी फूल आ गये और भगवान श्रीराम ने पूजा आरंभ की। पूजा पूरी हो गयी; किन्तु प्रकट नहीं हुईं। सभी चिंतित हो गए कि कहाँ त्रुटि रह गयी। फूलों की गिनती हुई, तो एक फूल एक पाया गया। सबने विचार किया कि इसीलिए भगवती प्रसन्न नहीं हुईं। भगवान श्रीराम हनुमानजी से बोले कि एक फूल ले आओ। हनुमानजी ने कहा,‘वहाँ इतने ही फूल थे।’ भगवान सोचने लगे कि अब क्या करें? इतने में भगवान राम के मन में आया कि लोग मुझे कमलनयन कहते हैं। यदि मैं एक फूल की जगह अपनी आँख निकालकर चढ़ा दूँ, तो संख्या पूरी हो जाएगी और भगवती प्रसन्न हो जाएगी। भगवान जैसे ही अपनी आँख निकालना चाहते थे कि भगवती प्रकट होकर उनका हाथ पकड़ लेती है। भगवती ने ही राम की प्रीति की परीक्षा के लिए एक फूल चुरा लिया था। भगवती प्रसन्न होकर रावण को गोद से उतार देती है और तब भगवान श्रीराम के वाण से रावण मारा जाता है।
इस प्रसंग से पता चलता है कि नारी यदि ब्रह्मचारिणी होती है, तो उसे भगवान भी पूजते हैं। यह ब्रह्मचर्य की महिमा है। नारी अबला नहीं, पतिव्रत धारण करनेवाली नारी प्रचण्ड प्रबला होती है। उसके शाप को भगवान भी स्वीकार करते हैं। जैसे कि गंधारी के श्राप को भगवान श्रीकृष्ण ने अंगीकार किया और वृन्दा के शाप को विष्णु भगवान ने; आदि।
विद्यार्थी जो ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए मनोयोगपूर्वक विद्याध्ययन करते हैं, वे सफलता की ओर अपने जीवन में बढ़ते जाते हैं। उनका मनोबल ऊँचा होता है। केवल छात्र ही ब्रह्मचर्य पालन करें, ऐसी बात नहीं है; छात्रएँ भी अगर ब्रह्मचर्य का पालन करें, तो उनमें भी वही तेज सा आ जाता है, जो छात्रें में आता है।
इसलिए हमारा खान-पान सात्विक, पवित्र एवं परिमित होना चाहिए, अन्यथा हमारा मन संयमित नहीं होगा। इसीलिए परमाराध्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं-
“ खान पान को प्रथम सम्हारो ।
तब रस रस सब अवगुण मारो ।।”
भगवान श्रीराम की दिनचर्या से विद्यार्थियों को शिक्षा लेनी चाहिए। वे प्रतिदिन प्रातःकाल उठते थे, तो क्या करते थे?
“ प्रातः काल उठि कै रघुनाथा ।
मातु-पिता गुरु नावहिं माथा ।।”
(रामचरितमानस)
मतलब यह कि भगवान श्रीराम नित्यप्रति सबेरे उठकर माता-पिता और गुरु की चरण छूकर प्रणाम करते थे। यह केवल विद्यार्थी जीवन में ही नहीं, बल्कि जीवनभर करना चाहिए। लेकिन इसका आरंभ विद्यार्थी जीवन से ही होता है। वेद में आया है-
‘आचार्यदेवो भव, मातृदेवो भव, पितृदेवो भव ।’
हमारे विद्याथर््ीागण, छात्र-छात्रएँ भी ब्राह्ममुहूर्त में उठकर माता-पिता को प्रणाम करें, फिर शौचादि से निवृत्त होकर अपने पाठ में लग जाएँ। यही हमारी भारतीय संस्कृति है। माता-पिता और गुरु प्रसन्न होंगे, तो आशीर्वाद देंगे। धम्मपद में आया है-
“ अभिवादन शीलिस्स निच्चं वद्धापचायिनो ।
चत्तारो धम्मा बड्ढन्ति आयु वण्णो सुखं बलं ।।”
अर्थात् जो पूजनीय लोगों को प्रणाम करता है, उनकी सेवा करता है, उसी चार चीजें बढ़ती हैं-आयु, सुन्दरता, सुख और बल। मनुस्मृति में भी ऐसी ही बात कही गयी हैं-
“ अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ति आयुर्विद्या यशो बलम् ।।”
ब्रह्मचर्य के बल से इन्द्र देवताओं का राजा हुआ। विद्याथी-जीवन में ब्रह्मचर्य पालन अवश्य करें। उसके बाद कुछ-न-कुछ पवित्र उद्यम करें-कृषि, वाणिज्य या नौकरी करें। उसके बाद जब अपने पाँव पर खड़े हो जाएँ, तो गृहस्थ धर्म स्वीकार करें। गृहस्थ आश्रम भी बड़ा पवित्र आश्रम है। अगर गृहस्थ आश्रम न हो, तो ऋषि, मुनि, महात्मा, संत और भगवन्त कहाँ से आएँगे?
जिस तरह जन्म देनेवाली हमारी माता है, उसी तरह भारत माता है। जिस तरह हम माता की सेवा करें, पिता की सेवा करें, उसी तरह हम देश की भी सेवा करें। जिस देश में हम रहते हैं, जिसकी हवा में हम साँस लेते हैं, जिस देश का अन्न और जल ग्रहण करते हैं, उस देश के लिए हमें बड़े-से-बड़ा त्याग करने के लिए तैयार रहना चाहिए। अपने देश की रक्षा के लिए अपनी जान न्योछावर करनी चाहिए। विद्यार्थी ही देश को आगे बढ़ाने में सक्षम हो सकते हैं। उन्हीं के कंधे पर भार आएगा। वे ही देश की सम्भाल करेंगे जबतक युवक योग्य नहीं बनेंगे, तबतक देश का सर्वांगिण विकास कैसे संभव होगा? योग्य छात्र के निर्माण के लिए शिक्षक भी योग्य चाहिए। योग्य शिक्षक होंगे, योग्य शिक्षा देंगे। आदर्श शिक्षक होंगे, तो वे बच्चों को आदर्श बनाएँगे। विद्या को हम अविद्या न बनावें। पढ़-लिखकर विद्वान हो गए और पीते हैं सिगरेट, खाते हैं गुटका और पान-पराग; इससे धन, धर्म और स्वास्थ्य की हानि होती है। पान पराग क्या है? प्राण-त्याग करानेवाला अर्थात् प्राण हरनेवाला है। जब अध्यापक स्वयं सिगरेट पीएँगे, तो विद्यार्थी क्यों नहीं पीएगा? शिक्षक को स्वयं संयमित रहना चाहिए तभी विद्यार्थी भी संयमित रहेंगे। उसी तरह माँ-बाप को भी चाहिए कि वे संयमित रहें, तभी उनके बच्चे भी संयमित रहेंगे। माँ-बाप स्वयं शराब पीएँगे, मांस-मछली खाएँगे, तो उनके बच्चे कुटेब कहाँ तक बच सकते हैं। इसलिए शास्त्र में आया है-अपने बच्चे को उसके जन्म से पचीस वर्ष पहले शिक्षा दो। मतलब यह कि पचीस वर्ष के बाद विवाह होगा। तुम पहले से संयमित रहोगे, तभी तुम्हारा बच्चा भी संयमित रहेगा। एक जमाना था, जब हमारे देश में महिलाएँ अध्यात्म-ज्ञान जानती थीं। वे महिलाएँ लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के ज्ञान में ऊपर उठी होती थीं। आत्मज्ञान से ओतप्रोत होने के कारण अपने नन्हें-मुन्नें को भी आत्मज्ञान सिखाती थी।
एक मदालसा नाम की राजकुमारी थी। उसका विवाह ऋतुध्वज राजा के साथ हुआ। मदालसा जब ससुराल गयी, तो उसको अपने पति से प्रेमालाप हुआ। उस क्रम ने उसने कहा कि मैं ब्रह्मचर्य पालन करूँगी। ऋतुध्वज ने कहा कि अगर तुमको ब्रह्मचर्य पालन करना था, तो तुमने विवाह क्यों किया? मदालसा ने कहा कि मेरी इच्छा तो नहीं थी, पर मेरे माता-पिता ने विवाह कर दिया और मैंने उनकी आज्ञा मान ली। ऋतुध्वज ने पूछा कि आखिर तुम विवाह करना क्यों नहीं चाहती थी? मदालसा बोली, ‘कैसी संतान होगी, ठिकाना नहीं। अगर कुलांगार संतान हो, तो उससे संतानहीन ही रहना अच्छा।’ ऋतुध्वज ने कहा, ‘मेरे जैसे प्रजापालक, न्यायप्रिय, ईमानदार राजा और तुम्हारी जैसी साध्वी नारी से जो संतान होगी, वह अच्छी ही होगी, बुरी कैसे होगी?’ मदालसा ने कहा, ‘कहीं-कहीं अपवाद भी देखने को मिलता है।’
“ होइ भलो को सुत बुरो, भलो बुरो से होय ।
दीपक ते काजल पड़े, कमल कीच ते होय ।।”
यह देखा जाता है कि जो दीपक प्रकाश देता है, उससे काजल निकलता है और कीचड़ से अर्थात् नीच स्थान से कमल उत्पन्न होता है। पुलस्त्य ऋषि के पुत्र विश्वश्रवा मुनि थे। विश्वश्रवा मुनि का पुत्र रावण राक्षस हुआ। इसी तरह हिरण्यकशिपु राक्षस था, पर उसका पुत्र प्रीांद ईश्वर का बड़ा भक्त हुआ। ऋतुध्वज ने पूछा, ‘आखिर तुम चाहती क्या हो?’ मदालसा ने कहा, ‘हमारी जो संतान होगी, उसी शिक्षा-दीक्षा मेरे संरक्षण में होगी।’ ऋतुध्वज ने कहा, ‘ठीक है, बच्चे की शिक्षा-दीक्षा तुम्हारे द्वारा ही होगी।’ पति के संग से समय पाकर उसके घर में एक शिशु जन्म लेता है। वह छोटा बच्चा जब रोता है, तो पालने पर झुलाती हुई मदालसा उसे शिक्षा देती है।
“ शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरञ्जनोऽसि ।
संसार माया परिवर्जितोऽसि ।।
संसार स्वप्नं त्यज मोहनिद्रां ।
मदालसा वाक्यमुवाच पुत्रम् ।।”
“ तू शुद्ध है, तू बुद्ध है तू है निरंजन सर्वदा ।
संसार माया से रहित तू स्वरूप स्थित सर्वदा ।।
संसार सारा स्वप्न है, अब मोहनिद्रा त्याग तू ।
कह रही निज तनय से माँ पुत्र सत्वर जाग तू ।।”
माँ कहती है, बेटा! तुम संसार माया से रहित हो, तुम तो नित्य हो, बुद्ध हो, शुद्ध हो। तुम ईश्वरस्वरूप हो, तुम क्यों रो रहे हो? एक माँ है जो अपने नन्हें-मुन्नें को आत्मज्ञान सिखा रही है। आज कितने बूढ़े-बुजूर्ग ऐसे हैं, जिन्हें आत्मज्ञान के विषय में कुछ पता नहीं। पढ़ने के लिए तो बहुत पढ़ गये; लेकिन आत्मज्ञान का नामोनिशान नहीं।
“ पढ़े छहो शास्त्र और अठारहो पुराण पढ़े ।
वेद उपवेद आदि अंत कोउ छाना है ।
गीता रामायण श्रुति स्मृति पढ़े,
सांख्य योग न्याय आदि दर्शन भी जाना है ।।
जाना है बनाना छन्द सोरठा चौपाई को ,
जाना है ध्रुपद राग भैरवी का गाना है ।
इतना जो जाना सब खाक धूर छाना है ।
जाना है सोई जिन आतम पिछाना है ।।”
पढ़े-लिखे भी कहीं-कहीं अनपढ़ हो जाते हैं और अनपढ़ भी कहीं-कहीं विद्वान हो जाते हैं। कबीर साहब अनपढ़ थे; लेकिन वे इतने बड़े ज्ञानवान हुए कि उनका मुकाबला करनेवाला कोई नहीं था। आज अनपढ़ कबीर साहब की एक पंक्ति पर शोध करके विद्वान लोग पी-एच0 डी0, डी0लिट्0 की उपाधि पाते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि पढ़ना-लिखना नहीं चाहिए। जहाँ तक हो शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। जीवन पर्यन्त शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। जबतक पढ़ोगे-लिखोगे नहीं तो अध्यात्म-ज्ञान को समझोगे कैसे? कबीर साहब और कुछ अन्य संतों ने विद्यालय की शिक्षा नहीं पायी, फिर भी विद्वान हुए; लेकिन यह अपवाद स्वरूप है।
विद्याध्ययन के समय में विद्या ग्रहण करने के पश्चात् गृहस्थाश्रम अपनाना चाहिए। भौतिक विद्या अर्जन करने के साथ-साथ अध्यात्म-ज्ञान को भी जानना चाहिए। जिस समय मैं विद्यालय में पढ़ता था, उस समय पाठ्यक्रम में धर्म-शिक्षा भी थी।
आचार्य द्रोण कौरवों-पांडवों को शिक्षा देते थे। एक दिन आचार्य ने पाठ में पढ़ाया कि सत्य बोलो, क्रोध नहीं करो। दूसरे दिन आचार्य ने उन सबसे पूछा कि गत कल्ह का पाठ याद हुआ? सबने कहा कि हाँ, याद हो गया। केवल युधिष्ठिर ने कहा कि याद नहीं हुआ। उनको आचार्य ने दूसरे दिन याद करके आने को कहा। दूसरे दिन भी युधिष्ठिर को पाठ याद नहीं हुआ। उनकी निंदा होने लगी कि सभी कुमारों में सबसे बड़े ये ही हैं और इन्हें दो बातें याद न हो सकी। तीसरे दिन भी जब युधिष्ठिर पाठ नहीं सुना सके, तो आचार्य ने उन्हें बहुत डाँट लगायी। उनकी घोर निंदा होने लग गयी। चौथे दिन पूछने पर उन्होंने कहा कि थोड़ा याद हुआ। यह सुनकर आचार्य उनको पीटने लगे, तब युधिष्ठिर ने कहा कि गुरुदेव पाठ याद हो गया। इतने दिनों तक मुझे निंदक पर क्रोध आता था। आप पूछते थे कि पाठ याद हुआ, तो मैं कहता था कि नहीं हुआ। यदि कहता कि याद हुआ, तो झूठ बोलता; क्योंकि क्रोध आता था। आज आपने मुझे इतना पीटा, फिर भी क्रोध नहीं आया। इसलिए आज मैं कहता हूँ कि मैंने पाठ सीख लिया।
एक आचार्य ने छात्रें को शिक्षा दी कि ईश्वर सर्वव्यापक है। उनसे कुछ नहीं छिप सकता। आचार्य ने सोचा कि छात्रें की जाँच करनी चाहिए कि इनमें से किसने मेरी शिक्षा सीखी है। उन्होंने छात्रें से कहा कि अब तुमलोग जवान हो गये हो। मेरी एक पुत्री भी सयानी है। विवाह करना है। मैं लड़का खोजन कहाँ जाऊँगा, तुमलोगों की शिक्षा समाप्त होने को है। तुम्हीं लोगों में से किसी एक के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर देना चाहता हूँ। तुमलोगों में से जो अपने घर से बहुमूल्य वस्तु सबसे छिपाकर ले आओगे, उसी के साथ अपनी कन्या का विवाह कर दूँगा। यह सुनकर सब लड़कों ने अपने-अपने घर से कुछ-न-कुछ वस्तुएँ लाकर दीं। आचार्य ने उनके सामानों पर उनके नाम लिखकर सुरक्षित रख दिया। एक लड़का घर नहीं गया। आचार्य ने उससे पूछा कि अरे! तुम घर नहीं गये, क्या तुम्हें विवाह नहीं करना है? उस लड़के ने कहा कि विवाह करने की इच्छा है; परन्तु आपने कहा था कि छिपाकर घर से वस्तु लाना, कोई देख न पाये। पर आपने ही शिक्षा दी थी कि ईश्वर सर्वव्यापक है, तो मैं कहीं से कुछ उठा लाता, तो ईश्वर तो देख ही लेते, इसीलिए कुछ लाने नहीं गया। आचार्य समझ गये कि केवल इसी छात्र ने मेरी शिक्षा को ठीक-ठीक समझा है। उसी के साथ उन्होंने लड़की का विवाह कर दिया। कहने का भाव यह है कि अध्यात्म-ज्ञान की शिक्षा बचपन से ही होनी चाहिए। हमलोग इहलोक और परलोक दोनों बनाएँ। पढ़-लिखकर लोग इस लोक के लिए काम करते ही हैं। एक समय आएगा, जब शरीर छूट जाएगा, तब कहाँ जाएँगे? यह भी जानना चाहिए। जिस तरह लौकिक शिक्षा के लिए गुरु की आवश्यकता होती है, उसी तरह आध्यात्मिक ज्ञान के लिए भी गुरु की आवश्यकता होती है। महात्मा गाँधी ने कहा कि लौकिक शिक्षा देनेवाला गुरु अधकचरा हो, तो उससे एक समय का काम चल सकता है; परन्तु अध्यात्म-ज्ञान के गुरु अधकचरे हों, तो उससे काम नहीं चलाया जा सकता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ जल परिमाने माछरी, कुल परिमाने बुद्धि ।
जिसको जैसा गुरु मिला, ताकी तैसी शुद्धि ।।”
लम्बे, चौड़े और गहरे जलाशयों में बड़ी-बड़ी मछलियाँ होती हैं और कम विस्तारवाले तथा कम गहरे जलाशयों में छोटी-छोटी मछलियाँ होती हैं। ताल-तलैया और समुद्र की मछलियों को देखने से इस बात की सच्चाई ज्ञात हो जाएगी। उसी तरह जैसे गुरु होते हैं, उनके शिष्य का उसी तरह का विकास होता है। हमलोग वर्णमाला से एम0ए0 तक, जबतक पढ़ते हैं, तबतक विद्यार्थी ही कहलाते हैं। तथापि क्या सबकी योग्यता एक जैसी होती है? वर्णमाला से एम0ए0 तक पढ़ानेवाले सभी शिक्षक ही होते हैं, तो क्या सब शिक्षकों की योग्यता एक-जैसी होती है? नहीं होती है। उसी तरह आध्यात्मिक गुरु भी एक जैसी योग्यतावाले नहीं होते हैं। संत कबीर साहब का वचन है-
“ गुरू गुरू में भेद है, गुरू गुरू में भाव ।
सोई गुरु नित बंदिये, (जो) सब्द बतावै दाव ।।
गुरु नाम है ज्ञान का, सिष्य सीख ले सोइ ।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु सिष्य न कोइ ।।”
बृहत्तंत्रसार में आया है-
“ ज्ञानान्मोक्षमवाप्नोति तस्माज्ज्ञानं परात्परम् ।
अतो यो ज्ञानदानेहि न क्षमस्तंत्यजेद् गुरुम् ।।”
अर्थात् ज्ञान से मोक्ष होता है, इसलिए ज्ञान से बढ़कर दूसरा उपदेश नहीं है; इसलिए जो गुरु ज्ञानदान में (अर्थात् ज्ञानोपदेश में) समर्थ (योग्य) नहीं है, ऐसे गुरु को छोड़ देना चाहिए। संत कबीर साहब ने स्पष्ट कहा है-
“ झूठे गुरु के पच्छ को, तजत न कीजै बार ।
द्वार न पावै सब्द का, भटकै बारम्बार ।।
साँचे गुरु के पच्छ में, मन को दे ठहराय ।
चंचल तें निःचल भया, नहिं आवै नहिं जाय ।।”
मोटा ज्ञान तो सब जानते हैं। भारत की संस्कृति ही ऐसी है कि जब बच्चा जन्म लेता है और कुछ बोलने की चेष्टा करता है, तो उसके अभिभावक उसे राम-राम, शिव-शिव, सतनाम, वाह गुरु आदि ईश्वरवाचक शब्द उच्चारण करने के लिए सिखलाते हैं। वही बच्चा जब पढ़-लिखकर बड़ा होता है, तो सोचता है कि हमारे माता-पिता अथवा अभिभावक ने जो राम-राम, शिव-शिव आदि उच्चारण के लिए सिखलाया; वे राम, शिव आदि कौन हैं? तब वह राम, शिव आदि की खोज करने लगता है; परन्तु उन राम, शिव आदि का यथार्थ ज्ञान बिना सच्चे सद्गुरु के नहीं मिलता।
“ बिनु सतगुरु नर रहत भुलाना,
खोजत फिरत राह नहिं जाना ।।”
(संत कबीर साहब)
इसलिए सच्चे सद्गुरु की शरण जाकर अध्यात्म ज्ञान को सीखना चाहिए। केवल पोथियों को पढ़ कर अध्यात्म ज्ञान नहीं होगा। केवल पोथियों को पढ़कर अध्यात्म-ज्ञान हो जाता, तो भौतिक ज्ञान सीखने के लिए इतने स्कूल, कॉलेज और युनिवर्सिटियों की आवश्यकता क्या थी? आवश्यकता है सच्चे सद्गुरु की। अभी आप अध्यात्म-ज्ञान के संदर्भ में सुन रहे थे-
“ मुर्शिदे कामिल से मिल, सिदक और सबूरी से तकी ।
जो तुझे देगा फहम, शहरग के पाने के लिए ।।”
पहुँचे हुए संत सद्गुरु ही परमात्मा के पास पहुँचने की सद्युक्ति बतला सकते हैं।
कोई कहीं के लिए यात्र करेगा, तो अपने स्थान से ही। अपने शरीर में हम कहाँ हैं? जहाँ हैं, वहीं से हम चलेंगे। हमलोग निःशब्द से शब्दमंडल में, शब्दमंडल से प्रकाश मंडल में और प्रकाश मंडल से अंधकार मंडल में आ गये हैं, फिर निःशब्द में जाना है। बाहर चलने के लिए आँखें खोलकर चलते हैं, उसी तरह भीतर चलने के लिए उसकी उलटी क्रिया यानी आँखें बंद करके चलेंगे। आँखें बंद कीजिए, अंधकार मालूम पड़ता है। हम उसी अंधकार में हैं; इसलिए वहाँ से ही चलना होगा।
“ तू उतरि पर्यो तम माहि, पीव निःशब्द में ।
याहि ते पड़ि गयो दूर, चलो निःशब्द में ।।”
महर्षि मेँहीँ-पदावली
अंधकार से प्रकाश में, प्रकाश से शब्द में और शब्द से निःशब्द में जाने का काम दृष्टियोग और शब्दयोग के सहारे होगा। सद्युक्ति जानकर सदाचार समन्वित हो नियमित रूप से नित्यप्रति साधना करने से आत्मज्ञान होगा, परमात्म ज्ञान होगा और परम सुख एवं सदा की शांति मिलेगी।
वास्तविक बात तो यह है कि हमारा जीवन दो भागों में बँटा हुआ है। एक तो शरीर के साथ का जीवन, दूसरा शरीरोपरान्त का जीवन। इहलौकिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए भौतिक विद्या की आवश्यकता है, जो विद्यालयों में मिलती है, उसको ग्रहण करना चाहिए। पारलौकिक जीवन सुखमय बनाने के लिए सदाचार पालन, सत्संग और संत सद्गुरु की शरण को ग्रहण करके उनकी बतायी सीख की लीक पर श्रद्धा समन्वित होकर चलें। इस प्रकार हमारा उभय-लोक मंगलमय होगा। चाहे नर हों या नारी; इहलौकिक और पारलौकिक उभय प्रकार की शिक्षा-दीक्षा के सभी समान अधिकारी हैं। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 17-12-1999 को उच्च विद्यालय,
गोड्डा में आयोजित सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मई 2003 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
गोस्वामी तुलसीदासजी ने ‘विनय-पत्रिका’ में लिखा है-
“ चौदसि चौदह भुवन, अचर चर रूप गोपाल ।
भेद गये बिनु रघुपति,अति न हरहिं जगजाल ।।”
चौदहो भुवनों के चर-अचर सभी रूपों में परमात्मा बसा है। अर्थात् परमात्मा सर्वव्यापक है, सर्वत्र है। उसका ज्ञान कैसे होगा? जबतक द्वैत भाव रहेगा, उसका ज्ञान नहीं होगा। जब अद्वैत अवस्था को प्राप्त करेंगे, तभी उस सत्य स्वरूप परमेश्वर का साक्षात्कार होगा। यह दुमका जिला संतमत-सत्संग का 14 वाँ वार्षिक अधिवेशन है। यह अधिवेशन बतलाता है कि 14 भुवनों में व्यापक परमात्मा की हम खोज करें। नया वर्ष सन् 2000 ई0 संदेश देता है कि तीन शून्य के पीछे रहोगे तो द्वैत रहेगा। तीन शून्यों के आगे द्वैत नहीं रहता, अद्वैत हो जाता है। वहाँ पहुँचो, तब परमात्मा का साक्षात्कार होगा। संत दादू दयालजी महाराज कहते हैं-‘सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा’
अर्थात् अंधकार, प्रकाश और शब्द के परे जाओ। अंधकार, प्रकाश और शब्द के परे कैसे जाएँगे? वहाँ का रास्ता कौन बतलाएगा। संत कबीर साहब कहते हैं-
‘चल सतगुरु के हाट, ज्ञान बुधि लाइये।’
संत कबीर साहब ‘सतगुरु के हाट’ यानी सत्संग में जाकर ज्ञान-बुद्धि प्राप्त करने को कहते हैं। अब पहले सद्गुरु को जानें कि सद्गुरु कौन? संत पलटू साहब कहते हैं-
“ धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ।।
सो मेरा गुरुदेव सेवा मैं करिहौं वाकी ।
शब्द में है गलतान अवस्था ऐसी जाकी ।।
निस दिन दसा अरूढ़ लगै ना भूख पियासा ।
ज्ञान भूमि के बीच चलत है उलटी श्वासा ।।
तुरिया सेति अतीत सोधि फिर सहज समाधी ।
भजन तेल की धार साधना निर्मल साधी ।।
पलटू तन मन वारिये मिलै जो ऐसा कोउ ।
धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ।।”
जो स्वयं आन्तरिक नाद की उपासना करके ‘निःशब्दं परमं पदम्’ में प्रतिष्ठित हो गए हैं और दूसरे को यह आन्तरिक साधना बतलाते हैं, ऐसे महापुरुष को सद्गुरु कहते हैं।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकाश ।
निर्गुण कहै जो सगुण बिनु, सो गुरु तुलसीदास ।।”
गोस्वामीजी कहते हैं कि गुरु वह है, जो अज्ञान से ऊपर उठकर ज्ञान की बात कहता है। मतलब यह कि अमेरिका पहुँचकर अमेरिका की बात करता है, न कि भूगोल पढ़कर। हम आँखें बंद करते हैं तो क्या देखते हैं? अंधकार देखते हैं; पर जो अंतस्साधना के द्वारा अंधकार को पार कर प्रकाश में प्रतिष्ठित हो गया, यानी उसका ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ हो गया, तब प्रकाश की बात करता है; त्रयगुण सत्, रज और तम को पार कर निर्गुण में प्रतिष्ठित हो गया और तब निर्गुण की बात कहता है, वही सच्चा गुरु है। वैसे तो आजकल न गुरुओं की कमी है और न गेरुओं की, पर वेश बनाकर सुनी-सुनायी बातों को समझानेवाला गुरु नहीं हो सकता है।
सत्संग में बैठकर संतों के पारिभाषिक शब्दों के अर्थो को जानना चाहिए, अन्यथा संतवाणियों के ठीक-ठीक अर्थ समझना कठिन है। ‘कल्याण’ के एक अंक में कबीर साहब का यह पद्य छपा था-
‘मोरे जियरा बड़ा अंदेशवा, मुसाफिर जैहौ कौनी ओर ।’
उसी पद्य की एक पंक्ति है-
‘सत्त पुरुष इक बसैं पछिम दिसि, तासों करो निहोर ।’
इसका अर्थ किया गया था-‘चूँकि संत कबीर साहब एक मुसलमान परिवार में पाले-पोसे गए थे, इसीलिए उन्होंने ‘पछिम’ कहकर मक्का को इंगित किया है।’ एक सज्जन हैं, जिन्होंने कबीर साहब की वाणी पर पी-एच0डी0 की डिग्री प्राप्त की है। उनसे मैंने उपर्युक्त पंक्ति का अर्थ पूछा तो उन्होंने भी यही उत्तर दिया; लेकिन पलटू साहब ने कहा है-
“ पूरब में राम है पश्चिम में खुदाय है ,
उत्तर और दक्खिन कहो कौन रहता ।
साहिब वह कहाँ है कहाँ फिर नहीं है ,
हिन्दू और तुरक तोफान करता ।।
हिन्दू और तुरक मिलि परे हैं खैंचि में ,
आपनी वर्ग दोउ दीन कहता ।
दास पलटू कहै साहिब सब में रहै ,
जुदा ना तनिक मैं साँच कहता ।।”
वह परमात्मा हर जगह एकरस है। जैसे बाहर में चार दिशाएँ हैं, उसी तरह अन्तस्साधना में चार दिशाएँ मिलती हैं। यहाँ पूर्व का अर्थ है- प्रथम का, ‘पहले का’। साधक साधना के क्रम में पहले अंधकार देखता है; इसलिए अंधकार को पूरब कहते हैं। पूरब का उलटा पश्चिम होता है और अंधकार का उलटा प्रकाश होता है। अतः प्रकाश को पश्चिम कहते हैं। उसी तरह संतवाणियों में निःशब्द को उत्तर और शब्द मंडल को दक्षिण कहकर संबोधित किया जाता है। अंधकार में अज्ञानता रहती है। प्रकाश में ज्ञान होता है। राधास्वामी साहब ने कहा है-
“ इस नगरी में तिमिर समाना, भूल भरम हर बार ।
खोज करो अन्तर उजियारी, छोड़ चलो नौ द्वार ।।”
हमारे गुरुदेव महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं-
“ इस तन के नौ द्वार, में पूर्ण अंधकार ।
श्रुत फँसी है मँझार, भजो सत्य गुरु ए ।।”
जबतक अंधकार में रहेंगे, भूलें होती रहेंगी और दुःख पाते रहेंगे। इससे निकलने का यत्न करना पड़ेगा। सिर्फ प्रकाश की बात कहने से प्रकाश नहीं मिलता। बचपन में हम इकाई, दहाई, सैकड़ा, हजार, लाख, करोड़ सब पढ़ लेते थे, पर एक पैसा माँ- बाप से लेकर गुरुजी को देते थे। प्रकाश की बात करते हैं, पर देखा कुछ नहीं। यह कौन ज्ञान है? गोस्वामी तुलसी दासजी कहते हैं-‘ज्ञान कहै अज्ञान बिनु’यह कौन-सा ज्ञान है? उन्हीं के शब्दों में हम कह सकते हैं-
“ धर्म तें बिरति योग तें ज्ञाना ।
ज्ञान मोच्छप्रद बेद बखाना ।।”
ज्ञान तो वह है जो मोक्षप्रद हो, शरीर और संसार के समस्त बंधनों से मुक्त कर दे।
शास्त्र कहता है-‘ज्ञानान्मोक्ष्मवाप्नोति तस्माज्जज्ञानं परात्परम्।’ जिस विद्या से दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्ति मिलती है, हमारा आवागमन छूट जाता है, वह वास्तविक विद्या है। इसके लिए संत कबीर साहब कहते हैं कि सतगुरु की हाट में जाइये और ज्ञान-बुद्धि लाइये। सतगुरु ज्ञानी हैं इसलिए ज्ञान देंगे। आप कहेंगे कि हाट में सौदा खरीदते हैं तो दाम चुकाना पड़ता है। तो क्या यहाँ भी दाम चुकाना पड़ेगा? हाँ, दाम चुकाना पडे़गा। क्या दाम चुकाना पड़ेगा, यह कबीर साहब बतलाते हैं-
“ गुरु से ज्ञान जो लीजिए, शीश दीजिए दान ।
बहुतक भोंदू बहि गए, राखि जीव अभिमान ।।”
‘शीश दीजिए दान’-अपना अहंकार गुरु के चरणों में समर्पित कर दीजिए। ज्ञान की यही कीमत है।
वेदान्त में चार प्रकार के ज्ञान बतलाये गये हैं-श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव। जो इन चारो ज्ञानों में निष्पन्न होते हैं, वे ही सद्गुरु होते हैं। आप भी पहले श्रवण ज्ञान लीजिए। एकाग्रचित्त होकर सत्संग की बातों को सुनिये। यदि तन सत्संग में रहे और मन संसार में भ्रमण करता रहे तो आप आध्यात्मिक लाभ से वंचित रहेंगे। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
“ मन तो रमै संसार में, तन साधुन के संग ।
तुलसी याहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।”
और संत तुलसी साहब ने कहा-
“ सखी सीख सुनि गुनि गाँठ बाँधौ ,
ठाठ ठठ सत्संग करे ।”
सत्संग में जो भी सुनो, उसका चिंतन करो और गाँठ बाँध लो, तब सच्चा सत्संग हुआ। सत्संग में श्रवण की हुई बातों पर विचार करना, चिंतन करना-यही है मनन ज्ञान। जब इस मनन ज्ञान को कल्याणप्रद समझकर हम अपने आचरण में उतारने लगते हैं, तब जो ज्ञान होता है, वह निदिध्यासन ज्ञान कहलाता है। निदिध्यासन ज्ञान की परिपक्वता से अनुभव ज्ञान उत्पन्न होता है। यही ज्ञान की पूर्णता है। इस स्थिति में ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय की त्रिपुटी समाप्त हो जाती है। इसी स्थिति के बारे में गुरुदेव ने कहा है-
“ हम प्रभु प्रभु हम एकहि होई ।
द्वन्द्व अरु द्वैत रहे नहिं कोई ।।”
साधना की इस उच्चावस्था में जीव और ब्रह्म के बीच द्वैत पूर्णतः समाप्त हो जाता है। साधक ब्रह्म को पहचानकर ब्रह्म ही हो जाता है। इस उच्चतम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु सदाचारपूर्ण जीवन की बड़ी आवश्यकता है। जो पाप कर्मो में लिप्त है, वह अध्यात्म के मार्ग पर एक पग भी नहीं चल सकता। कठोपनिषद् में आया है-
“ नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।।”
अर्थात् जो पाप कर्मो से निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हैं और जिसका चित्त असाहित या अशान्त है, वह इसे आत्मज्ञान द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता।
जो व्यक्ति पाप कर्मों से विरत रहते हुए गुरु- प्रदत्त ज्ञान के आलोक में नियमित रूप से साधना करते हैं, उनका जीवन धन्य है। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दुमका जिले के 14वें वार्षिक अधिवेशन में
प्रातःकालीन सत्संग के अवसर पर दिनांक 12-01-2000 ई0 को हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, दिसम्बर 2007 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
प्रत्येक व्यक्ति कुछ-न-कुछ काम करता रहता है। हम किसी व्यक्ति को चुपचाप बैठे हुए देखते हैं, वह तन से भले ही बैठा हुआ है, पर उसका मन बैठा नहीं रहता। कितने व्यक्ति मुँह से नहीं बोलते, मौन धारण किए हुए रहते हैं, पर कागज पर लिखकर अपने मन के भावों को बतलाते हैं। कुछ लोग लिखते भी नहीं, मात्र इशारे के द्वारा भावों को व्यक्त करते हैं। चाहे लिखकर व्यक्त करें अथवा इशारे से, मूल में मन काम करता है। यदि मन को चुप रख सकें, तब हम निष्कामी बनेंगे। मन यदि चुप नहीं रहता, तो शरीर नहीं चलने पर भी निष्कामी नहीं हो सकते।
मन कुछ-न-कुछ करता है, सोचता रहता है, चाहे अच्छी बात सोचे या बुरी। जो बुरी बातें सोचते हैं, वे सोचते-सोचते एक-न-एक दिन बुरे कर्म में लिप्त हो जाते हैं। उसी तरह जो अच्छी-अच्छी बातें सोचते हैं, वे सोचते-सोचते एक दिन शुभ कर्म में प्रवृत्त हो जाते हैं। हमलोग तीन तरह से काम करते हैं-मन, वचन और कर्म से। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
“ तुलसी यह तन खेत है, मन वच कर्म किसान ।
पाप पुण्य दो बीज हैं, बुअै सो लुणै निदान ।।”
कृषक खेती करते हैं। वे पहले खेत को कोड़ते हैं, जोतते हैं, फिर बीज बोते हैं और उसपर चौकी देते हैं। आवश्यकतानुसार निकोनी और पटवन करते हैं। फिर समय आने पर फल-फूल होते हैं। किसान जितना बीज बोता है, उससे कई गुना अधिक फसल काटकर घर लाता है। उसी तरह यह शरीर कर्म-क्षेत्र है। हम जो कुछ भी अच्छे-बुरे कर्म करते हैं, तो कर्म का बीज बोते हैं। समय आने पर कई गुना शुभ या अशुभ फल प्राप्त करते हैं। अच्छे कर्मों का फल सुखप्रद होता है और बुरे कर्मों का दुःखप्रद।
“ कर भला होवे भला, करके भलाई देख ले ।
कर बुरा होवे बुरा, करके बुराई देख ले ।।”
कुछ लोग कहा करते हैं कि एक जमाना था, जब अच्छे कर्म का फल अच्छा होता था और बुरे कर्म का बुरा, पर आज जो बुरे-बुरे कर्म करते हैं, वे सुखी देखे जाते हैं और जो अच्छे-अच्छे कर्म करते हैं, वे दुःख में पड़े रहते हैं। बंगाल में एक कहावत भी है-
“ जेई करे पाप, सेई सात छेलेर बाप ।
जेई करे पुन, तार काया लागे घुन ।।”
लेकिन यह बात वास्तविक नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण ने यह स्पष्ट कहा है-‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’ अर्थात् मैं तुम्हें कर्म करने का अधिकार देता हूँ, पर तुम्हारे कर्मों के अनुसार फल तुम्हें मैं दूँगा। मनुष्य को कर्म करने की छूट तो है ही, यदि फल लेने की छूट भी मिल जाए, तो वे बुरे-बुरे कर्मों में निरत रहेंगे और फल लेते समय अच्छे-अच्छे फलों को चुनकर लेंगे।
“ पुण्य फलमिच्छन्ति, न पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः ।
पाप फल न इच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति यत्नतः ।।”
लोग पुण्य फल तो लेना चाहते हैं, पर पुण्य करना नहीं चाहते। पाप का फल लेना नहीं चाहते, पर प्रयत्नपूर्वक पाप करते हैं। ऐसा भी नहीं कि लोग न जानते हों कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। यह जानते हुए भी कि पाप नहीं करना चाहिए, फिर भी लोग पाप करते हैं।
जब पाण्डव बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास काटकर वापस लौटे, तो दुर्योधन से उन्होंने अपना राज्य माँगा। दुर्योधन देने को तैयार नहीं हुआ। भगवान श्रीकृष्ण ने बहुत समझाया कि पूरा नहीं तो आधा राज्य ही दे दो। उसने नहीं माना। फिर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि ये लोग पाँच भाई हैं, कम-से-कम पाँच गाँव ही दे दो। दुर्योधन ने उत्तर दिया-‘सुचि अग्र न दातव्यं बिना युद्धेन केशवः’-युद्ध के बिना मैं सूई की नोक के बराबर भी जमीन नहीं दूँगा। भगवान श्रीकृष्ण ने समझाते हुए कहा-‘दुर्योधन! जरा धर्म- अधर्म, पाप-पुण्य का विचार भी करो।’ दुर्योधन ने कहा-
“ जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः
जानामिऽधर्मं न च मे निवृत्तिः ।
केनापि देवान् हृतस्थितेन यथा-
नियुक्तोस्मि तथा करोमि ।।”
हे केशव! क्या मैं धर्म और अधर्म की बात नहीं जानता? मैं जानता हूँ कि धर्म क्या है, पर धर्म में मेरी प्रवृत्ति नहीं है। मैं जानता हूँ कि अधर्म क्या है, पर उस ओर से मेरी निवृत्ति नहीं है। कोई देवता मेरे अन्दर बैठा हुआ है, वह जैसा कहता है, मैं वैसा करता हूँ।
सोचने की बात यह है कि यदि दुर्योधन अधर्म और पाप में प्रवृत्त हो रहा है, तो उसके अंदर देवता बैठा हुआ है या दानव? संत कबीर साहब कहते हैं-
“ मन जाने सब बात, जानि बुझि अवगुण करै ।
काहे की कुशलात, लै दीपक कुँए परै ।।”
मन जानता है कि बुरे कर्म का फल बुरा मिलेगा, फिर भी कर लेता है और पीछे पश्चात्ताप करता है। जो अनजाने में कोई गलती कर बैठता है, तो उसकी बात कुछ और है, पर जो जानकर गलतियाँ करता है, उसका फल तो उसे भोगना ही पडे़गा।
महाभारत का युद्ध जब समाप्त हो गया, तब अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा-‘हे केशव! युद्ध में हमने बहुत हत्याएँ कीं, हमसे बहुत तरह के पाप हुए। मेरी इच्छा है कि गंगा-स्नान करने के लिए चला जाए।’ भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘अवश्य, चलो चलते हैं।’ दोनों रथ पर सवार होकर गंगा-स्नान के लिए चले। रास्ते में एक जंगल दिखाई पड़ा। श्रीकृष्ण ने रथ रोकते हुए कहा-‘अर्जुन! इस जंगल में अनेक साधु-महात्मा निवास करते हैं। मैं उनके दर्शन करके आता हूँ। तुम यहीं बैठो।’ अर्जुन रथ पर बैठा रहा और श्रीकृष्ण वन-भ्रमण के लिए निकले। इतने में एक कुत्ता गंगा की ओर जा रहा था और दूसरा गंगा के किनारे से वापस लौट रहा था। पहले ने दूसरे कुत्ते से पूछा-‘तेरा चेहरा उदास है, भूखे हो क्या? क्या नदी किनारे कोई लाश नहीं मिली?’ दूसरे कुत्ते ने कहा-‘मिली क्यों नहीं, एक मोटी तगड़ी लाश मिली।’ पहले कुत्ते ने पूछा-‘फिर भूखे क्यों लौट गए?’ दूसरे ने उत्तर दिया-‘लाश को देखकर मैंने सोचा कि आज जी-भरकर खाऊँगा। जैसे ही मैंने उसके मुँह की ओर से खाना चाहा कि जोरों की दुर्गन्ध निकली। मैं उधर से खा न सका। वह व्यक्ति जीवन भर बहुत झूठ बोला था, इसलिए उसके मुँह से दुर्गन्ध आ रही थी। मैंने कान की ओर से खाना चाहा, वहाँ से भी दुर्गन्ध आई। उसने अपने कानों से कभी सत्संग या हरि-चर्चा नहीं सुनी थी। मैंने आँखों की ओर से खाना चाहा, पर वहाँ भी दुर्गन्ध। उसने साधु-महात्माओं के दर्शन नहीं किए थे। फिर मैं उसके हाथ की ओर बढ़ा, पर हाथों से सेवा या दान-पुण्य नहीं करने के कारण वहाँ भी दुर्गन्ध बसी थी। फिर मैं उसके पैर की ओर बढ़ा, पर वह पैरों से चलकर कभी साधु-संतों के आश्रम गया नहीं, इसलिए वहाँ भी दुर्गन्ध थी। उसके अंग-अंग से निकलनेवाली दुर्गन्ध को जानकर मैंने सोचा कि पूर्व जन्म में मैंने कौन-सा पाप किया था कि कुत्ते का शरीर मिला है और अब इस पापी का मांस खाऊँगा, तो न जाने आगे क्या होगा? यही सोचकर मैं उसे बिना खाए लौट गया।’ पहले कुत्ते ने कहा-‘भाई! तुम ठीक कहते हो। क्या आदमी नहीं जानता कि दान-पुण्य करना चाहिए, हरि-चर्चा सुननी चाहिए, सत्य बोलना चाहिए? और की बात तो जाने दो, जानते हो, रथ पर बैठा हुआ अर्जुन कहाँ जा रहा है? गंगा-स्नान करके महाभारत के युद्ध में हुए पापों को धोने जा रहा है। क्या अर्जुन नहीं जानता है कि भगवान विष्णु के चरणों से गंगा निकली है और भगवान श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के ही अवतार हैं। उनके चरणों को धोकर वह पी लेता, अपने शरीर पर छिड़क लेता, तो उन्हें गंगा-स्नान की क्या आवश्यकता थी। अर्जुन पशु की भाषा जानता था। इन सारी बातों को सुनकर लज्जित हो गया। जैसे ही भगवान श्रीकृष्ण आए, उसने कहा-‘केशव! अब गंगा-स्नान नहीं करना है, चलिये घर की ओर।’
भगवान बुद्ध ने कहा है-‘पाप करते समय लोगों को वह शहद की तरह मीठा लगता है, पर जब उसका फल मिलता है, तो व्यक्ति आग में जलने की तरह छटपटाता है।’
कुरान के सूरेफातिहा में लिखा है-‘ऐ कयामत के दिन का मालिक! मुझे सीधा रास्ता दिखला। वह रास्ता दिखला, जिसपर तुम्हारी मेहर की दृष्टि हुई है; वह रास्ता नहीं दिखला, जिसपर तुम्हारी क्रूर दृष्टि रही है।’
विचारणीय विषय यह है कि परमात्मा की मेहर की दृष्टि किसपर होती है और क्रूर दृष्टि किसपर होती है। जो बुरे-बुरे कर्म करते हैं, गुनाह करते हैं, उसपर परमात्मा की क्रूर दृष्टि होती है और परमात्मा उसे दोजख (नर्क) की आग में जलाता है, उसी तरह जो शुभ कर्मों को करते हैं, उसपर परमात्मा की मेहर होती है। परमात्मा उसे बहिश्त (स्वर्ग) देते हैं, जहाँ सुख-ही-सुख है। इन दोनों स्थानों से परे एक तीसरा स्थान है-नजात (मोक्ष)। जो अंदर के सीधे रास्ते पर चलता है अर्थात् मराकवा (ध्यान) करता है, उसे नजात में भेजा जाता है। वहाँ पहुँचकर पुनः दुःख में नहीं आना पड़ता है। ध्यानविन्दूपनिषद् में आया है-
“ यदि शैलसमं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम् ।
भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ।।”
अर्थात् कई योजन तक फैला हुआ पहाड़ के समान यदि पाप हो, तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है; इसके समान पापों का नष्ट करनेवाला कभी कुछ नहीं हुआ है। इसका अर्थ यह नहीं कि पाप करते जाएँ और ध्यान भी करते जाएँ, पाप कटता जाएगा। पाप करने वाले से ध्यान होगा ही नहीं। जिस ध्यान से पापों का नाश होता है, वह कौन-सा ध्यान है? आपलोगों ने पाठ में सुना-
‘बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।’
हमलोग जो रेखागणित में विन्दु पढ़ते हैं, वह कल्पित है, यथार्थ नहीं। परिभाषा के अनुसार विन्दु वह है जिसमें स्थान हो, परिमाण नहीं हो। पर बाहर में जब हम विन्दु बनाते हैं, तो उसमें कुछ-न-कुछ परिमाण हो ही जाता है। इसलिए वह कल्पित विन्दु है। जबतक असल नहीं होता है, तबतक उसका नकल नहीं होता। तब वास्तविक विन्दु क्या है? रेखागणित में यह भी पढ़ते हैं कि दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है। हमारी दोनों दृष्टि की धारें जब अंदर में मिलती हैं, तब जो विन्दु उदित होगा, वही असली विन्दु है। बाहर में कलम से जो विन्दु बनाते हैं, उसका रंग कलम के अंदर भरी हुई स्याही के अनुरूप ही होता है। उसी तरह दृष्टि की धारें प्रकाशमयी हैं, इसलिए उनके मिलने से प्रकाशमय विन्दु उदित होता है। उपनिषद् में लिखा है-‘तेजोविन्दुः परं ध्यानं।’ इस आंतरिक तेजोमय विन्दु का ध्यान ही परम ध्यान है। इससे आदिनाम प्रकट होता है और पापों का नाश होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी कहा है-
“ जब ही नाम प्रकट भया, भयो पाप सब नास ।
जैसे िंचनगी आग की, पड़ी पुरानी घास ।।”
जिस तरह जल तरल होता है, उसके ढरक जाने में देर नहीं लगती, उसी तरह मन को पाप में गिरते देर नहीं लगती। जबतक हमारे मन में पाप की वृत्ति उठती है, तबतक पाप का नाश नहीं हुआ है। पाप वृत्ति उठती है और उसे हम रोकते हैं, तो समझना चाहिए कि पाप की जड़ है ही। संत चरणदासजी ने कहा है-
“ जब से अनहद घोर सुनी।
इन्द्री थकित गलित मन हूआ, आशा सकल भुनी।।”
आंतरिक अनहद नाद के ध्यान से इन्द्रियाँ थक जाती हैं और मन गल जाता है। ‘इन्द्रियाणां मनो नाथो।’ इन्द्रियों का स्वामी मन है। जब मन ही गल जाए, तो इन्द्रियों को प्रेरित कौन करेगा? भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को उपदेश देते हुए कहा था-
“ एकतत्त्वदृढ़ाभ्यासाद्यावन्न विजितं मनः ।।
प्रक्षीणचित्तदर्पस्य निगृहीतेन्द्रियद्विषः ।
पप्रिन्य इव हेमन्ते क्षीयन्ते भोगवासनाः ।।”
अर्थात् जबतक मन नहीं जीता गया हो, तबतक एक तत्त्व के दृढ़ अभ्यास से चित्त एवं अहंकार को पूर्ण रूप से नष्ट करके इन्द्रिय शत्रु को निग्रह करना। ऐसा होने से हेमन्त काल के कमल-सदृश भोग-वासना का नाश हो जाएगा।
हमारा मन ही बंधन में डालता है और मन ही मुक्ति दिलाता है। शुभ-अशुभ दोनों कर्मों का बंधन होता है। इसलिए अशुभ कर्म करें ही नहीं और शुभ कर्म भी करें, तो अनासक्त होकर, तभी हम मुक्त हो सकते हैं। सत्संग समाप्त होने पर यदि किसी व्यक्ति का कोई सामान यहाँ छूट जाए और उसकी उस वस्तु में आसक्ति रहे, तो वह लौटकर फिर यहीं आएगा। उसी तरह हमलोग शरीर छोड़कर यहाँ से जाएँगे। यदि हमारी आसक्ति मकान-दुकान में या नाती-पोते में लगी रहेगी, तो हमलोगों को लौटकर फिर यहीं आना होगा। लोभ-लालच में पड़कर कर्म करने से उसका बंधन पड़ता जाता है। गुरु नानकदेवजी का वचन है-
“ भूलिउ मनु माइआ उरझाइउ ।
जो जो करम कीउ लालच लगि
तिह तिह आपु बंधाइउ ।।”
संसार में अनासक्त होकर जीवन बिताना चाहिए और पापकर्मों से बचते हुए नियमित रूप से ध्यान-साधना करनी चाहिए। यही कुरान का सीधा रास्ता है, जिससे जन्म-मरण का चक्र छूटता है और परम सुख की प्राप्ति होती है।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन नेपाल राज्य के 15वें अधिवेशन, कैरोंजा, रंगेली में दिनांक 12-02-2000 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, जनवरी 2009 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
संतमत सर्वधर्म-समन्वय मत है। इसमें जाति-पाँति या धर्म-मजहब का भेदभाव नहीं है। इसमें सभी संतों का समान रूप से आदर होता है, चाहे वे किसी भी देश-वेश या धर्म-संप्रदाय के क्यों न हों। संतमत का उद्घोष है-
“ हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई ।
आपस में सब भाई-भाई ।।”
किसी व्यक्ति ने संत कबीर साहब से पूछा-‘आप हिन्दू हैं या मुसलमान?’ उन्होंने उत्तर दिया-
“ हिन्दु कहूँ तो मैं नहीं, मुसलमान भी नाहिं ।
पाँच तत्त्व का पूतला, गैवी खेलै माहिं ।।”
परमात्मा के घर से न हिन्दू आया है, न मुसलमान, न सिक्ख आया है और न ईसाई। वहाँ से मानव आया है, यहाँ आकर वह कई धर्मों में बँट गया और आपस में झगड़ने लगा कि हम बड़े तो हम बड़े। एक बड़े कामिल फकीर हुए दीन दरवेश। उन्होंने कहा-
“ हिन्दु कहै सो हम बड़े, मुसलमान कहे हम्म ।
एक मुँग दोई फाड़ है, कुण ज्यादा कुण कम्म ।।
कुण ज्यादा कुण कम्म, कभी करियो मत कजिया ।
एक भजत है राम, दुजे रहिमान से रजिया ।।
कहत दीन दरवेश, दोई सरिता मिलि सिंधु ।
सबका मालिक एक है, क्या मुस्लिम क्या हिन्दु ।।”
नाम भले ही अनेक हों, पर जगन्नियंता परम प्रभु परमात्मा एक-ही-एक है और उसकी प्राप्ति का रास्ता भी एक है, जो अपने अंदर है। बाहर संसार में हम जो कुछ भी ग्रहण करते हैं, इन्द्रियों से ग्रहण करते हैं और इन्द्रियाँ केवल मायिक पदार्थों को ही ग्रहण करने में सक्षम हैं, मायातीत को नहीं। संसार में कहीं जाओ-समुद्र के अतल तल में, पहाड़ की गुहा में या जंगलों में, इन्द्रियाँ साथ ही रहेंगी और इनसे जो ग्रहण होगा, वह माया ही होगी। संत पलटू साहब ने कहा है-
“ पूरब में राम है पश्चिम में खुदाय है ,
उत्तर और दक्खिन कहो कौन रहता ।
साहिब वह कहाँ है कहाँ फिर नहीं है ,
हिन्दू और तुरक तोफान करता ।।
हिन्दू और तुरक मिलि परे हैं खैंचि में,
आपनी वर्ग दोउ दीन कहता ।
दास पलटू कहै साहिब सब में रहै,
जुदा ना तनिक मैं साँच कहता ।।”
परमात्मा सर्वत्र है, सर्वव्यापक है, ऐसी कोई जगह नहीं जो उससे खाली हो, पर उसकी प्राप्ति अपने अंदर में ही होगी, बाहर में नहीं। एक बार अंदर में दर्शन हो जाने पर उसकी अनुभूति सर्वत्र होने लगती है। ऐसे भाग्यवान साधक के लिए अंदर-बाहर सब एक हो जाता है। गुरु नानकदेव ने कहा है-
“ काहे रे वन खोजन जाई ।
सरब निवासी सदा अलेपा तोही संग समाई ।।
पुहप मधि जिउ बासु वसतु है मुकर माहिं जैसे छाई ।
तैसे ही हरि बसे निरंतरि घटि ही खोजहु भाई ।।
बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआन बताई ।
जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई ।।”
परमात्मा को बाहर खोजने की कोई आवश्यकता नहीं है, वह तुम्हारे अंदर बैठा है। गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है-‘प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी।’ प्रभु जब तुम्हारे उर-पुर में भरपूर हैं, फिर दूर-दूर खोजने की क्या आवश्यकता है। संतों ने मृग की उपमा देकर बतलाया है कि कस्तूरी की सुगंध पाकर मृग उसे खोजने के लिए पेड़-पौधों, भूमि और पहाड़ों को सूँघता फिरता है। वह अज्ञ पशु नहीं जानता कि सुगंध उसी की नाभि से निकल रही है। उसी प्रकार अज्ञ मानव भी जंगलों-पहाड़ों, तीर्थों-धामों में परमात्मा को खोजता फिरता है, जबकि वे सबके हृदय में निवास करते हैं।
“ कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूँढ़ै वन माहिं ।
ऐसे घट में पीव है, दुनिया जानै नाहिं ।।”
-संत कबीर साहब
“ घर ही महि अम्रित भरपूर है, मनुखा सादु न पाइआ ।
जिउ कस्तूरी मिरगु न जाणै, भ्रमदा भरम भुलाइआ ।।”
-गुरु नानकदेव
“ एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो।
परिहरि हृदय-कमल रघुनाथहिं,
बाहर फिरत विकल भय धायो ।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद,
अति मतिहीन मरम नहिं पायो ।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल,
परम सुगंध कहाँ तें आयो ।।”
-गोस्वामी तुलसीदास
“ मृग नाभि में सुगंधी, खोजे वो घास गंधी ।
दुनिया सकल है अंधी, खोजे नहीं गँवारा ।।”
-ब्रह्मानन्द स्वामी
पुष्प में सुगंध है, दूध में घृत है और मेंहदी के पत्ते में लाली है, पर हम उन्हें देखते नहीं। उसी तरह परमात्मा सर्वव्यापक है, पर उन्हें इन्द्रियों से ग्रहण नहीं कर सकते। अपने अंदर चलने से इन्द्रियों का संग छूटेगा और तब परमात्मा की अनुभूति होगी। अलीगढ़ में एक फकीर हुए, उन्होंने अपने एक मुसलमान शिष्य तकी को उपदेश देते हुए कहा है-
“ सुन ऐ तकी न जाइयो जिनहार देखना ।
अपने में आप जलवए दिलदार देखना ।।
पुतली में तिल है तिल में भरा राज कुल का कुल ।
इस परदये सियाह के जरा पार देखना ।।
चौदह तबक का हाल अयाँ हो तुझे जरूर ।
गाफिल न हो ख्याल से हुशियार देखना ।।”
संत तुलसी साहब कहते हैं-‘ऐ तकी! अल्लाह की खोज में बाहर हरगिज नहीं जाना। तुम्हें अपने अंदर ही उनका जलवा (शोभा) दिखाई पड़ेगा। आँख की पुतली में तिल है, जिसमें आंतरिक रहस्य भरा हुआ है। आँख बंद करने पर जो अंधकार दिखाई पड़ता है, उस आवरण के पार देखने पर तुम्हें चौदहो लोकों की बातें मालूम होंगी।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी लिखा है-
“ जथा सुअंजन आंजि दृग, साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखहिं सैल बन, भूतल भूरि निधान ।।”
अर्थात् गुरु-पद-नख से निकली हुई ब्रह्म-ज्योति अच्छे अंजन की तरह है, जिसको साधक आँखों में लगाकर (अष्ट सिद्धि-प्राप्त) सिद्ध और सुबोध हो जाते हैं और बहुत-सी धरतियों, स्थित पहाड़ों और जंगलों का तमाशा देखते हैं।
भगवान शंकर ने योगशिखोपनिषद् में ब्रह्माजी से कहा है-
“ नादे मनोलयं ब्रह्मन्दूरश्रवणकारणम् ।
विन्दौ मनोलयं कृत्वा दूरदर्शनमाप्नुयात् ।।”
अर्थात् नाद में मन को लय करने से दूर का सुनना हो सकता है। विन्दु में मन को लय करके हम दूर-दर्शन प्राप्त करते हैं।
संत पलटू साहब का वचन है-
“ काजर दिये से का भया, ताकन को ढब नाहिं ।।
ताकन को ढब नाहिं, ताकन की गति है न्यारी ।
एक टक लेवै ताकि, सोइ है पीव की प्यारी ।।
ताकै नैन मिरोरि, नहिं चित अन्तै टारै ।
बिन ताके केहि काज, लाख कोउ नैन सँवारे ।।
ताकै में है फेर, फेर काजर में नाहिं ।
भंगि मिलि जो नाहिं, नफ़ा क्या जोग के माहिं ।।
पलटू सनकारत रहै, पिय को खिन-खिन माहिं ।
काजर दिये से का भया, ताकन को ढब नाहिं ।।”
प्रभु के प्रकाश को देखना चाहते हो, तो देखने की कला से अपने अंदर देखते रहो। देखते-देखते तुम्हें खुदा का नूर (ब्रह्मतेज) दीख पड़ेगा। दियासलाई में आग है, पर उसे हाथ में लेने से हाथ जलता नहीं। जब हम दियासलाई से एक काठी निकालते हैं और दियासलाई के उस स्थान पर घिसते हैं, जहाँ मसाला लगा होता है, तब भक् से आग जल उठती है। उसी तरह हमारे अंदर एक स्थान है, जहाँ दृष्टि की काठी घिसने से ज्योति प्रकट हो जाती है; लेकिन इसका सही राज कौन बतलाएगा? संत तुलसी साहब का वचन है-
“ मुर्शिदे कामिल से मिल, सिद्क और सबूरी से तकी ।
जो तुझे देगा फहम, शहरग के पाने के लिए ।।”
“ तुलसी बिना करम किसी मुर्शद रसीदा के ।
राहे नजात दूर है उस पार देखना ।।”
सच्चाई और संतोष धारण कर किसी पक्के गुरु से मिलो, वे तुझे सुषुम्ना में जाने का भेद बतलाएँगे। जबतक किसी सच्चे सद्गुरु की कृपा न हो, अंधकार के पार देखना यानी प्रकाश पाना और मुक्ति प्राप्त करनी असंभव है। पुस्तकों में तो सारी विद्याएँ लिखी हैं, पर उसे पढ़कर परमात्मा का रहस्य जानना कठिन है। भेद बतानेवाले सच्चे मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है।
राजस्थान की एक घटना है। एक बूढ़े सेठजी थे। वे बीमार पड़े। उस समय उनका लड़का विदेश में था। उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति का वसीयतनामा लिखा। जिसके मजबून में उन्होंने लिखा था-‘मेरी आधी सम्पत्ति धर्मखाते में दान दे दी जाय। बची हुई सम्पत्ति का आधा हिस्सा मेरे सुपुत्र को दे दिया जाय। चौथाई हिस्सा मेरे नौकर को और पाँचवाँ हिस्सा दाई को दे दिया जाय।’ समय पाकर सेठजी का शरीर छूट गया। सम्पत्ति का वसीयतनामा के अनुसार बँटवारा हो गया। अन्त में उन्नीस ऊँट बच गए। कोई भी उचित कीमत देकर ऊँट लेने को तैयार नहीं हुआ। समस्या सामने खड़ी हो गयी। गाँव के पंच पंचायत तक निर्णय नहीं कर सके कि क्या किया जाए? गाँव के पास ही दूसरे गाँव में एक वृद्ध प्रतिष्ठित सज्जन रहते थे। वे बड़ी तीक्ष्ण बुद्धि के थे। उलझी गुत्थी को सुलझाने में वे बड़े कुशल थे। उनको बुलाया गया। वे ऊँट की सवारी पर आए। राजस्थान में ऊँट की सवारी बहुत प्रचलित है। समस्या उनके सामने रखी गयी। उन्होंने स्थिति का अध्ययन किया और कहा-‘आप मेरा यह ऊँट भी उन्हीं ऊँटों के साथ मिला दीजिए। अब कितने हुए?’ उत्तर मिला-‘बीस ऊँटें।’ उक्त सज्जन ने कहा-‘आधा अर्थात् दस ऊँटें सेठजी के सुपुत्र को दे दिए जाएँ। चौथा हिस्सा यानी पाँच ऊँटें नौकर को दे दिये जायँ और पाँचवाँ हिस्सा यानि चार ऊँटें घर की दाई को दे दिए जायँ। अब सब मिलाकर कितने ऊँट हुए?’ सभी लोगों ने एक स्वर में उत्तर दिया-‘10+5+4 = 19 (उन्नीस) ऊँटें हुए; लेकिन एक ऊँट तो बच गया।’ उक्त सज्जन ने कहा-‘यह एक ऊँट तो मेरा है, जिस पर मैं चढ़कर आया था और अब चढ़कर चला जाऊँगा।’
सद्गुरु से भेद जानकर यदि साधना करेंगे, तो पुतली में भरे हुए सारे राज प्रकट हो जाएँगे।
“ होगा फजल दर्गाह तक खौफो खतर की जा नहीं ।
सीधो चला जाना वहाँ मुर्शद ने यह फतवा दिया ।।”
गुरुदेव का यही आदेश है कि अपने अंदर सीधे चलते रहो। डर या खतरे की कोई बात नहीं है। तुम परमात्मा की कृपा से दरबार में पहुँचोगे।
तकी के मन में जिज्ञासा होती है, क्या इस रास्ते से और भी लोग गए हैं? संत तुलसी साहब समाधान करते हैं-
“ मंसूर सरमद बूअली और शम्श मौलाना हुए ।
पहुँचे सभी इस राह से जिसने कि दिल पुख्ता किया ।।”
मनसूर हल्लाज, शरमद, बूअली, शम्श तवरेज आदि अनेक महात्मा, जिन्होंने हिम्मत और धैर्यपूर्वक साधना की, वे सभी परमात्म-धाम में पहुँच गए।
यह अंदर का रास्ता बहुत ही सूक्ष्म है और हमारा मन बेलगाम घोड़े की तरह उछल- कूद करता है। वह कैसे इस मार्ग पर चलेगा? इसलिए मन को सूक्ष्म बनाओ। संत पलटू साहब ने कहा है-‘मन महीन कर लीजिये, तब पिउ आवै हाथ।’ वर्षा का जल गड्ढे में जमा होता है, उथले जमीन पर नहीं। जब तुम्हारे अंदर पात्रता होगी, तभी प्रभु की कृपा तुम्हारे भीतर ठहरेगी। प्रभु की कृपा पाने के लिए उनको याद करो, उनसे प्रेम करो। प्रेम भी कैसा-एकांगी। उभयांगी प्र्रेम तो व्यापार होता है। पतिंगा दिये से प्रेम करता है और मछली पानी से प्रेम करती है।
“ जाल दिये जल जात बही, तजि मीनन को मोह ।
रहिमन जल की माछरी, तऊ न छाड़त छोह ।।”
मछलियाँ जैसे ही जाल में फँसती हैं, मछली पकड़नेवाला जाल को पानी से बाहर खींचता है। उस समय मछलियाँ पानी के बिना छटपटाने लगती हैं, पर पानी मछली को छोड़कर निकल जाता है। इसे एकांगी प्रेम कहते हैं। प्रेम ऐसा ही होना चाहिए। कुछ लोग सोचते हैं कि प्रभु से प्रेम करेंगे, भक्ति करेंगे, तो संसार का काम बिगड़ जाएगा, पर ऐसी बात नहीं है। हम बाजार में कपड़ा खरीदने जाते हैं। मोल-भाव करके कपड़े की कीमत देते हैं। दुकानदार जब कपड़ा देने लगता है, तो एक प्लास्टिक का थैला मुफ्रत में देता है। उसी तरह जब हम प्रभु की भक्ति करते हैं, तो प्रभु की माया हमें मुफ्रत में मिल जाती है। आप कहेंगे कि बनियाँ बहुत होशियार होता है, वह थैले की कीमत भी कपड़े में जोड़ लेता है, तो समझिये कि परमात्मा भी छोटा बनियाँ नहीं है। वह भी सारी कीमत भक्ति में वसूल कर लेता है।
सबको चाहिए कि शबरी की तरह ईश्वर की भक्ति करके मुक्ति प्राप्त करें। इसी सत्कार्य के लिए परमात्मा ने हमें मनुष्य-शरीर दिया है।
“ देह धरे कर यहि फल भाई ।
भजिये राम सब काम बिहाई ।।”
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन नेपाल राज्य के कैरोंजा, रंगेली में 15 वें वार्षिक
अधिवेशन के अवसर पर दिनांक 13-02-2000 ई0 के अपराह्णकालीन सत्संग में हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, फरवरी 2009 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, समादरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलोगों को ज्ञात कराया गया है कि यहाँ अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का 89वाँ वार्षिक महाधिवेशन होगा। इस सत्संग के मूल में यदि हम देखना चाहें, तो इसका पूर्व नाम ‘साधु मेला’ था। भक्तों की संख्या बढ़ी, जिला भर में संतमत का प्रचार हुआ, तब इसको पुरैनियाँ जिला संतमत-सत्संग की संज्ञा दी गई। बिहार-प्रान्त के अंदर इसका और भी प्रचार बढ़ा, तब इसकी संज्ञा बिहार प्रान्तीय संतमत-सत्संग हो गई। तत्पश्चात् अन्य प्रान्तों से भी लोग आ-आकर इसमें सम्मिलित होने लगे, शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करने लगे, भारत के कोने-कोने में इसका प्रचार-प्रसार होने लगा, तब इसकी संज्ञा ‘अखिल भारतीय संतमत-सत्संग’ हुई। आज गुरुदेव की अनुकम्पा से मात्र भारत ही नहीं, अमेरिका, इंगलैंड, जापान, रूस, आस्ट्रेलिया, नार्वे, स्वीडेन, नेपाल आदि विभिन्न देशों में इस संतमत-सत्संग का प्रचार हो रहा है।
‘संतमत’ कोई खास सम्प्रदाय, मजहब या रिलिजन (त्मसपहपवद) नहीं है। सभी संतों का जो मत है, उसी को संतमत कहते हैं। ‘संतमत’ समुद्रमत है। जिस प्रकार विभिन्न नदियों का पानी समुद्र में एकत्रित होता है, उसी तरह संतमत-सत्संग रूपी समुद्र में सभी संतों की वाणियों का एकत्रीकरण होता है। आप संतमत-सत्संग में जहाँ वेदों और पुराणों की बातें सुनेंगे, वहीं आपको बाइबिल और कुरान की बातें भी सुनने को मिलेंगी।
अभी आपलोगों ने श्रीकिशनलालजी जैनमुनि से जैन धर्म की बातें सुनीं। बड़ी अच्छी-अच्छी बातें इन्होंने कहीं। वस्तुतः ‘जिन’ शब्द से जैन शब्द बना है। ‘जिन’ शब्द का अर्थ होता है-पवित्र। इस दृष्टि से ‘जैन धर्म’ का अर्थ होता है-पवित्र धर्म। धर्मों में अहिंसा सर्वश्रेष्ठ है। सच्छास्त्रें में ‘अहिंसा परमो धर्मः’ कहा गया है।
कोई भी व्यक्ति जब किसी धर्म को स्वीकार कर आरंभ करता है, तो तुरत ही वह पूर्णता को प्राप्त नहीं हो जाता। धीरे-धीरे अभ्यास करते-करते पूर्णता को प्राप्त करता है। इसीलिए उसकी संज्ञा ‘अणुव्रत’ दी गई। नित्य नियमित रूप से थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करो। जैसे बूँद-बूँद जल गिरते-गिरते घड़ा भर जाता है, उसी तरह थोड़़ा-थोड़ा सद्गुण ग्रहण करते-करते व्यक्ति एक दिन गुण-ज्ञान में प्रवीण हो पूर्णता को प्राप्त करता है। इससे संबंधित एक लघुकथा सुनिए-
एक बार भगवान महावीर के पास एक व्यक्ति आया दीक्षा ग्रहण करने के लिए। वह जाति का बहेलिया था। चिड़ियों को मारकर अपने परिवार का भरण-पोषण करता था। भगवान महावीर ने कहा-‘तुम तो हिंसा करते हो और हमारा धर्म है अहिंसा का, इसमें तुम कैसे सम्मिलित हो सकते हो? तुम हिंसा करना छोड़ दो।’ उनकी बातों को सुनकर बहेलिया निराश होकर लौट रहा था। भगवान महावीर के एक शिष्य ने देखा कि बहेलिया उदास होकर जा रहा है। उन्होंने बहेलिया से पूछा-‘तुम उदास-से प्रतीत होते हो-क्यों, क्या बात हुई?’ बहेलिया ने उत्तर दिया- ‘महात्मन््! भगवान ने कहा कि हमारा अहिंसा का धर्म है और तुम चिड़ियों को मारते हो, हिंसक होकर इस धर्म में कैसे सम्मिलित हो सकते हो? इसलिए मन उदास हो गया।’ उक्त मुनि ने कहा-‘इसमें उदास होने की बात नहीं है। तुम जैन धर्म में दीक्षित हो सकते हो, लेकिन मेरी बात सुनो। सभी प्रकार की हिंसा एक ही साथ मत छोड़ो, शनैः शनैः छोड़ो। तुम एक व्रत ले लो कि आज दिन से तुम अमुक चिड़िया को नहीं मारोगे।’ वह सोचने लगा कि चिड़िया मारने से ही मेरी जीविका चलती है, किस चिड़िया को नहीं मारूँ? सोचते-साचते उसने मन में संकल्प लिया कि आज से कौआ मारना छोड़ दिया। उसने यही व्रत ले लिया। तब से जब कौआ सामने आ भी जाय, तो वह उसे नहीं मारता। कुछ दिनों के बाद बहेलिया पुनः उन महात्मा के पास गया, तो उन्होंने कहा-‘एक और व्रत ले लो।’ बहेलिया ने कहा-‘अच्छा, आज से चील को भी नहीं मारूँगा।’ उसने चील को मारना छोड़ दिया। अगली बार आया तो गिद्ध नहीं मारने की संकल्प लिया। इस प्रकार एक-एक पक्षी को मारना छोड़ते-छोड़ते वह पूर्ण अहिंसक बन गया और जैन धर्म में एक महान आचार्य का स्थान प्राप्त कर लिया। यही है आचार्य तुलसी का ‘अणुव्रत’। अर्थात् थोड़ा-थोड़ा आरंभ करो, एक दिन पूर्णता को प्राप्त करोगे। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचै सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय ।।”
सभी संत कहते हैं कि सत् का संग करो और असत् का परित्याग करो। जिज्ञासा हो सकती है-सत् है क्या? भगवान श्रीकृष्ण का महावाक्य है-
‘नासतो विद्यतेभावो नाभावो विद्यते सतः।’
अर्थात् जो असत्य है, उसका अस्तित्व नहीं है और जो सत्य है, उसका कभी अभाव नहीं होता। जो त्रयकाल अबाधित तत्त्व है, वह सत्य है। वह है-एक परब्रह्म परमात्मा। उसी का अभिन्न अंश शरीरस्थ जीवात्मा है। तत्त्व रूप में दोनों एक हैं। दोनों में मात्र अणुता और विभुता का भेद है।
किसी समय एक आचार्य अपने शिष्यों को उपदेश दे रहे थे कि आत्मा और परमत्मा में कोई भेद नहीं है, जो आत्मा है, वही परमात्मा है। एक शिष्य ने पूछा-‘गुरुदेव! परमात्मा ने इतनी बड़ी सृष्टि रच डाली है, पर यह जीवात्मा तो कुछ कर ही नहीं सकता। फिर दोनों को एक कैसे माना जाए?’ आचार्य ने कहा-‘वत्स! तुम्हारी जिज्ञासा का समाधान मैं पीछे करूँगा। मुझे प्यास लगी है, पहले जल पिलाओ। जाओ, गंगा की कल-कल धारा बह रही है, उससे कमण्डल में जल भरकर ले आओ।’ शिष्य ने कमंडल उठाया, गंगाजी में डुबाकर जल ले आया और कहा-‘गुरुदेव! गंगाजल पीजिए।’ आचार्य ने अपने हाथ में कमण्डल लेकर उसके भीतर देखते हुए पूछा-‘क्या, सचमुच यह गंगाजल है?’ शिष्य ने उत्तर दिया-‘गुरुदेव! अभी तुरत गंगाजी से लाया हूँ, गंगाजल ही है।’ आचार्य ने कहा-‘मुझे तो विश्वास नहीं होता कि यह गंगाजल है; क्योंकि जब मैं गंगा-स्नान करने जाता हूँ, तो वहाँ देखता हूँ कि सैकड़ों आदमी उसमें स्नान कर रहे हैं, सैकड़ों नावें किनारे लगी हैं, कहीं मछलियाँ उछलती हैं, तो कहीं कछुए तैरते हैं; किन्तु इस कमण्डल के जल में एक भी आदमी स्नान नहीं कर रहा है, एक भी नाव नहीं है। इसमें न मछलियाँ उछलती-कूदती हैं और न कछुए ही तैरते हैं। फिर मैं कैसे मानूँ कि यह गंगाजल है? शिष्य ने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया-‘गुरुदेव! आप जिसकी बात कर रहे हैं, वह तो गंगा की बहती हुई महती धारा है और यह तो कमण्डल में आया हुआ थोड़ा-सा जल है। इसमें आदमी कहाँ से आएगा, नाव और मछलियाँ कहाँ से आएँगी, लेकिन तत्त्व रूप में जो जल गंगाजी की धारा में है, वही इस कमण्डल में है।’ आचार्यश्री ने कहा-‘वत्स! उसी तरह वह परम प्रभु परमात्मा महान है, विभु है और उसी का अंश यह जीवात्मा है, जो अणुरूप में है, किन्तु तत्त्व रूप में दोनों एक ही हैं, मात्र अंश और अंशी का भेद है।
यह जीवात्मा सत्य है और वह परमात्मा सत्य है। इस आत्मा को उस परमात्मा के साथ जोड़ देना, सत् को सत् के साथ मिला देना सत्संग है; किन्तु यह बहुत ऊँची बात है। जिस दिन ऐसा सत्संग हो जाएगा, हमारा अहोभाग्य होगा।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने सत्संग को दो भागों में विभक्त किया है-सुलभ सत्संग और दुर्लभ सत्संग। जीव और पीव का जिस क्षण मिलन होता है, उसको गोस्वामीजी ने दुर्लभ सत्संग कहा है। यथा-
“ सत्संगति दुर्लभ संसारा ।
निमिष दंड भरि एकउ बारा ।।”
जिस निमिष में, जिस दण्ड में ऐसा हो जाए अर्थात् जीव पीव का मिलन हो जाए, वह दुर्लभ सत्संग है। अभी जिस सत्संग के लिए हमलोग यहाँ एकत्र हैं, यह ‘सुलभ सत्संग’ है। गोस्वामीजी ने इस सत्संग के संबंध में कहा है-
‘सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा ।’
यह सत्संग सब दिन और सभी देशों में सुलभ है। यह है बाहरी सत्संग और जीव पीव का मिलन आन्तरिक सत्संग है। इसीलिए हमारे गुरुदेव ने कहा है-
“ नित सत्संगति करो बनाई ।
अन्तर बाहर द्वै विधि भाई ।।
धर्म कथा बाहर सत्संगा ।
अन्तर सत्संग ध्यान अभंगा ।।”
अभी हमलोग धर्म कथा श्रवण कर रहे हैं, यह बाहरी सत्संग है और जब अभंग ध्यान करेंगे, तब होगा आन्तरिक सत्संग। रामचरितमानस में सत्संग की महिमा इस भाँति गाई गई है-
“ बिनु सत्संग न हरिकथा, तेहि बिनु मोह न भाग ।
मोह गये बिनु रामपद, होहिं न दृढ़ अनुराग ।।”
गोस्वामीजी और संत पलटूदासजी के वचन में कितना साम्य है, मिलान कर देखिए-
“ बिना सत्संग ना कथा हरिनाम की,
बिना हरिनाम ना मोह भागै ।
मोह भागै बिना मुक्ति ना मिलैगी,
मुक्ति बिना नाहिं अनुराग लागै ।।
बिना अनुराग से भक्ति ना मिलैगी,
भक्ति बिनु प्रेम उर नाहिं जागै ।
प्रेम बिनु प्रेम ना नाम बिनु संत ना,
पलटू सत्संग वरदान माँगै ।।”
अर्थात् बिना सत्संग के हरिकथा नहीं होती और जब हरिकथा नहीं होती, तो मोह भागता नहीं। जबतक मोह नहीं भागता, प्रभुपद में अनुराग नहीं होता। मतलब यह कि सत्संग में हरिकथा होती है। हरिकथा से मोह भागता है और मोह भागने पर प्रभुपद में दृढ़ अनुराग होता है।
यह मोह क्या है? इसके संबंध में रामचरितमानस में गोस्वामीजी ने लिखा है-
“ मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला ।
तेहि तें पुनि उपजहिं बहु सूला ।।”
‘मोह’ यानी ज्ञानहीनता, अज्ञानता, अविद्या। ‘अविद्या’ के विषय में किसी सुभाषितकार ने कहा है-
“ सब क्लेशों की मूल अविद्या है दुःखदायी ।
जो अभाग्यवश आज यहाँ घर-घर है छायी ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी के विचारानुसार हरिकथा से मोह भागता है। विचारणीय विषय यह है कि जब हरिकथा से मोह भागता है, तब यदि हरि के दर्शन ही हो जाएँ, तब तो कहना ही क्या! फिर भी, यदि हरि-दर्शन के बाद भी मोह रह जाए, तो इससे बड़ा आश्चर्य और क्या हो सकता है! हमलोग इस संबंध में कुछ पौराणिक कथाओं, आख्यानों पर विचार करें।
भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार माना गया है तथा ‘महायोगेश्वरो हरिः’ की संज्ञा से अभिहित किया गया है। महाभारत के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन करते हुए अर्जुन को मोह हुआ और उस मोह को भंग करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का अठारह अध्याय सुनाया।
जिनकी कथा सुनकर मोह भाग जाता है, उनके दर्शन से मोह कैसे रह गया? उन्हीं भगवान कृष्ण की बाल-लीला को देखकर इन्द्र को मोह हुआ। यह जानने के लिए कि ये भगवान हैं या नहीं, इन्द्र ने व्रज पर घनघोर वर्षा की। जब भगवान ने गोवर्धन पर्वत उठाकर उन सबकी वर्षा से रक्षा कर ली, तब इन्द्र का मोह दूर हुआ। ब्रह्माजी ने जब भगवान कृष्ण को गौ चराते, गोपियों के साथ रास-लीला करते देखा, तो उनके मन में भी भ्रम हो गया कि ये भगवान कैसे हो सकते हैं? उन्होंने गौओं, बछड़ों और गोपों का हरण कर पहाड़ की गुहा में छिपा रखा। जब भगवान ने गौओं, बछड़ों और गोपों को बना लिया, तब ब्रह्मा की आँखें खुलीं कि ठीक ही ये भगवान हैं।
भगवान श्रीराम लंका जाते हैं और उनका रावणादि से युद्ध होता हैै। मेघनाद से युद्ध करते समय इनको नागपाश से बाँध लिया। उस समय भगवान टस-से-मस नहीं कर पा रहे थे, नारदजी ने देखा कि भगवान बहुत कष्ट में पड़े हुए हैं। सोचने लगे कि इनके कष्ट का निवारण कैसे किया जाए? उन्होंने गरुड़जी का आवाहन किया। गरुड़जी आते हैं। उनको देखकर नाग भाग जाता है। तब गरुड़जी के मन में भ्रम हो जाता है कि ये कैसे भगवान हैं? यदि मैं नहीं आता, तो ये बंधन में ही पड़े रहते। अपने भ्रम के निवारणार्थ गरुड़जी ब्रह्माजी के पास जाते हैं। ब्रह्माजी उनको भगवान शंकर के पास भेज देते हैं। गरुड़जी चले भगवान श्ांकर से मिलने। तबतक भगवान शंकर कुबेरजी से मिलने के लिए यात्र कर चुके थे। दोनों की रास्ते में एक-दूसरे से भेंट हुई। गरुड़जी ने अपने मोह की बात कही। भगवान शंकर ने कहा-
“ मिलेउ गरुड़ मारग महँ मोही ।
कवन भाँति समुझावउँ तोही ।।” उन्होंने अपना विचार दिया कि तुम कागभुशुण्डि के पास चले जाओ-‘खग जानै खग ही की भाषा।’ गरुड़जी कागभुशुण्डि के पास जाते हैं। उनके समझाने पर गरुड़जी का भ्रम दूर होता है।
भगवान विष्णु की लीला देखकर नारद मुनि के मन में मोह उत्पन्न हो जाता है और वे भगवान को शाप भी दे देते हैं।
अब जिज्ञासा होती है कि जब हरिकथा सुनने से मोह, भ्रम दूर हो जाता है, तब हरि-दर्शन से मोह दूर क्यों नहीं हुआ? अतएव, वे हरि कौन और उनकी कौन-सी कथा, जिस कथा से मोह दूर होता है। आइए, इस विषय पर विचार करें। इससे संबंधित एक कथा है, उसको सुनें-
रावण और अन्य राक्षसों के अत्याचार से जब देवगण दुःखित और व्याकुल हो गए, तो अपने त्रण के लिए देवताओं ने एक सभा की। सबकी राय से निर्णय हुआ कि हमलोग भगवान की शरण जाएँ, उनकी शरण में ही त्रण मिल सकता है, लेकिन सामने समस्या उत्पन्न हुई कि भगवान हैं कहाँ, जो उनकी शरण जाया जाए। अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार देवगण अपने-अपने विचार इस प्रकार प्रकट करने लगे-
“ पुर बैकुण्ठ जान कह कोऊ ।
कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोऊ ।।”
किसी ने कहा भगवान वैकुण्ठ में रहते हैं, तो किसी ने कहा कि भगवान क्षीर समुद्र में रहते हैं। उस सभा में भगवान शंकर भी बैठे हुए थे। उन्होंने कहा-
“ हरि व्यापक सर्वत्र समाना ।
प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना ।।
देश काल दिसि विदिसहु माहीं ।
कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ।।
अग जग मय सब रहित विरागी ।
प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी ।।”
भगवान शंकर के कहने का तात्पर्य यह है कि वैकुण्ठ और क्षीर समुद्र में सगुण साकार भगवान रहते हैं। कोई भी सगुण साकार रूप सर्वव्यापक नहीं हो सकता है। इसलिए जो निर्गुण निराकार सर्वव्यापक प्रभु है, उनकी कथा श्रवण करने की ओर भगवान शंकर का संकेत है।
जिस दिन उस सर्वव्यापक हरि की कथा का श्रवण होगा, मोह भाग जाएगा। अतएव हम उनकी कथा को सुनें और उनके दर्शन करें। जिज्ञासा हो सकती है कि हम उनकी किस कथा को सुनें और किस रूप का दर्शन करें? इसका उत्तर गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज रामचरितमानस के अयोध्याकांड में देते हैं।
वनवास काल में जब भगवान श्रीराम जगज्जननी और अनुज लक्ष्मण के साथ जंगल में भ्रमण कर रहे थे, उसी क्रम में वे वाल्मीकि मुनि के आश्रम भी गए थे। मुनिजी भगवान का आगत-स्वागत कर उनको आसन पर बिठाते हैं। भगवान उनसे पूछते हैं कि चौदह वर्षों तक जंगल में रहना है, हम कहाँ रहें?
वाल्मीकि मुनि उत्तर देते हैं-
“ पूछेहु मोहि कि रहहुँ कहँ, मैं पूछत सकुचाउँ ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि, तुम्हहिं देखावउँ ठाऊँ ।।”
आप मुझसे पूछते हैं कि कहाँ रहूँ, लेकिन आपसे पूछने में मुझे संकोच होता है। आप कहाँ नहीं हैं? आप जहाँ नहीं हों, बता दीजिए, तो मैं बतला दूँगा कि आप वहाँ रहिए। अर्थात् आप सर्वत्र हैं।
“ राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।”
“ जग पेखन तुम देखनिहारे ।
विधि हरि संभु नचावनिहारे ।।
तेउ न जानहिं मरम तुम्हारा ।
अउर तुमहिं को जाननहारा ।।
सोई जानहिं जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई ।।”
फिर उनके रहनेयोग्य कई स्थानों को बतलाते हुए दो विशिष्ट स्थानों को बतलाते हैं।
पंच कर्मेन्द्रियों और पंच ज्ञानेन्द्रियों-दशेन्द्रियों में नेत्र और कर्ण को उच्च स्थान प्राप्त है। इसलिए गोस्वामीजी इन दोनों के माध्यम से अन्तस्साधना से संबंधित एक अनूठी बात का दिग्दर्शन करते हैं। यथा-
“ लोचन चातक जिन्ह करि राखे ।
रहहिं दरस जलधर अभिलाखे ।।
निदरहिं सरित सिन्धु सर भारी ।
रूप बिन्दु जल होहिं सुखारी ।।
तिन्हके हृदय सदन सुखदायक ।
बसहु बन्धु सिय सह रघुनायक ।।”
चातक एक चिड़िया होती है, वह स्वाति-जल पीती है। यदि उसको स्वाति-बूँद न मिले, तो वह प्यासी मर जाएगी, पर अन्य कोई जल नहीं पीएगी। नरहरि कवि ने लिखा है-
“ सरवर नीर न पीवई स्वाती बूँद की आस ।
केहरि कबहुँ न तृण चरै जौं व्रत करै पचास ।।
जौं व्रत करै पचास विपुल गज जूह विदारै ।
धन है गर्व न करै निर्धन नहिं दीन उचारै ।।
‘नरहरि’ कुल के भाय मिटै नहिं जब लगि जीयै ।
बरु चातक मरि जाय नीर सरवर नहिं पीयै ।।”
अन्तस्साधना के साधक के सामने साधना काल में विविध रंग-रूप आते हैं; लेकिन वह किसी रूप को स्वीकार नहीं करता, एक विन्दु को पकड़ता है। महर्षि मेँहीँ-पदावली में है-
“ चौभुज औ अष्टभुज जो, अथवा अनेक भुज जो ।
आश्चर्य तेज पुंज जो, सबसे सुरत फुटा दो ।।
कोउ रूप को न देखूँ, इक बिन्दु सबमें पेखूँ ।
रिधि सिद्धि को न लेखूँ, ऐसी सुरत सिमटा दो ।।”
वाल्मीकिजी के कथन का तात्पर्य यह है कि एक विन्दु को पकड़ने के लिए जिस साधक ने अपने लोचन को चातक-चक्षु के समान बना लिया है, हे राम! आप उनके हृदय में निवास कीजिए। अर्थात् ऐसे ही भक्त के हृदय में प्रभु प्रकट होते हैं। इसी के संदर्भ में गुरु नानकदेव ने कहा है-
“ मोहु कुटंबु मोहु सभकार ।
मोहु तुम तजहु सगल बेकार ।।
मोह अरु भरमु तजहु तुम बीर ।
साचु नामु रिदे रवै सरीर ।।
सचु नामु जा नव निधि पाई ।
रोवै पूत न कलपै माई ।।
एतु मोहि डूबा संसारु ।
गुरुमुखि कोई उतरै पारि ।।
एतु मोहि फिरि जूनी पाहि ।
मोहे लागा जमपुरी जाहि ।।
गुरु दीखिआ ले जपु तपु कमाहि ।
ना मोहु तूटै ना थाई पाहि ।।
नदरि करे ता एहु मोहु जाइ ।
नानक हरि सिउ रहै समाइ ।।”
जो कोई नदरि करते हैं अर्थात् दृष्टियोग की क्रिया करते हैं, उनका मोह भाग जाता है। भगवान महावीर ने इसी दृष्टियोग क्रिया को प्रेक्षाध्यान कहा है। जबतक कोई दृष्टियोग की क्रिया नहीं करता है, तबतक मोह नहीं जाता है। दृष्टियोग की क्रिया करनेवाले को विन्दु की प्राप्ति होती है है, पूर्ण सिमटाव होता है, ऊर्ध्वगति होती है। फलतः वह अंधकार से प्रकाश में चला जाता है, मोह-भ्रम दूर हो जाता है।
इस काम को करने में घबड़ाने या निराश होने की बात नहीं है। हमारे गुरुदेव कहा करते थे-
“ झूठ मुठ खेलै सचमुच होय ।
सचमुच खेलै बिरला कोय ।।
जो कोई खेलै मन चित लाय ।
होयते होयते होइये जाय ।।”
बंगाल में एक संत हुए श्रीरामकृष्ण परमहंस देवजी। उन्होंने कहा कि धर्म के राज्य में सबको पुस्तैनी किसान बनकर रहना चाहिए। जो पुस्तैनी किसान है, वह बारह बरस तक फसल नष्ट होने पर भी खेती का काम नहीं छोड़ता, लेकिन जो वंश-परम्परा से किसान नहीं है, मुनाफे के लोभ में पड़कर खेती करता है, वह एक साल फसल नुकसान होते ही खेती का नाम छोड़ बैठता है। सच्चे श्रद्धालु भक्त इस श्रेणी के नहीं होते; वे जीवनभर भगवान के दर्शन नहीं होने पर भी साधन करना नहीं छोड़ते। अर्थात् वे जीवनपर्यन्त साधना करते रहते हैं। संत कबीर साहब साधक के हृदय में सत्साहस का संचार करते हैं और ढाढ़स देते हुए कहते हैं-
‘आशा से मत ढोल रे तोको पीव मिलेंगे ।’
जिज्ञासा हो सकती है कि जो कोई दृष्टियोग की क्रिया करते हैं, वे भगवान के दिव्य रूप के दर्शन करते हैं, उनका मोह भागता है। वह कथा कौन-सी है, जिसके श्रवण से समस्त शूल उत्पादक मोह का निर्मूल हो जाता है? इसका समाधान गोस्वामी तुलसीदासजी की वाणी में सुनिए-
“ जिन्हके स्त्रवन समुद्र समाना ।
कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ।।
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे ।
तिनके हिय तुम्ह कहँ गृह रूरे ।।”
समुद्र में नदियों का जल निरंतर जाता रहता है। नदियाँ उसको भरती रहती हैं, फिर भी समुद्र भरता नहीं है। उसी तरह जो भक्त तुम्हारी कथा को निरंतर सुनता हो, किन्तु उसका मन अघाता नहीं हो, उसका हृदय आपके लिए सुन्दर घर है।
विचारणीय विषय यह है कि क्या कोई वक्ता ऐसा हो सकता है, जो निरंतर कथा कहता रहे और ऐसा कोई श्रोता हो सकता है, जो निरंतर उस कथा को सुनता रहे? दैनन्दिन कार्य के कारण निरंतर कहने या सुनने में व्यवधान आएगा ही। कोई भी व्यक्ति हो-वह खाएगा, पीएगा, शौच जाएगा, सोएगा प्रभृति नित्य कर्मों को करेगा, उस समय कहने या सुनने का काम कैसे संभव हो सकता है! लेकिन वाल्मीकि मुनि कहते हैं-‘भरहिं निरंतर।’ मतलब यह कि कोई ऐसी कथा है, जो निरंतर होती रहती है और सुननेवाला साधक निरंतर उसको सुनता रहता है। वह कौन-सी कथा है? वह है अन्तर्नाद या अनाहत नाद। वह ‘अनाहत नाद’ सतत होता रहता है। जिस साधक ने साधना करके अपने को तीन अवस्थाओं-जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से ऊपर उठा लिया है, चौथी अवस्था के आरंभ में नहीं, बल्कि उसके शिखर पर अपने को प्रतिष्ठित कर लिया है, वह जड़ावरण से परे चैतन्यावस्था में रहता है। वहाँ चेतन शब्द, सार शब्द सतत होता रहता है। उसको जो साधक पकड़ लेता है, वह निरंतर उसको सुनता रहता है। उसको जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति या दैनन्दिन कार्य के कारण किसी प्रकार का व्यवधान नहीं होता है; क्योंकि सोता मन है, चेतन सर्वावस्था में जाग्रत रहता है। संत दरिया साहब ने कहा है-
“ सोवत जागत ऊठत बैठत टुक विहीन नहिं तारा ।
झिन झिन जंतर निसदिन बाजै जम जालिम पचिहारा ।।”
संत कबीर साहब कहते हैं-
“ सोवत जागत खड़े उताने ।
कह कबीर हम उसी ठिकाने ।।”
तथा, गोस्वामीजी के शब्दों में हम कह सकेंगे-
“ सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि योगी ।
सोइ हरिपद अनुभवइ परम सुख, अतिशय द्वैत वियोगी ।।”
इस प्रकार सारशब्द ग्राहीं साधक उस ध्वनि रूप कथा को दिन-रात निरंतर सुनता रहता है, कभी अघाता नहीं है। प्रकृति के परे हो जाने पर वहाँ दिन-रात, सुख-दुःख, हानि-लाभ, शोक-मोह प्रभृति द्वैत का स्थान कहाँ? जैसे दिनेश के समक्ष निशि का प्रवेश नहीं होता, उसी प्रकार आत्मज्ञान में मोह का लवलेश नहीं रहता। गोस्वामी तुलसीदासजी विनय- पत्रिका में लिखते हैं-
“ शोक मोह भय हरष दिवस,
निसि देश काल तहँ नाहीं ।
तुलसीदास यदि दशा हीन,
संशय निर्मूल न जाहीं ।।”
वहाँ न दिन है, न रात है; न अंधकार है, न प्रकाश है, न उष्ण है, न शीत है। द्वैतादि प्रपंच से परे है। जैसे सूर्योदय होने पर अंधकार नहीं रहता, उसी तरह जिसने आत्मप्रकाश को प्राप्त कर लिया है, उसके निकट भ्रम फटक नहीं सकता। रामचरितमानस में लिखा है-
“ राम सच्चिदानन्द दिनेसा ।
नहिं तहँ मोह-निसा लवलेसा ।।” (बालकांड)
अर्थात् राम सत्य-ज्ञानानंद के सूर्य रूप हैं। वहाँ (राम के इस रूप में) मोह रूपी रात का लेशमात्र भी नहीं है।
जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर ने कहा था-‘आत्मानं विद्धि।’ आत्मा को जानो। जिन्होंने आत्मा को जान लिया, पहचान लिया, उनके लिए कुछ भी जानना बाकी नहीं रह जाता। आत्मा का ज्ञान होने से परमात्मा का ज्ञान हो जाता है। फिर वहाँ मोह और भ्रम कैसे टिक सकता है।
“ प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी ।
ब्रह्म निरीह विरज अविनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाहीं ।
रवि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं।।”
एक मनोरंजक लघु कथा सुनिए। एकबार अंधकार ने भगवान के पास जाकर कहा-‘प्रभो! सूर्य मेरा जानी दुश्मन है। कभी भी, कहीं भी मुझे चैन से रहने नहीं देता है। मैं जहाँ जाता हूँ, वह मेरा पीछा करता-फिरता है। भारत के कोने-कोने में छिपकर मैंने देख लिखा, वह मेरा पीछा नहीं छोड़ता। भारत से सदूर भागकर अमेरिका चला जाता हूँ तो देखता हूँ-कुछ घंटे बाद वह वहाँ भी उपस्थित है। वहाँ से भागकर मैं भारत आता हूँ, तो देखता हूँ कि कुछ घंटे बाद फिर मेरे पीछे खड़ा है। भगवन्! मैंने उसका कुछ बिगाड़ा नहीं है। यदि आप उसको बुलाकर समझा देने की कृपा करें, तो वह मुझे परेशान नहीं करेगा और मेरा कल्याण हो जाएगा। भगवान ने अंधकार से कहा-अच्छा, तुम जाओ। मैं सूर्य को बुलाकर पूछता हूँ कि बात क्या है? अंधकार के चले जाने पर भगवान ने सूर्य को बुलवाया और पूछा कि क्या, तुमने अंधकार से दुश्मनी ठान ली है? बेचारा कह रहा था कि वह जहाँ कहीं जाता है, तुम उसका पीछा करते-फिरते हो, उसको तुम चैन से रहने नहीं देते। क्या बात है? सूर्य ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया-भगवन्! आज पहली बार आपके श्रीमुख से सुन रहा हूँ कि अंधकार भी कोई चीज होती है। मुझे तो उससे कभी भेंट नहीं है, तब उसका पीछा मैं कैसे करूँगा और उसको सताऊँगा कैसे? अगर आपको मेरी बात पर विश्वास नहीं होता, तो उसको मेरे सामने बुला लिया जाए। मैं हाथ जोड़कर उससे क्षमा याचना कर लूँगा।
आज तक सूर्य के सामने अंधकार आ ही रहा है। उसी तरह आत्मतेज के सामने मोह नहीं आ सकता।
आवश्यकता है, हम अपने आहार-विहार का संयम करते हुए बाहरी और आंतरिक दोनों प्रकार के सत्संग करें; इससे हमारा इहलोक और परलोक-दोनों कल्याणमय होगा। इतना कहकर मैं अपने प्रवचन में विराम देता हुआ आपलोगों को धन्यवाद ज्ञापन करता हूँ। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 3-3-2000 ई0 को अखिल भारतीय महाधिवेशन छतरपुर, नई दिल्ली में प्रातःकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मई 2000 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
एक बार का प्रसंग है कि देव, दानव और मानव-ये तीनों ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी का अभिवादन कर तीनों ने आसन ग्रहण किया। ब्रह्माजी ने इनके आने का कारण पूछा। तीनों ने एक स्वर से कहा कि हम आपसे कुछ उपदेश ग्रहण करने के लिए आए हैं। ब्रह्माजी ने राक्षस को अपने पास बुलाया और कहा कि मैं तुम्हें उपदेश देता हूँ, एक अक्षर-‘द’; अब जाओ।’ जब दानव जाने लगा, तो उन्होंने पूछा-‘तुमने मेरे उपदेश का क्या अर्थ समझा?’ दानव ने कहा- “ हम दानव क्रूरकर्मी हैं, लूट-मार और हिंसावृत्ति में लगे रहते हैं। आपने ‘द’ अक्षर का उपदेश देकर कहा कि दया करो।” ब्रह्माजी ने कहा-‘तुमने ठीक समझा जाओ।’ तब ब्रह्माजी ने देव को बुलाया। उन्हें भी ‘द’ अक्षर का उपदेश देकर कहा-जाओ। जब वे जाने लगे तो ब्रह्माजी ने पूछा-‘तुमने मेरे उपदेश से क्या समझा?’ देव ने कहा-‘हम देवगण सदा इन्द्रिय भोगों में आसक्त रहते हैं। आपने हमें दम की साधना अर्थात् इन्द्रियों का दमन करने कहा है।’ ब्रह्माजी ने कहा-‘ठीक है, जाओ।’ अंत में मानव को बुलाया गया। उसे भी ब्रह्माजी ने वही ‘द’ अक्षर का उपदेश दिया और कहा-जाओ। जब वह जाने लगा तो ब्रह्माजी ने कहा-‘रुको, मैंने जो उपदेश दिया, तुमने क्या समझा?’ मानव ने कहा- “ भगवन्। हम मानव येन-केन- प्रकारेण धन-संग्रह किया करते हैं। आपने ‘द’ अक्षर द्वारा दान करने का उपदेश किया है।” ब्रह्माजी ने संतुष्ट होकर जाने का आदेश दिया।
ब्रह्माजी ने तीनों को एक ही अक्षर ‘द’ का उपदेश दिया, पर सभी ने अपनी-अपनी भावना के अनुरूप अर्थ लगाया। उसी तरह रामचरितमानस एक ग्रंथ है, जिसे लोग भिन्न-भिन्न दृष्टि से देखा करते हैं। कोई कहते हैं, रामचरितमानस एक काव्य ग्रंंथ है। इसमें चौपाइयाँ, दोहे, छंद, सोरठे आदि में जितनी- जितनी मात्र होनी चाहिए, उतनी ही मात्र में बँधे हैं। काव्य के नौ रस के साथ-साथ इसमें अलंकार की भरमार है। उपमा-उपमेय तो डेग-डेग पर भरे पड़े हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी स्वीकार करते हैं-
“ नौ रस जप तप जोग विरागा ।
ये सब जलचर चारु तड़ागा ।।”
कोई कहते हैं कि यह एक पारिवारिक ग्रंथ है। संभ्रान्त परिवार के लोग आपस में किस तरह व्यवहार करते हैं, रामचरितमानस में उसी का चित्रण किया गया है। भाई का भाई के प्रति, पिता का पुत्र के प्रति, पुत्र का पिता के प्रति, पति का पत्नी के प्रति, पत्नी का पति के प्रति, राजा का प्रजा के प्रति कैसा व्यवहार होना चाहिए; यह इसमें बतलाया गया है।
राजा दशरथ श्रीराम को युवराज के पद पर प्रतिष्ठित करना चाहते थे, पर कैकयी की कुमंत्रणा के कारण अयोध्या के राज्य के बदले राम को जंगल जाना पड़ा। समझने की बात है कि जिसको पिता सारी सम्पत्ति दे रहा हो, राज-पाट दे रहा हो, उसके बदले उसको दूसरे ही क्षण जंगल जाने को कहा जाए, तो उसका हृदय क्या कहेगा? राज-पाट पाने की आशा से कितना उल्लास हुआ होगा और जंगल जाने की बात सुनकर कितना उदास होगा वह, पर श्रीराम के चित्त में रत्तीभर भी मलिनता नहीं आई। उन्होंने पिता की आज्ञा को सर्वोपरि माना। युवराज पद ग्रहण करने की आज्ञा हो या जंगल जाने की, राम के लिए दोनों एक समान था। वे सहर्ष जंगल चल पड़े। यहाँ गोस्वामीजी ने दिखलाया है कि पुत्र को पिता का कैसा आज्ञाकारी होना चाहिए।
जहाँ पुत्र का यह कर्त्तव्य है, वहाँ पिता का पुत्र के प्रति कैसा स्नेह होता है, यह भी दिखलाया गया है। राजा दशरथ नहीं चाहते थे कि राम को जंगल भेजा जाए, पर विवश होकर भेजना पड़ा। जिस कारण वे पुत्र-वियोग की वेदना सह न सके। उधर राम कानन गमन करते हैं, इधर राजा दशरथ के प्राण सुरपुर गमन करते हैं।
रामचरितमानस बतलाता है कि पति-पत्नी का संबंध कैसा होना चाहिए। जब सीताजी को मालूम होता कि भगवान श्रीराम जंगल जा रहे हैं, तो सम्मुख उपस्थित होकर पूछती है कि क्या आप जंगल जा रहे हैं? भगवान श्रीराम कहते हैं-‘हाँ, पिताजी की आज्ञा है।’ सीताजी कहती हैं-‘मैं भी आपके साथ चलूँगी।’ भगवान राम कहते हैं-‘नहीं, तुम अयोध्या में ही रहो। जंगल में कष्ट-ही-कष्ट है। वहाँ खाने के लिए मात्र कन्द, फल, मूल ही मिलेंगे और वह भी कभी नहीं मिला, तो भूखा भी रहना पड़ेगा। तुम जाड़ा, गर्मी और बरसात का दुःख नहीं झेल सकोगी। तुम राजकुमारी हो, जनक-दुलारी हो, मेरी प्राण-प्यारी सुकुमारी हो। जंगल के पथरीले, कँटीले मार्ग पर कैसे चल सकेगी? जबतक मन लगे, अयोध्या में रहना; नहीं लगे, तो जनकपुर चली जाना। फिर जब वहाँ मन नहीं लगे, तब अयोध्या आ जाना। इस तरह अयोध्या-जनकपुर आवागमन करते-करते चौदह वर्ष बीत जाएँगे?’ सीताजी कहती हैं-‘आप मुझे सुकुमारी कहते हैं, जनकदुलारी कहते हैं। आप भी तो राजा दशरथ के दुलारे हैं और मेरे प्राण प्यारे हैं। आपने जंगल के जिन कष्टों का वर्णन किया है, मैं उससे घबड़ाती नहीं। पत्नी का पुनीत कर्त्तव्य होता है कि वह पति के सुख-दुःख में हाथ बँटाए। इतने दिनों तक अयोध्या में रहकर मैंने आपके सुखोपभोग का आधा सुख भोग लिया है, अब आपके साथ जंगल जाकर दुःख में भी आधा हिस्सा लूँगी। जागतिक जितने सुख हैं, सभी तराजू के एक पलड़े पर रख दिए जाएँ और पत्नी के लिए जो पति का सुख है, उसको दूसरे पलड़े पर रखा जाए, तो भी इसकी बराबरी वह नहीं कर सकता।
“ बिना पति सूना सब संसार ।
पति ही पत है पति ही गत है, पति बिनु विपति हजार ।।”
बंगला रामायण में आया है-
“ आकाशे ना चन्द्र स्वामी, की करिबे तारा ।
जा नारी रे पुरुष नाहीं, दिने अंधियारा ।।
पाताले ना पानी स्वामी, की करिबे कूप ।
जा नारी रे पुरुष नाहीं, की करिबे रूप ।।”
आकाश में कितने भी तारें हों, परन्तु चन्द्रमा नहीं हो, तो वह शोभाहीन होता है; उसी तरह पति के बिना नारी शोभाहीन है। जिस तरह जल के बिना मछली का जीवन नहीं, उसी तरह पति के बिना नारी का जीवन नहीं। मैं आपके साथ वन चलूँगी। आप आदेश देने की कृपा करें।’ भगवान श्रीराम ने जब देखा कि यह माननेवाली नहीं है, तो साथ चलने की आज्ञा दे देते हैं।
जहाँ नारी पति-सेवा में अपने सारे सुखों का त्यागकर सकती है, वहाँ पति का पत्नी के प्रति क्या कर्त्तव्य होता है, यह भी देखिए। जब सीताजी का हरण होता है, तो भगवान श्रीराम उनके उद्धार के लिए कोर-कसर नहीं रखते हैं, बल्कि जो सीता हरण करता है, श्रीराम-द्वारा उसका सवंश मरण होता है।
रामचरितमानस यह भी बतलाता है कि भाई-भाई में किस प्रकार का संबंध होना चाहिए। जब लक्ष्मणजी को मालूम होता है कि भगवान श्रीराम जंगल जा रहे हैं, तो वे उनके पास आते हैं और कहते हैं-‘भैया! मालूम हुआ है कि आप जंगल जा रहे हैं, मैं आपकी सेवा में जंगल जाऊँगा।’ श्रीराम ने कहा- ‘लक्ष्मण! जरा सोचो, भरत और शत्रुघ्न ननिहाल में हैं, जानकी मेरे साथ जंगल जा रही है। पिताजी जब हमारे लिए विकल होंगे, तो उनको सान्त्वना कौन देगा, कौन सम्हालेगा?’ लक्ष्मणजी ने उत्तर दिया-‘वे तो महाराज हैं, उन्हें मैं क्या सान्त्वना दूँगा? मैं तो आपका सेवक हूँ, आपके साथ चलूँगा।’ भगवान राम ने कहा-‘अच्छा, अपनी माताजी से आज्ञा ले लो।’ लक्ष्मणजी माता सुमित्र से सारी बातें बताकर श्रीराम-सीता की सेवा के लिए वन जाने की आज्ञा माँगते हैं। अगर सुमित्र के मन में सौतिया डाह होती, तो बेटे से यही कहती कि तुम अयोध्या में मंगल करो, जंगल में पता नहीं, क्या खड़मंगल हो जाए? पर ऐसा नहीं कहती, बल्कि कहती है-‘बेटा! सीता-राम की सेवा में अवश्य जाओ।’
“ पुत्रवती जुवती जग सोई ।
रघुपति भगतु जासु सुत होई ।।
नतरु बाँझ भल वादि विआनी ।
राम विमुख सुत ते हित जानी ।।”
‘देखो बेटा! मैं तो इस जन्म में तुम्हारी माँ हूँ, पूर्व जन्म में तुम्हारी माँ नहीं थी और आगे जन्म में भी नहीं रहूँगी, किन्तु ये सीता-राम तुम्हारे पूर्व जन्म के माता-पिता हैं, इस जन्म के माता-पिता हैं और भविष्य-जन्म के भी माता-पिता रहेंगे। जो संतान अपने माता-पिता के पास रहती है, माता-पिता उसे कभी कष्ट नहीं होने देते। इसलिए संतान का कर्त्तव्य का कि वह अपने माता-पिता को कष्ट नहीं होने दे। देखना बेटा! उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न होने पाए। स्वप्न में भी उन्हें कष्ट नहीं हो, ऐसा ध्यान रखना।’ लक्ष्मणजी ने कहा-‘माँ! जबतक मैं जाग्रतावस्था में रहूँगा, उन्हें कोई कष्ट होने नहीं दूँगा, पर जब मैं स्वप्नावस्था में चला जाऊँगा, तब क्या कर सकता हूँ? लेकिन आपकी आज्ञा है कि स्वप्न में भी कष्ट नहीं होने देना, तो मैं आपके चरणों की सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि जबतक उनकी सेवा में रहूँगा, मैं सोऊँगा नहीं।’ लक्ष्मणजी ने सिर्फ कहा ही नहीं, करके दिखला दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने नवविवाहिता पत्नी को घर में छोड़कर चौदह वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य व्रत में रत, निराहारी होकर गुडाकेश बन, वन में श्रीराम की सेवा किस भाँति की, विशेष अत्याश्चर्य- जनक है। इस प्रसंग की एक रोमांचकारी मनोहारी कथा हैै-
जब भगवान श्रीराम रावण को मारकर जानकीजी के साथ अयोध्या लौटे और राज्य संचालन करने लगे, तो एक दिन उन्होंने लक्ष्मणजी से पूछा-‘लक्ष्मण! मेघनाद को तो वही मार सकता था, जिसने बारह वर्षों तक नारी का संग नहीं किया हो, बारह वर्षों तक दिवा-निशि कभी सोया नहीं हो और बारह वर्षों तक कुछ खाया नहीं हो। यह मैं मानता हूँ कि तुमने बारह वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन किया है; क्योंकि तुम जंगल में थे और उर्मिला अयोध्या में थी, तुम बारह वर्षों तक सोये नहीं, जगकर पहरा किया करते थे। किन्तु, इस अवधि में तुम कुछ खाये नहीं, यह कैसे माना जाए? तुम प्रतिदिन जंगल से कंद, मूल, फल लाते थे, तो मैं ही तीन हिस्से लगाकर तुम्हें एक हिस्सा देता था, फिर तुमने खाया कैसे नहीं?’ लक्ष्मणजी ने उत्तर दिया-‘हिस्सा तो आप मुझे देते थे और कहते थे-लो लक्ष्मण! यह कभी नहीं कहा कि खा लक्ष्मण। इसलिए आपके आदेशानुसार मैंने लिया अवश्य, पर खाया नहीं।’ भगवान श्रीराम ने पूछा-‘तुमने कभी खाया नहीं, तो उस भोजन को तुमने क्या किया?’ लक्ष्मणजी ने उत्तर दिया-‘चौदह वर्षों में हमलोग जिस-जिस जंगल में जितने-जितने दिनों तक जहाँ-जहाँ रहे, प्रतिदिन का भोजन मैं वहीं पृथ्वी में गाड़ देता था, वह आज भी सुरक्षित है, आप उन्हें मँगाकर देख सकते हैं।’
अब समस्या सामने आयी कि उन स्थानों से भोजन खोजकर लाए तो कौन?’ जो काम किसी से नहीं हो सकता, उसके करनेवाले तो हनुमानजी थे ही। भगवान ने कहा-‘जाओ हनुमान! लक्ष्मण जहाँ-जहाँ बतलाता है, वहाँ-वहाँ से भोजन खोजकर ले आओ।’ भगवान की आज्ञा पाकर हनुमानजी भोजन खोजकर ले आए। भगवान तो अन्तर्यामी थे, सब जानते ही थे, पर लोगों को विश्वास दिलाने के लिए गणना करवायी गयी। गणना करते-करते सात दिनों का भोजन नहीं मिला। भगवान ने पूछा-‘लक्ष्मण! इन सात दिनों का भोजन कहाँ है?’ लक्ष्मणजी ने उत्तर दिया-‘भैया! इन सात दिनों में मेरी कौन पूछे, आपलोगों ने भी कुछ नहीं खाया है।’ भगवान ने पूछा-‘कैसे?’ लक्ष्मणजी ने उत्तर दिया-(1) जिस दिन हमलोग अयोध्या से जंगल के लिए प्रस्थान किए थे, (2) जिस दिन हमलोगों को पिताजी की मृत्यु का समाचार मिला था, (3) जिस दिन सीता का हरण हुआ था, (4) जिस दिन रावण ने माया सीता का वध किया था, (5) जिस दिन रावण ने आपके माया मुंड और धनुष का प्रदर्शन किया था, (6) जिस दिन मुझे शक्तिवाण लगा था, जब सेवक ही मृत्युशय्या पर पड़ा था, तो भोजन लाता कौन? और (7) जिस दिन रावण-वध हुआ, उस दिन खुशियाँ मनाते रहे, खुशी के मारे हमलोगों ने भोजन नहीं किया।’
भाई-भाई का कैसा विलक्षण प्रेम है! लक्ष्मणजी ने चौदह वर्षों तक भूखे रहकर, दिन-रात जगकर, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए भाई की सेवा में रहे।
भगवान श्रीराम के वन-गमन के समय भरत और शत्रुघ्न ननिहाल में थे। जब वे दोनों अयोध्या आते हैं, तो भगवान राम, जानकी और लक्ष्मण के वन-गमन की बात जानकर वे बड़े दुःखी होते हैं और जंगल चलते हैं, उनको मनाकर लौटा लाने के लिए। आज एक इंच जमीन के लिए भाई-भाई लड़ाई करते हैं। वह लड़ाई भी कैसी, जान लेने पर उतारु हो जाते हैं, पर भरतजी अयोध्या के राज-पाट को भाई के प्रेम में ठुकरा देते हैं। वह अयोध्या का राज्य भी कैसा था? गोस्वामीजी लिखते हैं-
“ अवध राज सुर राज सिहाहीं ।
दशरथ धन लखि धनद लजाहीं ।।”
भरतजी भगवान राम को अयोध्या लौटाने के लिए बहुत प्रकार से अनुनय-विनय करते हैं, किन्तु भगवान श्रीराम कहते हैं कि पिताजी की आज्ञा सर्वोपरि है। तुम अयोध्या का राज्य करो, मैं कानन-राज्य करता हूँ। यदि तुम्हारा मन नहीं मान रहा है, तो मेरी खड़ाऊँ ले जाओ। इतना कहकर वे अपनी खड़ाऊँ भरतजी को दे देते हैं। भरतजी भाई की खड़ाऊँ को सिर पर रखकर अयोध्या आते हैं और जैसे भगवान राम जटा-जूट बनाकर जंगल में रहते थे, वैसे ही भरतजी तपस्वी वेश में नन्दीग्राम में कुटिया बनाकर रहने लगे, राज्य सुख नहीं भोगे।
इन्हीं सब विशेषताओं के कारण कुछ लोग रामचरितमानस को पारिवारिक ग्रंथ कहते हैं। कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि भगवान सगुण-साकार रूप में अवतार लिए थे। रामचरितमानस में उसी का वर्णन है। कोई कहते हैं-नहीं, केवल सगुण-साकार ही नहीं, इसमें निर्गुण-निराकार ब्रह्म की महिमा भी गायी गई है, बल्कि निर्गुण-निराकार को सुलभ बतलाया गया है; यथा-
“ निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोय ।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होय ।।”
कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि रामचरितमानस में यह भी बतलाया गया है कि राजा का प्रजा के लिए क्या कर्त्तव्य होना चाहिए। भगवान श्रीराम के राजत्व काल में प्रजा को किसी प्रकार का दुःख नहीं था, सभी सुखी थे।
“ दैहिक दैविक भौतिक तापा ।
रामराज काहू नहिं व्यापा ।।”
वहाँ अतिवृष्टि या अनावृष्टि नहीं होती थी, बल्कि-
‘माँगे वारिद देहिं जल, रामचन्द्र के राज ।’
ऐसा नहीं कि इतनी वर्षा हुई, जिससे फसल नष्ट हो गई या वर्षा के अभाव में फसल नहीं हुई। उनके समय में ऐसा माना जाता था कि-
“ जाहि राज प्रिय प्रजा दुखारी ।
ते नृप अवसि नरक अधिकारी ।।”
इसलिए राजा सब प्रकार से प्रजा की देखभाल करते थे। उसमें भी भगवान श्रीराम कोई साधारण राजा नहीं थे। वे जानते थे कि अभी तो मेरी प्रजा सब तरह से सुखी है, पर एक-न-एक दिन इन सबका शरीर अवश्य छूटेगा। इसलिए जैसे यहाँ मेरी प्रजा सुखी है, उसी तरह शरीर छूटने पर भी सुखी रहे। इसलिए उन्होंने अपनी प्रजाओं, गुरुजनों, पुरजनों और ब्राह्मणों को बुलाया और कहा-
“ सुनहु सकल पुरजन मम बानी ।
कहउँ न कछु ममता उर आनी ।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई ।
सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई ।।
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई ।
मम अनुसासन मानै जोई ।।
जौं अनीति कछु भाषौं भाई ।
तौ मोहि बरजहु भय बिसराई ।।”
भगवान कहते हैं-‘सुनो! मैं ममताग्रस्त होकर नहीं कह रहा हूँ और न अन्याय की बात कह रहा हूँ। जो नीति सम्मत और उचित बात है, वही कह रहा हूँ। मेरी बात अच्छी लगे, तो कीजिए, अच्छी नहीं लगे, तो नहीं कीजिए। मेरी ओर से कोई दबाव नहीं है, बल्कि छूट है कि यदि मेरी बात अनुचित हो, तो निडर होकर कह दीजिए कि आपकी अमुक बात न्यायोचित नहीं है।
“ बड़े भाग मानुष तन पावा ।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा ।।”
आपलोगों को जो मनुष्य का शरीर मिला है, यह आपलोगों का अहोभाग्य है; क्योंकि यह देव-दुर्लभ शरीर है। यदि हम विवेक विलोचन से अवलोकन करें, तो प्रश्न सामने आएगा कि यह शरीर देव-दुर्लभ कैसे है?
एक बार अखबार में निकला था कि किसी ने पचहत्तर हजार रुपये में एक कुत्ता मोल लिया। उस कुत्ते की सेवा करनेवाला, खिलाने-पिलानेवाला, पैखाना कराने और उसको साफ करनेवाला कौन? आदमी ही तो होगा। जिस समय वह कुत्ते को पावरोटी और दूध खिलाता होगा, उस समय उसके मन में होता होगा कि मुझे तो सूखी रोटी नसीब नहीं और यह कुत्ता पावरोटी-दूध खाता है। जब उसके शरीर में वह साबुन लगाता होगा, तो उसके मन में कितनी हीनता आती होगी। फिर, मानव-शरीर देव-दुर्लभ कैसे?
किसी समय ईरान का बादशाह घोड़े का व्यापार करने के लिए सौदागर के वेश में भारत आया था। एक-एक घोड़े की कीमत एक-एक लाख रुपये थी। एक घोड़े को कपड़े के घर में रखा गया था। कई दिन बीत गए, पर घोड़े को खरीदने के लिए कोई नहीं आया। उस समय यहाँ के राजा पृथ्वीराज थे। उनके मंत्री ने कहा कि विदेश से एक घोड़े का व्यापारी आया है। उसका घोड़ा कोई नहीं खरीद रहा है, देश की बदनामी होगी। इसलिए कम-से-कम एक घोड़ा खरीद लेना चाहिए। पृथ्वीराज ने कहा-‘जाओ, खरीद लो।’ मंत्रीजी घोड़े को देखने के लिए गए। बहुत अच्छे-अच्छे घोड़े थे। मंत्रीजी ने सौदागर से पूछा-‘कपड़े के घर में क्या है?’ व्यापारी ने व्यंग्य किया, कहा-‘जब साधारण घोड़े को खरीदनेवाला कोई नहीं है, तो कपड़े के घर में क्या है, देखकर क्या करोगे? उसमें भी घोड़ा ही है?’ मंत्री ने आवेशित स्वर में कहा-‘उस घोड़े में ऐसी क्या बात है, दिखलाओ तो मुझे। उस घोड़े के साथ सारे घोड़ों को मैं खरीद लूँगा।’ कपड़े को हटाया गया। उसमें एक सुन्दर घोड़ा था। उसकी कीमत बतलायी एक करोड़। मंत्री ने सभी घोड़े खरीद लिए।
अब समझिए कि उस एक करोड़ के घोड़े की सेवा करनेवाला भी मनुष्य ही होगा। कितने लोग भीख माँगते-फिरते हैं-बाबू! एक पैसा दे दो। फिर नरतन में सुर-दुर्लभता की क्या बात रही? वास्तविक बात तो यह कि एक करोड़ रुपये का घोड़ा हो या पचहत्तर हजार का कुत्ता, भगवद्-भजन करके भवसागर से छूट नहीं सकता, किन्तु भीख माँगनेवाला ही क्यों न हो, यदि उसे क्रिया बतला दी जाए, तो साधना करके वह त्रय तापों से, भवसागर के आवागमन से छूट सकता है। दूसरी बात यह कि देवताओं के लिए जो मानव-शरीर को दुर्लभ बतलाया गया है। इसका भी कारण है-
“ इन्द्रिय सुर न ज्ञान सुहाई ।
विषय भोग पर प्रीति सदाई ।।
आवत देखहिं विषय बयारी ।
ते हठ देहिं कपाट उघारी ।।”
देवगण विषय-लोलुप होते हैं। जो विषयी हैं, उन्हें निर्विषय से क्या लेना? आज भी कितने ऐसे व्यक्ति हैं, जिनको जागतिक समृद्धि है, उनको भक्ति अच्छी नहीं लगती।
बात आज की नहीं, बहुत पुरानी है, बिहार प्रान्त के भागलपुर की है। वहाँ धन-धान्य से समृद्ध एक व्यक्ति थे, जिनको जाति से बहिष्कृत कर दिया गया था। वे इतनी शराब पीते थे कि पीते-पीते बेहोश हो जाते थे। एक बार जब वे पीकर बेहोश हो गए, तो डॉक्टर को बुलवाया गया। डॉक्टर ने उनको होश में लाया और कहा-‘अब आप पीना बन्द कीजिए, अन्यथा आपकी जान को खतरा है।’ आदत तो पुरानी थी, फिर एक दिन पीकर बेहोश हो गए। डॉक्टर ने आकर पुनः उनको होश में लाया और कहा-‘अब पीयोगे तो मर जाओगे।’ डॉक्टर बैठे ही थे। उन्होंने शराब की बोतल मुँह में डालते हुए कहा-‘स्मज उम कपम (मुझे मरने दो)।’ डॉक्टर के सामने ही शराब पीकर मर जाते हैं।
यह क्या है? विषय की लत है। देवगण विषय भोग में रत रहते हैं, पर उनको रोग नहीं होता। मनुष्य उतना भोग करे, तो वह रोगी हो जाएगा। मनुष्य-शरीर की विशेषता क्या है, गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
“ नहिं ऐसो जनम बारंबार ।
का जान्यो कछु पुण्य प्रगट्यो, तेरो मानुषावतार ।।
घटत छिन छिन बढ़त पल पल, जात न लागत बार ।
वृक्ष ते फल टूटि पड़ि हैं, बहुरि न लागत डार ।।”
जैसे वृक्ष से फल गिर जाए, तो कितना ही प्रयास करे, वह फिर उस डाल से जुड़ता नहीं। उसी तरह हमारे जीवन का जो अंश चला गया, वह जुड़़ेगा नहीं। ‘घटत छिन-छिन बढ़त पल-पल’, का मतलब यह कि मान लीजिए किसी व्यक्ति की जन्मकालीन आयु एक सौ साल की हो और वह जब पाँच साल का हो गया, तो लोग यह भूल जाते हैं कि 100-5=95, अब 95 साल ही बचा। जब वह पचीस साल का हो गया तो यह नहीं समझता कि अब पचहत्तर साल ही बचे हैं। इस प्रकार उम्र बढ़ती जाती है और आयु घटती जाती है। घटते-घटते एक दिन जीवन-लीला समाप्त हो जाती है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ लाख चौरासी भरमि कै, पौ पर अटके आय ।
अजहूँ पासा ना पड़े, फिर चौरासी जाय ।।”
चौपड़ एक खेल होता है। उसमें चौरासी कोठे बने होते हैं। छह कौड़ियाँ और चार गोटियाँ भी होती हैं। कौड़ियों को भाँजकर नीचे रखते हैं। जितनी कौड़ियाँ चित होती हैं, क्रम-क्रम में उतनी कोठे आगे बढ़ती हैं। गोटी बढ़ती-बढ़ती जब 84वें कोठे में पहुँचती है, तो उसे ‘पौ’ कहते हैं। अब यदि एक कौड़ी चित हो जाए, तो गोटी लाल हो जाती है। खेलाड़ी कहते हैं, पौ-बारह हो गया यानी जीत हो गई। यदि एक से अधिक कौड़ी चित हो जाती है, तो गोटी को फिर चौरासी कोठों में भ्रमण करना पड़ता है।
उसी तरह हमलोग भी चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते-करते मनुष्य-शरीर में आए हैं अर्थात् ‘पौ’ पर आ गए हैं। अब यदि हमारा चित्त एक होकर प्रभु से लग जाए, तो गोटी लाल हो जाएगी यानी जीवन निहाल हो जाएगा, नहीं तो, फिर चौरासी लाख योनियों में जाकर दुःख झेलना पड़ेगा।
भगवान राम कहते हैं-
‘साधन धाम मोच्छ कर द्वारा ।’
इस शरीर में रहकर जो साधन कीजिए, सफलता मिलेगी। यही शरीर है-कोई सिपाही, कोई दारोगा, कोई एस-पी- बना हुआ है। कोई कंगाल है, तो कोई सेठ बना हुआ है। इसी शरीर में मोक्ष का द्वार भी है। हम शरीर में नौ द्वारों को देख रहे हैं, वे हैं-आँख के दो, कान और नाक के दो-दो, मुँह का एक और मल-मूत्र विसर्जन का एक-एक द्वार। इनमें से कोई भी मोक्ष का द्वार नहीं है। इस शरीर में दसवाँ द्वार भी है, पर वह बाहर में नहीं, अन्दर में है; वही है मोक्ष का द्वार। राधास्वामी साहब ने कहा है-
“ इस नगरी में तिमिर समाना, भूल भरम हर बार ।
खोज करो अंतर उजियारी, छोड़ चलो नौ द्वार ।।”
इन नौ द्वारों को छोड़ो, इनमें रहोगे तो अंधकार में रहोगे। और जबतक अंधकार में रहोगे, तुम्हारा भविष्य भी अंधकारमय रहेगा। दसवें द्वार में जाओगे, तो प्रकाश मिलेगा, तुम्हारा भविष्य भी प्रकाशमय होगा। गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
“ नउ दरि ठाके धावतु रहाए ।
दसवै निज घरि बासा पाए ।।
उथै अनहद सबद बजहि दिन राती ।
गुरमति शबदु सुणावणिआ ।।”
नौ द्वारों में रहोगे, तो विषयों में दौड़ते रहोगे, दसवें द्वार में जाओगे, तो अपने घर जाओगे।
“ क्यों भटकता फिर रहा तू ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है दिलवर पै जाने के लिए ।।”
प्रभु पाने का रास्ता शहरग अर्थात् सुषुम्ना में है। इसी को दसवाँ द्वार और आज्ञाचक्र भी कहते हैं। जो यहाँ ध्यान लगाते हैं, उन्हें प्रभु की ओर से आने की आज्ञा मिल जाती है।
पुनः भगवान श्रीराम कहते हैं कि इस संसाररूपी समुद्र को पार करने के लिए यह शरीर नाव है और प्रभु की कृपा अनुकूल वायु है। नाव मिल जाए और वायु भी अनुकूल हो, पर यदि नाव को खेनेवाला न हो, तो नाव किसी भँवर में फँसकर डूब सकती है या किसी चट्टान से टकराकर चूर-चूर हो सकती है। इसलिए कुशल नाविक की आवश्यकता होती है। इस शरीर-रूपी नाव के नाविक कौन? भगवान राम कहते हैं-
“ करनधार सद्गुर दृढ़ नावा ।
दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ।।”
शरीर-रूपी नाव के नाविक संत सद्गुरु हैं। हमें मनुष्य का शरीर मिल गया है। प्रभु की कृपा मिल गई है। खोजने से गुरु भी मिल जाते हैं। इतना होने पर भी यदि कोई भव-सागर पार नहीं होता है, तो वह कृत निन्दक है, उसे आत्महत्या का पाप लगेगा।
रामचरितमानस में जहाँ हम ‘बड़े भाग मानुष तनु पावा’ पढ़ते हैं, वहाँ यह भी पढ़ते हैं कि ‘बड़े भाग पाइय सत्संगा’ अर्थात् जब हम सत्संग करते हैं, तो हमारा भाग्य और बड़ा हो जाता है; क्योंकि उससे भक्ति-पथ पर चलने की प्रेरणा मिलती है। इच्छा होती है कि हम भी भक्ति करें, किन्तु भक्ति करें कैसे? यह जानने के लिए गुरु की शरण में जाते हैं, तब भाग्य और बढ़ जाता है।
“ जे गुरु पद अम्बुज अनुरागी ।
ते लोकहु वेदहु बड़ भागी ।।”
संत सद्गुरु से युक्ति सीखकर जब हम साधना करने लग जाते हैं और अपने अन्दर मानस ध्यान कर गुरु का दर्शन करने लगते हैं, तब हमारा भाग्य और भी बढ़ता है। संत तुलसी साहब ने कहा है-
“ दर्शन उनके उर माहिं करै बड़भागी ।
तिनके तरने की नाव किनारे लागी ।।”
जिज्ञासा हो सकती है-वह नाव कौन-सी है? हमारे परम पूज्य गुरुदेव इसका उत्तर देते हैं-
“ बिन्दु नाद अगुआइ, तुमहिं ले जाएँगे ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ ज्योति मंडल सह नाद,
की सैर दिखाएँगे ।।”
मानस ध्यान स्थूल-सगुण-साकार भक्ति है। जब सूक्ष्म- सगुण-साकार ध्यान करते हैं, तब प्रकाश का दर्शन होता है। गोस्वामीजी कहते हैं-
“ श्री गुरुपद नख मनिगन जोती ।
सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ।।
दलन मोह तम सो सु प्रकासु ।
बड़े भाग उर आवहिं जासू ।।”
आगे और भी कुछ बाकी रह जाता है, जो कि महर्षि मेँहीँ-पदावली में लिखित है।
“ अमृत ध्वनि की नौबत झहरत, बड़भागी सुनते ।
सुनत लखत सुख लहत अद्भुती, ‘मेँहीँ’ प्रभु मिलते ।।”
साधक प्रकाश में जाने के बाद शब्द भी सुनता है और आदिशब्द को पकड़कर वह परम प्रभु परमात्मा के पास पहुँच जाता है। वहाँ जीव और पीव मिलकर एक हो जाता है। साधक को विलक्षण आनंद की प्राप्ति होती है। ऐसे व्यक्ति के भाग्य का कहना ही क्या! उसका भवबंधन छूट जाता है और वह आवागमन के चक्र से छूट जाता है। यही मानव-तन की उपादेयता है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 3-3-2000 ई0 को अखिल भारतीय महाधिवेशन,
छतरपुर दिल्ली में अपराह्णकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था (शान्ति-सन्देश, जून 2000 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
यदि पृथ्वीतल से मिट्टी का एक ढेला लेकर हम आकाश की ऊँचाई में ले जाकर छोड़ दें, तो वह आकाश में जबतक चक्कर काटता रहेगा, जबतक वह पुनः पृथ्वी से आकर मिल नहीं जाता। अंश जबतक अपने अंशी में मिल नहीं जाता, स्थिरता नहीं आती है। यहाँ पृथ्वी अंशी है और मिट्टी का ढेला अंश है। समुद्र से वाष्प निकलता है। वह ऊपर जाकर बादल का रूप लेता है, फिर पहाड़ों की चोटियों पर वर्षा करता है, पर वह जल वहाँ टिकता नहीं। वहाँ से नीचे की ओर भागता है। छोटी नदी या नाले का संग कर बड़ी नदी के साथ मिलकर समुद्र में समा जाता है। हम अग्नि जलाते हैं, तो उसकी लौ ऊपर की ओर जाती है। अग्नि सूर्य का अंश है, वह सूर्य से मिल जाना चाहती है। हम देखते हैं कि जोरों का अँधड़-तूफान आता है, वेगवती हवा चलती है, फिर वह आकाश में ही विलीन हो जाती है; क्योंकि उसकी उत्पत्ति आकाश से हुई है। उसी तरह यह जीव भी अपने अंशी से बिछुड़ जाने के कारण अशांत, बेचैन बना हुआ है। यह तबतक शांति प्राप्त नहीं कर सकता, जबतक कि जहाँ से इसकी उत्पत्ति हुई है, वहाँ नहीं पहुँच जाए। गोस्वामी तुलसीदासजी रामचरितमानस में लिखते हैं-
“ ईश्वर अंस जीव अविनासी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ।।
सो मायाबस भयेउ गुसाईं ।
बँधेउ कीर मरकट की नाईं ।।”
यह जीवात्मा परम प्रभु परमात्मा का अंश है। जीव उस पीव को पाकर उसी तरह स्थिर हो जाता है, जैसे सरिता का जल समुद्र में जाकर स्थिर हो जाता है।
“ सरिता जल जलनिधि महँ जाई ।
होइ अचल जिमि जीव हरि पाई ।।”
-गो0 तुलसीदासजी
जिस परमात्मा से जाकर मिलना है, उसका स्वरूप क्या है? संत कबीर साहब कहते हैं-
“ भक्ति सब कोइ करै भरमना ना टरै,
भक्ति जंजाल दुःख द्वन्द्व भारी ।
ब्रह्म चीन्है नहीं भ्रम पूजत फिरै,
हिय के नैन क्यों फोरि डारी ।।”
सर्वप्रथम हम विवेक दृष्टि से विचार करें कि ईश्वर स्वरूपतः कैसा है, पश्चात् उसकी भक्ति करें।
एक सज्जन घूमने के लिए जंगल गए। घूमते-घूमते उन्होंने एक कुटिया देखी। वे कुटिया के पास पहुँचे। वहाँ एक साधु बाबा बैठे हुए थे। उक्त सज्जन ने पूछा-‘बाबा! इस शांत-एकांत जंगल में आप क्या करते हैं?’ उन्होंने कहा-‘भगवद्- भजन करता हूँ।’ उक्त सज्जन ने पूछा-‘क्या भगवान है?’ साधु बाबा ने उत्तर दिया-‘हाँ, है।’ उक्त सज्जन ने कहा-‘मैं तो भगवान को नहीं मानता।’ साधु बाबा ने कहा-‘तुम भगवान को नहीं मानते हो, मैं अमेरिका को नहीं मानता हूँ।’ उक्त सज्जन ने कहा-‘बाबा! आप अमेरिका को कैसे नहीं मानते? बहुत-से लोग वहाँ गए हैं और देखकर आए हैं।’ साधु बाबा ने कहा-‘परम प्रभु परमात्मा के पास भी बहुत संत-महात्मा लोग गए हैं और उनको देखकर आए हैं।’ उक्त सज्जन ने कहा-‘बाबा! अगर आपको मेरी बात पर विश्वास नहीं है, तो दिल्ली हवाई अड्डे पर जाइए। कुछ रुपये लगेंगे और हवाई जहाज का टिकट मिल जाएगा। हवाई जहाज पर बैठकर आप इंगलैंड चले जाइएगा। वहाँ दूसरा जहाज मिलेगा, उससे अमेरिका पहुँच जाइएगा।’ साधु बाबा ने कहा-‘देखो जी, भगवान से मिलने के लिए पैसे खर्च करने की जरूरत नहीं, अवश्य ही कुछ समय खर्च करना होगा। पहले तुम मानस जप और मानस ध्यान कर लेना, फिर दृष्टियोग की क्रिया करके एकविन्दुता प्राप्त कर लेना। वह विन्दु तुमको प्रकाश में पहुँचा देगा। वहाँ जो शब्द मिलेगा, उस केन्द्रीय शब्द को पकड़कर तुम प्रभु के पास निःशब्द में पहुँच जाओगे।’
उक्त सज्जन ने कहा-‘बाबा! ऐसा लगता है कि आपको मेरी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा है। देखिए, एक ग्लोब होता है, उसमें समूचे संसार का चित्र बना रहता है। आप देखेंगे कि भारत के पश्चिम में अमेरिका है, तब आपको विश्वास हो जाएगा।’
साधु बाबा ने कहा-‘मेरी बात सुनो, बिहार प्रान्त में भागलपुर नगर है। वहाँ एक संत हुए महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज। उन्होंने एक पुस्तक लिखी है-‘सत्संग-योग’। पुस्तक के चार भाग हैं। चौथे भाग में उन्होंने पिण्ड-ब्रह्माण्ड का चित्र बनाया है और लिखा है-‘पिण्ड-ब्रह्माण्ड का सांकेतिक चित्र। उसे देखोगे, तो पता चल जाएगा कि जहाँ तुम हो, उससे ठीक उत्तर दिशा में परम प्रभु परमात्मा हैं। वहाँ जाने के लिए रास्ता भी बतलाया गया है; कहीं बाहर में भटकने की जरूरत नहीं। पहले आज्ञाचक्र से सहस्त्रदल कमल में जाओगे, वहाँ से त्रिकुटी, शून्य, महाशून्य और भँवर गुफा होते हुए सतलोक में पहुँच जाओगे। वहाँ प्रभु का दर्शन हो जाएगा।’ उक्त सज्जन के मस्तिष्क में बात जँच गई।
उन्होंने हाथ जोड़कर विनीत स्वर में कहा- ‘बाबा! मैं आपकी बात पर विश्वास करता हूँ, ईश्वर है।’ यह संतमत बतलाता है कि ईश्वर है, पर ‘कैसा है’ यह समझने में लोगों को थोड़ी कठिनाई होती है। आइए, इस संबंध में थोड़ा विचार करें।
जब हम सृष्टि की ओर अपनी दृष्टि करते हैं, तो इस विचार की परिपुष्टि हो जाती है कि इसकी रचना सूक्ष्मता से स्थूलता की ओर हुई है। इस भौतिक जगत का निर्माण मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और आकाश; इन पंच तत्त्वों से हुआ है। इन पाँच तत्त्वों में हम मिट्टी, जल और अग्नि को देखते हैं, पर हवा और अकाश को नहीं देखते हैं। अगर कोई पूछे कि ‘हवा कैसी होती है’ तो हम समझा नहीं सकते। एक बच्चे ने अपनी माँ से पूछा था-
“ होती कैसी हवा जरा तू इसका भेद बता दे ।
पाँव पड़ूँ और शीश नवाऊँ मैया मुझे बता दे ।।
पत्तों के हिलने-डुलने से उससे जो हवा निकलती है ।
तो उसमें हवा कहाँ से आई मैया मुझे बता दे ।।”
इन पंच भौतिक जगत में सबसे पूर्व का है आकाश, उसके बाद का वायु है, फिर क्रम-क्रम से अग्नि, जल और मिट्टी है। मिट्टी सबसे पीछे होने के कारण सर्वापेक्षा स्थूल है। स्थूल होने के कारण उसे हम चुटकी में पकड़ सकते हैं। मिट्टी से पूवर् जल होने के कारण जल मिट्टी की अपेक्षा सूक्ष्म है, उसे हम चुटकी में नहीं उठा सकते हैं। उसको हम चुल्लू में ले सकते हैं। अग्नि जल से पूर्व का होने के कारण उससे सूक्ष्म है। उसे हम चुल्लू में नहीं ले सकते। अग्नि को इन आँखों से हम देखते हैं, पर वायु उससे भी पूर्व का होने के कारण उससे सूक्ष्म है, उसे हम देख भी नहीं सकते। अवश्य ही हवा का स्पर्श-ज्ञान होता है, किन्तु आकाश पाँच तत्त्वों में सर्वाधिक सूक्ष्म है, इसलिए उसका स्पर्श भी नहीं होता, बल्कि कोई भी इन्द्रिय उसको ग्रहण करने में सक्षम नहीं है। फिर जो आकाश से पूर्व का है और उन सबसे सूक्ष्म है, उसका ज्ञान हमारी इन्द्रियाँ कैसे कर सकती हैं! परम प्रभु परमात्मा सबसे पूर्व का है, उसकी सूक्ष्मता की कल्पना कौन कर सकता है। संत सुन्दरदासजी बतलाते हैं कि वह कितना पूर्व का है-
“ भूमि पर अप आपहू के परे पावक है ।
पावक के परे पुनि वायुहू बहत है ।।
वायु के परे व्योम व्योमहू के परे इन्द्री दश ।
इन्द्रिन के परे अन्तःकरण रहत है ।।
अन्तःकरण पर तीनों गुण अहंकार ।
अहंकार पर महतत्त्व कूँ लहत है ।।
महतत्त्व पर मूल माया, माया पर ब्रह्म ।
ताहितें परातपर सुन्दर कहत है ।।”
अब सोचिए, परमात्मा कितना सूक्ष्म है। हमलोग जिस समय साँस लेते हैं, उस समय लाखों कीटाणु हमारे पेट में जाते हैं। जिस समय साँस छोड़ते हैं, तो सामने के लाखों कीटाणु मरते हैं। तो क्या, उन्हें हम इन आँखों से देख पाते हैं? जब उन कीटाणुओं को इन आँखों से हम नहीं देख पाते हैं, तो क्या उनमें जो जीवनी-शक्ति है, उसको इन आँखों से देख पाएँगे? जब उस जीवनी-शक्ति को हमारी इन्द्रियाँ ग्रहण नहीं कर सकतीं, तो उसका जो जीवन-प्रदाता है, उसको कैसे ग्रहण करेंगी। इसीलिए संत कबीर साहब ने कहा है-
‘चाम चश्म सों नजरि न आवै, खोजु रूह के नैना ।’
वर्षों पूर्व की बात है। बंगाल के प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु अमेरिका गए थे। वहाँ के वैज्ञानिकों ने इनके साथ परिहास किया कि ये उस देश से आए हुए हैं, जहाँ के लोग कहते हैं-‘शंख बाजै, बलाय भाजै।’ भला, ऐसा भी कहीं होता है! जगदीशचन्द्र बसु ने कहा कि हमारे भारत के जितने भी कार्यकलाप हैं, सारे-के-सारे विज्ञान सम्मत हैं। ‘शंख बाजै बलाय भाजै’ अक्षरशः सत्य है। यदि आपलोगों को विश्वास नहीं है, तो आपलोग एक शंख और अणुवीक्षण यंत्र (डपबतवेबवचम) लेकर आइए, मैं सिद्ध कर दिखला दूँगा। अमेरिका के वैज्ञानिकों के मन में कौतूहल हुआ कि देखें, भारत का यह वैज्ञानिक क्या प्रयोग करता है? वे लोग शंख और अणुवीक्षण यंत्र लेकर आए। जगदीशचन्द्र बसु ने शंख अपने हाथ में ले लिया और उनलोगों से कहा कि आपलोग अपनी-अपनी आँख में अणुवीक्षण यंत्र लगाकर देखिए। उनलोगों ने वैसा ही किया। जगदीशचन्द्र बसु ने पूछा-‘आपलोग संसार में क्या देख रहे हैं?’ वैज्ञानिकों ने कहा कि संसार कीड़ों से भरा हुआ है। जगदीशचन्द्र बसु ने जोरों से शंख की आवाज की और पूछा-‘अब आपलोग क्या देख रहे हैं?’ अमेरिकी वैज्ञानिकों ने उत्तर दिया-‘कीड़े मर-मरकर नीचे गिर रहे हैं।’ जगदीशचन्द्र बसु ने उत्तर दिया कि शंख की आवाज के कारण ही ये कीड़े मर-मरकर गिर रहे हैं, यही है ‘शंख बाजै बलाय भाजै’। यही कीटाणु साँस के द्वारा रोमछिद्रों के द्वारा मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर विभिन्न रोगों को उत्पन्न करते हैं।
वे कीटाणु इतने सूक्ष्म होते हैं कि हम इन आँखों से उन्हें नहीं देख पाते हैं, तब परम प्रभु परमात्मा जो सूक्ष्मतम हैं, उनको चामचश्म से कैसे देख सकेंगे। आपलोगों ने अभी कठोपनिषद् के पाठ में सुना-
“ वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।”
जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुई वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रही है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों की एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रही है और उनसे बाहर भी है।
लंबे बैलून में हवा का रूप लंबाकार, गाड़ी के पहिए में चक्राकार और फुटबॉल में गोलाकार होता है। पर, यदि कोई हवा का रूप पूछे कि कैसा होता है, तो क्या बतलाएँगे? हवा का रूप न लंबाकार होता है, न चक्राकार होता है और न गोलाकार ही होता है।
विश्व का प्राचीनतम ग्रंथ है ऋग्वेद। उसमें आया है-‘अवाघ्मनसगोचर’। वह परमात्मा मन-वचन से परे है। केनोपनिषद् में लिखा है-
‘यन्मनसा न मुनते येनाहुर्मनो मतम् ।’
मन से उसका मनन नहीं किया जाता, बल्कि जिस शक्ति से मन मनन करता है, वह ब्रह्म है। शाण्डिल्य उपनिषद् में है-
‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।’
जहाँ से मन-वाणी लौट आती हैं, वह मन से प्राप्त होने योग्य नहीं है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ नैना बैन अगोचरी श्रवणा करनी सार ।
बोलन कै सुख कारणे कहिये सिरजनहार ।।”
नैन-बैन से वह अगोचर है। महायोगी गोरखनाथजी महाराज की वाणी में हम अगोचर शब्द की चर्चा पाते हैं-
“ बस्ती न शून्यं शून्यं न बस्ती,
अगम अगोचर ऐसा ।
गगन सिखर मँहि बालक बोलहिं,
वाका नाँव धरहुगे कैसा ।।”
भरे हुए स्थान को बस्ती कहते हैं और जो खाली स्थान होता है, उसको शून्य कहते हैं। उस परमात्मा के लिए न बस्ती कहा जा सकता है, न शून्य ही।
एक यात्री यात्र के क्रम में एक बार एक जंगल में गया। वहाँ उसको एक महात्माजी से भेंट हुई। उसने महात्माजी ने पूछा-‘बाबा! बस्ती कितनी दूरी पर है?’ महात्माजी ने उत्तर दिया-‘जैसे ही जंगल पार करोगे, बस्ती मिल जाएगी।’ चलते-चलते जब उसने जंगल को पार किया, तो उसको श्मशानघाट मिला। वह लौटकर आता है और महात्माजी से कहता है-‘बाबा! आपने कहा था कि जंगल पार करने पर बस्ती मिलेगी, पर वहाँ तो श्मशानघाट मिला।’ महात्माजी ने उत्तर दिया-‘तुम किसको बस्ती कहते हो? बस्ती तो उसको कहते हैं, जहाँ आकर लोग बसते हैं। श्मशान में जाकर जो बसते हैं, उसको कोई उजाड़ सकता है? असली बस्ती तो वही है, जहाँ बसने पर कोई उजाड़ न सके। तुम जिनको बस्ती कहते हो, वह तो उजाड़ है। प्रतिदिन मर-मरकर लोग वहीं, श्मशानघाट में जाकर बसते हैं। इसलिए उसको मैंने बस्ती कहा।
वह परमात्मा न बस्ती है, न शून्य है। वह अगम अर्थात् बुद्धि के परे है, अगोचर अर्थात् किसी इन्द्रिय से ग्रहण होने योग्य नहीं है। इसलिए बाबा गोरखनाथजी ने ‘वाका नाँव धरहुगे कैसा’ कहा। उसका क्या नाम बतलाओगे? संत कबीर साहब ने कहा है-‘पिता जनम की जानै पूत।’ क्या कोई पुत्र अपने पिता का नाम रख सकता है? नाम तो वह रखता है, जिसने उससे पहले जन्म लिया। वह तो जगतपिता है, सबसे पूर्व का है, उसका नाम कौन रख सकता है? संत कबीर साहब कहते हैं-
“ जाका नाम अकहुआ भाई ।
ताकर कहा रमैनी गाई ।।”
वह अकहुआ है अर्थात् कहा नहीं जा सकता है। दूसरी जगह उनकी वाणी इस तरह आयी है-
“ अनगढ़िया देवा कौन करै तेरी सेवा ।।
गढ़े देव को सब कोइ पूजे नित उठि लावै सेवा ।
पूरण ब्रह्म निरंजन साईं ताको नहि जाने भेवा ।।
देवीजी को खस्सी भेंड़ा पीरन को नौते जा ।
उस साहब को कुछ भी नाहीं, बाँह पकड़ जिन भेजा ।।”
परमात्मा को कोई गढ़नेवाला नहीं है। वही सबको गढ़ता है। सारी सृष्टि का सृर्जन उन्होंने ही किया है। उनका क्या नाम बतलाया जाएगा?
‘जस कथिये तस होत नहिं, जस है तैसा सोय ।’
हमारी इन्द्रियाँ जिन वस्तुओं का उपभोग करती हैं, उनके संबंध में भी ठीक-ठीक नहीं बतला सकतीं, फिर जो इन्द्रियातीत है, उसके बारे में क्या कहेंगी? हमलोग रसगुल्ला, पेड़ा, टिकड़ी आदि मिठाइयाँ खाते हैं। कोई पूछे रसगुल्ला कैसा लगा, तो कहेंगे मीठा लगा। पेड़ा कैसा लगा, तो कहेंगे मीठा लगा और टिकड़ी कैसी लगी, तो कहेंगे मीठी लगी। मीठा तो है, पर तीनों के स्वाद की भिन्नता बतलाइए, तब समझेंगे कि तीनों में क्या अंतर है? इन्द्रियों के द्वारा भोग करते हैं, पर बतला नहीं सकते। तब जो इन्द्रियातीत है, उसके बारे में इन्द्रियाँ क्या बतलाएँगी?
जैसे कबीर साहब कहते हैं-‘नैना बैन अगोचरी’, वैसे ही गुरु नानक साहब कहते हैं-‘अलख अपार अगम अगोचरी।’ हम गोस्वामी तुलसीदासजी और संत प्रवर सूरदासजी से भी पूछें कि वे ईश्वर के संबंध में क्या कहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी रामचरितमानस में लिखते हैं कि जब भगवान श्रीराम वाल्मीकिजी के आश्रम में आते हैं और उनसे पूछते हैं कि बतलाइए, मैं कहाँ रहूँ, तो वे कहते हैं-
“ राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।”
एक होता है-रूप, जिसको हम इन आँखों से देखते हैं। दूसरा होता है-सरूप, जो रूप के सहित होता है और तीसरा होता है-स्वरूप अर्थात् निजरूप, आत्मस्वरूप; जिसको हम आत्मदृष्टि से देख सकते हैं। वाल्मीकिजी भगवान के आत्मस्वरूप को देखकर कहते हैं-‘वचन अगोचर बुद्धि पर।’ अविगत अर्थात् सर्वव्यापक। अगर कोई कहे कि आत्मस्वरूप के लिए नहीं, भगवान जिस सगुण-साकार रूप में वहाँ खड़े थे, उसी रूप के लिए वाल्मीकिजी कहते हैं, तो समझना चाहिए कि कोई भी एक रूप अविगत अर्थात् सर्वव्यापक नहीं हो सकता। वहाँ केवल भगवान राम ही नहीं थे, भगवान की बायीं ओर जगज्जनी जानकी और उनकी दायीं ओर लक्ष्मणजी विराज रहे थे। इन तीनों के अलावे चौथे खड़े थे, वाल्मीकि मुनिजी। फिर उस रूप को अविगत कैसे कहा जा सकता है और वह अकथ और अपार भी कैसे हो सकता है। जबतक एक रूप का अन्त नहीं होगा, दूसरा रूप आएगा कैसे ? नेति-नेति-न इति, न इति अर्थात् अन्त नहीं, अन्त नहीं। जबतक भगवान श्रीराम के शरीर की सीमा का अन्त नहीं होगा, तबतक दूसरा शरीर लक्ष्मणजी का कैसे मालूम पड़ेगा और तीसरा शरीर श्रीसीताजी का कैसे मालूम पड़ेगा? वहाँ तो अन्त-ही-अन्त और पार-ही-पार है। यह कैसी बात हुई, विवेकीजन विचार कर सकते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-
“ अव्यक्तं व्यक्तमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परम भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।।”
अर्थात् मैं अव्यक्त हूँ, पर जो अज्ञानी लोग हैं, मुझे व्यक्त मानते हैं। वास्तव में जो मेरा अव्यय, अव्यक्त रूप है, वही उत्तम है।
भगवान का उत्तम रूप कौन है? गीता में कहा गया है-
“ द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।।”
भगवान कहते हैं कि क्षर और अक्षर; ये दो पुरुष हैं। इन दोनों के परे हैं-पुरुषोत्तम, वही मैं हूँ।
“ सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर औरु अक्षर पार में ।
निर्गुण सगुण के पार में सत् असत् हू के पार में ।।
सब नाम रूप के पार में मन बुद्धि वच के पार में ।
गो गुण विषय पंच पार में गति भाँति के हू पार में ।।”
क्षेत्र का अर्थ होता है-शरीर। चार खानियों की चौरासी लाख प्रकार की योनियों में जितने प्रकार के शरीर हैं, कोई भी शरीर परमात्मा नहीं है। यदि हम अपने ही शरीर के भीतर देखें, तो इस स्थूल शरीर के भीतर सूक्ष्म शरीर है, सूक्ष्म के भीतर कारण शरीर है, कारण के भीतर महाकारण शरीर है और महाकारण के भीतर कैवल्य शरीर है। इन पाँचों में कोई भी शरीर परमात्मा नहीं है। जड़ के चारों शरीर क्षर हैं। चाहे कितना भी दिव्य-से-दिव्य सगुण शरीर क्यों न हो, सभी क्षर हैं।
“ चौभुज औ अष्टभुज जो, अथवा अनेकभुज जो ।
आश्चर्य तेज पुंज जो, सबसे सुरत फुटा दो ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
क्षर के परे अक्षर है, जिसको परा प्रकृति और निर्गुण भी कहते हैं, वह सत् है। जो अपरा प्रकृति है, वह सगुण है, क्षर है। संत चरणदासजी कहते हैं-
“ वह अच्छर कोइ विरला पावै ।
जा अच्छर के लाग न विन्दी, सतगुरु सैनहि सैन बतावै ।।”
देवनागरी लिपि की वर्णमाला के अक्षरों में विन्दी लगाते हैं, पर वह अक्षर ऐसा अद्भुत है कि जिसमें विन्दी लगती नहीं। उस अक्षर को संत सद्गुरु संकेत से बतलाते हैं।
सहजोबाई अपने गुरु संत चरणदासजी के पास गई और प्रणाम करके बैठ गई। उस समय संत चरणदासजी अपनी आँखें बन्द कर लेते हैं। यदि हम अपने गुरु के पास जाएँ और वे हमें देखकर आँखें बंद कर लें, तो हम क्या समझेंगे? यही न कि गुरुदेव हमें देखना तक नहीं चाहते, हमसे अप्रसन्न हैं, पर सहजोबाई कहती हैं-
“ सहजो गुरु प्रसन्न ह्वै, मूँद लिए दोउ नैन ।
फिर मों सूँ ऐसो कह्यो, समुझि लेहु यह सैन ।।”
अर्थात् बाहर क्या देखते हो, बाहर तो माया-ही-माया है। निर्मायिक तत्त्व को देखना चाहते हो, तो अपने अन्दर देखो। संत कबीर साहब कहते हैं-
‘क्षर परिहरि अच्छर लौ लावै, तब निःअच्छर पावै ।’
हमलोगों के शरीर में रहनेवाला जीव अक्षर है। जो इस अक्षर हो पाता है, वही निःअक्षर परमात्मा को पाता है। संत सूरदासजी महाराज कहते हैं-
“ अविगत गति कछु कहत न आवै ।
ज्यों गूँगहिं मीठे फल को रस अन्तरगत ही भावै ।।
परम स्वाद सबही जू निरंतर अमित तोष उपजावै ।
मन वानी को अगम अगोचर सो जानै जो पावै ।।
रूप रेख गुन जाति जुगति बिनु निरालम्ब मन चकृत धावै ।
सब विधि अगम विचारहिं तातें ‘सूर’ सगुन लीला पद गावै ।।”
उस सर्वव्यापी परमात्मा के बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता है। किसी गूँगे को मीठा फल खिला दीजिए और उससे पूछिए कि कैसा लगा? वह वर्णन नहीं कर सकता, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उसको स्वाद नहीं लगा। उसी तरह परमात्म-स्वरूप प्राप्त कर लेने पर भी उसको सम्पूर्णतः वर्णन नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह वाणी का विषय नहीं है।
एक बार भगवान श्रीराम ने अपने गुरु वशिष्ठजी से पूछा-‘गुरुदेव! ब्रह्म के स्वरूप के संबंध में कहिए?’ वशिष्ठजी चुप रहे, उत्तर नहीं दिए। भगवान राम पुनः पूछते हैं-‘गुरुदेव! ब्रह्म का स्वरूप क्या है?’ वशिष्ठजी ने इस बार भी उत्तर नहीं दिया। तीसरी बार भगवान अत्यन्त विनीत भाव से पूछते हैं-‘गुरुदेव! आप कहीं मुझसे रुष्ट तो नहीं हैं। मैं बार-बार पूछता हूँ और आप उत्तर नहीं देते।’ इस बार वशिष्ठजी ने कहा-‘राम! तुम जबसे पूछते हो, मैं तुमसे उत्तर दे रहा हूँ। इसका उत्तर ही है-चुप।’ वह तो निःशब्द और असीम है, उसको शब्द जाल में कोई कैसे बाँध सकता है। ज्ञानसंकलिनी तंत्र में लिखा है-
“ उच्छिष्टं सर्वशास्त्रणि सर्वविद्या मुखे-मुखे ।
नोच्छिष्टं ब्रह्मणो ज्ञानमव्यक्तं चेतनामयम् ।।”
जितनी विद्याएँ हैं, जितने शास्त्र हैं, सभी जूठे हो गए हैं; क्योंकि उसका वर्णन लोग मुँह से करते हैं, परन्तु जो अनंत स्वरूप परमात्मा है, उसका ज्ञान कभी जूठा नहीं होता। उस अव्यक्त तत्त्व को अव्यक्त ही जान सकता है। जैसे हमारी चौदह इन्द्रियों में रूप विषय को आँख ही ग्रहण कर सकती है, शब्द को कान ही ग्रहण कर सकता; उसी तरह परब्रह्म परमात्मा का ज्ञान हमारी चेतन आत्मा ही कर सकती है। परमात्मा के संबंध में महर्षि मेँहीँ-पदावली में हम पाते हैं-‘प्रभु अकथ अनामी सब पर स्वामी, गो गुण प्रकृति परे।’ वह अकथ है-कहा नहीं जा सकता। अनामी है-उसका नाम नहीं है। ‘प्रभु वरणन में आवै नाहीं’-कोई उसका वर्णन करके बतला नहीं सकता।
“ गूँगे का गुड़ है भगवान ।
बाहर भीतर एक समान ।”
गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
“ काहे रे वन खोजन जाई ।
सरब निवासी सदा अलेपा तोही संग समाई ।।
पुहप मधि जिउ बासु बसतु है मुकर माहिं जैसे छाई ।
तैसे ही हरि बसे निरंतरि घटि ही खोजहु भाई ।।”
हमलोग पुष्प को देखते हैं, परन्तु उसमें व्यापक गंध को नहीं। उसी तरह हम विश्व को देखते हैं, किन्तु विश्व में व्यापक ब्रह्म को नहीं देख पाते।
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि भगवान शंकर ने पार्वती से कहा था-
“ उमा राम विषयक अस मोहा ।
नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा ।।
जथा गगन घन पटल निहारी ।
झाँपेउ भानु कहै कुविचारी ।।”
राम के विषय में एक व्यामोह है, वह क्या है? अगर नभ अर्थात् आकाश में अंधकार-ही-अंधकार छाया रहे, तो क्या हम आकाश के शुद्ध रूप को देख सकते हैं? नहीं देख सकते। यदि आकाश में धूम अर्थात् धुँआँ रहे, तब भी आकाश का शुद्ध रूप नहीं देख सकते। चाहे आकाश में धूल उड़ रही हो, तब भी आकाश का शुद्धरूप नहीं देख सकते, पर कितना भी बड़ा अंधकार क्यों न हो, सम्पूर्ण आकाश को आच्छादित नहीं कर सकता। उसी तरह कितना भी धुँआ हो या कितनी भी धूल उड़ रही हो, उससे संपूर्ण आकाश आच्छादित नहीं हो सकता। जो कोई उस अंधकार को, धूम को और धूल को पार करेगा, वही आकाश के शुद्ध रूप को देख सकेगा। हमलोग हवाई जहाज से चलते हैं, तो देखते हैं कि नीचे वर्षा हो रही है और ऊपर सूर्य चमक रहा है। उसी तरह जबतक हमारे अंदर तम, धूम और धूल हैै अर्थात् अंधकार, प्रकाश और शब्द है, तबतक परमात्मा के सही स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता। ब्रह्मदर्शन के लिए इन तीनों को यानी अंधकार, प्रकाश और शब्द को पार करना आवश्यक है। हमारे गुरुदेव महाराज कहते हैं-
“ घट-तम प्रकाश व शब्द पट त्रय, जीव पर हैं छा रहे ।
कर दृष्टि अरु ध्वनि योग साधन, ये हटाना चाहिए ।।
इनके हटे माया हटेगी, प्रभु से होगी एकता ।
फिर द्वैतता नहिं कुछ रहेगी, अस मनन दृढ़ चाहिए ।।”
अंधकार, प्रकाश और शब्द; इन त्रय आवरणों को हम पार करें, तब परमात्मा के शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार होगा, द्वैतता मिट जाएगी, अद्वैतभाव आएगा और जीव-पीव मिलकर एकमेक हो जाएगा। इन त्रय आवरणों को हम कैसे पार करें? इसी के लिए संतमत ‘ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर-भक्ति’ का प्रचार करता है, जिसे आपलोग दूसरे समय के सत्संग में सुनेंगे।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 4-3-2000 ई0 को अखिल भारतीय
महाधिवेशन, छतरपुर, दिल्ली में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, सितम्बर 2000 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
जितने लोग यहाँ घरवार, परिवार-रोजगार आदि छोड़कर एक महीने के लिए ध्यान-साधना-शिविर में सम्मिलित हुए हैं, उनका यही उद्देश्य है कि साधना में सफलता मिले।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण का वचन है कि किसी कार्य की सफलता के लिए पाँच चीजों की आवश्यकता होती है-कर्ता, क्षेत्र, साधन, क्रिया और अज्ञात। कर्ता अयोग्य हो और क्षेत्र अनुकूल हो, तो सफलता नहीं मिलेगी। कर्ता योग्य हो और क्षेत्र अनुकूल नहीं हो, तो सफलता नहीं मिलेगी। कर्ता योग्य हो, क्षेत्र अनुकूल हो, किन्तु साधनविहीन हो, तो सफलता नहीं मिलेगी। कर्ता योग्य हो, क्षेत्र अनुकूल हो, साधन सम्पन्न हो, किन्तु कार्यान्वयन नहीं कर रहा हो, तो भी सफलता नहीं मिलेगी। कर्ता योग्य हो, क्षेत्र अनुकूल हो, साधन सम्पन्न हो और कार्यान्वयन भी कर रहा हो, तब पाँचवीं चीज है-अज्ञात अर्थात् प्रभु-कृपा, वह मिल जाती है; फलतः सफलता मुट्ठी में आ जाती है।
पहली बात है कि कर्ता योग्य हो। हम सभी यहाँ ध्यान करने के लिए समवेत हुए हैं। हम इस बात पर विचार करें कि हम इसके कितने योग्य हैं। इसकी जाँच के लिए हम संतों की वाणी का सहयोग लें। संत सूरदासजी ने कहा है-
“ आसन दृढ़ आहार दृढ़, भजन नेम दृढ़ होय ।
तौ प्राणी पावै कछुक, नहिं तो रहै विषय रस मोय ।।”
सबसे पहली बात संत सूरदासजी ने आसन की दृढ़ता कही है। पहले हम बैठने के लिए सीखें। किस तरह बैठें? श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी से कहते हैं-
“ सम आसन आसीनः समकायो यथा सुखम् ।
हस्तावुत्संग आधाय स्वनासाग्रकृतेक्षणः ।।”
(स्कन्ध 11, अध्याय, 14/32)
सुखपूर्वक सम आसन से शरीर को सीधा रखकर बैठे, हाथों को तर-ऊपर गोद में रखे और दृष्टि को नासिका के आगे स्थिर करे।
पुनः भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में अर्जुन को उपदेश करते हुए कहते हैं-
“ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।13।।”
काया, शिर और ग्रीवा को समान रखकर और अचल-स्थिर होकर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ नासिका के आगे देखे।
जिस तरह के आसन से बैठने पर सिर, गर्दन और पीठ एक सीध में रहें, उस तरह बैठें। उसके बाद भगवान श्रीकृष्ण अचल और स्थिर होने कहते हैं। अचल और स्थिर; इन दो शब्दों का प्रयोग भगवान ने किया है। सामान्यतया लोग अचल का अर्थ स्थिर और स्थिर का अर्थ अचल करते हैं; किन्तु यदि दोनों का अर्थ एक ही हो, तो भगवान के वचन में पुनरुक्ति का दोष आ जाएगा। भगवान महायोगेश्वर थे, उनके वचन में पुनरुक्ति नहीं आनी चाहिए। अचल का अर्थ है कि चल नहीं रहे हैं-बैठे हुए हैं, स्थिर का अर्थ है कि हमारे शरीर का कोई भी अवयव या अंग संचालित नहीं हो। उदाहरणार्थ-हमारा एक छोटा-सा बच्चा है। वह आकर हमारी गोद में बैठ गया है। गोद में बैठा तो है, पर कभी हमारा चश्मा पकड़ता है, तो कभी कान, कभी नाक को पकड़ता है, तो कभी हमारी मूँछ को पकड़ लेता है। तब हम उस बच्चे को क्या कहते हैं-स्थिर होकर बैठो। तात्पर्य यह कि वह अचल है यानी चल नहीं रहा है, हमारी गोद में बैठा हुआ है, लेकिन स्थिर नहीं है। इसी प्रकार हम ध्यानाभ्यास करने के लिए बैठे तो हैं, अगर हमारा कोई भी अंग हिल-डोल कर रहा है, तो हम स्थिर नहीं हैं। हम किसी पवित्र मूर्ति या चित्र को देखकर ध्यान करते हैं। वह मूर्ति या चित्र हमें क्या बतलाता है? मूर्ति हिल-डोल नहीं करती है, आप भी ध्यान के समय मूर्तिवत् बन जाइए-हिल-डोल नहीं कीजिए। चित्र भी ज्यों-का-त्यों स्थिर रहता है और जो चित्र हमारे सामने आता है, उसका चरित्र भी हमारे सामने आता है। अब हम सोचें कि इस अवस्था में-जिसमें शरीर, गर्दन और मस्तक एक सीध में रहें और हमारा कोई भी अंग हिल-डोल नहीं करे, कितनी देर हम बैठ सकते हैं? नये साधक जब साधना करने के लिए बैठते हैं, तो वे कभी आसन बदलते हैं, तो कभी उनको ऐसा होता है कि उनकी पीठ खुजलाती है, तो कभी लगेगा कि गर्दन पर मक्खी बैठी है या कभी ऐसा होगा कि शरीर पर चींटी चढ़ रही है। ये कभी हाथ आगे करते हैं, कभी पीछे, कभी दायें करते हैं, कभी बायें। कभी एक प्रकार की खुजलाहट-सी मालूम पड़ती है। अगर हम खुजलाहट या किसी प्रकार अंग-संचालन में लगे हैं, तो स्थिर नहीं हैं। एक प्रस्तर की मूर्ति की भाँति मेरुदण्ड सीधा कर बिना हिले-डोले हम बैठ जाएँ; तब सही बैठना होगा और आसन दृढ़ होगा।
आसन की दृढ़ता आए कैसे? संत सूरदासजी कहते हैं-‘आहार दृढ़।’ जबतक हमारा आहार दृढ़ नहीं होगा, तबतक आसन दृढ़ नहीं हो सकता। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है-राजस, तामस और सात्त्विक; तीन प्रकार के भोजन होते हैं। साधक के लिए राजस और तामस भोजन त्याज्य हैं। सात्त्विक भोजन ही उचित है, लेकिन उसकी भी मात्र संतुलित होनी चाहिए। उसी गीता में भगवान श्रीकृष्ण का कथन है कि जो ठूँस-ठूँसकर खाता है अथवा जो बिल्कुल नहीं खाता है, उसका योग-सिद्ध नहीं होगा। जो बहुत सोता है, उससे भजन नहीं होगा और जो सोता ही नहीं है, उससे भी भजन नहीं होगा।
“ युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।।”
अर्थात् हमारा आहार-विहार, शयन-जागरण परिमित होना चाहिए। गोस्वामीजी के शब्दों में-
“ षट् विकार जित अनघ अकामा ।
अचल अकिंचन सुचि सुखधामा ।।
अमित बोध अनीह मितभोगी ।
सत्य सार कवि कोविद जोगी ।।”
साधक को मितभोगी होना चाहिए। महायोगी जालंधरनाथ जी महाराज ने कहा है-
“ थोड़ो खाय तो कलपै झलपै, घणो खाय तो रोगी ।
दुहू पखा की संधि विचारै, ते को विरला जोगी ।।”
न तो ठूँसकर खाओ, न भूखा ही रहो अर्थात् मध्यमार्गी बनो। संत कबीर साहब कहते हैं-
माँगि न खाय न भूखा सोवै, घर अंगना फि़रि आवै।
गुरु गोरखनाथजी का वचन है-
“ खाये भी मरिए अणखाये भी मरिए ।
गोरख कहै पूता संजमि ही तरिए ।।”
तथा- “ धाये न खाइबा, भूखे न मरिबा ।
अहिनिसि लेबा ब्रह्म अगिनि का भेवं ।।”
मात्र से अधिक खाओ मत और भूखे मरो मत। तब ‘ब्रह्म अगिनि का भेव’ अर्थात् ज्योति साधना की क्रिया करोगे, तो सफलता मिलेगी। संत चरणदासजी कहते हैं-
“ दिन को हरि सुमिरन करो, रैनि जागि कर ध्यान ।
भूख राखि भोजन करो, तजि सोवन को बान ।।
चारि पहर नहिं जगि सकै, आधाी रात सूँ जाग ।
ध्यान करो जप हीं करो, भजन करन कूँ लाग ।।
जौं नहिं सरधा दोपहर, पिछले पहरे चेत ।
उठ बैठो रटना रटो, प्रभु सूँ लावहु हेत ।।
जागै ना पिछले पहर, करै न गुरुमत जाप ।
मुँह फारे सोवत रहै, ताकूँ लागै पाप ।।”
इस्लाम धर्म में भी अच्छे-अच्छे फकीर हुए हैं। उन्होंने साधक के पक्ष में बड़ी हितकर बातें कही हैं, ग्यारहवीं शताब्दी में एक फकीर हुए अल गजाली। उन्होंने कहा-‘साधना-काल में बेईमानी की कमाई पर मत रहो। बेईमानी की कमाई खाकर पूजा करना पानी पर मकान उठाने की तरह बेकार है।’
रोज कुल मिलाकर सवा सेर खाना काफी है। हजरत उमर रोज सिर्फ सात कौर भोजन लेते थे, जिससे पूजा में विघ्न न हो। दिन-रात में सिर्फ एक ही बार खाओ। रात में खाली पेट रहना अच्छा है। मिठाइयाँ, पकवान नहीं खाना चाहिए।
आदमी की दुनिया उसका पेट है। जिस हद तक वह खाने की इच्छा को नियंत्रित रखता है, उस हद तक वह आत्मनियंत्रण के फलस्वरूप अध्यात्म में तरक्की करेगा।
सिर्फ एक दाल या सब्जी लो, विभिन्न प्रकार के व्यंजन मत लो। पैगम्बर की हिदायत है-सदा उपवास मत करो या निद्रा को पूरी तरह मत त्यागो, संयम रखो और बीच के रास्ते पर चलो अर्थात् न कम, न बेशी। जरूरत से अधिक खाकर अपनी पाचन क्रिया खराब नहीं करो और न अनेक बार उपवास ही करो।
खाने में अपने गुरु की नकल मत करो। गुरुजी अधिक खाते हैं, तो तुम भी अधिक मत खाने लगो। बात है कि गुरुजी के लिए उपवास जरूरी नहीं है; क्योंकि उन्होंने अपने पर काबू कर रखा है।
पवित्र कमाई पर अपना जीवन निर्वाह करो। गुरु महाराज (महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) से बाबा देवी साहब ने पूछने की कृपा की थी-‘तुम स्वावलंबी जीवन बिताओगे या मधुकरी वृत्ति से?’ गुरुदेव ने उत्तर दिया था-‘मधुकरी वृत्ति से।’ तब बाबा देवी साहब ने कहा-‘नहीं, संतमत का सिद्धांत है-स्वावलंबी जीवन।’
कुछ दिनों तक हमारे गुरु महाराज अपने पिता के घर भोजन करने जाते और सत्संग-मंदिर में ध्यान-भजन करते। पुनः उनके मुरादाबाद जाने पर बाबा देवी साहब ने पूछने की कृपा की-‘कैसे जीवन बिताते हो?’ गुरु महाराज ने उत्तर दिया-‘पिताजी के यहाँ भोजन करता हूँ।’ बाबा साहब ने पूछा-‘पिताजी का भोजन करते हो, तो उनका क्या काम कर देते हो?’ गुरु महाराज ने विनम्र स्वर में निवेदन किया-‘कोई काम नहीं करता हूँ।’ इस पर बाबा साहब ने कहा- ‘बिना काम किए उनका भोजन करते हो, तो तुम्हारा खून खराब हो जाएगा।’ इस कारण परम पूज्य गुरुदेव ने कुछ वर्षों तक अध्यापन-कार्य किया।
बाबा देवी साहब के कथनानुसार बिना काम किए पिता की कमाई खानेवाले का खून खराब हो जाता है। तब जो दूसरे की कमाई खाकर भजन में उन्नति करना चाहे, तो उसमें उनको सफलता कहाँ तक मिल पाएगी, सोचने की बात है।
इसलिए हमलोगों के धर्मशास्त्र में आया है-हितभुक्, मितभुक् और ऋतभुक्। हमारे सामने जो भोज्य पदार्थ आए, उसे हम देखें कि वह हमारे लाभ के लिए है या हानि के लिए। कैसा भोजन है वह-रजोगुणी है, तमोगुणी है या सतोगुणी है? जब हम देखें कि यह सतोगुणी है, तब भोजन करने से हमारी भलाई होगी। लेकिन सतोगुणी भोजन होने पर भी उसकी मात्र अधिक नहीं होनी चाहिए। होना चाहिए-मितभुक्। कबीर साहब ने कहा है-
“ मन भावै सो खावता, इन्द्री केरे स्वाद ।
नाक तलक पूरण करै, कौन कहै परसाद ।।”
अधिक खाएँगे, तो भजन में देर तक नहीं बैठ सकेंगे। जिस तरह का अन्न खाएँगे, उसका प्रभाव हमारे मन पर पड़ेगा। इसलिए कहा गया है-
“ जैसा खाय अन्न वैसा होय मन । “
तथा-
“ जैसा अन्न जल खाइये, वैसा ही मन होय ।
जैसा पानी पीजिये, वैसी वाणी होय ।।”
(संत कबीर साहब)
अतएव हितभुक् के साथ मितभुक् होना चाहिए और मितभुक् के साथ ऋतभुक् होना चाहिए। ऋत् कहते हैं सत्य को। सच्ची कमाई का भोजन होना चाहिए। इसी दृष्टि को अपनाकर संत सूरदासजी ने कहा है-‘आसन दृढ़, आहार दृढ़।’ साथ ही भजन में भी नियमितता होनी चाहिए। अगर इन तीनों का सही संतुलन रहेगा, तो सूरदासजी कहते हैं ‘तौ प्राणी पावै कछुक।’ तब प्राणी यानी साधक कुछ पाएगा। अन्यथा यदि इन तीनों में ढीला-ढाला रहेगा तो-‘रहै विषय रस मोय।’ यानी डुबकी लगाते रहेंगे विषयों में, कभी उबार नहीं होगा।
परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में आया है- ‘साधक को स्वावलंबी होना चाहिए। अपने पसीने की कमाई से उसे अपना निर्वाह करना चाहिए। थोड़ी-सी वस्तुओं को पाकर ही अपने को संतुष्ट रखने की आदत लगाना उसके लिए परमोचित है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, चिढ़, द्वेष आदि मनोविकारों से बचते रहना और दया, शील, संतोष, क्षमा, नम्रता आदि मन के उत्तम और सात्त्विक गुणों को धारण करते रहना, साधक के पक्ष में अत्यन्त हितकर है। मांस और मछली का खाना तथा मादक द्रव्यों का सेवन मन में विशेष चंचलता और मूढ़ता उत्पन्न करते हैं। साधकों को इनसे अवश्य बचना चाहिए।
हमारा मन पवित्र होना चाहिए, हमारा अन्न पवित्र होना चाहिए, हमारा तन पवित्र होना चाहिए, हमारा वचन पवित्र होना चाहिए, हमारा व्यवहार पवित्र होना चाहिए और सबके मूल में हमारा हृदय पवित्र होना चाहिए। जबतक हमारा हृदय पवित्र नहीं होगा, तबतक प्रभु की परछाईं भी हमें नहीं मिलेगी, आगे की अनुभूति तो दूर की बात है। इसलिए-
“ जब दरसन देखा चहिये, तब दरपन माँजत रहिये ।
जब दरपन लागी काई, तब दरस कहाँ तें पाई ।।”
(संत कबीर साहब)
“ निरमल मन जन सो मोहि पावा ।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।।”
(गोस्वामी तुलसीदास)
बाहर दिखलावा कुछ और भीतर हो कुछ, तब मिलेगा भी नहीं कुछ। जब हम बैठने का, भोजन का और भजन का दृढ़ नियम रखेंगे, साथ ही लक्ष्य को पाने की उत्कंठा रहेगी, तो साधना में सफलता अवश्य मिलेगी। लक्ष्य यदि हम पाना चाहते हैं, तो संत कबीर के निर्देशन को समझें-
“ गगन की ओट निसाना है ।।
दहिने सूर चन्द्रमा बायें, तिनके बीच छिपाना है ।।
तन की कमान सुरत का रोदा, शब्द बान ले ताना है ।।
मारत बान बिंधा तन ही तन, सतगुरु का परवाना है ।।
मार्यो बान घाव नहिं तन में, जिन लागा तिन जाना है ।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, जिन जाना तिन माना है ।।”
‘कमान’ धनुष को कहते हैं। धनुष है, किन्तु उसकी प्रत्यंचा चढ़ी हुई नहीं है, ढीली है तो तीर आगे नहीं जा सकता। जब धनुष कसा हुआ रहता है, तब उससे छोड़ा गया तीर दूर तक जाता है। हमारा शरीर है धनुष-‘तन की कमान।’ हम जब ध्यान करने बैठें, तो शरीर कसा हुआ रहे, ढीला-ढाला नहीं रहे। तब सुरत का रोदा चढ़ाकर तीर चलाइए, लक्ष्य- वेध होगा।
एक सत्संगी सज्जन मेरे पास आए, साधना संबंधी कुछ चर्चा चली। मैंने पूछा-‘आप साधना में क्या सब क्रिया करते हैं?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टियोग।’ मैंने पूछा-‘दृष्टियोग क्रिया में दृष्टि को कितनी दूरी पर स्थिर करते हैं।’ उन्होंने कहा-‘दो-तीन फीट की दूरी पर।’ मैंने पूछा- ‘आप कहाँ तक पढ़े हुए हैं?’ उन्होंने कहा-‘एम0 ए0 तक पढ़ा हूँ, पास नहीं किया हूँ।’ मैंने पूछा-‘भजन-भेद किनसे लिए हैं।’ तब उन्होंने संतमत के ही एक साधु वेशधारी का नाम बताया। मैंने पूछा-‘दो फीट या तीन फीट की दूरी पर दृष्टि स्थिर करते हैं, आप इसकी माप कैसे करते हैं?’ उन्होंने कहा-‘अंदाज से दो-तीन फीट।’ मैंने कहा-‘आप एम0ए0 तक पढ़े हुए हैं, क्या बिना दृश्य के दृष्टि रुक सकती है? इस बात को समझते हैं आप?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘नहीं, मैं नहीं समझता हूँ।’ मैंने कहा-‘आप मुझको देखते हैं, मैं आपको देखता हूँ, आपकी दृष्टि मुझ तक और मेरी दृष्टि आप तक जाती है, यह समझते हैं न?’ उन्होंने कहा-‘हाँ।’ दोनों व्यत्तिफ़यों के बीच में अपना हाथ देकर मैंने पूछा-‘अब आपकी दृष्टि कहाँ है?’ उन्होंने कहा-‘आपके हाथ पर।’ मैंने कहा-‘यही है दृश्य, जिस पर आपकी दृष्टि टिक गयी। जब बिना दृश्य के दृष्टि टिक नहीं सकती है, तब दो-तीन फीट पर कौन-सा दृश्य है, जो आप वहाँ दृष्टि स्थिर करते हैं?’ उन्होंने कहा-‘सो तो नहीं जानता।’ मैंने कहा-‘जाकर अपने गुरु महाराज से पूछ लीजिए, यदि संतुष्ट हो जाइए, तो वहीं रह जाइए; अन्यथा मेरे पास फिर आइए।’
एक दूसरे बी0एस-सी0 पास शिक्षक मेरे पास आए, वे भी उन्हीं से दीक्षित थे। उन्होंने मुझसे जिज्ञासा की कि मानस जप और मानस ध्यान तो समझता हूँ, लेकिन दृष्टियोग ठीक-ठीक नहीं समझ पाया हूँ। मैंने उनसे पूछा-‘आप दृष्टि कितनी दूर पर स्थिर करते हैं?’ उन्होंने कहा-‘बारह अँगुल पर।’ मैंने पूछा-‘वहाँ पर कौन-सा मीटर या गज है, जिससे आप मापते हैं?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘सो तो वहाँ कुछ नहीं है।’ मैंने कहा-‘आप साइन्स के छात्र रहे हैं और अब अध्यापन-कार्य करते हैं। आपने अपने गुरुजी से यह बात पूछी नहीं कि बारह अँगुल पर दृष्टि कैसे रखेंगे?’
उन्होंने कहा-‘यह तो मैंने नहीं पूछा।’ मैंने कहा-‘जाकर पूछिए, यदि संतुष्ट हो जाइए, तो ठीक है, नहीं तो मेरे पास आइएगा। मेरे पास से जाकर उन्होंने अपने गुरुजी से पूछा। उनको सही उत्तर नहीं मिला, तब फिर वे मेरे पास आए और उन्होंने मुझसे पुनः दीक्षा ली।’
चार-पाँच दिन पहले की बात है, एक प्रोफेसर यहाँ आए थे। वे यहाँ के मास-ध्यान-साधना में सम्मिलित होना चाहते थे, मैंने उनसे पूछा-‘दृष्टियोग की क्रिया में क्या करते हैं?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘दृष्टि की दोनों धारों को मिलाता हूँ।’ मैंने कहा-‘आप तो प्रोफेसर हैं न, दृष्टि की जो युगल धारें हैं, वे तो समानान्तर रेखाएँ हैं। समानान्तर रेखाएँ कभी मिलती हैं? रेलगाड़ी, ट्रामगाड़ी समानान्तर रेखा पर चलती हैं, यदि समानान्तर रेखा मिल जाए तो एक्सीडेण्ट हो जाए। वे निरुत्तर होकर कुछ कह नहीं सके। मैंने कहा-‘जाकर अपने गुरुजी से पूछिए।’ वे भी उन्हीं के शिष्य थे।
आजकल न तो गेरुओं की कमी है और न गुरुओं की। वे घर-घर घूमते हैं, शिष्य बनाते हैं और अपनी पूजा करा कर परमभक्तिन सहजोबाई के वचन को चरितार्थ करते हैं।
“ सहजो गुरु बहुतक फिरै, ज्ञान ध्यान सुधि नाहिं ।
तार सकै नहिं एक कूँ, गहै बहुत की बाहिं ।।”
वस्तुतः बात तो यह है-
“ बिन दया संतन की ‘मेँहीँ’ जानना इस राह को ।
हुआ नहीं होता नहीं वो होनहारा है नहीं ।।”
शरीर, गर्दन और मस्तक को सीधा करके बैठें। इस प्रकार कुछ दिनों तक मेरुदण्ड को सीधा करके बैठने का अभ्यास करें। अभ्यास करते-करते जब अभ्यस्त होंगे, तब साधन की क्रिया आगे बढ़ेगी। जबतक हम बैठने की कला नहीं जानते, सही ढंग से बैठ ही नहीं सकते हैं, तो साधन में सफलता कहाँ से मिलेगी। धनुष की डोरी ढीली-ढाली रहे, तो तीर कैसे चलेगा? गुरु महाराज के वचन में आया है-
‘पेलो सुषमन दृष्टि सिस्त ज्यों तीर हो ।’
संत कबीर साहब ने कहा है-
“ तन थिर मन थिर वचन थिर, सुरत-निरत थिर होय ।
कह कबीर इस पलक को, कलप न पावै कोय ।।”
फिर भी निराशा, उदास या हतोत्साह होने की बात नहीं है। संत सद्गुरु से अन्तस्साधना की सही क्रिया सीखकर संयमपूर्वक साधना करते रहिए, कभी-न-कभी सफलता अवश्य मिलेगी।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 11-5-2000 ई0 को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में मास-ध्यान-साधना के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अगस्त 2000 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
एक संत अपने आश्रम में शिष्यों के साथ बैठे हुए थे। उन्होंने अपने शिष्यों से प्रश्न किया कि यदि बारह में से चार निकल जाय, तो कितना बचा? शिष्यों ने कहा-‘आचार्यश्री! यह तो सरल प्रश्न है। 12 में से 4 गया, तो 8 बचेंगे।’ लेकिन एक शिष्य ने कहा-‘गुरुवर! 12 में से 4 गया, तो कुछ भी नहीं बचेगा।’ सब उसकी ओर आश्चर्य से देखने लगे। आचार्य ने कहा-‘तुम ऐसा कैसे कह सकते हो? सिद्ध करो।’ शिष्य ने कहा-‘गुरुदेव! एक वर्ष में बारह महीने होते हैं। इन बारह में आठ महीने हमलोग चारिका करते हैं, भिक्षा माँगते हैं और चार महीने-जेठ, आषाढ़, सावन, भादो स्थिर रहते हैं। ये चतुर्मास एकान्त में बैठकर साधना करने के हैं। यदि ये महीने बिना साधन किए निकल जायँ, तो पूरा साल बेकार चला जाता है। इसीलिए मैंने कहा कि 12 में से 4 गया, तो कुछ भी नहीं बचेगा।’
साधना तो बहुत लोग करते हैं, पर सफलता सबको नहीं मिलती। जो साधक संयमी होते हैं, वे आगे बढ़ते हैं। गुरु महाराज कहते हैं-
“ जेठ मन को हेठ करिये, मान मद बिसराइये ।
गुरु सद्गुरु पद सेव करि करि, कठिन भव तरि जाइये ।।
आषाढ़ गाढ़ अन्धार घट में, जातें दुख अपार है ।
गुरु कृपा तें भेद लहि तम, तोड़ि दुख निवारिये ।।
सावन सुखमन दृष्टि आनत, दामिनि छिन-छिन दमकई ।
हील डोल तजि सुरत थिर करि, प्रणव तार उगाइये ।।
भादो भव दुख छोड़ि चलिये, जोति छेदि पड़ाइये ।
सारशब्द में लीन होइ कर, ‘मेँहीँ’ गुरु-गुण गाइये ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
गुरुदेव चार महीनों में, एक-एक महीना के लिए अलग-अलग निर्देश देते हैं। वे कहते हैं कि जेठ में अपने मन को नम्र बनाते हुए प्रतिष्ठा पाने की इच्छा और घमण्ड को त्यागकर सद्गुरु के चरणों की सेवा कीजिए। कबीर साहब का वचन है-
“ गुरु से ज्ञान जो लीजिए, शीश दीजिए दान ।
बहुतक भोंदू बहि गये, राखि जीव अभिमान ।।”
गुरु से ज्ञान लेनेवाले को शीश दान में देना चाहिए। अर्थात् मान-सम्मान की भावना और अहंकार को गुरु के चरणों में सौंप दीजिए।
‘मान मनी को यों तजे, जों तेली पीना रे।’
कबीर साहब कहते हैं कि मान-सम्मान को इस तरह त्यागो, जैसे तेल निकालनेवाला तेल निकालकर खल्ली को फेंक देता है
आषाढ़ के लिए गुरुदेव कहते हैं कि आपके अन्दर गहन अन्धकार छाया हुआ है, जिस कारण आप दुःख में पड़े हुए हैं। गुरु की कृपा से भजन-भेद लेकर इस अन्धकार का नाश कीजिए।
सावन में दृष्टि-धारों को सुषुम्ना में स्थिर कर बिजली की चमक देखिये। चंचलता त्याग कर, सुरत को स्थिर कर तारों के दर्शन कीजिए।
भादो में भव-दुःख त्याग दीजिए। प्रकाश मंडल को पार करते हुए शीघ्र आगे बढ़िए और सार-शब्द में सुरत को संलग्न कर आदि गुरु परमात्मा के गुणों को जानिए।
साधकों के लिए सादगी और सरलता आवश्यक है। उनमें प्रतिष्ठा की चाह नहीं होनी चाहिए।
“ नीच न सोहत मंच पर, महि पर सोहत धीर ।
काक न सोहत पाक पर, हंस सजे सर तीर ।।”
सद्गुणी व्यक्ति नीचे बैठे रहने पर भी सुशोभित होता है, आदर पाता है, पर जो सदाचरण-हीन है, वह ऊँचे आसन पर बैठकर भी शोभाहीन होता है। ठीक उसी तरह जैसे कागा यदि ऊँचे भवन पर बैठ जाय, तो भी उसकी शोभा नहीं होती। वह काँव-काँव करता है और लोग उसे भगा देते हैं। दूसरी ओर हंस मानसरोवर के किनारे नीचे बैठा रहता है, फिर भी वह शोभता है। वह मोती खाता है और यदि दूध में पानी मिला दिया जाय, तो केवल दूध पी लेता है, बाहरी पानी छोड़ देता है। गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ जड़ चेतन गुन दोष मय, विश्व कीन्ह करतार ।
संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि वारि विकार ।।”
यह संसार जड़-चेतन मिश्रित है, गुण-दोष मिश्रित है। जो ज्ञानवान होते हैं, संतजन होते हैं, वे दूध लेते हैं और बाहरी पानी छोड़ देते हैं यानी सत्य को ग्रहण कर असत्य को त्याग देते हैं। संसार किसे कहते हैं? शून्य सार अर्थात् संसार। संसार सारहीन है, माया है; लेकिन रहना यहीं है। संसार से भागकर कहा जायेंगे?
अभी आप सुन रहे थे कि संसार में रहते हुए उससे निर्लिप्त रहो। गुरु नानकदेवजी महाराज समझाते हैं-
“ जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नैसाणै ।
सुरति सबदि भवसागरु तरीअै नानक नामु बखाणै ।।”
कमल की उत्पत्ति जल से होती है, पर जल उसे डुबा नहीं सकता। अगर जल ऊपर उठकर उसे डुबाना चाहता है, तो कमल ऊपर उठता जाता है और पूरी तरह से खिलकर जल की शोभा को और बढ़ाता है। उसी तरह संसार में रहो, पर उससे अलिप्त रहो और दूसरे को अपने सद्गुणों से गुणान्वित करो। जैसे कमल के खिलने पर उसके पराग को ग्रहण करने के लिए दूर-दूर से भौंरे आते हैं, उसी तरह यदि तुम्हारे पास सद्गुण होंगे, तो दूर से लोग उन्हें लेने के लिए आएँगे। हमारे गुरुदेव कहीं विदेश नहीं गए; पर उनकी साधना में ऐसी शक्ति थी कि नार्वे, स्वीडन, जापान, अमेरिका आदि देशों से आकर लोगों ने उनसे दीक्षा ली। उन्हीं का वचन है-
“ अनासक्त जग में रहो भाई ।
दमन करो इन्द्रिन दुखदाई ।।”
संसार में रहो; लेकिन अनासक्त होकर रहो। इन्द्रियों का दमन करो। दुःखदायी इन्द्रियों के वेग में बहो नहीं। भगवान श्रीराम का उपदेश है-
“ छठ दम सील विरति बहु कर्मा।
निरत निरन्तर सज्जन धर्मा ।।”
भगवान सज्जनों के धर्म को अपनाने के साथ दमशीलता का उपदेश देते हैं। सज्जनों का धर्म क्या है? झूठ नहीं बोलना, चोरी नहीं करना, नशा-सेवन नहीं करना, हिंसा नहीं करना और व्यभिचार नहीं करना; यही सज्जनों का धर्म है। दमशीलता के लिए दृष्टियोग की क्रिया है, इससे चेतन-धारों का सिमटाव होता है और इन्द्रियों की चंचलता छूटती है। ‘दम’ की साधना के बाद ‘शम’ अर्थात् मनोनिग्रह की साधना होती है। संत कबीर साहब कहते हैं-
‘सबद खोजि मन बस करै, सहज योग है येह ।’ गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं कि शब्द- रूप नाव में बैठनेवाला भवसागर को तर जाता है।
‘सुरति सबदि भवसागरु तरिये नानक नामु बखाणै ।’
सामान्य जन, मन के वश में होते हैं। मन के इशारे पर उनकी पाँचों इन्द्रियाँ विषयों में दौड़ती रहती हैं। जो भक्त होते हैं, साधक होते हैं, वे दृष्टियोग के द्वारा इन्द्रियों का दमन और नादानुसंधान के द्वारा मनोनिग्रह करते हैं। इस तरह उनका मन वश में हो जाता है। एक भक्त ने भगवान से कहा-
“ हममें तुममें बस भेद यही, हम नर हैं तुम नारायण हो ।
हम हैं संसार के हाथों में, संसार तुम्हारे हाथों में ।।”
नादविन्दूपनिषद् में कहा गया है-
“ मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः ।
नियमानसमर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः ।।”
जिस तरह गजराज कदली वन में जाकर पेड़ों को खाता और तोड़ता-मरोड़ता है, उसी तरह हमारा मन-रूप गजराज विषय-वाटिका में उत्पात करता है। जब महावत गजराज के सिर में अंकुश मारता है, तब वह आगे नहीं जाकर पीछे भागता है, उसी तरह नादरूप अंकुश लगने से मन विषय को छोड़कर निर्विषय परमात्मा की ओर मुड़ता है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ भक्ति दुआरा साँकरा, राई दसवें भाव ।
मन ऐरावत हो रहा, कैसे होय समाव ।।”
साधारण हाथी को एक सूँड़ होता है, पर ऐरावत हाथी के चार सूँड़ होते हैं। हमारा मन भी कई सूँड़वाला ऐरावत बना हुआ है, भक्ति के झीने रास्ते पर कैसे चलेगा? इसीलिए संत पलटू साहब ने कहा है-
‘मन महीन कर लीजिए, तब पिउ आवै हाथ।’
अपने को छोटा बनाइये, अहंकार को त्याग दीजिए, तभी परमात्मा को पा सकते हैं।
गुरु नानकदेवजी महाराज का वचन है-
“ नानक नन्हा होय रहो, जैसे नन्हीं दूब ।
बड़े बड़े बिरखी गिर गए, दूब खूब का खूब ।।”
एक बार बादशाह अकबर ने बीरबल से पूछा-‘बीरबल! मारवाड़ी लोग क्या खाते हैं, जो वे इतने मोटे-ताजे होते हैं?’ बीरबल ने कहा-‘जहाँपनाह! वे जो खाते हैं, वह आप भी नहीं खा सकेंगे।’ बादशाह ने पूछा-‘वे ऐसा क्या खाते हैं?’ बीरबल ने उत्तर दिया-‘देखना चाहते हैं, तो मेरे साथ बाजार चलिए।’ वे दोनों वेश बदलकर एक मारवाड़ी की दूकान पर गये। सेठजी बाहर आकर स्वागत के स्वर में कहने लगे-‘आइये-आइये।’ बीरबल ने उसके गाल पर एक थप्पड़ जड़ते हुए कहा-‘देखते नहीं हो, साथ में कौन हैं?’ सेठजी अपना गाल सहलाते हुए कहने लगे-‘हुजूर! क्षमा करें, गलती हो गयी।’ बीरबल ने बादशाह की ओर देखकर कहा- “ जहाँपनाह! आपने देखा? मैंने उसे थप्पड़ मारा, फिर भी गुस्सा नहीं करते हुए, उसने ‘हुजूर’ कहा। वे लोग तो गम खाते हैं, आप खा सकेंगे?”
इंसान के लिए कम खाना और गम खाना हितकर है। जो खूब खाता है या भूखा रहता है, वह साधना मेंं सफलता प्राप्त नहीं कर सकता है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
‘युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।’
संतमत में आहार-विहार के संयम के साथ स्वावलंबी जीवन की शिक्षा दी जाती है, भिक्षाटन करने या परमुखापेक्षी बनने की नहीं। हरिद्वार में बहुत-से साधु-महात्मा रहते हैं। वहाँ गैरिक वस्त्र- धारियों को आदर मिलता है, पर सादा की मर्यादा नहीं है। वहाँ रहनेवाले अनेक साधु मेरे पास आकर संन्यास (गैरिक) वस्त्र की माँग करते हैं। मैं उन्हें स्पष्ट कहता हूँ कि संन्यास तो मिलेगा, पर भीख माँगने के लिए नहीं। आश्रम में रहिए और सेवा कीजिए, तब संन्यास मिलेगा। गुरु महाराज शुरू-शुरू में धरहरा, बनमनखी मंदिर में रहते थे और पिताजी के यहाँ भोजन करते थे। बाबा देवी साहब ने उनसे पूछा-‘पिताजी का भोजन करते हो, तो उनका क्या काम करते हो?’ गुरुदेव ने उत्तर दिया-‘वे मुझसे कोई काम नहीं लेते हैं।’ यह सुनकर बाबा साहब बोले-‘बिना काम किए पिताजी का अन्न खाओगे, तो तुम्हारा खून खराब हो जायेगा।’ अब समझिए कि जब बिना सेवा किए पिता का अन्न खाने से खून खराब हो सकता है, तब जो बिना सेवा किए दूसरे का अन्न ग्रहण करते हैं, उनका क्या होगा!
सदाचार समन्वित स्वावलम्बी जीवन बिताते हुए नियमित रूप से ध्यान-भजन करना चाहिए। इसी में मानव-जीवन की सफलता है।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर दिनांक 23-06-2000 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, सितम्बर 2008 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
मानव बहुत भटक चुका है, भटक रहा है और वह कबतक भटकता रहेगा, जबतक कि बिना पानी के प्यास और बिना भोजन के क्षुधा की त्रस को मिटाना चाहेगा; बिना ज्ञानी गुरु के ज्ञान तथा बिना सत्पुरुषों से प्राप्त सद्युक्ति से सत्वस्वरूप की पहचान करने का अभिमान पालता रहेगा।
वर्षा होती है, प्रायः होती ही रहती है; किन्तु स्वाति की बूँद कभी-कभी गिरती है। संसार में लोग जन्म लेते हैं, लेते ही रहते हैं; लेकिन संत का अवतरण कभी-कभी होता है, कहीं-कहीं होता है। सामान्य वृष्टि-जल से खेती लहलहाती है; किन्तु स्वाति की बूँद तो मोती बनाती है। जनसाधारण जो संसार में जन्म लेते हैं, उससे जनसंख्या बढ़ती है; किन्तु जब संत अवतार लेते हैं, तो वे हीरा-मोती की खेती करते और कराते हैं। संत कबीर साहब जब इस संसार में आए तो उन्होंने खेती की। कौन-सी खेती की? सत्तनाम की खेती की। ‘मन का बैल और सुरत का हरवाहा’ बनाकर उन्होंने खेत जोता तथा उसमें सत्तनाम का बीज बोकर हीरा-मोती उपजाया। संत कबीर साहब कहते हैं, ‘केवल मैंने ही नहीं, संसार में जितने संत आए, सबने यह खेती की और वे मालामाल हो गये।
“ हमरे सत्तनाम धन खेती ।।टेक।।
मन के बैल सुरत हरवाहा, जब चाहै तब जोती ।।
सत्तनाम का बीज बोवाया, उपजै हीरा मोती ।।
उन खेतन में नफा बहुत है, संतन लूटा सेंती ।।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, उलटि पलटि नर जोती ।।”
अभी कुछ दिन पहले मुस्तफापुर मुहल्ले में कुछ चहल-पहल हो रही थी, बाजे-गाजे बज रहे थे। मैंने लोगों से पूछा, ‘चहल-पहल देख रहा हूँ, क्या बात है?’ लोगों ने बताया कि लोग ‘उर्स’ मना रहे हैं। ‘उर्स’ अरबी भाषा का पुल्लिंग शब्द है, जिसका अर्थ होता है, किसी मुसलमान ऋषि का वार्षिक उत्सव। वे लोग हजरत मुहम्मद साहब का उत्सव मना रहे थे। मुझे यह जानकर बड़ी खुशी हुई। मुहम्मद साहब पीर, पैगम्बर, रसूल थे, खुदा के नूर थे। वे संसार में आये और इस्लाम धर्म का प्रवर्तन किये।
अभी आपलोग तौहीद साहब से कितनी अच्छी-अच्छी बातें सुनीं। उन्होंने बताया जिस समय संत लोग आते हैं, उस समय उनकी पहचान कोई नहीं कर पाते हैं। यही कारण है कि ईसा मसीह को क्रॉस पर लटकाया गया। मुहम्मद साहब को मक्का छोड़कर मदीना जाना पड़ा। महात्मा गाँधी को गोलियों से भून दिया गया। मीराबाई को जहर का प्याला पिलाया गया। पलटू साहब को आग में झोंक दिया गया। कुछ लोगों ने हमारे गुरु महाराज को भी आग में जलाकर मारने की कुचेष्टा की थी। इसमें संदेह नहीं कि संत सद्गुरु तो हमारे कल्याण के लिए आते हैं; परन्तु जिस समय वे आते हैं, उस समय उनकी पहचान नहीं होती है और न उसका आदर होता है।
संत सद्गुरु किसे कहते हैं? वेश-विशेष के कारण कोई संत सद्गुरु नहीं होते। जीवन काल में जिनकी सुरत शब्दातीत पद में समाधि समय लीन होती है और पिंड में बरतने के समय उन्मुनी रहनी में रहकर सारशब्द में लगी रहती है, ऐसे जीवनमुक्त महान पुरुष संत सद्गुरु कहलाते हैं। गुरु कौन? संत कबीर साहब ने कहते हैं-
“ गुरु नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोय ।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोय ।।”
तथा-
“ गुरु गुरु में भेद है, गुरु गुरु में भाव ।
सोई गुरु नित बन्दिये, जो शब्द बतावै दाव ।।”
जो शब्द का दाव बतलाते हैं, वे होते हैं आध्यात्मिक गुरु। लौकिक गुरु वे होते हैं, जो लौकिक विद्या सिखलाते हैं, जिससे हम संसार में आराम से खाएँ, पीएँ और रहें। लेकिन शरीर छूटने के बाद का जीवन कैसे सुखमय होगा, यह लौकिक गुरु नहीं बता सकते हैं। इसी के लिए आध्यात्मिक गुरु की आवश्यकता होती है।
जिस तरह चुम्बक शलाका सदा उत्तर की ओर इंगित करती है, उसी तरह सच्चे सद्गुरु सदा ऊपर अर्थात् परमात्मा की ओर निर्देश करते हैं। अभी तौहीद साहब बहुत अच्छा कह रहे थे कि गुरु ब्रह्मा हैं, विष्णु हैं, महेश हैं। मतलब क्या हुआ? ब्रह्मा का काम है सृष्टि करना, विष्णु का काम है पालन करना और महेश का काम है संहार करना। अर्थात् जो संत सद्गुरु होते हैं, वे अपने शिष्य के अंदर ज्ञान का सृजन करते हैं; यह ब्रह्मा का काम हुआ। शिष्य के अंदर जिस ज्ञान का सृजन करते हैं, उसे बढ़ाकर वे पूर्ण भी करते हैं; यह विष्णु का काम हुआ और शिष्य के हृदय में जो अज्ञानता रहती है, उसका वे नाश करते हैं; यह काम महेश का हुआ।
गुरु कल्पवृक्ष होते हैं। जैसे कल्पवृक्ष के पास जाने से मनोकामनाएँ पूरी होती हैं, उसी तरह संत सद्गुरु के पास श्रद्धावन्त होकर जाइए या उनसे दूर ही रहिये, यदि आपकी कामना-शुभकामना है, शुभेच्छा है, तो वे उसकी पूर्ति कर देंगे। संत सद्गुरु कामधेनु होते हैं। कामधेनु गाय क्षुधा हरण करती है और संत सद्गुरु अपने शिष्य की जागतिक क्षुधा-तृष्णा हरण करते हैं। संत सद्गुरु चन्द्र और सूर्य होते हैं। सूर्य दिन में प्रकाश करता है और चन्द्रमा रात को प्रकाशित करता है; परन्तु संत सद्गुरु अपने शिष्य के उरपूर में अहर्निश यानी चौबीसो घंटे प्रकाश फैलाते रहते हैं। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ जे सउ चंदा उगवहि सूरज चड़हि हजार ।
एतै चानण होदिआ गुर बिनु घोर अंधार ।।”
बाहर संसार में सौ चन्द्रमा उग जाएँ और हजारों सूर्य उग जाएँ; किन्तु संत सद्गुरु नहीं मिले हैं, तो अंदर में घोर अंधकार बना रहेगा, प्रकाश नहीं होगा। सद्गुरु के संबंध में संत कबीर साहब की वाणी है-
“ घर महि घर दिखलाइ दे, सो सद्गुरु संत सुजान ।
पंच सबद धुनकार धुन, बाजै गगन निशान ।।”
संत कबीर साहब के समकालीन थे गुरु नानकदेवजी महाराज। उन्होंने उनसे मिलती-जुलती बातें कहीं हैं। दोनों में कितना साम्य है, मिलाकर देखिए-
“ घरि महि घरु देखाइ देइ, सो सतगुरु परखु सुजाणु ।
पंच सबदु धुनिकार धुनि, तह बाजै सबदु निसाणु ।।”
अर्थात् ‘गुरु’ उनको कहते हैं, जो घर में घर दिखला दे।’ हमारे यहाँ दो-मंजिल, चार मंजिल, दस मंजिल आदि के मकान होते हैं। न्यूयार्क में सौ-सौ मंजिल के मकान होते हैं, ऐसा सुना जाता है। लेकिन ‘घर में घर दिखलाइ दे’ यह क्या बात हुई? संत कबीर साहब घर के प्रकार बतलाते हैं-
“ कहा मढ़ावै मेड़िया, लम्बी भीत उसार ।
घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चार ।।”
एक प्रकार का घर तो यह हुआ। अब दूसरे प्रकार के घर के बारे में कहते हैं-
‘अवधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै ।’
पुनः तीसरी तरह के घर की बात भी आती है-
“ वा घर की सुधि कोई न बतावै,
जा घर से जीव आया रे ।”
अब हम आगे बढ़े और गुरु नानकदेव की वाणी पढ़ें-
“ सब किछु घर महि बाहरि नाहीं ।
बाहरि टोलै सो भरमि भुलाहीं ।।
गुर परसादी जिनि अंतरि पाइआ ।
सो अंतरि बाहरि सुहेला जीउ ।।”
पुनः-
“ घर ही महि अंम्रित भरपूर है मनुखा सादु न पाइआ ।
जिउ कस्तूरी मिरगु न जाणै भ्रमदा भरम भुलाइआ ।।”
संत दादू दयालजी का कथन है-
“ नीके राम कहतु है बपुरा ।
घर माहैं घर निर्मल राखै, पंचौं धोवै काया कपरा ।।”
फिर दूसरी जगह कहते हैं-
“ भाई रे घर में ही घर पाया।
सहजि समाइ रहो ता माहीं, सद्गुरु खोज बताया।”
संतों ने जो बारंबार ‘घर-घर’ की चर्चा की है, आखिर यह क्या है? वास्तविक बात तो यह है कि जबतक सद्गुरु नहीं मिलेंगे, तबतक यह भेद नहीं मिलेगा। गुरु ग्रंथ साहब, सिरी रागु, महला 1 में लिखा है-
“ तब लगु महलु न पाइअै जब लगु साचु न चीति ।
सबदि रपै घरु पाइअै निरवाणी पदु नीति ।।
गुरू बिनु आपु न चीनिअै कहे सुणे किया होइ ।
नानक सबदि पछाणीअै हउमैं करै न कोइ ।।”
उस घर के लिए कहा गया है, जो निर्वाण घर है, मुक्ति का घर है। यह शरीर-रूपी घर छूट जाएगा, तो जिस घर में यह शरीर रह रहा है, वह भी छूट जाएगा, उससे कोई संबंध नहीं रहेगा।
गुरु नानकदेवजी कहते हैं-जिस घर से तुम आये हो, वह घर नित्य है। उस घर में जाओ तो निर्वाण पद मिलेगा। उस घर में जाओगे कैसे? तो वे उत्तर देते हैं-‘सबदि रपै घरु पाइअै’-जो अपने अंदर के शब्द को पकड़ता है अर्थात् नादानुसंधान की क्रिया करता है, वह उस घर में जाता है। हजरत मुहम्मद साहब गुफा में बैठकर शब्द की साधना (सुल्तानु उलजकार) करते थे। अल्लाह का दीदार नहीं होने के कारण वे रोते थे। यह बात केवल हजरत मुहम्मद साहब के लिए नहीं है, संत कबीर साहब ने तो कहा-
“ हँस हँस कंत न पाइया, जिन पाया तिन रोय ।
हँसी खेलै पिय मिलैं, तो कौन दुहागिनि होय ।।”
बहुत परिश्रम के बाद जब हजरत मुहम्मद साहब को अल्लाह का दीदार हुआ, तब फिर भी वे रोते थे। उनकी पत्नी ने पूछा, ‘पहले आप कहते थे कि अल्लाह का दीदार नहीं हुआ है, इसीलिए रोता हूँ; अब तो अल्लाह का दीदार हो गया, अब क्यों रोते हो?’ मुहम्मद साहब ने उत्तर दिया, ‘खुदा की मेहर पर रोता हूँ कि मुझ जैसे नाचीज पर इन्होंने रहमत की, अपना दीदार कराया।’
जो कोई अल्लाह को, परमात्मा को, गॉड (God ) को पाना चाहता है, उसे अपने अंदर के शब्दाधार को पकड़ना होगा। शब्दधार के सहारे ही कोई सर्वेश्वर सर्वाधार तक पहुँच सकता है। अपने अंदर जाने के लिए रास्ता कहाँ से पकड़ा जाय? एक कामिल फकीर का कलाम है-
“ क्यों भटकता फिर रहा तू, ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए ।।”
यदि परमात्मा के पास जाना चाहते हो, तो रास्ता शहरग में है। अब हम गुरु नानकदेवजी महाराज से पूछते हैं कि आप जो घर में घर की बात कहते हैं, उस घर में जाने का रास्ता क्या है? वे फरमाते हैं-
“ नउ दरि ठाके धावतु रहाए ,
दसवै निज घरि वासा पाए ।
उथै अनहद सबद बजहि दिन राती
गुरमति सबदु सुणावणिआ ।।”
जबतक तुम नौ दरवाजे (आँख के दो, कान के दो, नाक के दो, मुँह का एक और मल-मूत्र विसर्जन के दो) में रहोगे, संसार में दौड़ते रहोगे, आवागमन के चक्र में पड़े रहोगे। ‘दसवै निज घरि वासा पाए’। जब तुम दसवें द्वार में जाओगे, सुषुम्ना या शहरग में जाओगे, तब निज घर में जाओगे। इसी का संकेत बाइबिल में है। बाइबिल में लिखा है-यदि तेरी आँख एक हो तो तेरा सारा शरीर उजियाला होगा।’ और गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
‘एक द्रिसटि करि समसरि जाणै, जोगी कहीअै सोई ।’
जब दृष्टियोग की क्रिया करते हैं, तो प्रकाश होता है। जो सच्चे सद्गुरु होते हैं, वे ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ करते हैं अर्थात् अंधकार से प्रकाश में ले जाते हैं। ‘असतो मा सद्गमय’-असत् के रास्ते से हटाकर सत् की ओर ले जाते हैं। ‘मृत्योर्मा अमृतगमय’-मृत्यु के मुख से छुड़ाकर अमृत की ओर ले जाते हैं अर्थात् उसका लाभ कराते हैं।
कुरान शरीफ में पारा 7, सूरा 6 में लिखा है-इब्राहिम ने अपने पिता आगर से कहा-आप गुमराहों की राह पर चल रहे हैं। आपके साथी भी वही कर रहे हैं। हम उस ओर नहीं चलेंगे। देखते-देखते उनपर रात छा गयी, अंधेरा छा गया। उस अंधेरा को वह देखने लगा। देखते-देखते एक तारा निकल आया। वह कहता है-यही मेरा प्रभु है। लेकिन जब वह डूब जाता है, इब्राहिम कहता है-डूबनेवाले का मैं अनुरागी नहीं हो सकता। देखते-देखते चन्द्रमा निकल आया, तब वह इब्राहिम कहता है-हाँ, यह मेरा प्रभु है। फिर चन्द्रमा डूब जाता है। इब्राहिम कहता है-यह मेरा प्रभु नहीं है। देखते-देखते सूर्य निकल आता है। वह कहता है-यह बहुत बड़ा है, यही मेरा प्रभु है।
कुरान शरीफ में आया हुआ है यह तारा और चन्द्रमा इस्लाम धर्म के झंडे पर आज भी हम प्रतीक के रूप में पाते हैं। यह प्रतीक मस्जिद पर भी बना रहता है। वे लोग तारा और चन्द्रमा को देखकर रोजा गुजारते हैं।
वास्तव में यह तारा, चन्द्रमा और सूर्य क्या है, इसका आधार क्या है? मंडलब्राह्मणोपनिषद् में लिखा है-
आदौ तारकवद्दृश्यते। ततो वज्रदर्पणम्। तत उपरिपूर्णचन्द्रमण्डलम्। ततो नवरत्नप्रभा-मण्डलम्। ततो मध्याह्नार्कमण्डलम्।
अंतस्साधना के साधक को अपने अंदर पहले तारा देखने में आता है। फिर वह देखता है कि उसके अंदर चन्द्रमंडल खिला हुआ है। फिर वह देखता है कि उसके अंदर सूर्यमंडल का प्रकाश फैला हुआ है, आदि। यह तो वेद-उपनिषद् की बात है। अब हम संत कबीर साहब क्या कहते हैं-
“ यहि घट चंदा यहि घट सूर ।
यहि घट बाजै अनहद तूर ।।
यहि घट बाजै तबल निशान ।
बहिरा शब्द सुनै नहीं कान ।।”
जब हम गुरु नानकदेवजी महाराज से पूछते हैं, तो उत्तर मिलता है-
‘रवि ससि लउके इहु तनु किंगुरी बाजै सबद निरारी ।’
अर्थात् अंदर में चन्द्र है, सूर्य है और न्यारी-से- न्यारी ध्वनि-केन्द्र है।
आपके मन में कहीं ऐसा न हो कि मैं वेद की बात कहता हूँ, कुरआन की बात कहता हूँ, बाइबिल की बात कहता हूँ, कबीर साहब, गुरु नानक साहब और मुहम्मद साहब की बात कहता हूँ़; पर अपने गुरु महाराज की बात नहीं कहता! इसलिए अब यह भी सुन लीजिए कि हमारे गुरुदेव क्या कहते हैं? वे कहते हैं कि जो कोई दृष्टियोग की क्रिया करते हैं, उनकी दृष्टि का सिमटाव एक विन्दु (चवपदज) पर होता है। एक फकीर ने बड़ा अच्छा कहा है-
“ जिगर वो हुस्न एक सूई का मंजर याद है अब तक ।
निगाहों का सिमटना औ हुजूमे नूर हो जाना ।।”
जिसकी निगाह सिमट जाती है, वह प्रकाशपुंज में पहुँच जाता है। भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को उपदेश दिया था-
“ बहुशास्त्र कथाकन्थारोमन्थेन वृथैव किम् ।
अन्वेष्टव्यं प्रयत्नेन मारुते ज्योतिरान्तरम् ।।”
हे हनुमानजी! अनेक शास्त्रें की कथाओं को मथने से क्या फल, अत्यन्त यत्नवान होकर अपने अंतर की ज्योति की खोज करो। भगवान बुद्ध ने कहा है-
“ कोनु हासो किमानन्दो निच्चं पज्जलिते सति ।
अंधकारेन ओनद्धा पदीपं न गवेस्सथ ।।”
संसार में क्या हँसी है, क्या खुशी है, नित्य सभी जल रहे हैं। कोई काम से, कोई क्रोध से, कोई राग से और कोई द्वेष से; इस प्रकार सभी जल रहे हैं। तुम अंधकार से घिरे हुए हो, प्रकाश की खोज क्यों नहीं करते! हमारे गुरुदेव कहते हैं-
‘खोज करो अंतर उजियारी, दृष्टिवान कोइ देखा है ।’
सूर्य उग जाए, चन्द्र उग जाए, सभी तारे उग जाएँ; परन्तु यदि दृष्टि न रहे, तो कैसे देख सकेंगे? उसी तरह आपके अंदर, हमारे अंदर, सबके अंदर जो प्रकाश है, अगर आँखें ही नहीं, तो क्या देखेंगे? वह आँख भी हमारे अंदर है। दियासलाई से आग भरी हुई रहती है, हम अपने हाथ में रखते हैं; परन्तु हमारा हाथ जलता नहीं है। उसी दियासलाई से एक काठी निकालकर जहाँ उसमे मशाला लगा रहता है, वहाँ घिसिए तो भक् से आग जल उठेगी। उसी तरह सबके अंदर प्रकाश भरा हुआ है। संत सद्गुरु जहाँ प्रकाश बतलाते हैं, वहाँ दृष्टि की काठी घिसिए, प्रकाश दीखेगा। गुरुदेव कहते हैं-‘दृष्टिवान कोई देखा है।’ जिसको यह दृष्टि मिलती है, वही देखता है। यह दृष्टि कैसे मिलती है?
गुरु भेदी का चरण सेवकर, भेद भक्त पा लेता है।
फिर क्या होता है? जैसे आपने कुरआन शरीफ की बात सुनी कि तारा दीखता है, उसी तरह हमारे गुरु महाराज कहते हैं-
‘छट छट बिजली छटकै, भोर का तारा दिखाता है।’
सुबह का यानी प्रातःकालीन तारा बड़ा चमकीला तारा होता है, वह दिखाई देता है। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
‘तारा चड़िया लंमा किउ नदरि निहालिआ राम ।’
वे कहते हैं-मैं फाँद कर तारा पर चढ़ गया। किस तरह? दृष्टियोग की क्रिया करके। लेकिन-
‘गुरमुखि जागि रहे, चूकी अभिमानी राम।’
जो अपने ज्ञान के अभिमान में पड़े हैं, वे तो सोये हुए हैं; लेकिन जो गुरुमुख लोग होते हैं, गुरु की मति के अनुकूल चलते हैं, वे जग जाते हैं और ज्योति पाते हैं।
“ अंतरि जोति भई गुरु साखी, चीने राम करंमा ।
नानक हउमै मारि पतीणै तारा चड़िया लंमा ।।”
गुरु नानकदेवजी कहते हैं कि लोग तो वेद-पुराण और दूसरी-दूसरी पुस्तकों की गवाही देते हैं, साक्षी देते हैं; लेकिन मेरी साक्षी तो यही है कि गुरु ने कहा था कि अपने अंदर इस तरह करो तो प्रकाश होगा। उनकी बतायी हुई क्रिया से मैंने साधना की, अंदर में प्रकाश हुआ, यही साखी है। हमारे गुरुदेव कहते हैं कि सुबह का तारा दीखने के बाद चन्द्रमा उदय होता है, सूर्योदय भी होता है और आदिशब्द मिल जाता है, जो कि परम प्रभु परमात्मा से जा मिलाता है।
‘चन्दा उगत उदय हो रविहू धूर शब्द मिल जाता है।’
जिज्ञासा होती है अंतःप्रकाश पाने की क्रिया का आरंभ कहाँ से करो? तो गुरुदेव ने कहते हैं-
“ भाई योग-हृदय वृत केन्द्र विन्दु, जो चमचम चमकै ना ।।
नजर जोड़ि तकि धँसै ताहि में, धुनि सुनि पावै ना ।
सुरत शब्द की करै कमाई, निज घर जावै ना ।।”
दृष्टियोग की सही क्रिया करने से अंदर में चमकता हुआ प्रकाशमय विन्दु मिलता है और प्रकाश में जो शब्द मिलता है, साधक उसको पकड़कर अपने घर जाता है।
संत कबीर साहब और गुरु नानक साहब के वचन में आपलोगों ने सुना, ‘पंच शब्द धुनकार धुन’ ये पंच शब्द क्या हैं? अपने अंदर में पाँच महल हैं, जिनमें पाँच नौबतों के पाँच केन्द्रीय शब्द होते हैं। वे पाँच नौबत हैं-स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य। जो साधक स्थूल के केन्द्र पर शब्द को पकड़ता है, वह उससे खिंचकर सूक्ष्म के केन्द्र पर जाता है। वहाँ के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर कारण के केन्द्र पर, कारण के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर महाकारण के केन्द्र पर, महाकारण के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर कैवल्य के केन्द्र पर पहुँच जाता है। पुनः वहाँ का शब्द परम प्रभु परमात्मा तक पहुँचा देता है।
“ निज घर में निज प्रभु को पावै, अति हुलसावै ना ।
‘मेँहीँ’ अस गुरु सन्त उक्ति, यम-त्रस मिटावै ना ।।”
अपने घर में अपने प्रभु को पा लेता है और सारे दुःखों से छूट जाता है।
यह अपने अंदर का रास्ता है, बाहर का नहीं। यह मजहब सीना है, सफीना नहीं। यह दिल का दर्द है, कथनी में नहीं आता। वस्तुतः यह करने की चीज है।
जिनको सच्चे गुरु मिले हैं, सच्ची सद्युक्ति मिली हुई है और जो सदाचार समन्वित होकर सच्ची साधना करते हैं, उनको अनुभूतियाँ होती हैं और अंत में परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त कर अपना कल्याण बना लेता है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 16-7-2000 ई0 को गुरु-पूर्णिमा के अवसर महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अक्टूबर 2000 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
छोटा बच्चा तितलियों को देखकर बहुत खुश होता है, उसे उड़ते देखकर पकड़ने के लिए दौड़ता है। तितली बैठी रहती है और जैसे ही बच्चा हाथ फैलाता है, वह उड़कर दूसरी जगह चली जाती है। बच्चा फिर उसे पकड़ने के लिए उसके नजदीक जाता है और हाथ बढ़ाता है। तितली फिर उड़ जाती है। बच्चा उसके पीछे दौड़ता रहता है। जो समझनेवाले बड़े लोग होते हैं, वे उसे समझाते हुए कहते हैं-‘क्यों तितलियों के पीछे दौड़ते हो? वह हाथ आनेवाली नहीं है।’
तितलियों के पीछे दौड़नेवाले बच्चे को लोग अज्ञानी कहते हैं; लेकिन हम भी उस बच्चे से कम अज्ञानी नहीं हैं। वह तो तितली के पीछे दौड़ता है, जिसमें जान है और हम जिनके पीछे भागते हैं, वे सभी-घर, पैसा, जमीन दुकान आदि बेजान हैं। गुरुदेव का वचन है-
“ कोई न स्थिर सबहिं बटोही ।
सत्य शांति एक स्थिर वोही ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
जैसे हम तितलियों के पीछे घूमनेवाले बच्चे को देखकर हँसते हैं, उसी तरह संत- महात्मागण संसारी लोगों को देखकर हँसते हैं। उनमें कुछ तो ऐसे हैं, जो सत्संग से दूर हैं, इसीलिए ज्ञानाभाव के कारण भोगों में मस्त हैं। पर जो सत्संगी हैं, वे भी यदि विषय-भोगों में ही रमे रहें, तो यह बहुत दुःख की बात है।
“ जो विषया सन्तन तजि, मूढ़ ताहि लिपटात ।
जौं नर डारै वमन करि, स्वान स्वाद सौं खात ।।”
-संत कबीर साहब
आदमी जब वमन (कै) कर देता है, तो कुत्ता उसे बड़े चाव से खाता है, उसी तरह संतलोग जिन विषयों को त्याग देते हैं, उन्हें हम आनंद से ग्रहण करते हैं। हमलोगों की इस मूर्खता को देखकर संतलोग हँसते हैं।
हम उन चीजों के पीछे भागते हैं, पसीना बहाते हैं, जो आज तक किसी के साथ गया नहीं, फिर भी हम उन्हीं के लिए बेहाल हैं। संतों ने बतलाया है कि बाहर की दसो-दिशाओं में भागते रहोगे, तो तुम्हारी दुर्दशा होती रहेगी, कभी सुख का मुख नहीं देख सकोगे। इसलिए इन दसो-दिशाओं को त्यागकर ग्यारहवीं दिशा में बढ़ो। वह दिशा किधर है? बाहर नहीं, तुम्हारे अन्दर है। गुरुदेव कहते हैं-
“ आहो भक्त छाड़˜ बालक खेल हो,
बाहर भरमन, बाल खेल जैसन,
अभिअंतर धँसु हो।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
सुख के लिए बाहर में भटकना बच्चों का खेल करना है। जब भीतर धँसेंगे, तब सब कुछ मिलेगा। जबतक बाहर में भटकेंगे, भ्रम में पड़े रहेंगे। गुरु नानकदेवजी ने भी कहा है-
“ सब किछु घर महिं बाहर नाहीं ।
बाहर टोलै सो भरम भुलाही ।।”
जिनकी आँखें जमीन की ओर रहती हैंं, वे जमीन को ही देखते हैं, सूर्य, चन्द्र और तारों को नहीं देख सकते। वे यदि सूर्य, चन्द्र और तारों को देखना चाहें, तो उन्हें नीचे से नजर हटाकर ऊपर देखना होगा। दोनों को एक साथ नहीं देख सकते।
“ दुइकि होइ एक समय भुआला ।
हँसब ठठाइ फुलाउब गाला ।।”
कोई तपस्या करते हैं तथा कोई ध्यान-योग की साधना करते हैं। इन दोनों में अंतर है। ऐसा होता है कि कुछ ही दिनों की तपस्या से लक्ष्य की प्राप्ति हो गई और तपस्या छोड़ दी; पर ध्यानी के लिए जीवनभर संयम और साधना चाहिए। तपस्या करके परमात्मा को किसी ने प्राप्त नहीं किया। नररूप, विराटरूप, विश्वरूप आदि का दर्शन कर सकते हैं; पर इससे आत्म-दर्शन नहीं होता। मनु-शतरूपा ने तपस्या की। भगवान विष्णु प्रकट हुए और कहा कि वरदान माँगो। उन्होंने माँगा कि आपके समान सुन्दर पुत्र हो। वे अपने समान कहाँ खोजते? इसलिए राम के रूप में स्वयं प्रकट हुए।
“ भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी ।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ।।”
(रामचरितमानस, बालकाण्ड)
दशरथजी को भगवान के विराटरूप के दर्शन हुए, पर जब शरीर छूटा, तो वहाँ गया, जहाँ गिद्ध, जटायु और रावण सपरिवार गया था। जन्म-मरण के चक्र से छूट नहीं सका।
साधु-महात्मा जंगल में रहकर ध्यान-साधना क्यों करते थे? इसके लिए शांत-एकांत स्थान की आवश्यकता होती है, इसलिए वे सांसारिक कोलाहल से दूर रहकर जंगलों में ध्यान करते थे। आज हम घर में रहकर ध्यान-साधना करते हैं। दिन में पचीसों आदमी से बातें करते हैं। किसी से मिलकर प्रेम उत्पन्न होता है और किसी से मिलकर क्रोध भी होता है। जब ध्यान करने बैठते हैं, तो यही सोचने लगते हैं कि उसने ऐसा कहा, उसने ऐसा कहा। वहाँ हर्ष-विषाद का संकल्प-विकल्प होने लगता है, पर जंगल में ऐसा नहीं होता। वहाँ तो, कुछ लेना न देना, मगन रहना। अशान्ति में रहें और ध्यान में मग्न हो जाएँ, यह असंभव है। ऐसा होता तो गुरु महाराज गुफा में बैठकर साधना क्यों करते? शांत-एकांत में बैठकर ध्यान कीजिए, तभी सफलता मिलेगी। शिष्य के अन्दर पात्रता हो और उसपर गुरु की विशेष कृपा हो, तब तो कहना ही क्या! गुरुभक्त होने का दम्भ रखते हैं, पर उनकी आज्ञा का पालन नहीं करते हैं, तो गुरु की कृपा कितनी भी बरसती रहे, पर सफलता मिलेगी नहीं।
“ जग में भक्त कहावई, चुटक चुन नहिं देइ ।
शिष्य जोरु का हो रहा, नाम गुरु का लेइ ।।”
-संत कबीर साहब
वर्षा होती है, तो उसका जल ऊँचे टीले पर नहीं ठहरता; बल्कि गड्ढे में जमा होता है। उसी तरह गुरु की कृपा विनम्र और आज्ञाकारी शिष्यों में ही ठहरती है। गंगा नहीं कहती है कि तुमको एक लीटर जल दूँगी या दो लीटर। लोगों के पास जितना बड़ा पात्र होता है, लोग उतना जल भर लेते हैं। पावर हाउस से विद्युत धारा चलती है, जिसके घर में जितनी शक्ति का बल्ब रहता है, उतना प्रकाश होता है। उसी तरह गुरु-कृपा की धारा तो बह रही है, हमारे अन्दर जितनी क्षमता होगी, जितनी पात्रता होगी, उतनी कृपा मिलेगी।
सूर्य की किरणें मिट्टी, पानी और काँच पर समरूप में पड़ती हैं। मिट्टी पर कोई चमक नहीं होती है। जल पर किरणें पड़ने से थोड़ी चमक होती है, पर काँच पर अत्यधिक चमक होती है। उसी तरह हमारा हृदय जैसा होगा, गुरु की कृपा का वैसा ही प्रकाश फैलेगा। इसलिए गुरु में श्रद्धा रखो, उनकी आज्ञा का पालन करो। जो अपने इष्ट पर एकनिष्ठ रहते हैं, उनका कभी भी अनिष्ट नहीं होता है। गुरु महाराज की आज्ञा है-
“ गुरु जाप मानस ध्यान मानस, कीजिये दृढ़ साधकर ।
इनका प्रथम अभ्यास कर, स्त्रुत शुद्ध करना चाहिये ।।
घट-तम प्रकाश व शब्द पट त्रय, जीव पर हैं छा रहे ।
कर दृष्टि अरु ध्वनि योग साधन, ये हटाना चाहिये ।।
इनके हटे माया हटेगी, प्रभु से होगी एकता ।
फिर द्वैतता नहिं कुछ रहेगी, अस मनन दृढ़ चाहिये ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
पहले मानस-जप और मानस-ध्यान को दृढ़तापूर्वक कीजिए। इससे मन का कुछ सिमटाव होगा, फिर दृष्टि-योग और शब्द-योग कीजिए। दृष्टि-योग से मन का और सिमटाव होगा तथा विषयाकर्षण कम हो जाएगा। इसके बाद शब्द-योग करेंगे, तो पहले अनहद नाद की पहचान होगी, फिर अनाहत नाद (सारशब्द) की पहचान होगी। इस प्रकार जीवात्मा पर पड़े हुए अंधकार, प्रकाश और शब्दरूप त्रयावरण उतर जाएँगे। फलस्वरूप जीव और ब्रह्म के बीच द्वैत-भाव मिट जाएगी, अपनी पहचान होगी और परमात्मा की भी पहचान होगी। सारे भव-दुःख समाप्त हो जाएँगे। इस अन्तर्मार्ग के पथिक के लिए अहंकार बड़ा भारी दुश्मन है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ मद तो बहुतक भाँति का, ताहि न जानै कोय ।
तन मद मन मद जाति मद, माया मद सब लोय ।।
विद्या मद औ गुनहु मद, राज मद उनमद्द ।
इतने मद को रद्द करै, तब पावै अनहद्द ।।”
पाण्डव और द्रौपदी के स्वर्गारोहण का समय था। चलते-चलते द्रौपदी फिसलकर गिर गई। भीम ने युधिष्ठिरजी से पूछा-‘भाई! द्रौपदी क्यों गिर गई?’ युधिष्ठिर ने उत्तर दिया-‘हम पाँचो भाई इसके पति हैं, इसे सबपर समान दृष्टि रखनी चाहिए; पर यह अर्जुन को विशेष चाहती थी। इसी पक्षपात के कारण इसका पतन हो गया।’ कुछ समय बाद नकुल गिर गया। भीम ने पूछा-‘भाई! नकुल क्यों गिर गया?’ युधिष्ठिर ने उत्तर दिया-‘यह हम सब भाइयों में विशेष सुन्दर था। इसे अपनी सुन्दरता का विशेष घमण्ड था। इसलिए गिर गया।’ चलते- चलते सहदेव गिर गया, तो भीम ने युधिष्ठिर से उसके गिरने का कारण पूछा। युधिष्ठिर ने कहा-‘सहदेव को अपनी पंडिताई का बड़ा घमण्ड था। यह जानता था कि लाक्षागृह से निकलने का रास्ता कहाँ है, पर जबतक उससे पूछा नहीं गया, उसने बताया नहीं। इसी घमण्ड से उसका पतन हो गया।’ कुछ समय बाद अर्जुन गिर गया। भीम ने पूछा-‘अर्जुन तो बहुत बड़ा धनुर्धर है, यह क्यों गिर रहा है?’ युधिष्ठिर ने उत्तर दिया-‘इसने कहा था कि वह तीन दिनों में ही महाभारत का युद्ध समाप्त करेगा; लेकिन युद्ध समाप्त होने में अठारह दिन लग गए। इसी झूठ के कारण वह गिर रहा है।’ फिर चलते-चलते भीम स्वयं गिरने लगा, तो पूछा-‘भाई! मैं क्यों गिर रहा हूँ?’ युधिष्ठिर ने कहा-‘तुम्हें दस हजार हाथी के बल का घमंड है, इसीलिए तुम गिर रहे हो।’
व्यक्ति के मन में अनेक तरह के मद होते हैं। जबतक इन मदों को नहीं छोड़ेंगे, तबतक अनहद नहीं मिलेगा और प्रभु के दर्शन नहीं होंगे। इसलिए साधकों को चाहिए कि विषयासक्ति और अहंकार को त्यागकर गुरु-युक्ति के अनुसार साधना करें, तब सफलता मिलेगी।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर दिनांक 06-08-2000 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, नवम्बर 2008 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
हमारे गुरुदेव ने बड़ी कठिनाई सहकर साधना की और ईश्वर-प्राप्ति का सरल-सुगम मार्ग ढूँढ़ निकाला। सिद्धावस्था प्राप्त कर भी वे शांत होकर नहीं बैठे, उस मार्ग को जन-जन तक पहुँचाने के लिए वे बेचैन रहने लगे। उस समय मोटरगाड़ियों का प्रचलन नहीं था। कहीं बैलगाड़ी से, तो कहीं पैदल ही लोग यात्र करते थे। सुदूर देहातों में, आदिवासी क्षेत्रें में, नेपाल की तराइयों में उन्होंने जगह-जगह जाकर समाज के सभी वर्गों के बीच संतमत-सत्संग का प्रचार किया। वेद और गीता के उत्कृष्ट ज्ञान को सर्वसुलभ बनाने के लिए उन्होंने ‘वेद-दर्शन योग’ और ‘गीता-योग-प्रकाश’ नामक पुस्तकों की रचना की। ‘सत्संग-योग’ उनकी एक विलक्षण कृति है, जिसके चौथे भाग में उन्होंने अपने साधनाजनित अनुभवों को लिखा है। इसमें विभिन्न संतों एवं विद्वानों की वाणियों के आधार पर उन्होंने सिद्ध कर दिया कि ज्योति और नाद की उपासना ही अध्यात्म का सार है। वे कहा करते थे कि एक-न-एक दिन यह शरीर छूटेगा; लेकिन ‘सत्ंसग-योग’ मेरा प्रतिनिधित्व करेगा।
संतमत किसी व्यक्ति विशेष के नाम पर प्रचलित मत नहीं है, यह एक सर्वधर्म समन्वय मत है। इसीलिए इस सत्संग में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई, बौद्ध, जैन आदि सभी मत के लोग शामिल होते हैं। यहाँ सभी संतों का समान रूप से आदर किया जाता है, उसी तरह सभी संतों की वाणियाँ संतमत-सत्संग में आकर समाहित हो जाती हैं। इसीलिए हमारे गुरुदेव के गुरु बाबा देवी साहब ने गुरुदेव से कहा था, ‘लाला! पहले तुम दरियापंथी थे, अब समुद्रपंथी हो गये हो।’ इसमें जाति-पाँति के भेद-भाव की बात नहीं है। गुरुदेव कहते हैं-
“ जितने मनुष तन धारि हैं, प्रभु-भक्ति कर सकते सभी ।
अन्तर व बाहर भक्ति कर, घट-पट हटाना चाहिए ।।”
संतमत की साधना के लिए घरवार, परिवार, रोजगार आदि छोड़ने की भी जरूरत नहीं होती है। अपने पारिवारिक दायित्वों का निवर्हन करो और भगवद्भजन भी करो। यही उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था-‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर यध्य च।’
महाभारत का रणक्षेत्र था और भगवान कृष्ण ने कहा, ‘हे अर्जुन! मेरा स्मरण भी करो और युद्ध भी करो। अर्थात् इहलोक भी कल्याणमय बनाओ और परलोक भी।’ संतमत की साधना कोई कठिन साधना नहीं है। हमारे गुरुदेव ने अनेक तरह की साधना-तपस्या करके देख ली और तब उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि विन्दु और नाद ध्यान ही सरल साधन है।
“ विन्दु-ध्यान-विधि नाद-ध्यान-विधि ,
सरल-सरल जग में परचारी ।।”
विन्दु ध्यान में अपने गुरु-निर्देशित स्थान पर दोनों दृष्टिधारों को एकत्र करना होता है। ठीक-ठीक दृष्टि स्थिर हो जाने पर ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ हो जाता है, साधक प्रकाश का दर्शन करता है। इसी के संबंध में बाइबिल के छठे अध्याय सेंट मेथ्यू ने लिखा है, ‘यदि तेरी आँखें एक हों, तो तेरा सारा शरीर उजियाला होगा।’ श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने साधकों को बैठने का आसन बतलाया है और नासाग्र में ध्यान करने कहा है। कुरान शरीफ के हूद में ठीक यही बातें बतलायी गयी हैं कि किस आसन से बैठना चाहिए और दृष्टि को कैसे टिकाना चाहिए। भगवान महावीर ने इस क्रिया को प्रेक्षा ध्यान और भगवान बुद्ध ने विपश्यना ध्यान कहकर वर्णन किया है। सभी धर्मों में यह साधना है।
जिस नाद-ध्यान (शब्दयोग) की चर्चा आप संतमत में पाते हैं, हजरत मुहम्मद साहब ने वर्षों गुहा के अंदर बैठकर उसकी साधना की थी और अंत में उन्होंने परमात्मा का साक्षात्कार किया। खुदा के दीदार होने के बाद एक दिन वे रो रहे थे। पत्नी ने उनसे पूछा, ‘पहले जबतक आपको खुदा का दीदार नहीं हुआ था, तो आप उसके लिए आँसू बहाते थे, पर अब जब उनकी इनायत हो गयी है, तो क्यों रोते हो?’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘अब मैं यह सोचकर रोता हूँ कि खुदा कितने मेहरबान हैं कि मेरे जैसे नाचीज को भी उन्होंने अपना दीदार करा दिया।’
आंतरिक शब्द के बारे में बाइबिल में भी स्पष्ट लिखा गया है-‘ In the beginning was the word, the word was with God and the word was God ’ अर्थात् आरंभ में शब्द था, शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ही ईश्वर था।
वेद-उपनिषद् पढ़िये और बाइबिल-कुरान; आध्यात्मिक बातें एक ही हैं-
“ वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यो पन्थाः विद्यतेऽयनाय ।।”
वेद कहता है-‘नान्य पंथाः।’ न अन्यः पंथाः अर्थात् कोई दूसरा रास्ता नहीं है। ‘तमसः परस्तात्’ अर्थात् अंधकार के परे प्रकाश में चलो और शब्द को पाओ। यही खुदा या परमात्मा के पास जाने का रास्ता है, अन्य दूसरा रास्ता नहीं है। ईश्वर-कृत जो रास्ते हैं, उनमें परिवर्तन नहीं होता, पर मानवकृत रास्ते बदलते रहते हैं। ट्रेनें चलती हैं, कभी इस होकर, तो कभी उस होकर। सड़कें और पगडंडियाँ भी बदलती हैं; लेकिन परमात्मा ने जिस रास्ते का निर्माण किया है, वह कभी परिवर्तनशील नहीं है। आसमान में असंख्य तारे चलते हैं। कभी सुना है कि आपस में टकरा गए। सूर्य चलता है, पृथ्वी चलती है, ग्रह-नक्षत्र चलते हैं। कभी एक्सीडेंट होता है? आप ट्रेन की, बस की, कार आदि की दुर्घटनाएँ रोज सुनते हैं, जिस पर कि एक या दो-दो ड्राइवर रहते हैं। चंद्र-सूर्यादि को चलानेवाला ड्राइवर कौन है और उसे कैसे संचालित करता है? कैसा नियत रास्ता है उसका! परमात्मा ने आँखों से देखने का रास्ता बनाया है। किसी देश का, किसी वेश का, किसी जाति-संप्रदाय का, किसी मजहब का व्यक्ति क्यों न हो, क्या कोई दूसरे रास्ते से देख सकते हैं? परमात्मा ने एक रास्ता बनाया है-कान से सुनने का। किसी दूसरे अंग से कोई सुन सकता है? परमात्मा ने नाक बनायी है, श्वास लेने के लिए। अन्य किसी रास्ते से श्वास ले सकते हैं? परमात्मा ने भोजन करने का एक रास्ता बनाया है-मुँह। अन्य किसी रास्ते से भोजन ग्रहण कर सकते हैं? इसी तरह परमात्मा ने मल-मूत्र विसर्जन करने का भी एक-एक रास्ता बना दिया है।
जैसे ये रास्ते परमात्माकृत हैं और उसमें परिवर्तन नहीं होता है, उसी तरह ईश्वर के पास जाने का रास्ता भी एक ही है और वह अंदर का रास्ता है। कुरान शरीफ के अलबकरा में स्पष्ट लिखा है, ‘आरंभ में सब एक ही मार्ग पर थे।’ यह वही अंदर का मार्ग है।
“ बेहोशिये इंसान से यह ख्याल जुदा है ।
जाहिर में है मुहम्मद बातिन में खुदा है ।।”
परमात्मा तुमको अंदर में पुकार रहे हैं और तुम बाहर में भटक रहे हो। अगर अल्लाह का दीदार चाहते हो, तो अपने अंदर चलो। अंदर में सुषुम्ना (शहरग) से रास्ता का आरंभ होता है-
“ क्यों भटकता फिर रहा तू, ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए ।।
मुर्शिदे कामिल से मिल, सिदक और सबूरी से तकी ।
जो तुझे देगा फहम, शहरग के पाने के लिए ।।
गोश बातिन हो कुशादा, जो करे कुछ दिन अमल ।
ला इलाह अल्लाह हो, अकबर पै जाने के लिए ।।”
यही एक अंदर का रास्ता है, जिसपर चलकर प्रभु परमात्मा से मिल सकते हैं। आप सभी वर्णों को पढ़ लें। मात्र एक प-वर्गीय को छोड़कर कोई भी वर्ण दोनों होठों को मिला नहीं सकता। प-वर्गीय वर्ण ही दोनों होठों को मिलाता है। उसी तरह दुनिया में कोई भी साधना कर लीजिए, वह आपको परमात्मा से नहीं मिला सकता। एक मात्र नादानुसंधान ही है, जो आपको परमात्मा से मिलाने में सक्षम है, पर एकाएक कोई नादानुसंधान की योग्यता नहीं प्राप्त कर लेता। इसके लिए पहले दृष्टियोग आवश्यक है और दृष्टियोग की क्षमता प्राप्त करने के लिए पहले परमात्मा के एक नाम का जप और एक रूप का ध्यान किया जाता है। यही संतमत की सरल सार शिक्षा है।
हमारे गुरुदेव ने अंतरमार्ग पर चलने हेतु चार साधनाएँ बतलायी हैं-मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टियोग और नादानुसंधान।
“ गुरु जाप मानस ध्यान मानस, कीजिए दृढ़ साधकर ।
इनका प्रथम अभ्यास कर, स्त्रुत शुद्ध करना चाहिए ।।
घट तम प्रकाश व शब्द पट त्रय, जीव पर हैं छा रहे ।
कर दृष्टि अरु ध्वनि-योग-साधन, ये हटाना चाहिए ।।
इनके हटे माया हटेगी, प्रभु से होगी एकता ।
फिर द्वैतता नहिं कुछ रहेगी, अस मनन दृढ़ चाहिए ।।”
इस मार्ग पर चलने के लिए धर्म, मजहब या संप्रदाय का कोई भेद नहीं है; लेकिन हमें अपने पंथ के संकीर्ण दायरे से बाहर निकलकर देखना होगा कि यह ज्ञान हमें कहाँ मिल सकता है।
किसी समय समुद्र के किनारे अवस्थित कुएँ ने समुद्र से कहा, ‘जितनी नदियाँ आपके पास आती हैं, उनको आप अपनी गोद में बिठाते हैं, पर मैं आपके समीप रहता हूँ और आप मुझे कभी पूछते तक नहीं। नदी की तरह मैं भी तो आपकी संतान हूँ, फिर भी मेरे साथ यह भेद-भाव क्यों?’ समुद्र ने कहा, ‘जितनी नदियाँ हैं, वे अपने तटबंधों को तोड़कर मेरे पास आती हैं और मैं उन्हें गोद में ले लेता हूँ। तुमने तो अपने चारो तरफ की चहारदिवारी बना रखी है। मैं क्या करूँ? तुम भी अपनी संकीर्ण चहारदिवारी तोड़ दो, तो यह गोद तुम्हारे लिए भी है।’ उसी तरह संतमत बतलाता है कि अपनी संकीर्ण चहारदिवारी को तोड़ो और अध्यात्म का ज्ञान ग्रहण करो।
हम स्तुति करते हैं, दूसरा कोई प्रेयर करता है, तीसरा कोई नमाज पढ़ता है, तो हम कहते हैं कि वह ईसाई है और वह मुसलमान है। धर्म अलग हो, भाषा अलग हो, पर बात एक ही है। इस्लाम धर्मवाले अरबी भाषा में नमाज पढ़ते हैं, ईसाई धर्मवाले अंग्रेजी में प्रेयर करते हैं और वैदिक धर्मावलंबी संस्कृत या हिन्दी में स्तुति करते हैं। जिस भाषा का जो शब्द है, उसका अर्थ उसी भाषा के अनुरूप करना ठीक होता है, अन्यथा अर्थ के बदले अनर्थ भी हो सकता है। इसलिए अगर हम नमाज पढ़ते हैं, दूसरा कोई नमाज नहीं पढ़ता है, तो वह काफीर है, ऐसी सोच ठीक नहीं। अगर कोई स्तुति करता है और दूसरा स्तुति नहीं करता है, इसलिए वह नास्तिक है, यह विचार ठीक नहीं। मुसलमानों के लिए पंचवक्ती नमाज अनिवार्य है। जो मुसलमान होकर नमाज नहीं पढ़ते हैं, वे ठीक नहीं करते। उसी तरह जो वैदिक धर्मावलंबी ईश-स्तुति और ध्यान नहीं करते हैं, वे अपने धर्म से च्युत हो रहे हैं। स्तुति नहीं करते हैं, ध्यान नहीं करते हैं और कहते हैं कि हम आस्तिक हैं, यह कैसे होगा? एक शब्द है-‘हराम’ अर्थात् अपवित्र। इस शब्द का प्रयोग मुसलमान लोग करते हैं। मक्का के आस-पास कुछ ऐसे पवित्र क्षेत्र हैं, जहाँ किसी भी प्रकार की जीव-हिंसा की मनाही है। उसका नाम है, हरम। उसी हरम को अगर हम अंग्रेजी में लिखते हैं, तो हो जाता है हराम-अपवित्र। भाषा बदलने से अर्थ बदल गया। हिन्दी में लिखते हैं राम। राम अर्थ है रमन्ति रामः। जो सबमें रमण करता है, वह है राम। ‘रमन्ति योगिनो यस्मिन् स रामः।’ जिसमें योगीजन रमण करते हैं, वह है राम; लेकिन अगर हम अंग्रेजी में राम लिखते हैं, तो क्या होगा-आर-ए-एम (त्।ड)। ‘त्।ड’ (रैम) का अर्थ होता है भेंड़ा। तीसरी भाषा में राम का अर्थ होता है गुलाम। जिस भाषा में जो शब्द है, उसमें अर्थ कीजिए, तभी भाव प्रकट होगा। एक नायिका कहती है-
“ दस्त से मैं यार को खाना खिलाती हूँ ।
प्यास लगने पर उसे पेशाब देती हूँ ।।”
हिन्दी भाषी लोगों को यह सुनकर कितना बुरा लगेगा। हिन्दी में दस्त कहते हैं पखाना को और पेशाब कहते हैं मूत्र को। भूख लगती है तो पखाना खिलावे और प्यास लगती है, तो मूत्र पिलावे, यह कैसी बात हुई? लेकिन उर्दू में दस्त का अर्थ होता है-हाथ और पेशाब-पेश-ए-आब का अर्थ है जल आगे करना। कहने का अर्थ था कि मैं अपने यार को अपने हाथों से भोजन कराती हूँ और प्यास लगती है तो आगे जल पेश करती हूँ। आब=पानी।
हमारे गुरुदेव कहते हैं कि देश-काल के कारण संत भिन्न-भिन्न स्थान में हुए हैं। इसलिए अपने ज्ञान का प्रचार उन्होंने भिन्न-भिन्न भाषाओं में किया, पर यदि मूल बातों को ग्रहण किया जाए, तो सब धर्मों में एक ही बात है। इसलिए सभी संतों के मत को संतमत कहते हैं।
संतमत ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ में विश्वास रखता है। यहाँ कोई जाति-पाँति, मजहब-संप्रदाय की बात नहीं; बल्कि सभी मानव एक हैं। मानव में एकता चाहिए और वह कब होगी, तो उन्होंने कहा, ‘जबतक किसी देश का आध्यात्मिक स्तर उत्तम और ऊँचा नहीं होगा, तबतक उस देश में सदाचारिता ऊँची और उत्तम नहीं होगी। जबतक सदाचारिता ऐसी नहीं रहेगी, तबतक सामाजिक नीति अच्छी नहीं होगी। जबतक सामाजिक नीति अच्छी नहीं होगी, तबतक राजनीति अच्छी और शान्तिदायक नहीं होगी। बुरी सामाजिक नीति के कारण राजनीति शासन-सँभाल के योग्य हो नहीं बनेगी।’ इसलिए ऊपर लिखो-आध्यात्मिकता और उसके नीचे लिखो सदाचारिता, उसके नीचे सामाजिक नीति और उसके नीचे राजनीति; क्योंकि आध्यात्मिकता और सदाचारिता का संबंध-फ़ और न् का संबंध है। किसी भी पद पर झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार करके जा सकते हैं; लेकिन ईश्वर पाने का जो रास्ता है, वह है अध्यात्म ज्ञान। एक बाल के नोक के बराबर भी अगर किसी में पाप की वृत्ति रहेगी, तो वह आंतरिक मार्ग पर चल नहीं सकता। इसलिए आवश्यकता है इन पापों को छोड़ें, आध्यात्मिकता लावें। आंतरिक मार्ग पर चलने के लिए साधक को संसार में रहने की कला जानना आवश्यक है। संसार में रहने की कला यह है कि जैसे कमल रहता है, उसी तरह रहो। जब बढ़ता है, फिर भी कमल को वह डूबा नहीं सकता, कमल जल से ऊपर ही रहता है। संसार में रहो, पर संसार से अलिप्त रहो। श्रीरामकृष्ण परमहंसजी ने कहा-‘जल में नाव रहती है, पर जल से ऊपर रहती है। नाव जल में रहे, कोई हर्ज नहीं, पर नाव में जल नहीं आना चाहिए, नहीं तो वह उसे डूबा देगा। उसी तरह भगवद्भक्त संसार में रहे, कोई बात नहीं है; लेकिन उसमें सांसारिकता नहीं आनी चाहिए, नहीं तो वह भक्त को डूबा देगी।’ इसीलिए हमारे गुरु महाराज ने कहा है-
“ अनासक्त जग में रहो भाई ।
दमन करो इन्द्रिन दुखदाई ।।”
साधक का जीवन पवित्र होना चाहिए। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; जबतक इन पंच पापों का त्याग नहीं करेंगे, अपने अंदर पवित्रता नहीं आएगी, उस परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकते। अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करें। परमुखापेक्षी नहीं बनें। पवित्र जीवन जीते हुए साधन-भजन करते रहें, कल्याण होगा।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 20-08-2000 ई0 को साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, दिसम्बर 2008 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
एक माली फुलवारी में खिले-खिले फूलों को तोड़ रहा था। फूलों को तोड़ते देखकर कलियाँ चीत्कार कर रो उठीं। माली ने पूछा-‘मुकुले! मैं फूले-फूले फूलों को तोड़ रहा हूँ, तुमलोगों को कुछ कहता नहीं, छूता तक नहीं, फिर अनावश्यक दुःखी होकर क्यों रो रही हो?’ कलियों ने उत्तर दिया-‘भाई माली! हम सब वर्तमान आज के लिए नहीं, भविष्य-कल के लिए रो रहे हैं। आज जितने हम मुकुल-रूप में हैं, कल सब-के-सब फूल-रूप में हो जाएँगे; तब भाई माली! हम सबको तोड़कर हमारी डाली खाली कर अपनी डाली भर लोगे। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ माली आवत देखकर, कलियाँ करै पुकार ।
फूली-फूली चुनि लई, काल्ह हमारी बार ।।”
यह एक रूपक है। वस्तुतः संसार फुलवारी है। काल-रूप माली जीव-रूप फूलों को तोड़ता है। गुरु नानकदेवजी ने कहा-मानव की लगायी फुलवारी में माली फूले फूलों को तोड़ता है, किन्तु परमात्मा-कृत संसार-रूप फुलवारी में निष्ठुर काल-रूप माली बाल, यौवन, जरा कुछ देखता नहीं, सबका संहार करता है।
“ नहिं बालक नहिं यौवने, नहिं विरधी कछु बन्ध ।
वह अवसर नहिं जानिए, जब आय पड़े यम फन्द ।।”
पहले बच्चा मरेगा या जवान अथवा बूढ़े मरेंगे, कोई ठिकाना नहीं। कितने तो गर्भ में ही मर जाते हैं, मरे हुए जन्म लेते हैं, कितने जन्म लेकर मरते हैं, कितने जन्म लेकर कुछ दिनों, कुछ वर्षों के बाद मरते हैं, लेकिन मरते सभी हैं। बूढ़ों के लिए तो लोग कहा करते हैं कि ये तो आज-कल के मेहमान हैं।
एक बहुत सुन्दर प्रेरक-प्रसंग स्मरण हो आया। सुनिए-गुरु नानकदेवजी महाराज का सत्संग बहुत सवेरे के समय में हुआ करता था। बहुत-से लोग उसमें आते थे। उस सत्संग में अपने पिताजी के साथ पाँच साल का एक लड़का भी आता था। एक दिन गुरु नानकदेवजी महाराज उस लड़के से पूछते हैं-‘ऐ बच्चे! सुनो, जो वयस्क लोग हैं, मैं जो कहता हूँ, वे सुनते हैं और समझते भी हैं, लेकिन तुम इतने छोटे हो, फिर भी इतने सवेरे कैसे सत्संग में चले आते हो? तुम मेरी बातों को क्या कुछ समझते हो?’ उस बच्चे ने उत्तर दिया-‘गुरु महाराज! मेरी माताजी एक दिन रोटी बना रही थी और मैं चूल्हे के नजदीक बैठा हुआ था। मैंने देखा कि जो मोटी-मोटी लकड़ियाँ थीं, वे देर से जलती थीं और जो पतली-पतली टहनियाँ थीं, वे जल्दी जल जाती थीं। मैंने समझा कि जो बड़ी उम्र के लोग हैं, वे मोटी-मोटी लकड़ियाँ हैं, वे देर से मरेंगे और मैं तो पतली टहनी हूँ। क्या ठिकाना, कब मर जाऊँगा। इसलिए मैं गुरु महाराज का सत्संग करने सवेरे-सवेरे आ जाता हूँ।’ उस बच्चे की बात सुनकर गुरु नानकदेवजी बड़े प्रसन्न हुए और बोले-‘अरे! यह बच्चा नहीं, बूढ़ा है।’ गुरु नानकदेवजी के आशीर्वाद से उसकी इतनी लंबी आयु हुई कि उसने आगे के पाँच वा सात गुरुओं को तिलक किए।
क्षणभंगुर जीवन का कोई भरोसा नहीं। इस असार संसार से कब कौन चले जाएँगे, ठिकाना नहीं। काल की चक्की में कौन किस समय पिस जाएँगे, ठिकाना नहीं।
“ काल रूप चक्की चले, सदा दिवस अरु रात ।
अगुन सगुन दुइ पाटला, ता में जीव पिसात ।।
आसे पासे जो रहे, निपट पिसाबे सोय ।
कीला से लागा रहै, ताको विघन न होय ।।”
संत कबीर साहब कहते हैं कि दिन-रात सदा काल की चक्की चल रही है। चक्की में दो पाट होते हैं। एक नीचे का पाट होता है और दूसरा ऊपर का। बीच में एक कील रहती है, जो चक्की चलाते हैं, उस बीच में जो छेद रहता है, उसमें दाने डालते हैं। ऊपरवाला पाट तो घूमता है, पर नीचेवाला स्थिर रहता है। उसी में सभी दाने पिसे जाते हैं। जो दाना कीले से लगा रहता है, वह अक्षुण्ण रह जाता है। उसी तरह काल की जो चक्की चल रही है, उसमें अगुण और सगुण दो पाट हैं, नीचे का पाट अगुण या निर्गुण है, वह स्थिर रहता है, चलता नहीं। ऊपर का पाट सगुण है, जो घूमता रहता है। इन्हीं दोनों के बीच सभी जीव पिसाते हैं अर्थात् मरते हैं, समाप्त होते हैं। दोनों पाटों के बीच जो कील है, वह दोनों की गतिविधि को संतुलित रखती है। अर्थात् सगुण और निर्गुण-इन दो पाटों के बीच में परमात्मा-रूपी कील है। जो उस परमात्मा-रूपी कील को पकड़कर रखता है, वह काल की चक्की में पिसाता नहीं है।
कीला से लागा रहै, ताको विघन न होय ।
संतों का ज्ञान बतलाता है कि परमात्मा- रूपी कील को पकड़ो। फिर काल की दाल तुम्हारे ऊपर नहीं गलेगी। वैराग्यशतक में आया है-
“ यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावच्च दूरे जरा ।
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः ।।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् ।
संदीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ।।”
जबतक हमारा शरीर स्वस्थ है, रोग नहीं आया है और जबतक बुढ़ापा दूर है, तबतक यदि हम लोक बनाना चाहें, तो बना सकते हैं। परलोक बनाना चाहें, तो बना सकते हैं। अथवा योग्यता के अनुकूल हम लोक-परलोक-दोनों बना सकते हैं। अस्वस्थ शरीर में हम न तो लोक बना सकते हैं और न परलोक ही। जिस परमात्म-लक्ष्य को प्राप्त करना है, उसके लिए जवानी के समय स्वस्थ शरीर से उत्साह के साथ लग जाना चाहिए। अन्यथा साधना में सफलता के लिए जितनी देर बैठना अपेक्षित है, बुढ़ापावस्था में बैठ नहीं सकेंगे; क्योंकि उस समय शरीर तो कमजोर हो जाएगा और दुनियाभर का जंजाल दिमाग में घुसा रहेगा। यह करना है, वह करना है, ऐसा करना है, वैसा करना है आदि विविध बातों को सोचने लगेंगे। जीवनभर के कार्य-कलापों की फिल्म मस्तिष्क में बन जाती है। मरते समय वे सब दृश्य सामने आते हैं। इतनी सम्पत्ति इकट्ठी की, जमीन है, जायदाद है, मकान है, दूकान है, कारखाने हैं; इन सबका क्या होगा? बेटा क्या करेगा, वह क्या करेगी, ये कैसे रहेंगे; इन सबका भविष्य क्या होगा, कौन भोगेगा आदि बातों को सोचते-सोचते जीवनलीला समाप्त हो जाती है। पश्चात्ताप के सिवा और कुछ साथ जाता नहीं। शास्त्र कहता है-जबतक इन्द्रियों की शक्तियाँ प्रतिहत नहीं हुई हैं अर्थात् इन्द्रियाँ सशक्त हैं, तभी तक कुछ कर सकते हो। इसलिए जो बनाना चाहो, बना लो। अर्थात् भगवद्भजन कर जीवन बना लो। भगवान बुद्ध ने कहा-
“ अचरित्वा ब्रह्मचरियं अलद्धा योब्बने धनं ।
जिण्णकोञ्चा वा झायन्ति खीणमच्छे व पल्लले ।।”
जिन्होंने जवानी में पूँजी इकट्ठी नहीं की है, ब्रह्मचर्य का पालन नहीं किया है, बुढ़ापे में उसकी वही हालत होती है, जैसे सूखे जलाशय में बैठा हुआ बूढ़ा बगुला। यानी बगुला बूढ़ा हो गया है, वह कहीं जा नहीं सकता और सरोवर सूखा हुआ है, उसमें पानी नहीं है, मछली नहीं है। बेचारा भूखा मर जाता है।
अगर युवावस्था में नहीं चेत सके, तो अब भी चेतो, जबतक तुम्हारी आयु है। अब भी अगर नहीं चेतोगे, तो परिणाम क्या होगा? शास्त्र कहता है-
‘संदीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ।’
जिस तरह किसी के घर में आग लगी हो और वह उसको बुझाने के लिए कुआँ खोदने के लिए गया हो। जबतक वह कुआँ खोदेगा, तबतक उसका घर जलकर समाप्त-भस्मीभूत हो जाएगा। इसलिए जीवन का जो अंश बचा हुआ है, उसका सदुपयोग कर लो। हमारे कल्याणार्थ संत कबीर साहब चेतावनी के साथ अपनी राय भी देते हैं-
“ सुकिरत करि ले नाम सुमिरि ले को जानै कल की ।
जगत में खबर नहीं पल की ।।”
धनोपार्जन करना बुरी बात नहीं है, किन्तु उसको अच्छे कर्मों में लगाओ और भगवद्भजन भी करो। कल क्या होगा, ठिकाना नहीं। इसीलिए ‘शुभस्य शीघ्रम्’ करो।
श्रीराम-रावण युद्धोपरान्त भगवान श्रीराम ने कहा-‘भाई लक्ष्मण! हम दोनों भाई राजा के वंश में जन्म लिए, किन्तु कितने ही दिनों तक जंगल में रहे-कुछ दिनों तक मुनियों के साथ और कुछ दिन राक्षसों से युद्ध करते हुए। विवाहोपरान्त अयोध्या जाने पर पिताजी से कुछ भी राजनीति नहीं सीख सके। विधि के विधानानुसार पितृआज्ञा पालनार्थ हमलोगों को वनवासी होना पड़ा। चौदह वर्षों तक बन्दर और भालुओं का संग रहा। यहाँ से अयोध्या जाने पर राजनीति कौन सिखावेंगे; क्योंकि पिताजी नहीं है। राज-भार सँभालना है, राजनीति जानते नहीं। अतएव लंकापति रावण के पास जाओ, वे राजनीतिज्ञ तथा राजधर्म-कर्म में प्रवीण हैं। अभी शरीर छोड़नेवाले ही हैं। उनसे नीति विषयक जिज्ञासा करो। शास्त्र वचन है कि यदि अमूल्य रत्न कुस्थान में भी हो, तो उसको ग्रहण करना चाहिए।’ भगवान श्रीराम के आदेशानुकूल लक्ष्मणजी लंकापति रावण के निकट पहुँचे। ब्रह्मास्त्र लगने के कारण उस समय वे व्याकुल थे, फिर भी लक्ष्मणजी को देखकर उनके आने का कारण पूछा। लक्ष्मणजी ने उत्तर दिया-‘भाई साहब ने आपसे कुछ नीति सीखने के लिए आप के पास भेजा है।’ रावण ने कहा-‘संसार की ऐसी कौन-सी नीति है, जिसे श्रीराम नहीं जानते हों। तथापि यदि इस दास कि मुख से सुनना चाहते हो, तो एक बार आकर दर्शन देने की कृपा करें; क्योंकि उनके समीप जाने में मैं असमर्थ हूँ। यदि दया करके दर्शन देने के लिए आ जाएँगे, तो जो जानता हूँ, उनके श्रीचरणों में निवेदित करूँगा। लक्ष्मणजी ने श्रीराम से रावण-कथित बातें कहीं। श्रीराम रावण के निकट पहुँचे। तब रावण ने श्रीराम के सम्पूर्ण शरीर को देखकर कहा-‘आप साक्षात् विराट मूर्त्ति सनातन ब्रह्म हैं। आप अनाथों के नाथ, पतितपावन हैं। आप कृपा करके अपना श्रीचरण मेरे मस्तक पर दीजिए। मैं चिरकाल से आपका दास हूँ, केवल शाप के कारण राक्षस कुल में मेरा जन्म हुआ। आप अनादि पुरुष और जगतपति हैं। संसार की समस्त नीति आपको ज्ञात है। मैं आपको क्या कहूँ?’ श्रीराम ने कहा-‘आप जो कहते हैं, ठीक है। फिर भी आपके मुख से कुछ सुनना चाहता हूँ।’ रावण ने कहा-‘हे रघुवंशमणि! सम्प्रति मेरा संदिग्ध जीवन है। मुँह से वचन निःसृत नहीं हो पाता। फिर भी जबतक शरीर में प्राण हैं, तबतक किंचित् नीति श्रवण कीजिए। उत्तम कर्म करने की जिस समय इच्छा हो, आलस्य छोड़कर उसी समय कर लेना चाहिए। आलस्य करने से काम पूरा नहीं होता। हे रघुवंशमणि! उसका प्रमाण सुनिए-
‘एक दिन अपने रथ-द्वारा मैं स्वर्ग से लौट रहा था। मेरी दृष्टि यमपुरी की ओर गई। वहाँ यमदूत पापियों को नरककुण्ड में डुबा-डुबाकर विविध प्रकार की यातनाएँ दे रहा था। पापियों की दुर्दशा देखकर मेरे हृदय में करुणा उमड़ आई। मन में आया कि नरककुण्ड को भरकर पापियों के दुःखों को दूर करूँगा। प्रमादवश वह परोपकार का काम नहीं कर सका। मन का दुःख मन में ही रह गया। उसका दुःख आज भी मेरे मन में है। दूसरी बात यह कि विधाता ने सात समुद्रों की रचना की है। लंकापुरी लवण समुद्र के बीच में है। सभी समुद्रों के जल को उलीच कर फेंक देता और सबको क्षीर समुद्र बना देता। स्वर्ग, मर्त्य, पाताल-सभी मेरे अधीन थे। इस काम को करने में भी मैंने अवहेलना की। इच्छा पूरी नहीं हो सकी। इसलिए हे रघुवंशमणि! जिस शुभ कर्म करने की जब इच्छा हो, उसको तत्क्षण कर लेना चाहिए। अवहेलना करने से कार्य सिद्ध नहीं होगा और भी एक बात सुनिए-जलचर, थलचर, नभचर, नर, नाग, यक्ष, गन्धर्व, भूत-प्रेत आदि ब्रह्मा की सृष्टि में जितने जीव हैं, सबकी इच्छा स्वर्ग जाने की होती है। जिनको दैवी शक्ति प्राप्त है, वे तो जाते हैं, किन्तु जो दैवी शक्ति-विहीन हैं, वे नहीं जा सकते हैं। इसलिए विश्वकर्मा को बुलाकर ऐसा पथ निर्माण कराता, जिससे अनायास ही सभी जीव सुरलोक चले जाते। मर्त्य से स्वर्ग तक सीढ़ी बनवाता, जिससे इस संसार में मेरा पौरुष और अपूर्व कीर्ति रह जाती। चराचर में मेरा यश फैल जाता, लेकिन आपके साथ युद्ध हो गया, काम कर न सका। इसलिए शुभकर्म को शीघ्र करना उत्तम है, अन्यथा वह हो नहीं पाता है।’ श्रीराम ने कहा-‘हे लंकापति! आपने शुभकर्म को शीघ्र करने कहा, यह तो ठीक है। अब पापकर्म के विषय में भी कुछ कहिए-पापकर्म की अवहेलना से क्या होता है और शीघ्र करने से उसकी क्या दुर्गति होती है?’ रावण ने कहा-‘हे रघुवंशमणि! सुनिए, मैंने जीवन में बहुत-से पाप किए हैं। उन सबका वर्णन नहीं हो सकता; क्योंकि आपके प्रहार से शरीर-बल क्षीण हो चुका है। मेरे मन में बहुत-सी कथाएँ हैं, लेकिन एक कथा कहता हूँ, जो प्रत्यक्ष है। जब लक्ष्मण ने शूर्पनखा का नाक-कान काट लिया, तो उसने मेरे पैर पकड़कर रो-रोकर अपना दुःख मुझसे कहा। उसकी बुद्धि के अनुसार मैंने सीता-हरण किया। परिणामतः मेरा सवंश नाश हुआ। एक लाख पुत्र और सवा लाख नाती के साथ मेरी मृत्यु हो गयी। अगर सीता-हरण काम में अवहेलना करता, तो आपके बाण से मेरे वंश का विनाश क्योंकर होता! मेरी मृत्यु किसी काल में नहीं होती। इस प्रकार नीति वाक्य कहते-कहते उनकी जिभ्या जड़ हो गई। श्रीराम के देखते-देखते रावण के प्राण पखेरू उड़ गए।
संत कबीर साहब कहते हैं-भगवद्भजन और शुभकर्मों में टाला-टूली मत करो।
‘टाला टूली दिन गया, व्याज बढ़न्ता जाय ।
ना हरि भज्यो ना खत काट्यो, काल पहुँचा आय ।।’
‘आज करै में काल्ह भजूँगा, काल्ह कहै फिर काल्ह ।
आज-काल्ह के करत ही, औसर जासी चाल ।।’
‘आछे दिन पाछे गए, हरि से किया न हेत ।
अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत ।।’
आज-कल करते-करते जीवनलीला समाप्त हो जाएगी, फिर ऐेसा न कहना कि कुछ कर न सका। क्यों नहीं कर सके, किसी ने मनाही तो नहीं की थी। इसलिए शुभकर्मों के लिए संतों ने कहा है-
“ काल्ह करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब ।
पल में परलय होएगा, बहुरि करैगा कब्ब ।।”
इस जीवन का कोई ठिकाना नहीं है। इसलिए चाहिए कि सदाचार समन्वित होकर शुभकर्मों को करते हुए नित्य-नियमित रूप से भजन-सत्संग कर अपने मानव-जीवन को कल्याणमय बनाएँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 27-8-2000 ई0 को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, दिसम्बर 2000 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
मनुष्य का शरीर कर्म-प्रधान है। प्रत्येक व्यक्ति अपने ही कर्मफल के रूप में सुख और दुःख भोगता है। भगवान् बुद्ध ने कहा है-
“ मनो पुब्बंगमा धम्मा मनो सेट्ठा मनोमया ।
मनसा चे पदुट्ठेन भासति वा करोति वा ,
ततो नं दुक्खमन्वेति चक्कं’व वहतो पदं ।।”
अर्थात् मन सभी प्रवृत्तियों का अगुआ है, मन उसका प्रधान है और वे मन से ही उत्पन्न होती हैं। यदि कोई दूषित मन से वचन बोलता है या पाप करता है, तो दुःख उसका अनुसरण उसी प्रकार करता है, जिस प्रकार कि चक्का, गाड़ी खींचनेवाले बैलों के पैर का।
कर्म करनेवाला मन ही है। हम कर्म तीन तरह से करते हैं-मन से, वचन से और क्रिया से। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
“ तुलसी यह तन खेत है, मन वच कर्म किसान ।
पाप पुन्य दोइ बीज है, बुये सो लुनै निदान ।।”
कृषक खेती करते हैं, जोतते हैं, कोड़ते हैं और बीज बोते हैं। जो बीज बोते हैं, समय पाकर वे तद्नुरूप फल देते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं-हमलोगों का शरीर खेत है। मन, कर्म और वचन किसान हैं। शरीररूपी क्षेत्र में पाप-पुण्य रूपी दो बीज बोते हैं- शुभ या अशुभ कर्म का बीज बोते हैं। जैसे हम खेत में गेहूँ बोते हैं, तो गेहूँ काटते हैं। कितना काटते हैं? यदि हम एक मन बोते हैं, तो एक ही मन काटते हैं? नहीं, एक मन बोते हैं, तो कितने ही मन काटते हैं। एक गुठली लगाते हैं, तो पौधा होता है, पेड़ बनता है और फल लगते हैं। तो एक के बदले अनेक आपको मिलते हैं। उसी तरह हम जो कर्म करते हैं, तो एक के बदले कितना गुणा हो जाता है, चाहे पाप करो या पुण्य करो। पाप का फल दुःख होता है और दुःख भोगना लोग नहीं चाहते। इसलिए संत जन कहते हैं कि यदि दुःख नहीं भोगना चाहते हो, तो पाप कर्म मत करो। आग में अंगुली डालो और जलो भी नहीं, यह कैसे होगा?
देहात की बात है। किसी व्यक्ति ने एक बच्चे से पूछा-‘तुम्हारे पिताजी कहाँ हैं?’ तो उसने कहा-‘उन्हें एक कुत्ता ने काट लिया है, वे इलाज कराने गए हैं।’ व्यक्ति ने पूछा-‘कुत्ता ने क्यों काटा?’ बच्चा बोला-‘वे कुत्ते का बधिया करने गए थे, कुत्ता तो काटेगा ही।’
कर्मानुसार फल तो मिलना ही है, आज मिले या कल। इसलिए पाप कर्म तो हम करें ही नहीं। पुण्य अवश्य करें। वह स्वाभाविक ही कई गुणा होकर आपको मिलेगा।
भगवान ने जब शिशुपाल का वध किया, तो उनकी अंगुली कट गई। वे द्रौपदी के पास गए। द्रौपदी ने भगवान की अंगुली से रक्त निकलते देखा, तो उसने शीघ्र ही अपनी साड़ी को फाड़कर उसका टुकड़ा भगवान की अंगुली में लपेट दिया। भगवान ने द्रौपदी से कहा-‘तुमने अपनी साड़ी फाड़कर मेरी मदद की है। मैं भी कभी साड़ी से तुम्हारी रक्षा करुँगा।’ द्रौपदी मन-ही-मन हँसती हुई सोचने लगी कि मैं तो नौकरानी, दाई आदि को साड़ी और कपड़ा बाँटती रहती हूँ, मुझे ये क्या साड़ी देंगे!
जब जुआ में युधिष्ठिर राज-पाट के साथ द्रौपदी को भी हार गए, तब दुर्योधन ने दुःशासन से कहा-‘द्रौपदी अब हमारी हो गई, उसे सभा में ले आओ।’ दुःशासन द्रौपदी को लाने के लिए गया। द्रौपदी कहने लगी-‘मैं एकवस्त्र हूँ, रजस्वला हूँ, मुझे सभा में मत ले जाओ।’ दुष्ट दुःशासन द्रौपदी की इच्छा नहीं रहते हुए भी घसीटते हुए सभा में ले गया और उसकी साड़ी खींचने लगा। दुःशासन की भुजाओं में दस हजार हाथी का बल था। वहाँ कर्ण, द्रोण, भीष्म आदि बैठे थे, पर उनके मुँह से ‘चूँ’ नहीं निकला। पाँचो पति तो उसको हार ही चुके थे।
राजसूय यज्ञ में युधिष्ठिर के यहाँ ऐसा सभागार बना था कि जहाँ जमीन थी, वहाँ पानी मालूम पड़ता और जहाँ पानी था, वहाँ सूखी जमीन मालूम पड़ती थी। दुर्योधन जब उसे देखने गया तो जहाँ सूखी जमीन थी, वहाँ उसने धोती उठाई और जहाँ पानी था, वहाँ जाकर भींग गया। यह देख द्रौपदी ने कह दिया- ‘अंधे का बेटा अंधा।’ इसीसे दुर्योधन के मन में प्रतिशोध की आग जल रही थी। जब सभा में साड़ी खींची जा रही थी, तो उसने कहा-‘द्रौपदी! यहाँ तो सब अंधे हैं, लोग क्या देखेंगे! तब द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण को पुकारा-
“ दुःख हरो द्वारिकानाथ शरण मैं तेरी ।
बिनु काज आज महाराज लाज गई मेरी ।।
दुःशासन वंश कुठार महादुःखदाई ।
कर पकड़त मेरी चीर लाज नहीं आई ।।
करि-करि विलाप सन्ताप सभा में टेरी ।
दुःख हरो द्वारिकानाथ शरण मैं तेरी ।।”
जिसका कोई नाथ नहीं, जो अनाथ हैं, उसके नाथ दीनानाथ होते हैं। द्वारिकानाथ भगवान ने द्रौपदी की पुकार सुनी और साड़ी से उसकी मदद की। खींचते-खींचते साड़ी का पहाड़ लग गया, पर साड़ी समाप्त नहीं हुई। कृष्ण को द्रौपदी ने कितना कपड़ा दिया था और उसके बदले कितना गुणा मिला! उसी तरह हम जो शुभ या अशुभ कर्म करते हैं, तो वह कई गुणा होकर मिलता है। अशुभ कर्मों का फल दुःख कोई भोगना नहीं चाहता है, इसलिए शुभ कर्म ही करना चाहिए। शुभ कर्म करने में भी देर नहीं करनी चाहिए; क्योंकि यह शरीर कब विनाश को प्राप्त हो जाएगा, ठिकाना नहीं। संत कबीर साहब का वचन है-
“ सुकिरत करिले नाम सुमिरि ले,
को जानै कल की, जगत् में खबर नहीं पल की ।”
यह जीवन ऐसा है कि सुख और दुःख लगा ही रहता है। सहजोबाई कहती हैं-
“ जैसे सड़सी लौह की, छिन पानी छिन आग ।
तैसे सुख दुख जगत के, सहजो तू मत पाग ।।”
लोहे की सँड़सी को पहले अग्नि में देकर लाल किया जाता है, फिर पानी में दिया जाता है। उसी तरह संसार में रहोगे, तो कभी सुख और कभी दुःख भोगना ही पड़ेगा। कैसे भोगेगा? तो सूरदासजी कहते हैं-
“ ताते सेइये यदुराई।
सम्पति विपति विपति सों सम्पति, देह धरे को यहै सुभाई ।
सरवर नीर भरै पुनि उमड़ै, सूखे खेह उड़ाई ।।
द्वितीय चन्द्र बाढ़त ही बाढ़े, घटत घटत घटि जाई ।
सूरदास सम्पदा आपदा, जिनि कोऊ पतियाई ।।”
कई महीने पूर्व पेड़ों में आम के फल लगे थे, अब नहीं हैं। नदियाँ कभी उमड़ती हैं, कभी उनमें धूल उड़ती है। द्वितीया का चन्क्त बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमा के रूप में सामने आता है। फिर घटते-घटते अमावस्या आती है, इसलिए सूरदासजी कहते हैं कि सांसारिक सुख-दुःख का विश्वास कोई मत करो कि यह सदा एक- सा रहेगा। इसलिए ईश्वर की भक्ति करो और शुभ कर्म करो। जीवन में जो भी सुख-दुःख आवे, उसे प्रभु का प्रसाद जानकर सहन करो। इससे तुम्हारा पूर्व कृत कर्म-फल घटेगा। फिर भगवद्भजन करके परमात्मा को प्राप्त करोगे।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर दिनांक 03-09-2000 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मार्च 2007 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
सभा में बहुत से वक्ता उपदेश करते हैं, पर सबकी वाणी में समान प्रभाव नहीं होता। स्वामी रामकृष्ण परमहंसजी महाराज से किसी व्यक्ति ने जिज्ञासा की कि पहले के जितने संत-महात्मा हुए हैं उन महात्माओं ने जो-जो बातें कही हैं, आज के महात्मा भी वही बात कहते हैं, फिर भी जो प्रभाव उनकी वाणी में होता था, आज के महात्माओं की वाणी में वह प्रभाव नहीं देखा जाता है। ऐसा क्यों?
रामकृष्ण परमहंसजी ने उत्तर दिया-गिद्ध और चील दोनों आकाश में बहुत ऊपर उड़ते हैं, पर उनकी नजर लाशों की खोज पर ही रहती है। उसी तरह आज के महात्मा कहते तो वही बातें हैं, पर उनका मन विषय-वासनाओं में लगा रहता है, इसलिए उनकी वाणी का वैसा प्रभाव नहीं पड़ता है।
भगवान बुद्ध ने कहा है-‘सदाचारी व्यक्ति जब सभा में कुछ बोलते हैं तो श्रोताओं पर उसका प्रभाव पड़ता है।’ जो विकारों से दूर रहते हैं, वे सम्मानित होते हैं। लोग जानते तो थोड़ा हैं, पर समझते हैं कि वे बहुत जानते हैं। यह अहंकार है। जिसने अपने ऊपर अहंकार का अलंकार पहन लिया है, उनका सुधार तो दूर, संहार अवश्य होता है। भगवान ने कहा है-‘सत्यमेव जयते।’ सत्य की विजय और असत्य की पराजय होती है। इतिहास इस बात का साक्षी है।
सतयुग में हिरण्यकश्यपु एक राजा हुए। उनके बेटे का नाम था, प्रह्लाद। वह बड़ा भक्त था, भगवान का नाम लेता था। ‘भगवान तो मैं ही हूँ। सब हमारे वश में हैं। तुम मुझपर विश्वास नहीं करके दूसरे का नाम क्यों लेते हो?’-हिरण्यकश्यपु ने पूछा। पुत्र ने उत्तर दिया- ‘आप मेरे पिता हैं, भगवान नहीं।’ उसने सदा भगवान को पकड़कर रखा। पिता ने बहुत यातनाएँ दीं, वह सब सहता गया। अन्ततः जान मारने की चेष्टा भी की पर-
‘जाको राखे साइयाँ, मार सकै नहिं कोय।’
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-‘योगक्षेमं वहाम्यहम्।’ अर्थात् मैं अपने भक्तों का योगक्षेम करता हूँ। जो भक्त प्रह्लाद को मारना चाहते थे, भगवान ने उसे मृत्यु के हवाले कर दिया। हिरण्यकश्यपु के अहंकार का संहार हो गया।
त्रेता में रावण इतना प्रतापी राजा हुआ कि उससे यक्ष, नर, किन्नर, गंधर्व की कौन कहें देव-दानव भी थर-थर काँपते थे। वह विद्वान एवं बहुत बड़ा पंडित था। उसके पास धन तो इतना था कि-‘सोने के महल, रूपे के छाजा।’
आज किसी के पास लाख-दस लाख रुपये आ जाते हैं तो वह कहता है कि बहुत है, पर उसका महल ही सोने का था। विषयी रावण ने अहंकार में पर-नारी का अपहरण कर लिया। भगवान श्रीराम ने अपनी अर्धांगिनी सीता की खोज में हनुमान को भेजा। हनुमान ने पता लगा लिया कि रावण ने अशोक वाटिका में माता सीता को कैद कर रखा है। लंका में उन्होंने फल खाने के बहाने वाटिका को तहस-नहस कर दिया। रावण का पुत्र अक्षय कुमार हनुमान को मारने गया, पर उसी का मरण हो गया। हनुमानजी को बुलाकर रावण ने बात-चीत की। हनुमानजी ने रावण को बहुत तरह से समझाया, पर रावण ने उनकी एक बात न सुनी। परिणामतः लंकापुरी जलकर स्वाहा हो गयी। फिर भी रावण ने नहीं समझा। भगवान श्रीराम ने अंगद को रावण के पास भेजा। रावण का अभिमान इतना बढ़ा हुआ था कि उसने उनकी बात भी नहीं मानी। परिणाम स्वरूप राम के साथ ऐसा युद्ध हुआ कि ‘रहा न कुल कोई रोवनहारा।’
जो धर्माचरण को छोड़कर अधर्म धारण करते हैं, उनका मरण होता है। द्वापर में कंस हुआ, दुर्योधन हुआ। दुर्योधन भी बड़ा घमंडी था। दूसरे का उत्कर्ष देखना नहीं चाहता था। द्युत- क्रीड़ा में उसने छल से पांडवों का सम्पूर्ण धन जीत लिया। फिर उन्हें बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास में भेज दिया। शर्त यह थी कि इसके बाद दुर्योधन पांडवों को उनका राज्य सौंप देगा। पांडवों को कृष्ण की कृपा प्राप्त थी। तेरह वर्ष बाद जब वे आए तो भगवान श्रीकृष्ण दुर्योधन को धर्म-अधर्म की बात समझाने के लिये गए, ताकि पांडवों को राज्य वापस मिल जाए। पर दुर्योधन ने यह कहकर उनकी बातें मानने से इन्कार कर दिया-
“ जानामि धर्मं न च मे प्रवृतिः
जानामिऽधर्मं न च मे निवृत्तिः ।
केनापि देवान् हृदस्थितेन
यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ।।”
अर्थात् हे कृष्ण! आप क्या धर्म-अधर्म समझाते हैं। मैं धर्म की बातें जानता हूँ, पर उस ओर मेरी रुचि नहीं है। मैं अधर्म भी जानता हूँ, पर उस ओर से मेरी निवृत्ति नहीं है। मेरे अंदर कोई देवता बैठा हुआ है, वह जैसा नियुक्त करता है, मैं वैसा ही करता हूँ।
उसके अन्दर देवता बैठा था कि दानव, यह विचार करने की बात है। कृष्ण की बात उसने नहीं मानी। फलतः युद्ध हुआ। इधर पाँच भाई और उधर एक सौ भाई। इधर सात अक्षोहिनी सेना और उधर ग्यारह अक्षोहिनी, पर जब युद्ध हुआ तो कौरवों का सर्वनाश हो गया।
भगवान श्रीराम ने माता कौशल्या के गर्भ से प्रकट होकर उन्हें अपने विराट् रूप का दर्शन कराया। उनके रोम-रोम में कोटि-कोटि ब्रह्मांड थे। अब सोचिए कि एक ही ब्रह्मांड कितना बड़ा है! एक ब्रह्मांड यह है, जिसमें हम रहते हैं। इसके दो भाग हैं। पहला आकाश मंडल और दूसरा भूमंडल है। आकाश मंडल में देखिए कितने ग्रह, तारे, नक्षत्र आदि हैं। यह पृथ्वी भी एक ग्रह है। इस पृथ्वी में भी सात महादेश हैं, जिसमें एक महादेश एशिया है। फिर उस महादेश में अनेक देश हैं। एक देश भारत है। भारत में भी अनेक राज्य हैं। उन राज्यों में बिहार एक राज्य है। बिहार में भी अनके जिले हैं, जिनमें भागलपुर एक है। भागलपुर जिला में अनेक गाँव-मुहल्ले हैं। उनमें हमारा एक गाँव है। हमारे एक गाँव में अनेक घर-परिवार हैं, जिनमें हमारा भी एक घर है। हमारे घर में कई कमरे हैं। एक हमारा कमरा है। उस कमरे में एक चौकी है, जिसपर हम करवट बदलते हैं। उसी में इतना घमंड! जरा सोचिए हमारी क्या हैसियत है। अहंकार विनाश का कारण बनता है। अपने को विनम्र बनाकर रखो, छोटा बनाकर रखो। गुरु नानकेदवजी कहते हैं-
“ नानक नन्हा होय रहो, जैसे नन्हीं दूब ।
बड़े-बड़े बिरखी गिर गये, दूब खूब की खूब ।।”
कबीर साहब का वचन है-
“ ऊँचे-ऊँचे सब चले, नीचा चले न कोय ।
कह कबीर नीचा चले, सबसे ऊँचा होय ।।”
भागलपुर के आई0जी0कटारिया साहब जब यहाँ से बदली होकर जा रहे थे, उसी दिन वे मुझसे भेंट करने के लिए आए। अध्यात्म में आस्था रखनेवाले थे। कुछ पूजा-पाठ भी करते थे। इसी संबंध में बातचीत चली। मैंने कहा-‘श्रीकृष्ण ने ध्यान करने के लिये बतलाते हुए कहा है कि सिर, गर्दन, मस्तक को स्थिर करके बैठो और किसी दिशा को न देखते हुए नासाग्र में देखो।’ उन्होंने पूछा-‘किसी दिशा को न देखें तो कैसे देखें?’ मैंने उत्तर दिया-इसी रहस्य को जानना तो दीक्षा है।’
हमारी दसों इन्द्रियाँ बहिर्मुखी बनी हुई हैं। जबतक हम दसों इन्द्रियों का दास होकर दसो दिशाओं में चक्कर काटते रहेंगे तो हमारी दुर्दशा होती रहेगी। इसलिए दस के अतिरिक्त ग्यारहवीं दिशा को जानें। वह हमारे अंदर है और वही कल्याण की दिशा है। इसलिये सच्चे सद्गुरु से युक्ति जानकर अपने भीतर चलें। पहले अपनी पहचान होगी, फिर ईश्वर की। सहजोबाई ने कहा है-
‘आपुन ही कूँ खोज, मिलै जब राम स्नेही।’
पहले अपने आप को खोजो, तब परमात्मा को जानोगे। किसी शायर ने कहा है-
“ इबादत है किसी नाशाद को फिर शाद कर देना ।
इबादत है किसी बर्बाद को आबाद कर देना ।।
यही सीखा है सागर हमने मुर्शद के कदम छूकर ।
खुदा से हो अगर मिलना पता खुद का लगा लेना ।।”
जबतक खुद का पता नहीं होगा, खुदा का पता नहीं होगा। हम कहाँ हैं? अपने भीतर हैं। अपने को कैसे खोजेंगे? बाहर की चीज आँखें खोलकर देखते हैं, तो अंदर की चीज को आँखें बंदकर देखिए। आँखें बंद करते हैं, तो कहते हैं कि कुछ सूझता नहीं। अंधकार में सूझेगा कैसे? इसी अंधकार में हम पडे़ हुए हैं।
“ तू उतर पर्यो तम माँहि, पीव निःशब्द में ।
यहि तें परि गयो दूर, चलो निःशब्द में ।।”
(महर्षि मेँहीँ पदावली)
तुम निःशब्द से उतरकर अंधकार में आ गए हो। उलटकर पुनः निःशब्द में चलो, वहीं परमात्मा से भेंट होगी। कैसे चलोगे? जो जहाँ बैठा रहता है, वह वहीं से चलता है। हम अंधकार में बैठे हैं तो वहाँ से ही चलना होगा।
“ नयन कमल तम माँझ से पंथहिं धारिये ।
सुनि धुनि ज्योति निहारि के पंथ सिधारिये ।।”
(महर्षि मेँहीँ पदावली)
इसी अंधकार में रास्ता है। जबतक चलेंगे नहीं तबतक तम, प्रकाश और शब्द की कोठरी पार नहीं कर पाएँगे।
“ तम प्रकाश अरु शब्द निःशब्द की कोठरी ।
चारो कोठरिया अहइ अन्दर घट कोट री ।।”
दृष्टियोग क्रिया के द्वारा अंधकार को पारकर प्रकाश में जाओगे, जहाँ अनेक प्रकार के शब्द सुनोगे। इन अनहद शब्दों को पारकर चेतन शब्द-सारशब्द मिलेगा। इसी के सहारे चलते हुए निःशब्द में पहुँचोगे, जहाँ परमात्मा से मिलन होगा। इस ध्यान-साधना के लिए जीवन की पवित्रता अति आवश्यक है। गुरुनानक देवजी महाराज कहते हैं-
“ सूचै भाड़ै साचु समावै विरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइया नानक शरणि तुमारी ।।”
संत तुलसी साहब ने कहा है-
“ दिल का हुजरा साफ कर, जाना के आने के लिए ।
ध्यान गैरों का उठा, उसको बिठाने के लिए ।।”
पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है, पर हमारा अन्तःकरण पवित्र नहीं है, हमारी कोई इन्क्तिय पवित्र नहीं है। हम अपवित्र चीजें ग्रहण करते रहते हैं। इस तरह परमात्मा की ओर नहीं चल सकते। विषय-भोग से अपने मन को हटाकर सत्संग-भजन में लगाइये और नियमित रूप से ध्यान साधना कीजिए, कल्याण होगा। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर दिनांक 10-09-2000 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मई 2008 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आज विश्वकर्मा पूजा का दिन है, जानकर प्रसन्नता हुई। मेरे विचार में आज ही क्यों, विश्वकर्मा पूजा तो प्रतिदिन होना चाहिए और जितना हो सके, अधिक-से-अधिक करना चाहिए। ‘विश्वकर्मा’ शब्द के अनेक अर्थों में एक अर्थ सृष्टि का ‘रचयिता’ भी होता है। सृष्टि के रचयिता परम प्रभु परमात्मा हैं। परमात्मा की सृष्टि में जिस ओर दृष्टि कीजिए, उनकी अनंतता का बोध होगा। उनकी महिमा अपरम्पार है। बचपन में जब मैं चतुर्थ वर्ग में पढ़ता था, तो पाठड्ढक्रम में मैंने ईश्वर-महिमा के संबंध में एक बड़ी अच्छी कविता पढ़ी थी। वह आज तक मुझे याद है-
“ ध्यान लगाके जो देखो तुम, सृष्टि की सुधराई को ।
बात बात में पाओगे उस ईश्वर की चतुराई को ।।
ये सब भाँति भाँति के पक्षी ये सब रंग रंग के फूल ।
ये वन की लहलही लता नव ललित ललित शोभा के मूल ।।
ये नदियाँ ये झील सरोवर कमलों पर भौंरों की गूँज ।
बड़े सुरीले बोलों से अनमोल घने वृक्षों के कुँज ।।
ये पर्वत की रम्य शिखा और शोभा सहित चढ़ाव उतार ।
निर्मल जल के सोते झरने शोभा सहित महाविस्तार ।।
षट् प्रकार की ऋतु का होना नित नवीन शोभा के संग ।
पाकर काल वनस्पति फलना रूप बदलना रंग-विरंग ।।
चाँद सूर्य की शोभा अद्भुत बारी से आना दिन-रात ।
त्यों अनंत तारा मंडल से सज जाना रजनी का गात ।।
लर्जन गर्जन घन मंडल का बिजली वर्षा का संचार ।
जिसमें देखो परमेश्वर की लीला अद्भुत अपरम्पार ।।”
एक जमाना था, जबकि परमात्मा या ईश्वर के नाम पर लोग हिंसात्मक यज्ञ किया करते थे। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ अजामेध गोमेध जग, नरमेधू असमेध ।
कहै कबीर अधर्म को, धर्म बतावत वेद ।।”
इसलिए भगवान बुद्ध ने अपने वचन में परमात्मा या ईश्वर शब्द का प्रयोग नहीं किया हैं उन्होंने ईश्वर को ‘गहकारक’ यानी गृह का निर्माणकर्ता कहकर संबोधित किया; यथा-
“ अनेकजातिसंसारं संघाविस्सं अनिब्बिसं ।।
गहकारक गबेसन्तो दुक्खा जाति पुनप्पुनं ।
गहकारक दिट्ठोसि पुन गेहं न काहसि ।।
सब्बा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसंखितं ।
विसंखारगतं चित्तं ताण्हानं खयमज्झगा ।।”
अर्थात् निरन्तर अनेक जन्मों तक मैं शरीर- रूपी गृह के निर्माण करनेवाले की खोज में भटकता रहा। बार-बार का जन्म दुःख का कारण हुआ। ऐ गृह के निर्माण करनेवाले! मैंने तुम्हें देख लिया। अब तुम घर नहीं बना सकते। सभी कड़ियाँ टूट भग्न हो चुकीं। गृह का शिखर टूट गया, चित्त संस्कार-रहित हो गया, तृष्णाओं का क्षय हो गया।
इस शरीररूपी घर के संबंध में एक भक्त ने बड़ा अच्छा कहा है, ‘हे परमात्मा! आपने मुझको चौरासी लाख प्रकार के कपड़ों को पहनाकर अपने रंगमंच पर मुझसे नृत्य करवाया है। अगर आप मेरे नृत्य से प्रसन्न हैं, तो मुझे मुक्ति का वरदान दीजिए और यदि अप्रसन्न हैं, तो कह दीजिए कि तुम मेरे रंगमंच पर कभी मत आना।’
भगवान बुद्ध कहते हैं कि तृष्णाओं का क्षय हो गया है, अब तुम घर नहीं बना सकते। तृष्णाओं का क्षय कैसे होता है, वह आती कहाँ से है? मन से उत्पन्न होती है। जबतक मन को शांत करने की क्रिया नहीं जानेंगे, मन को शांत नहीं कर लेंगे, तबतक अशांत मन से तृष्णाओं का नाश नहीं होगा। आज इससे लड़ाई, कल उससे झगड़ा, इससे राग, उससे रोष; जिसके हृदय में राग की आग जल रही है, वह कहीं भी भागकर क्यों न जाए; लेकिन शांति नहीं मिलेगी।
भगवान बुद्ध का वचन है, ‘उसने हमको मारा, उसने हमको गाली दी, उसने हमको लूट लिया, उसने हमको हरा दिया; जो ऐसी बातें मन में लाते रहते हैं, उनका वैर कभी शांत नहीं होता।’ पुनः उन्होंने कहा, ‘उसने हमको मारा, उसने हमको गाली दी, उसने हमको लूट लिया, उसने हमको हरा दिया; जो ऐसी बातें मन में नहीं लाते, उनका वैर शांत हो जाता है।’
“ न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचनं ।
अवेरेन च सम्मन्ति एस धम्म सनन्तनो ।।”
(धम्मपद)
वैर से वैर कभी शांत नहीं होता। वैर अवैर से शांत होता है। इसलिए वैर को वैर से नहीं, अवैर से यानी मित्रता से हम जीतकर शांति लाभ कर सकते हैं।
जो लोग नित्यप्रति अनेक व्यक्तियों से मिलते हैं, उनसे बातें करते हैं; वे जब ध्यान करने के लिए बैठते हैं, तब किसने क्या बातें कहीं, वे सब बातें मन में आने लगती हैं। उनके प्रति प्रिय और अप्रिय भावना मन में उत्पन्न होने लगती हैं। ऐसी स्थिति में वह ध्यान क्या करेगा? यही कारण है कि लोग जंगल में जाकर शांत-एकांत स्थान में ध्यान करते थे। यदि माया-संग्रह करने से ही शांति मिल जाती, तो भगवान बुद्ध और भगवान महावीर ने अपना राजपाट, धन-दौलत, पत्नी-पुत्र, परिवार आदि को क्योंं छोड़ा? और तो और हमारे परम पूज्य गुरुदेव ने अपने परिजन-धन को परित्याग कर यहाँ की गुहा में शांत-एकांत बैठकर ध्यान करने की आवश्यकता क्यों समझी! बात यह है कि शांत-एकांत जगह में वा जंगल में जाकर ध्यान करने से वहाँ किसी से बातचीत नहीं होती है। न किसी से प्रीति और न किसी से वैर होता है, जिसको ध्यान-भजन करने का शौक है, वह अपने को शांत-एकांत में रखेगा, तभी वह साधना कर सफलता प्राप्त कर सकता है। श्रीरामकृष्ण परमहंसजी ने कहा है, ‘पहले कुछ दिनों तक एकांत में बैठकर ध्यान करना सीखो। पूरा अभ्यास हो जाने पर फिर जहाँ-तहाँ बैठकर भी ध्यान कर सकोगे। पेड़ जब छोटा रहता है, तब उसको घेरा लगाकर रखना पड़ता है, नहीं तो गाय-बकरियाँ चर जाएँ। जब वह पेड़ पूरा बढ़ जाता है, तब फिर उसमें दस-दस गाय-बकरियाँ बँधी रहने से भी उसका कुछ नहीं बिगड़ सकता। इसलिए ध्यान करना मन में, वन में और कोने में।’
इसमें संदेह नहीं कि संस्कार-विशेष व्यक्ति की बात दूसरी है, फिर भी सामान्य जन के लिए उस तरह का एकांत स्थान नहीं मिलने पर भी कुछ-न-कुछ भजनाभ्यास अवश्य करना चाहिए। नहीं कुछ करने से कुछ करना तो अच्छा है ही। हमारे पड़ोस में बंगाल प्रांत है। वहाँ के लोग कहा करते हैं-
‘ना मामू थाकले काना मामू भालो।’
लेकिन जिसको लक्ष्य प्राप्त करना है, उसको तो मनोयोगपूर्वक भजन करना होगा और आवश्यक त्याग भी करना होगा।
जिस तरह सरोवर-जल में स्नान करने के लिए उसमें जो काई होती है, उसे हटाकर तब डुबकी लगाते हैं, उसी तरह मन में जो विकार है, उसे हटाना होगा। जैसे-जैसे मन साफ होगा, वैसे-वैसे प्रभु की परिछाईं पड़ेगी। श्रावण-भाद्रपद महीने में नदी का पानी देखिये, कितना गंदला होता है, उसमें परछाईं नहीं पड़ती है। कुछ महीनों के बाद जैसे-जैसे पानी साफ होता जाता है, वैसे-वैसे परछाईं दीखती हैं। होते-होते जब सारी मिट्टी नीचे बैठ जाती है, तो जल बिल्कुल स्वच्छ हो जाता है और तब चेहरा स्पष्ट देखने में आने लगता है। उसी तरह जबतक हमारा मन मल से युक्त है, तबतक प्रभु की परछाईं से नहीं मिलेगी, दर्शन तो दूर की बात है, कहाँ से होगा! इसलिए हम अपने मन से राग-रोष, द्वेषादि विकारों को दूर करें।
गुरुदेव एक कथा कहा करते थे। एक राजा था। उसका नाम था-दीर्घती। दीर्घती के ऊपर किसी दूसरे राजा ने चढ़ाई कर दी। घनघोर युद्ध के पश्चात् राजा दीर्घती की हार हो गयी। वह अपनी पत्नी और लड़के के साथ छप्र वेश में वहाँ से भाग गया। उसके लड़के का नाम दीर्घायु था। तीनों वेश बदलकर जंगल के किनारे एक झोपड़ी बनाकर रहने लगे। दीर्घायु नौजवान, बुद्धिमान और ज्ञानवान था; लेकिन वह अपना उत्कर्ष दिखलाता तो पकड़ा जाता, इसलिए जंगल की लकड़ियों को काट- काटकर बेचता और उससे जो पैसे मिलते, उससे तीनों का गुजारा होता। राजा दीर्घती के शत्रु-राजा ने गुप्तचरों द्वारा उसकी खोज की और राजा दीर्घती पत्नी के साथ पकड़ा गया। उस समय दीर्घायु लकड़ी बेचने गया था, इसलिए वह बच गया। सिपाहियों ने राजा दीर्घती और उनकी पत्नी को राजदरबार में उपस्थित किया। राजा ने सोचा कि यह मेरा दुश्मन है, कभी-न- कभी अपना वैर चुकाएगा। इसलिए इसकी जीवन-लीला समाप्त कर देना ही अच्छा है। राजा दीर्घती और उसकी पत्नी को सजा सुना दी गयी कि कल दस बजे दिन में उनको फाँसी दी जाएगी। निश्चित समय पर नगर के हजारों लोग उस दृश्य को देखने के लिए इकट्ठे हो गए। जब दीर्घायु को यह बात मालूम हुई, तो उस भीड़ में वह भी आकर कहीं खड़ा हो गया। फाँसी पर लटकाए जाने के पहले राजा दीर्घती ने कहा, “ बेटा दीर्घायु! यदि तुम कहीं हो तो सुनो-‘जल्दी मत करना; देर तक मत रखना; वैर को वैर से नहीं, प्रेम से जीत सकते हो।” तीन बार ऐसा कहा। उसके बाद राजा दीर्घती को फाँसी पर लटका दिया गया। फिर रानी को भी फाँसी की सजा दे दी गयी। बेचारा दीर्घायु करे तो क्या करे। उसका राजपाट, धन-दौलत तो चला ही गया था; माँ-बाप का सहारा भी छिन गया। वह संगीत कला में कुशल था। वीणा लेकर घूम-घूमकर गीत गाता, लोग उसे खिला-पिला देते। इस प्रकार वह अपना जीवन-निर्वाह करता। एक बार घूमते-घूमते उसी राजा के घोड़े के दारोगा के यहाँ चला गया। दारोगाजी संगीत के प्रेमी थे। उसके गाने को सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए और बोले तुम इधर-उधर कहाँ भटकते हो, यहीं मेरे पास रहो। जब-जब मैं गाना सुनाने कहूँ, तब-तब मुझे सुनाया करना। दीर्घायु वहीं रहने लग गया। खाता-पीता और गाना सुनाता। एक रात दारोगाजी के आदेश पर वह वीणा बजाकर गाना गा रहा था। उस रात राजा को नींद नहीं आ रही थी, वे अपने महल की छत पर टहल रहे थे। लय-सुर-तान के साथ सुरीली आवाज उनके कानों में पड़ी, तो वे मुग्ध हो गये। सवेरा होते ही उन्होंने दारोगाजी को बुलवाया और पूछा, ‘तुम्हारे यहाँ रात में कौन गाना गा रहा था?’ दारोगाजी ने उत्तर दिया, ‘एक लड़का आया हुआ है, वही गाना गा रहा था।’ राजा ने कहा, ‘उसे मेरे पास भेज दो।’ दारोगाजी ने लड़के को राजा के पास भेज दिया। अब वह राजा के पास रहने लगा। राजा को गा-गाकर संगीत सुनाता, उनका मनोरंजन होता। राजपुत्र तो वह था ही। राजा ने कहा, ‘देखो जी! तुम सिर्फ गाना ही गाते हो, कुछ और काम करो।
राजा ने उसे कुछ और काम करने को दिया। उसने उस काम को बड़ी कुशलता से सम्पन्न कर दिखाया। राजा प्रसन्न होकर उसे कुछ ऊँचे पद पर दे दिया। जैसे-जैसे वह काम कुशलतापूर्वक करता जाता, राजा उसे ऊँचे-ऊँचे पद देता जाता। होते-होते राजा ने उसे अपना अंगरक्षक बना लिया। अब राजा जहाँ जाता, वह उसके साथ जाता। जैसे घोड़े की सवारी राजा की होती, वैसे उसकी भी होती। खाना-पीना सब वैसा ही हो गया। एक दिन राजा जंगल में शिकार खेलने के लिए गया। राजा ने एक शिकार के पीछे अपना घोड़ा दौड़ाया। दीर्घायु भी उनके साथ था। जाते-जाते घनघोर जंगल में पहुँच गये। राजा बूढ़ा हो गया था। उन्होंने दीर्घायु से कहा, ‘मैं बहुत थक गया हूँ, थोड़ी देर आराम करने के बाद ही घर लौटूँगा।’ दीर्घायु ने कहा, ‘यहाँ तो आराम करने का कोई साधन नहीं है। खैर, आप मेरी जाँघ पर सिर रखकर सो जाइए।’ राजा उनकी जाँघ पर सिर रखकर सो जाता है। अब दीर्घायु मन- ही-मन राजा के संबंध में सोचने लगता है कि ‘यही है जिसने मेरा राजपाट, धन-दौलत सब हरण कर लिया है। मेरे माँ-बाप का वध किया है। स्त्री-हत्या के पाप से भी नहीं डरा है। मुझे दर-दर का भिखारी बनाने वाला यही है। यहाँ जंगल में देखनेवाला कौन है, यहीं इसका काम तमाम कर देना ठीक है।’ वह राजा के सिर का बाल मुट्ठी में जकड़कर पकड़ता है और म्यान से तलवार खींचकर उसका गला काटना चाहता है। इतने में उसको अपने पिता का उपदेश याद आया-जल्दी मत करना; देर-तक मत रखना; वैर को वैर से नहीं, प्रेम से जीत सकते हो।’ अतएव मारना ठीक नहीं। वह राजा के बाल को छोड़कर तलवार को म्यान में रख लेता है। अब होता क्या है! एकाएक राजा की नींद टूट जाती है और वह चौंककर उठता है, थर-थर काँपने लग जाता है। लड़के ने पूछा, ‘राजन्! आप तो गहरी नींद में सोये हुए थे, इस तरह भयभीत होकर आप काँप क्यों रहे हैं?’ राजा ने उत्तर दिया, ‘क्या बतलाऊँ, मैंने स्वप्न में देखा कि दीर्घती का पुत्र दीर्घायु मेरा गला काट रहा है, इसी डर से मेरी नींद टूट गयी और मैं काँप रहा हूँं’ लड़के ने कहा, ‘दीर्घायु तो मैं ही हूँ।’ अब राजा और भी डर गया। सोचने लगा, ‘जंगल में इसके सिवा दूसरा कोई है नहीं। मैं बूढ़ा हूँ और यह जवान है। अब मेरी जान बचनेवाली नहीं है।’ वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाकर कहने लगा, ‘मेरा जीवन तुम्हारे हाथ में है। मैंने अवश्य ही तुम्हारा बहुत बुरा किया है। मुझे क्षमा कर दो।’ दीर्घायु ने कहा, ‘राजन्! आप मेरे पिता तुल्य हैं, मैं आपको क्षमा कर दूँगा; लेकिन आप भी मुझे क्षमा करें। अभी तक तो आप नहीं जानते थे कि मैं आपका दुश्मन हूँ, पर अब तो जान गये। यहाँ से घर लौटने पर आप अपने लोगों को बतलाएँगे कि यह हमारा दुश्मन है और मुझे मरवा डालेंगे।’ राजा ने सत्य प्रतिज्ञा की कि ऐसा नहीं होगा। दीर्घायु ने क्षमा कर दिया। घर आने पर राजा के मन में होता है कि दीर्घायु राजपुत्र तो है ही, देखने में कितना सुन्दर है, गुण-ज्ञान सम्पन्न है, विद्वान भी है। मेरी पुत्री सयानी हो गयी है, क्यों न इसी के साथ उसका विवाह कर दिया जाए। राजा अपनी पुत्री के साथ उसका विवाह कर देता है और उसका राज्य उसे दहेज में लौटा देता है।
एक दिन राजा ने दीर्घायु से पूछा, ‘तुम्हारे पिता ने अंतिम समय में तुमसे क्या कहा था, उसका अर्थ क्या है?’ उसने उत्तर दिया, ‘राजन्! मेरे पिताजी के उपदेश ने ही आपकी रक्षा की है। उन्होंने कहा था कि ‘जल्दी नहीं करना’, इसलिए मैंने तलवार को म्यान में रख लिया। कहा था, ‘देर तक मत रखना और वैर को वैर से नहीं, प्रेम से जीत सकते हो।’ मैंने वैर को भूला दिया और आपसे बदला लेने का विचार त्याग दिया। अगर पिताजी की आज्ञा का पालन नहीं किया होता, तो आज दर-दर का भिखारी बना रहता। उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर लेने के कारण ही आपसे मित्रता हुई। आपकी पुत्री से विवाह हुआ और खोया राज्य भी मुझे मिल गया।
हम अपने हृदय से जबतक वैर-भाव को दूर नहीं करेंगे, तबतक मानस-जप क्या करेंगे और मानस ध्यान क्या होगा! दृष्टियोग और नादानुसंधान तो सुदूर की बात है। हम अपने हृदय को पवित्र करें, तभी आगे बढ़ सकते हैं। हमलोग सत्संग में आते हैं, सत्संग की बातों को सुनते हैं। यदि संतों के ज्ञान को आचरण में नहीं लाकर एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देंगे, तो कोई लाभ नहीं होगा। सत्संग में जो हम सुनें, उसको गुनें-विचार करें और आचरण में उतारें। तभी हमारा सत्संग सार्थक होगा और तभी हम एक-न-एक दिन उस ‘विश्वकर्मा’ के दर्शन कर सकेंगे।
जब असत का संग छूटेगा, तब सत् का संग होगा। हमलोग बाह्य सत्संग तो बहुत सुने हैं, सुनते हैं और सुनाते भी हैं कि परमात्मा सूक्ष्म है, सूक्ष्मतम है, ‘व्यापक व्याप्य अख्ांड अनंता’ है; लेकिन उसे प्राप्त करने के लिए हमारा मन भी सूक्ष्म होना चाहिए। संत पलटू साहब ने कहा है-
‘मन महीन कर लीजिए, जब पिउ लागे हाथ।’
जबतक मन महीन नहीं होगा, प्रभु की प्राप्ति नहीं होगी।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 17-9-2000 ई0 को विश्वकर्मापूजा के अवसर महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, नवम्बर 2000 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
हाथरस में एक संत हुए तुलसी साहब उन्होंने लिखा है-
‘सखी सीख सुनि गुनि गाँठ बाँधौ,
ठाठ ठठ सत्संग करै।’
हमलोग सत्संग में जाते हैं, सत्संग करते हैं, सुनते हैं, सुनाते हैं; किन्तु उसका जो समुचित फल मिलना चाहिए वह तभी मिलेगा जब ‘गाँठ बाँधौ’- संतों के वचन को गाँठ में बाँधेंगे। अर्थात् उनकी वाणी के अनुकूल अनुगमन करें। केवल वाणी-पाठ से वह लाभ नहीं मिलता। संतो का अनुकरण और अनुगमन होना चाहिए। अनुकरण बाहरी चीज है और अनुगमन आंतरिक।
एक टोपी बेचनेवाला था। अपनी गठरी में टोपियाँ लेकर घूम-घूमकर बेचता था। एकबार वह चलते-चलते थक गया और वृक्ष के नीचे गठरी रखकर लेट गया। उस जंगल में बहुत बंदर थे। एक बंदर उसके पास आया। उसके झोले को खोलकर उसने एक टोपी निकाली और जैसे बेचनेवाले ने पहन रखी थी, उसने भी पहन ली। दूसरा बंदर आया, उसने भी पहन ली। तीसरा भी आया, उसने भी पहन ली। इस तरह सभी बंदर टोपियाँ पहनकर वृक्ष पर चढ़ गये। व्यक्ति की नींद टूटी तो उसने देखा कि गठरी खाली है और बंदरों ने टोपियाँ पहन ली हैं। वह बंदरों से टोपियाँ माँगने लगा, पर कौन सुनता है। उसने सोचा कि बंदर अनुकरण करता है। यदि मैं अपनी टोपी फेंक दूँ तो वे भी फेंक देंगे। उसने अपनी टोपी खोलकर नीचे फेंक दी। सभी बंदरों ने भी ऐसा ही किया। यह है अनुकरण।
कोई कुछ करता है हम उसकी देखादेखी करते हैं, तो हम उसका अनुकरण करते हैं। यह बाहरी बात है, पर उसने कहा क्या, जब हम उसे अमल में लाते हैं, जीवन में उतारते हैं, तब यह है अनुगमन। गो0 तुलसीदासजी कहते हैं-
‘सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरिय उरगारि।’
जबतक सेवक में सेवा की भावना नहीं आएगी, वह सेव्य के अनुकूल सेवा नहीं कर सकेगा और सेवा के बिना संसार-सागर से उद्धार संभव नहीं है। सेवक और स्वामी के क्या लक्षण हैं, गो0 तुलसीदासजी बतलाते हैं-
“ मुखिया मुख सौं चाहिए, खान पान कहँ एक ।
पालै पोसै सकल अंग, तुलसी सहित विवेक ।।”
आँखें देखती हैं, कान सुनने का काम करते हैं, हाथ बहुत तरह के काम करते हैं, पैर चलते हैं। सभी अंग सेवा में जुटे रहते हैं; लेकिन भोजन मुँह में ही डालते हैं। मुँह सब का मुखिया है। वह क्या करता है? वह अपने पास नहीं रखता, भोजन को पेट में भेज देता है और पेट उसे पचाकर समूचे शरीर में जिसको जितनी आवश्कता है, बाँट देता है। यह स्वामी का काम है।
एक नवाब ने अपने गुलाम से पूछा- ‘तुम्हारा क्या नाम है?’ उसने उत्तर दिया-‘आप जिस नाम से पुकारें।’ नवाब ने पूछा-‘तुम क्या खाते हो?’ गुलाम-‘जो खिला दें।’ नवाब-‘तुम क्या पहनना पसंद करोगे?’ गुलाम-‘आप जो पहना दें।’ नवाब-‘आखिर तुम क्या चाहते हो?’ गुलाम-‘मैं तो दास हूँ, मेरी अपनी चाह क्या हो सकती है।’
यह है सेवक का धर्म। वह यह नहीं सोचता कि अमुक चीज खाएँगे, ऐसा पहनेंगे, ऐसे रहेंगे आदि। जो मिल जाये वह उसी में प्रसन्न रहता है। नवाब के पास रहता था तो वह मूल्यवान खाना खाता था। नवाब उसे अच्छी-अच्छी चीजें दिया करता था। एक दिन नवाब ने उसे एक कड़ुवा फल दिया, जिसे वे स्वयं नहीं खा सके। गुलाम उसे सहजतापूर्वक खा गया। नवाब ने पूछा-‘यह तो बहुत कड़ुवा है। मुझसे तो खाया नहीं गया, तुम इतने चाव से कैसे खा रहे हो?’ गुलाम ने कहा-‘हुजूर के हाथ से प्राप्तकर मैं हमेशा उत्तम से उत्तम चीजें खाता रहता हूँ। एक दिन यदि आपने एक कड़ुवा फल दिया और मैंने उसे स्वाद से खा लिया तो इसमें आश्चर्य कैसा?’ यह है सेवक का धर्म।
भरतजी भगवान श्रीराम को मनाकर वापस लाने के लिये गुरु, माता और नगरवासियों सहित जंगल चले। लोग उन्हें सवारी पर चढ़ने के लिये आग्रह करने लगे तो उन्होंने उत्तर दिया-
“ राम पयादेहिँ पाय सिधाये ।
हम कहँ रथ गज बाजि बनाये ।।”
भरतजी के मन में भाव उत्पन्न हुआ कि भैया श्रीराम जंगल में पैदल गए और मैं चतुरांगिनी सेना के साथ सवारी पर बैठकर जाऊँ, यह ठीक नहीं।
“ सिरभर जाउँ उचित अस मोरा ।
सबतें सेवक धरम कठोरा ।।”
उचित तो यह है कि जहाँ-जहाँ उनके पाँव पड़े वहाँ मेरे पाँव नहीं, सिर ही पड़े। यही अच्छा होता।
सेवक कहलाना बहुत आसान है, पर बनना बहुत कठिन है। भरत ने प्रस्ताव सुनाया कि मैं चौदह वर्षों तक जंगल में रहूँगा और आप जाकर राज्य संभालें। उन्होंने बहुत तरह से अयोध्या लौटने के लिए निवेदन किया। सबेरा हुआ तो मन में आया कि मैंने भैया को बहुत कष्ट दिया। उन्होंने जो कहा मुझे उसे स्वीकारना चाहिए, यही मेरा धर्म है। फिर उन्होंने भगवान से क्षमा माँगी। राम ने अपना खड़ाऊँ भरत को दिया। भरतजी ने उस खड़ाऊँ को राज्य सिंहासन पर रखकर एक सेवक की भाँति राज्य संचालन किया। भरत का जन्म नहीं होता तो धर्म की धूरी को धारण करनेवाला कौन होता। भरतजी ने एक सच्चे सेवक के आदर्श को प्रदर्शित किया। उन्हीं का वचन है-
“ सेवक हित साहिबहिँ सेवकाई ।
करइ सकल सुख लोभ बिहाई ।।”
किसी जमाने में गोदावरी नदी के किनारे एक अच्छे संत रहते थे। वे पढ़े-लिखे, विद्वान भी थे। अपने आश्रम में शिष्यों को ज्ञान भी देते थे। एक दिन आचार्य ने शिष्यों से पूछा-‘मेरा दूषित प्रारब्ध नजदीक आ रहा है। मैंने जो कर्म किए हैं, उससे मेरे समूचे शरीर में कुष्ट हो जायेगा और मैं अंधा हो जाऊँगा। तब कुछ कर नहीं सकूँगा। उस समय मेरी सेवा कौन करेगा?’ सन्नाटा छा गया। सब एक दूसरे का मुँह देखने लगे। एक शिष्य संदीपक ने कहा-‘मैं करुँगा।’ गुरु ने उससे पूछा-‘विचार करके बोलो। मुझे खिलाना- पिलाना पड़ेगा, कुष्ट हो जाये, घाव में पीव हो जाये तो उसे साफ करना होगा, यह सब बर्दाश्त कर सकोगे? उक्त शिष्य ने कहा-‘गुरुदेव! मैं सारी सेवाएँ करुँगा।’
कुछ दिन बाद गुरुदेव ने कहा कि आश्रम में बीमार होना ठीक नहीं, चलो काशी चलते हैं, वहीं मरेंगे। काशी जाकर नदी के घाट के पास रहने लगे। कुछ दिनों बाद कुष्ट निकल आया, जिसमें घाव-पीव और दुर्गंध आ गईं। होते-होते वे अंधे हो गए। संदीपक तन-मन से निष्ठापूर्वक सेवा करता रहा। कोई अन्य शिष्य देखने को नहीं आया। एक दो दिन या महीनों नहीं, वर्षों निकल गए। संदीपक के हृदय में मलिनता नहीं आई और वह सेवा को धर्म समझकर करता रहा। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और बोले- ‘तुम्हारी गुरु-सेवा से मैं प्रसन्न हूँ, तुम वरदान माँगो।’ उसने उत्तर दिया-‘मुझे किसी चीज की आवश्यकता नहीं है।’ भगवान ने कहा-‘तुम्हारा भाग्य है कि मैं तुम्हें दर्शन देने आया हूँ। कुछ माँग लो।’ बहुत आग्रह करने पर संदीपक ने कहा-‘गुरुदेव से कहूँगा, वे आदेश देंगे, तब मागूँगा।’ उसने गुरुदेव से जाकर कहा-‘भगवान शंकर मुझे वरदान देना चाहते हैं, आपकी आज्ञा हो तो माँगू।’ गुरुदेव ने पूछा-‘तुम्हारी क्या इच्छा है?’ संदीपक बोला-‘गुरुदेव! मैं वरदान में माँगना चाहता हूँ कि आप स्वस्थ हो जाएँ, आपको कोई कष्ट न हो।’ गुरुदेव ने कहा-‘मैंने तो पहले ही कहा था कि तुमको मेरी सेवा में बहुत कष्ट होगा। तुम मेरी सेवा से ऊब गये हो, इसलिए ऐसा कहते हो।’ शिष्य ने कहा-‘भूल हो गई गुरुदेव, क्षमा करें। मैं भगवान से कुछ नहीं मागूँगा।’ उसकी सेवा-भावना देखकर गुरुदेव की कृपा उसपर बरसने लगी।
गुरु-सेवा की बड़ी महिमा है, पर एकनिष्ठ और सर्वतोभावेन समर्पित सेवक बनना बड़ा कठिन है। सेवक जब अपने सुखों का त्याग करता है, तभी वह सेव्य को सुख पहुँचा सकता है। सेवक यदि अपना ही सुख देखेगा तो वह सच्ची सेवा नहीं कर सकेगा।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर दिनांक 01-10-2000 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जून 2008 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलोगों की उपस्थिति और उत्साह को देखकर मुझे प्रसन्नता हो रही है। कभी-कभी आपलोग मुझे याद करते हैं तो मैं यहाँ आ जाता हूँ और आपलोगों के दर्शन करके बहुत आीांदित होता हूँ।
आज भारत ही नहीं, समस्त विश्व की बात है कि सब-के-सब दुःखी हैं, कोई सुखी नहीं हैं। संत कबीर साहब ने कहा-
“ तन धर सुखिया कोइ न देखा,
जो देखा सो दुखिया हो ।”
गुरु नानकदेवजी का वचन है-
“ नानक दुखिया सब संसार ।
सो सुखिया जिसु नाम आधार ।।”
हर सिर में समस्या समाई हुई है। वह भी एक नहीं, एक-एक सिर में अनेक समस्याएँ हैं। इस कारण लोगों के मन में तनाव बना रहता है, जिसे अंग्रेजी में टेन्शन (ज्मदेपवद) कहते हैं। आर्ष वचन है-
“ उभय शब्द चिन्ता चिता, दोऊ एक समान ।
चिता दहत निर्जीव को, चिन्ता तन सप्राण ।।”
चिन्ता और चिता दोनों शब्दों का एक ही रूप है, मात्र एक बिन्दी का अन्तर है। चिता तो लाश को, मृतक को जलाती है; लेकिन चिता में जैसे ही बिन्दी पड़ी, वह जिन्दा को ही जलाने लगती है। चिता तो एक ही बार जलाकर समाप्त कर देती है, पर चिन्ता जीवन भर जलाती रहती है। गो0 तुलसीदासजी कहते हैं कि चिन्ता सर्पिणी है-
“ चिन्ता सापिन काहि न खाया ।
को जग जाहि न ब्यापी माया ।।”
किसी को जब सर्प दंश करता है तो विष चढ़ता है, लहर उठती है और धीरे-धीरे वह मर जाता है। उसी तरह जिसे चिन्ता खाती है, उसे लहर पैदा होती है और वह घुट-घुटकर मरता है।
इस चिन्ता से, तनाव से हम कैसे मुक्त हों ? इसीलिए यौगिक क्रियाओं-कुछ शारीरिक और कुछ मानसिक व्यायाम की आवश्यकता होती है। आखिर दुःख का कारण क्या है ? वस्तुतः दुःख का कारण मेरा मन है। मन में ही हम दुःख या सुख का अनुभव करते हैं।
एक बहुत बड़े विद्वान थे। उन्होंने एक पुस्तक लिखी। अब वे छपवानेवाले थे, पाण्डुलिपि टेबुल पर पड़ी थी। शाम का समय था, बिजली चली गई। वे मोमबत्ती जलाकर शौचालय चले गए। उनका एक प्यारा कुत्ता था, जो उस कमरे में अपने मालिक की खोज करने लगा। इसी क्रम में टेबुल में ठोकर लग गई और मोमबत्ती गिर गई। जब वे शौच से आए, तो देखा कि मोमबत्ती की आग से मेहनत से लिखी गई पाण्डुलिपि पुस्तक छपने के पहले ही जल गई और कुत्ता इधर-उधर घूम रहा है, लेकिन फिर भी क्रोधित नहीं हुए। कुत्ते को सहलाते हुए कहते हैं-‘यह तुमने क्या किया ?’ कितने शान्त विचार के थे ! एक व्यक्ति तो ऐसे थे। अब एक दूसरे की कहानी सुनिए-
एक महिला चूल्हे के पास बैठी कुछ पकवान आदि बनाने की तैयारी कर रही थी। कड़ाही में घी खौल रहा था। उसका एक छोटा-सा बच्चा थोड़ी दूर पर रो रहा था, पर वह महिला अपने काम में व्यस्त थी। बच्चा रोते-रोते माँ के पास आया और उसकी पीठ पर चढ़ गया। महिला पहले से ही गुस्से में थी। उसने बच्चे को झकझोर दिया और बच्चा कड़ाही में गिर गया। यह है तनाव (जमदेपवद) का परिणाम !
हमारे मन में शांति कैसे आवे ? शास्त्र कहता है-‘मन एव मनुष्यानां कारणं बंधमोक्षयोः ।’ हमारा मन ही हमें बंधन में डालता है और हमारा मन ही हमें मुक्ति दिलाता है। सुख और दुःख का अनुभव करनेवाला मन ही है। हमारे शरीर में पाँच कर्मेन्द्रियाँ (हाथ, पैर, मुँह, गुदा और लिंग) तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा) हैं। साथ ही चार भीतर की इन्द्रियाँ (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) हैं। इन चौदह इन्द्रियों में पाँच कर्मेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेन्द्रियों पर मन का आधिपत्य है। इसलिए शास्त्र में कहा गया है-‘इन्द्रियाणां मनो नाथो’-इन्द्रियों का नाथ मन है। आप इतने लोगों के बीच बैठे हैं, आपका मन कहेगा कि अमुक व्यक्ति को देखो तो आपकी आँखें उसी को देखेंगी, किसी अन्य को नहीं। एक तरफ सिनेमा का गाना चल रहा है और दूसरी तरफ हरि-कीर्तन। मन यदि गाना सुनने को कहेगा तो व्यक्ति हरि-कीर्तन नहीं सुनेगा, गाना सुनेगा। भोजन के लिए हम बैठे हैं, थाली में अनेक व्यंजन परोसे गए हैं, मिठाइयों में पेड़ा, रसगुल्ला, टिकरी, गुलाब जामुन आदि बहुत कुछ हैं। मन कहता है कि पेड़ा खाओ और हाथ पेड़ा पर गया। पर, उसी समय मन कहता है-‘नहीं-नहीं, पहले रसगुल्ला खाओ।’ अब हाथ पेड़ा को छोड़कर रसगुल्ला पर चला जाएगा। मन जो कहता है, इन्द्रियाँ वही करती हैं। इन्द्रियाँ तो मन की हुक्मबरदार हैं। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ साधो यह मन है बड़ जालिम ।
जाको इससे पला पड़ा है तिस ही होगा मालिम ।।”
जिसको इस मन से पल्ला पड़ गया है, वही जानता है कि यह कैसा है। पल्ला कैसे पड़ता है ? जब लोग आँखें बंदकर ध्यान में बैठते हैं। शरीर तो आसन पर बैठा रहता है, पर मन हाट-बाजार में घूमता है, शहर की सैर करता है, सिनेमा देखने जाता है; न जाने क्या-क्या करता है। बैठते हैं जप करने, पर गप करने लग जाते हैं। घड़ी देखते हैं, तब समझते हैं कि सब समय व्यर्थ में बीत गया। बैठे थे पूजा करने और विषय का भूजा फाँकते रह गए। संत पलटू साहब का वचन है-
“ मन नहीं पकड़ा जाय बहादुर ज्वान है ।
करत रहै खुरखुन्द बड़ा शैतान है ।।
ऐसा यार हरीफ बसै इस हलक में ।
अरे हाँ रे पलटू उड़ता कोस हजार
पंख बिनु पलक में ।।”
आज तक ऐसा कोई यान नहीं बना, जो मन का पीछा कर उसे पकड़ ले। हम यहाँ बैठे हैं और हमारा मन एक मिनट में दिल्ली-कलकत्ते की कौन कहे, इंगलैण्ड-अमेरिका सब जगह घूमकर आ जाता है। पंख नहीं है, पर उड़ता ही रहता है। संत सुन्दरदासजी का वचन है-
“ पल ही में मरि जाय पल ही में जीवतु है,
पल ही में पर हाथ देखत बिकानो है ।
पल ही में फिरत नौ खण्डहू ब्रह्मांड सब,
देख्यो अनदेख्यो सो तो याते नहिं छानो है ।।
जातो नहिं जानियत आवतो न दीसै कछु,
ऐसी बलाइ अब तासो पड़ो पानो है ।
‘सुन्दर’ कहत याकी गतिहू ना लखि पड़ै,
मन की प्रतीति कोई करै सो दिवानो है ।।”
मन ऐसा है कि पल ही में आपका पैर पकड़ लेगा और कहेगा की आपही माँ-बाप हैं, आपही सब कुछ हैं। पर, जब काम निकल गया तो आपके सिर पर चढ़ जाएगा और कहेगा कि हम आपके बाप हैं। जो इस मन का विश्वास करता है, वह पागल है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ मन के मते न चालिये, मन के मते अनेक ।
जो मन पर असवार है, सो साधू कोइ एक ।।”
मन जैसा कहता है, यदि वैसा करोगे तो पागल बन जाओगे। यह मन तुमसे क्या-क्या करवाएगा, ठिकाना नहीं।
पौराणिक कथा है। महर्षि व्यासदेवजी श्रीमद्भागवत लिख रहे थे। वे लिखते जाते थे और उनके विद्वान शिष्य जैमिनी उसको देखते जाते थे। इसी क्रम में व्यासदेवजी ने लिखा-‘बलवान् इन्द्रियग्रामो विद्वान्समपि कर्षति ।’ अर्थात् इन्द्रियाँ इतनी बलवती हैं कि विद्वानों को भी खींच लेती हैं। जैमिनी ने उसे जब पढ़ा, तो उसके मन में हुआ कि गुरुदेव ने यह ठीक नहीं लिखा है। अरे ! विद्वान तो विद्वान हैं, वे अपने विचारों के द्वारा इन्द्रियों को काबू में रख सकते हैं। जैमिनी ने कहा- “ गुरुदेव ! आपने यह जो पंक्ति लिखी है, वह मुझे ठीक मालूम नहीं पड़ रही है। यहाँ तो होना चाहिए-‘बलवान् इन्द्रियग्रामो विद्वासंनापि कर्षति।’ अर्थात् इन्द्रियाँ बलवान हैं, पर वे विद्वानों को आकर्षित नहीं कर सकती हैं।” व्यासदेवजी ने सोचा कि यदि मैं अभी इसे समझाता हूँ, तो यह मानने को तैयार नहीं होगा। उन्होंने कहा- ‘इस पर बाद में विचार करूँगा, तबतक और पन्ने देखो। मैं जंगल से घूमकर आता हूँ।’ व्यासदेवजी वहाँ से चले गए और अपनी माया रची। अचानक अन्धड़-तूफान आया और वर्षा होने लगी। उसी समय एक सुन्दर युवती बारिस में भींगती हुई वहाँ आ गई। उसके कपड़े भींगकर शरीर से चिपक गए थे। जैमिनी ने उसे जब देखा तो वे बोले-‘तुम बारिस में क्यों भींग रही हो? अन्दर आ जाओ।’ युवती बोली-‘मुझे पुरुषों पर विश्वास नहीं है, मैं भीतर नहीं जाऊँगी।’ जैमिनी ने कहा-‘तुम नहीं जानती हो, मैं कितना बड़ा विद्वान हूँ ! महर्षि व्यासदेव के लिखे हुए को मैं देखता हूँ और तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है ! अरे, पानी में भींगती-भींगती बीमार हो जाओगी, अन्दर आ जाओ।’ वह भीतर आ गई। उसको देखकर जैमिनी के मन में विकार उत्पन्न हो गया और उन्होंने युवती के सामने अपना मनोभाव व्यक्त किया। युवती बोली-‘महात्मन् ! मेरा विवाह नहीं हुआ है, मैं कुमारी हूँ। यदि आप जैसे विद्वान से मेरा विवाह हो जाए, तो इससे बढ़कर मेरा बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है? मैं विवाह के लिए तैयार हूँ, लेकिन हमारे यहाँ कुछ कुल-प्रथाएँ हैं, रीति-रिवाज हैं; आप उन्हें मान लें, तो मैं आपसे विवाह करने के लिए तैयार हूँ। जैमिनी ने कहा-‘तुम्हारे यहाँ क्या रिवाज है, बताओ ?’ उसने कहा-‘हमारे यहाँ का रिवाज है कि जब लड़की के विवाह का समय होता है, तो उसके पूर्व लड़का घोड़ा बनता है और लड़की उस पर सवार होती है। इस तरह दोनों मिलकर मंदिर में जाकर प्रणाम करते हैं, तब विवाह होता है। जैमिनी ने सोचा, यहाँ जंगल है, कौन देखता है? थोड़ी देर के लिए यदि घोड़ा ही बन जाएँ, तो क्या हर्ज है। जैमिनी बना घोड़ा और लड़की हुई सवार। लड़की उसकी पीठ पर बैठ, कपड़े की लगाम लगाकर मंदिर चली। थोड़ी ही दूर पर देवी मंदिर था। वर्षा समाप्त हो गई थी। जैसे ही वे दोनों मंदिर के करीब जाते हैं, तो देखते हैं कि बरामदे पर व्यासदेवजी महाराज बैठे हुए हैं। व्यासदेवजी ने कहा-‘‘कहो बेटा ! ‘विद्वान्समपि कर्षति’ या ‘नापि कर्षति’, कौन ठीक है ?’’ बेचारे जैमिनी ने हाथ जोड़कर क्षमा याचना कर ली।
यह मन ऐसा है कि क्या करेगा, किससे क्या कराएगा, ठिकाना नहीं। इसीलिए मन पर नियंत्रण चाहिए।
“ बाजीगर का वानरा, यह मन ऐसा जान ।
जीत लेइ तो खेल है, नातर गाहक जान ।।”
आपने देखा होगा कि मदारी बंदर को छड़ी लेकर घुमाता है। संतजन कहते हैं कि यह मन बाजीगर का बंदर है। बाजीगर बंदर का तमाशा दिखलाता है। उससे जो पैसे मिलते हैं, उनसे अपने भी खाता है और बंदर को भी खिलाता है। जबतक बंदर नाच दिखाता है, तबतक जरूर पैसे मिलेंगे, पर यदि बंदर नाच दिखाना छोड़कर किसी की साड़ी खींचे, किसी की धोती खींचे, किसी को काटने लग जाए, किसी को नोचने लग जाए, तब तो बाजीगर और बंदर दोनों के सिर पर लाठी पड़ेगी। मन भी बाजीगर के बंदर के समान है। यदि आपने इसे जीत लिया है, तो खेल है, मजा है, अन्यथा वह जान का ग्राहक बन जाएगा। भगवान बुद्ध ने कहा-‘हमारा मन ही हमारा शत्रु है और हमारा मन ही हमारा मित्र है।’ शुभ चिंतन में लगा हुआ मन हमारा इतना उपकार कर सकता है, जितना हमारे भाई-बन्धु भी नहीं कर सकते। इसलिए हमारा मन पवित्र होना चाहिए। हम जो भी काम करते हैं, उसमें हमारी भावना पवित्र होनी चाहिए। तब भगवान भी पवित्र फल देंगे। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था-‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।’ (श्रीमद्भगवद्गीता)
संसार से अनासक्त कैसे रहें ? हम घड़े में जल भरते हैं, लेकिन यदि उसके पेंदे में छेद हो, तो पानी कैसे टिकेगा ? हम कहते हैं कि साधना करते-करते हमें वर्षों हो गए, अभी तक कुछ मिला नहीं। क्यों नहीं मिला कुछ ? जैसे घड़े के पेंदे में छेद रहने से पानी निकलता जाता है, उसी तरह विषयासक्ति के कारण हमारी भी साधना निकलती जा रही है। उस छेद को बंद कीजिए। वैराग्य के द्वारा, अनासक्ति के द्वारा छेद जब बंद करेंगे, तब हमारी साधना इकट्ठी होगी, फलवती होगी। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था-‘अभ्यास करो और वैराग्य भी रखो।’ अभ्यास कैसे करो ? पहले उन्होंने बैठने की क्रिया बतलाई-‘समंकाय शिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।’ अर्थात् शरीर, गर्दन और मस्तक को सीधा करके अचल और स्थिर करके बैठो। भगवान ने अचल और स्थिर; इन दो शब्दों का प्रयोग किया है। साधारणतया लोग अचल और स्थिर; दोनों शब्दों का एक ही अर्थ समझते हैं, पर ऐसा मानने से भगवान के इस वचन में पुनरुक्ति दोष आ जाता है। वस्तुतः दोनों शब्दों के अर्थ भिन्न-भिन्न हैं। अचल का अर्थ है, चले नहीं और स्थिर का अर्थ है, हमारे शरीर के अंगों में संचालन न हो। इसे हम इस प्रकार समझ सकते हैं-मान लीजिए कि हम अपने छोटे-से पोते को गोद में लेकर कहीं बैठे हुए हैं। वह बच्चा क्या करता है ? कभी वह हमारी टोपी को खींचता है, कभी चश्मा पकड़ता है और कभी कान पकड़ने लगता है। तब हम उसे कहते हैं-‘स्थिर होकर बैठो।’ वह चल नहीं रहा है, गोद में बैठा हुआ है; पर वह स्थिर नहीं है, उसका हाथ इधर-उधर चल रहा है।
जब हमारा तन स्थिर होगा, तब धीरे-धीरे मन भी स्थिर होगा। कठौता में हम पानी रखते हैं। यदि उसे हिलाते रहें, तो क्या पानी स्थिर रहेगा ? पहले कठौता को स्थिर कीजिए और ऐसी व्यवस्था कीजिए कि पानी में हवा नहीं लगे, तब धीरे-धीरे पानी स्थिर होगा। उसी तरह तन स्थिर हो जाए और मन में विषय-बयार नहीं लगे, तब मन स्थिर होगा। विषय-बयार से हमारा मन डोलता है, इसलिए स्थिर नहीं होता है। विषय-बयार कैसे नहीं लगेगा ? इसी के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं दिशश्चानवलोकयन् ।’ अर्थात् किसी दिशा को न देखते हुए नासिका के अग्र में देखो। आज गीता की मोटी-मोटी टीकाएँ निकल रही हैं, पर कहीं भी नासिकाग्र की सही व्याख्या नहीं मिलती। कोई बतलाते हैं कि नाक के ऊपरी भाग में देखो और कोई बतलाते हैं कि नाक के निचले भाग (नोंक) पर देखो। अगर हम ऊपर या नीचे देखते हैं, तो ये दो दिशाएँ हो जाती हैं, पर भगवान ने कहा-दिशाओं को न देखो। तब हम कहाँ देखें ?
“ भेद यह गुप्त पाना किसी ग्रंथ से,
है असंभव समझ लो किसी संत से ।”
जबतक कोई क्रियावान, शुद्धाचारी संत सद्गुरु नहीं मिलेंगे, तबतक इसका भेद नहीं मालूम होगा। पुस्तक पढ़ लेने से काम नहीं चलेगा। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय में कह दिया है-
“ तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।”
अर्थात् तत्त्वदर्शी-आत्मज्ञानी के पास जाओ, प्रणिपात करो, परिप्रश्न करो। वे तुम्हारी जिज्ञासाओं का समाधान करेंगे। इसलिए सच्चे गुरु के पास जाकर ध्यान की युक्ति सीखनी चाहिए और मन में वैराग्य रखते हुए नियमित रूप से साधना करनी चाहिए। तभी मन वश में होगा। इतना कहकर मैं अपने प्रवचन को विराम देता हूँ। श्रीशंकर बाबू के साथ जो लोग इस सत्संग आयोजन से जुड़े हुए हैं और जिन लोगों ने इस सत्संग में दूर-दूर से आने का कष्ट किया है, मैं सबको धन्यवाद देता हूँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 16-12-2000 ई0 को वेदान्त आश्रम, गोशाला,
भागलपुर में प्रातःकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अगस्त 2005 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
आपलोगों को ज्ञात कराया गया है कि यहाँ अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का 90 वाँ वार्षिक अधिवेशन होगा। इसी सत्संग में सम्मिलित होने के लिए आपलोग यत्र-तत्र से एकत्र हुए हैं। संतमत-सत्संग के द्वारा ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। संतमत एक विशुद्ध आध्यात्मिक मत है। इसके गहरे ज्ञान का, गूढ़ रहस्यों का विवेचन तो कोई स्वस्थ साधु-संत सज्जन जन ही कर सकते हैं, मैं तो अस्वस्थ हूँ। मात्र आपलोगों के दर्शनार्थ यहाँ उपस्थित हुआ हूँ, ताकि आप लाखों लोगों की कृपादृष्टि मुझपर पड़ेगी तो मेरा कुछ-न-कुछ कल्याण ही होगा।
स्वस्थ वे हैं जो ‘स्व’ में स्थित हैं। जो ‘स्व’ में स्थित नहीं, वे अस्वस्थ हैं। इन्द्रियों की धारों में बहनेवाला, इन्द्रियों के नौ घाटों में रहनेवाला अस्वस्थ होता है। छात्र विद्यालयों, महाविद्यालयों में पढ़ते हैं, तो वहाँ त्रैमासिक, अर्द्ध वार्षिक, नौमासिक और वार्षिक परीक्षाएँ होती हैं। हमलोग भी यहाँ वार्षिक परीक्षा देने के लिए उपस्थित हुए हैं। यहाँ हम स्वयं परीक्षार्थी हैं और परीक्षक भी। एक वर्ष पूर्व हम कैसे थे, हमारी मनोदशा कैसी थी, हमारा विचार-व्यवहार कैसा था, हम लोक की ओर अग्रसर हो रहे हैं या परलोक की ओर, इसकी हम परीक्षा करें। यह 90 वाँ अधिवेशन है, 90 में दो अंक है, ‘9’ और ‘0’। हम अपनी ओर विवेक विलोचन से अवलोकन करें कि हम 90 के नौ द्वारों में ही भटक रहे हैं अथवा आगे जो ‘शून्य’ द्वार है, उसमें भी प्रवेश किए हैं? यह ‘नौ’ नवद्वारों का और ‘शून्य’ दसवें द्वार का प्रतीक है।
परमपूज्य बाबा देवी साहब के शिष्य एक जज साहब थे। एक दिन बाबा साहब ने जज साहब से पूछने की कृपा की-कहो जी, साधना में तुम्हारी कहाँ तक प्रगति हुई है? जज साहब ने सहज भाव में उत्तर दिया-गुरुदेव! बचपन से आजतक मैंने जितनी परीक्षाएँ दी हैं, सबमें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होता आया हूँ। केवल संतमत की ही परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो रहा हूँ। मैं तो यही कहूँगा-‘हनोज रोज अब्बल।’ अर्थात् आज भी पहला ही दिन है। हमलोग भी सोचें-विचारें और निरीक्षण कर अपना सुधार करें। जबतक सुधार नहीं होगा, उद्धार नहीं होगा।
एक बार गुलाब के फूल ने निकटस्थ काँटों से कहा-विधि का क्या विधान है, प्रकृति की क्या नियति है? देखो! मैं कितना सुन्दर, सुकुमार और सुकोमल हूँ। और, तुम कितने कुरूप, कँटीले और कठोर हो, फिर भी मैं जहाँ रहता हूँ, वहीं तुम भी रहते हो। मेरे फूलों की माला लोग गले में पहनते हैं, उनकी शोभा बढ़ती है और मैं भी मर्यादित होता हूँ। लोग मुझे मंदिरों में, देवमूर्ति के चरणों में समर्पित करते हैं। मैं अपना अहोभाग्य समझता हूँ। तुम कैसे हो कि हमारा साथ नहीं छोड़ते। यह कैसी विडंबना है! मेरे पास तो मेरे जैसे को रहना चाहिए, तेरे जैसे को नहीं। काँटों ने उत्तर दिया-कहते तो तुम सही हो कि हम कुरूप और कँटीले हैं, किन्तु तुम्हें यह भी सोचना चाहिए कि हम तुम्हारी हानि के लिए नहीं, तुम्हारे लाभ के लिए हैं। अगर मैं तुम्हारे निकट न रहूँ, तो पता नहीं लोग कब तुम्हें तोड़कर, नोंचकर और उजाड़कर फेंक दे। मैं निकट रहता हूँ तो लोग तुम्हें छूने में भी हिचकिचाते और सकुचाते हैं कि कहीं काँटे गड़ न जायँ। यदि कोई व्यक्ति भूल से भी तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाता है तो मैं उसे चुभ जाता हूँ, जो उसको जीवन भर याद रहता है। फिर तो दूसरी बार तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाने का दुस्साहस नहीं कर पाता। इस प्रकार मैं तो हर तरह से तुम्हारी सुरक्षा करता हूँ और तुम मुझे हेय दृष्टि से देखते हो, मैं तुम्हारा रक्षक हूँ।
संतमत बतलाता है कि इसके जो नियम हैं वे काँटों के समान अवश्य लगते हैं, पर वे हमारे रक्षक हैं। अगर कोई नियमों को नहीं मानता, मर्यादा का उल्लंघन करता है, तो उसकी शुभगति नहीं होती। जो किसी नियम को नहीं मानता, शिष्टाचार और सदाचार का पालन नहीं कर स्वच्छन्द विचरण करता है, अपने ऊपर अंकुश नहीं रखता है तो वह पतन के किस गर्त में गिरेगा ठिकाना नहीं। संत कबीर साहब का वचन है-
“ निरबंधन बंधा रहे, बंधा निरबंध होय ।
करम करै करता नहीं, दास कहावै सोय ।।”
हम सोचें कि हमारे ऊपर कोई बंधन है कि नहीं। अगर हमारे ऊपर संतमत का बंधन नहीं है, हम स्वच्छंद हैं, तो संसार के बंधन से हमें कोई नहीं छुड़ा सकता। संतमत के बंधन क्या हैं? पाँच विधि और पाँच निषेध कर्म के बंधन हैं। एक ईश्वर पर विश्वास करो, उनकी प्राप्ति अपने अन्दर होगी दृढ़ निश्चय रखो, सत्संग करो, ध्यान करो और गुरु सेवा करो। बंधन रखो कि ये काम हम अवश्य करेंगे। झूठ नहीं बोलो, चोरी नहीं करो, नशीली किसी चीज का सेवन नहीं करो, हिंसा नहीं करो के सिलसिले में मांस, मछली, अंडा मत खाओ और व्यभिचार नहीं करो। इन पंच पापों को नहीं करने का अपने ऊपर बंधन रखो।
इस सत्संग के द्वारा उस ज्ञान का प्रचार होता है, जिससे सबका कल्याण हो।
संत कबीर साहब ने सत्संग को हाट की संज्ञा दी है। हमलोग हाट जाते हैं, तो वहाँ से कुछ लाते हैं। इस सत्संग रूपी हाट में हमलोग क्या लें? संत कबीर साहब कहते हैं-
“ चल सतगुरु की हाट, ज्ञान बुधि लाइये ।
कीजै साहब से हेत, परमपद पाइये ।।”
जिज्ञासा हो सकती है कि वह कौन-सा ज्ञान? संत कबीर साहब उत्तर देते हैं-
“ जिस ज्ञान से परमारथ होय सके ,
उस ज्ञान को धोय के पीजिये जी ।”
संतों के ज्ञानामृत का पान कीजिए, जिससे परलोक बने। लौकिक ज्ञान तो सबको कुछ-न-कुछ है ही। हमारा शास्त्र कहता है-
“ आहार निद्रा भय मैथुनञ्च,
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
ज्ञानं नाराणामधिकं विशेषो,
ज्ञानेनहीनाः पशुभिः समानाः ।।”
आहार, निद्रा, भय और मैथुन-ये चार बातें मनुष्य और पशु में कुछ भी प्रभेद नहीं है। यानी पशु भोजन करता है, मनुष्य भी भोजन करता है। पशु सोता है, मनुष्य भी सोता है। पशु डरता है, मनुष्य भी डरता है। पशु संतान उत्पन्न करता है, मनुष्य भी सन्तान उत्पन्न करता है, पर मनुष्य में ज्ञान की विशेषता है। किस ज्ञान की?
‘ज्ञानान्मोक्षमवाप्नोति, तस्माज्जज्ञानं परात्परम् ।’
जिस ज्ञान से मोक्ष मिलता है, आवागमन का चक्र छूटता है। दैहिक, दैविक और भौतिक-जिन त्रितापों से हम संतप्त होते रहते हैं, उनसे सदा के लिए मुक्त हो जाएँ, वह ज्ञान है। जड़-चेतन की ग्रंथि छिन्न-भिन्न हो जाय, वह ज्ञान है। भगवान महावीर की वाणी में हम उसे सम्यक् ज्ञान वा कैवल्य ज्ञान कह सकेंगे अर्थात् जड़-विहीन शुद्धात्मा का ज्ञान। भगवान महावीर कहते हैं-‘आत्मानं विद्धि’ आत्मा को जानो। हम आत्मा को तबतक नहीं जान सकते, जबतक हमारे कल्मषकाषाय दूर न हो जाय। भगवान बुद्ध ने तो यहाँ तक कह दिया कि जबतक तुम्हारे चित्त के काषाय दूर न हो जाय, काषायवस्त्र धारण नहीं करो।
“ अनिक्कसावो कासावं, यो वत्थं परिदहेस्सति ।
अपे तो दमसच्चेन, न स कासावमरहति ।।”
अर्थात् बिना चित्तमलों को हटाये जो काषाय वस्त्र धारण करता है, वह संयम और सत्य से हीन काषाय वस्त्र का अधिकारी नहीं है।
भगवान महावीर और भगवान बुद्ध दोनों समकालीन संत थे। ये वह ध्यान करते थे, जिससे आत्म-साक्षात्कार होता है। आत्मसाक्षात्कार बहुत-सी पुस्तकों को पढ़ने या बहुश्रुत होने अथवा लम्बा प्रवचन देने से नहीं होता है और न बहुत मेधावी होने से होता है। चेतन आत्मा के द्वारा ही आत्मा का ग्रहण होता है।
“ नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेनलभ्यस्तस्यैष
आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम् ।।”
छान्दोग्य उपनिषद् में एक कथा आई है। एक बार स्कंद ऋषि के पास जाकर नारद मुनि ने कहा मुझे आत्मज्ञान बतलाइए। ऋषि ने पूछा पहले बतलाओ कि तुमने अबतक पढ़ा क्या है? नारद मुनि ने उत्तर दिया-‘मैंने इतिहास-पुराणरूपी पाँचवें वेद-सहित ऋग्वेद प्रभृति समय वेद, व्याकरण, गणित, तर्कशास्त्र, कालशास्त्र, नीतिशास्त्र सभी वेदाङ्ग, धर्मशास्त्र, भूतविद्या, क्षेत्रविद्या, नक्षत्रविद्या और सर्पदेवजनविद्या प्रभृति सब कुछ पढ़ा है; परन्तु जब इससे आत्म-ज्ञान नहीं हुआ, तब अब तुम्हारे यहाँ आया हूँ।’ स्कंद ऋषि ने कहा-‘तूने जो कुछ सीखा है, वह तो सारा नाम-रूपात्मक है, सच्चा ब्रह्म इस नाम-ब्रह्म से बहुत आगे है।’
संतमत का ज्ञान इसी आत्मलाभ के लिए है। ज्ञान को चार भागों में बाँटा गया है-श्रवन ज्ञान, मनन ज्ञान, निदिध्यासन ज्ञान और अनुभव ज्ञान। सबसे पहली बात है श्रवणज्ञान अर्थात् सुनना। सुनने का मतलब यह नहीं कि एक कान से सुनें और दूसरे कान से निकाल दें। सुनने के अनेक अर्थों में मानना और करना भी होता है। हमलोग बातचीत के क्रम में कहते हैं-अरे भाई! क्या बताऊँ, अमुक व्यक्ति को कहते-कहते मैं थक गया, लेकिन वह मेरी बात सुनता ही नहीं। तुम ही कुछ कहो, वह तुम्हारी बात सुनेगा। इसका क्या मतलब हुआ, वह बहरा है, इसलिए नहीं सुनता है? नहीं, वह सुनता तो है, किंतु उसकी बात नहीं मानता है, उसकी बात पर अमल नहीं करता है। सत्संग में हमलोग वचनों को सुनें अर्थात् उसे मानें यानी आचरण में उतारें। गुरुदेव की वाणी में है-
“ श्री सदगुरु की सार शिक्षा, याद रखनी चाहिए ।
अति अटल श्रद्धा प्रेम से, गुरुभक्ति करनी चाहिए ।।”
सद्गुरु की सार शिक्षा को श्रवणकर मनन करें। पश्चात् मनन किए हुए का अभ्यास करें, यह है निदिध्यासन ज्ञान। साधना करके, अभ्यास करके अनुभव ज्ञान प्राप्त करें। अनुभव ज्ञान अंतिम ज्ञान होता है। संतमत बतलाता है-
‘आतम अनुभव सुख सो प्रकाशा ------’
अथवा,
‘बिनु निज अनुभव ‘मेँहीँ’ भरम सब, प्रभु न पइहो हो ।’
इसलिए संतमत की अन्तस्साधना के द्वारा आत्म-अनुभव लाभ करो। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ अगुवानी तो आइया, ज्ञान विचार विवेक ।
पीछे गुरु भी आयेंगे, सारे साज समेत ।।”
सत्संग के द्वारा ज्ञान, विचार और विवेक हममें आना चाहिए। आज देखा जाता है कि कितने व्यक्ति ऐसे हैं, जो कि सत्संग करते और करवाते भी हैं, परन्तु कौन बड़े हैं और कौन छोटे हैं, इतना ज्ञान भी उनमें नहीं है। किनके साथ कैसा व्यवहार हो, हम यह भी नहीं जानते हैं तो बहुत सत्संग करके क्या ज्ञान सीखा? जहाँ शिष्टाचार, सदाचार और शुच्याचार नहीं है, वहाँ ब्रह्म का साक्षात्कार कैसे हो सकता है? ब्रह्मसाक्षात्कार तो सुदूर की बात है, ऐसा व्यक्ति तो अध्यात्म पथ पर बाल के नोक के बराबर भी नहीं चल सकता है। भगवान बुद्ध ने कहा था-ध्यान बिना ज्ञान नहीं और ज्ञान बिना ध्यान नहीं। जो ज्ञान और ध्यान दोनों रखते हैं, वे निर्वाण के समीप हैं।
पहले असत् का संग छोड़ें, तभी सत् का संग होगा। कोई अपनी चोटी जमीन में गाड़कर रखे और आकाश में चन्द्रमा को भी देखना चाहे, यह कैसे संभव है। उसी तरह जिसकी जगदासक्ति बनी हुई है, उसे जगत्पति में आसक्ति कैसे होगी। संतों का ज्ञान बतलाता है कि त्याग में कल्याण है। श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज ने कहा था-‘गीता पढ़ते हो, गीता का क्या अर्थ होता है? गीता-गीता उच्चारण करो, हो जाएगा त्यागी अर्थात् त्यागी बनो। जबतक त्यागी नहीं बनोगे, प्रभु को नहीं पा सकते। ज्ञान के बाद है ‘विचार’। विचार किसको कहते हैं?
“ को मैं आया कहाँ से, कित जाना क्या सार ।
को मम जननी को पिता, या को कहिये विचार ।।”
मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाना है, क्या सार-तत्व है? अगर इन विषयों पर हम विचार नहीं करते हैं, तो क्या विचार करते हैं? यह शरीर हमारा है, हम शरीर नहीं हैं। हम इस शरीर में रहनेवाले हैं। महाभारत में एक प्रसंग आया है कि यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था-किम् आश्चर्यम्? अर्थात् आश्चर्य क्या है? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया-‘हम देखते हैं कि प्रतिदिन लोग मर-मर कर यम के घर को भर रहे हैं, फिर भी अपने को अमर समझते हैं; यह सबसे बड़ा आश्चर्य है।’ लेकिन उस आश्चर्य से यह कम आश्चर्य नहीं है कि हम अपनी पत्नी को जानते हैं, पत्नी हमको जानती है, हम अपने पुत्र को जानते हैं, पुत्र हमको जानता है, हम अपने परिवार को जानते हैं, परिवार के लोग हमको जानते हैं, हम अपनी संपत्ति को जानते हैं, कारखाने को जानते हैं, व्यापार को, जमीन को जानते हैं-सारी बातें जानते हैं; किन्तु ‘हम कौन हैं’ यह नहीं जानते हैं? वस्तुतः यह सबसे बड़ा आश्चर्य है। एक योगी हुए पंचानन भट्टाचार्य, उन्होंने कहा-
“ आमी-आमी करी बुझिते ना पारी
के आमी आमाते आछे की रतन ।
कोन शक्ति बले बेड़ाइ चले बले
कारे अभावे हय देह अचेतन ।।
देहे मांझे आछे प्राणेरि संचार
ताहातेई बलि आमि वा आमार ।
प्राण गेले चले हवे शबाकार
केबाकर कोथा रोवे धन जन ।।”
हमलोग हम-हम तो करते हैं, पर इतने दिनों से इस शरीर में हम रहते हैं, कभी अपने से भेंट हुई कि हम कौन हैं? कैसे हैं? कुछ पता नहीं। हम शरीर को पहचानते हैं और शरीर के सुख में ही डूबे रहते हैं। यह शरीर कितने दिनों के लिए है? कोई ठिकाना नहीं कबतक रहेगा, कब चला जाएगा। वस्तुतः चन्द दिनों का यह मेहमान है।
“ पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल की साज ।
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ।।”
जो क्षणभंगुर है, उस शरीर के लिए तो दिन-रात एक करके हाय-सुख, हाय-सुख कर रहे हैं, लेकिन हम जो स्वयं हैं उसके लिए क्या कर रहे हैं? हम जिस धन को इकट्ठा कर रहे हैं, क्या साथ ले जाएँगे? कहते तो सब कोई हैं कि कोई कुछ साथ नहीं ले जाएँगे। परन्तु इस बात को मानते कितने लोग हैं? किसके लिए करते हैं-बेटे-पोते के लिए, परिवार के लिए यही न! आज आप सम्पन्न हैं। हो सकता है पूर्व जन्म में आप गरीब परिवार में हों। तो क्या, उस पूर्वघर के जो आपके परिवार के नाती-पोते हैं, उसकी कुछ सहायता करते हैं आप? अथवा अगर पूर्वजन्म की स्थिति आपकी बहुत अच्छी थी, सम्पन्न थे और आज आप एक गरीब घर में पल रहे हैं, रह रहे हैं, तो क्या पूर्वघर की आपकी अर्जित सम्पत्ति आज आपकी कुछ सहायता करती है? न तो आप सहायता कर सकते हैं उनका और न पूर्व के संबंधी आपकी सहायता कर सकते हैं, तो धन किसके लिए जमा कर रहे हैं? इसीलिए किसी ने बड़ा अच्छा कहा है-
“ पूत सपूत तो क्यों धन-संचय ,
पूत कपूत तो क्या धन-संचय ।”
अगर पुत्र सपूत है तो वह स्वयं अपने लिए धन-अर्जन कर लेगा, उसकी चिन्ता आपको क्यों है। अगर पुत्र कपूत निकल गया है तो कितना भी धन जमाकर उसे दीजिए, वह विविध व्यसनों में फूक-फाक कर सब समाप्त कर देगा। इसलिए इसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। चिन्ता इस बात की करनी चाहिए कि संसार से जाएँगे तो साथ क्या लेकर जाएँगे।
“ धनानिभूमौ पशवोहिगोष्ठि नारीगृहाद्वाराणि सखाश्मशाने ।
देहश्चितायां परलोकमार्गे धर्मानुगो गच्छति जीव एकः ।।”
शास्त्र कहता है शरीर छूटने पर जितने धन हैं, सभी धरा पर धरे रह जाएँगे। जितने पशु हैं सभी पशुशाला में बँधे रह जाएँगे, नारी बेचारी रोती-धोती घर-आँगन घूम करके बैठ जाएगी। जितने दोस्त हैं, जिनके साथ बैठकर हम हास-परिहास करते हैं, वे हमारी अर्थी को कंधे पर लेकर ‘राम नाम सत्त है, यही सबका गत है’ सुनाते हुए श्मशान घाट पहुँचा देंगे। हमारा जो प्रिय शरीर है, वह चिता पर जलकर भष्म हो जाएगा। तब साथ क्या जाएगा-‘धर्मानुगो गच्छति जीव एकः।’ जीव के साथ उसका किया हुआ शुभाशुभ कर्म जाएगा। इसलिए हमारे जीवन के जो क्षण बचे हुए हैं, उन्हें हम सत्संग सत्कार्य और साधना में लगावें। सत्संग में आकर हम सीखें कि हमें क्या करना चाहिए और तदनुकूल आचरण बनाना चाहिए।
“ समझ सोच बन्दे तू मन में, क्या करना क्या करता है ।
गुण के साथी आपहि बनता, दोष राम पर धरता है ।।”
“ देखि के परदोष रजसम, कहत गिरिसम सोय रे ।
दोष अपने मेरु सम हैं, तिन्हें राखत गोय रे ।।”
दूसरे के दोषों को देखते-देखते हम अपने को दोषों से भर लेते हैं। यदि हम दूसरों के सद्गुणों को देखें, तो हमारे अन्दर सद्गुण भर जाएँगे। किन्तु होता क्या है-दूसरों के रजसम दोष को हम पहाड़ के समान बनाकर देखते हैं और अपने पहाड़ के समान दोषों को ढँककर रखते हैं, जिससे कोई जानने न पाए। इससे कल्याण नहीं होगा। जो व्यक्ति अपने दोषों को और दूसरे के सद्गुणों को देखता है, वही कल्याण का भागी बनता है। दूसरों के सद्गुणों को ग्रहण करें और अपने अवगुणों को दूर करें। जितने अंशों में हम अपने दोषों को निकालेंगे, उतने ही अंशों में हमारे अंदर सद्गुण आएँगे।
संतमत का ज्ञान घरवार, परिवार, रोजगार छोड़ने के लिए नहीं कहता। घरवार-परिवार में रहिए, पवित्र रोजगार कीजिए और भगवान का नाम भी लीजिए। यह लोक बनेगा और परलोक भी बनेगा। तभी सत् का संत होगा।
सत् क्या? ‘सत सोई जो विनसै नाहीं।’ जो त्रयकाल अबाधित तत्व है, वह है सत्य। अर्थात् जो तत्व भूतकाल में जैसा था, वर्तमानकाल में वैसा है और भविष्य में वैसा ही रहेगा, वह है सत्य। ऐसा एक रस रहनेवाला परब्रह्म परमात्मा है। कबीर साहब ने कहा है-
“ अखण्ड साहब का नाम और सब खण्ड है ।
खंडित मेरु सुमेरु खंड ब्रह्माण्ड है ।।
थिर न रहै धन धाम सो जीवन धुंध है ।
लख चौरासी जीव पड़े जमफन्द है ।।
जाका गुरु से हेत, सोई निर्बंध है ।
उन साधन के संग सदा आनंद है ।।
चंचल मन थिर राख जबै भल रंग है ।
तेरे निकट उलट भरि पीव सो अमृत गंग है ।।
दया भाव चित राख भक्ति को अंग है ।
कहै कबीर चित चेत सो जगत पतंग है ।।”
आकाश में गुड्डी (पतंग) उड़ती है, पर धागा टूटने पर वह कहाँ चली जाएगी, ठिकाना नहीं। उसी तरह शरीर छूटने पर प्राण-पखेरु कहाँ उड़ जाएँगे, ठिकाना नहीं। संतगण एक स्वर से कहते हैं, जानो कि तुम कौन हो। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण का वचन है-
“ वासांसि जीर्णानि यथा विहाय ,
नवानिगृह्वातिनरोपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि
संयाति नवानिदेही ।।”
जैसे मानव पुराने-पुराने वस्त्रें को छोड़-छोड़ कर शरीर पर नए-नए वस्त्रें को धारण करते हैं, उसी तरह यह जीव पुराने-पुराने शरीरों को छोड़ कर नए-नए शरीरों को धारण करता है।
जन्म से लेकर अबतक हमलोगों का वही शरीर है। हमलोगों ने कितने कपड़े पहने और वे फटे, किसी को याद नहीं और आगे भी जबतक यह शरीर रहेगा, नए कपड़े पहनते रहेंगे और वे फटते रहेंगे। जैसे एक शरीर के जीवनकाल में अनेक वस्त्र पहनते और वे फटते हैं, उसी तरह एक जीव के जीवनकाल में अनेक शरीर होते हैं और छूटते हैं। वह जीव जबतक पीव से मिलकर एक नहीं हो जाता, आवागमन के चक्र में पड़ा रहता है।
संतवाणी कहती है-परमात्म-साक्षात्कार के लिए पहले आत्मा की पहचान करो। किसी सुभाषितकार ने बड़ा स्पष्ट कहा है-
“ इबादत है किसी नाशाद को फिर शाद कर देना ,
इबादत है किसी बर्बाद को आबाद कर देना ।
यही सीखा है ‘सागर’ हमने मुर्शद के कदम छूकर ,
खुदा से हो अगर मिलना पता खुद का लगा लेना ।।”
जबतक खुद का पता नहीं मिलेगा, खुदा का पता नहीं मिलेगा। जबतक आत्मा की पहचान नहीं होगी, परमात्मा की पहचान नहीं होगी। जैसे जब कोई एक बूँद जल की पहचान कर लेता है, तो वह गिलास का जल, लोटे का जल, घड़े का जल, कुआँ का जल, तालाब का जल, नदी का जल और समुद्र का जल यानी सभी प्रकार के जल की पहचान कर लेता है; क्योंकि सभी प्रकार के जल समुद्र-जल का ही अंश हैं। उसी तरह परमात्मा का अंश यह जीवात्मा है। जो कोई जीवात्मा की पहचान कर लेगा कि ‘मैं’ यह हूँ, तो वह परमात्मा की भी पहचान कर लेगा।
“ अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा ,
वसत इति वासना धूप दीजै ।”
ऐसा व्यक्ति हाथी में, घोड़े में, ब्राह्मण में, शूद्र में-सभी चर-अचर में एक ही आत्मा को देखेगा। इसलिए पहले अपने को जानो। जो अपने को जान लेता है, फिर उसे कुछ भी जानने के लिए बाकी नहीं रहता।
“ एके साधे सब सधे, सब साधे सब जाय ।
जो गहि सेबै मूल को, फूले फले अघाय ।।”
अपने स्वरूप को प्रत्यक्ष जानने पर कि यह जीवात्मा ‘सत्’ है और उसी तरह परमात्मा को जानना कि वह ‘सत्’ है, तब इस सत् को उस सत् से मिला देना, संग कर देना, यही असली सत्संग है। यह सर्वोत्कृष्ट सत्संग है। जबतक यह सत्संग नहीं हुआ है, तबतक जिन्होंने सत् स्वरूप सर्वेश्वर को प्राप्त करके सत् जन हो गए हैं, उनका संग करना-यह द्वितीय श्रेणी का सत्संग है। लेकिन ऐसे सत् जन की पहचान भी दुर्लभ है; क्योंकि हमलोगों के पास ऐसा कोई मीटर नहीं है, जिससे जान सकें कि अमुक संतजन हैं। तब ऐसी स्थिति में क्या किया जाय? उत्तर में निवेदन है कि जो संतजन पूर्व में हो चुके हैं, उनकी वाणियों का संग करें-यह तृतीय श्रेणी का सत्संग है। इस तरह पहले हम संतवाणियों का संग रूप तृतीय श्रेणी का सत्संग करें। इस प्रकार सत्संग करते-करते संतों के दर्शन होंगे, तब द्वितीय श्रेणी का सत्संग हो जाएगा। उन्हीं संतों में से किन्हीं से दीक्षा-ग्रहणकर सदाचार समन्वित होकर साधना करेंगे, तो एक-न-एक दिन ईश्वर-स्वरूप का साक्षात्कार कर हम प्रथम श्रेणी का सत्संग कर सकेंगे। फिर तो जीव-पीव का मिलन हो जाएगा और सर्वोत्कृष्ट सत्संग हो जाएगा। सत्संग की यह क्रमिक साधना है। हम क्रम-क्रम से आगे बढ़ते हुए अपना परम कल्याण बना सकते हैं। इतना कहकर मैं अपने प्रवचन में विराम देता हूँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 02-03-2001 ई0 को अखिल भारतीय संतमत- सत्संग के 90वें वार्षिक महाधिवेशन अररिया में प्रातःकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, जून 2001 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
मुझ अज्ञ अकिंचन का आप जिन सज्जनों ने स्वागत और अभिनंदन किया है, उन सबका मैं सादर अभिवंदन करता हूँ और अनेकानेक धन्यवाद ज्ञापन करता हूँ।
अस्वस्थ अवस्था में रहने पर भी मैं आपलोगों के दर्शनार्थ यहाँ आ गया। यह परमपूज्य गुरुदेव की कृपा है या दया-कहा नहीं जा सकता। यहाँ ‘कृपा और ‘दया’ दोनों शब्दों के अर्थों में जो भेद है, वह बतला देना आवश्यक है; क्योंकि कतिपय सज्जन ‘कृपा’ और ‘दया’ दोनों का एक ही अर्थ करते हैं, किन्तु विद्वत् जन का कथन है कि दोनों में अंतर है। बिना प्रयास किए जब अभिलषित वस्तु की प्राप्ति होती है, तो वह प्रभु की कृपा कहलाती है और जब श्रम करने पर अभिलषित वस्तु की प्राप्ति होती है, तो वह दया कहलाती है। कृषक लोग कामना करते हैं कि वर्षा हो। वर्षा होती है और फसल लहलहा उठती है। यह प्रभु की कृपा कही जाएगी। वर्षा नहीं होने पर जब उसी फसल के लिए वे कुआँ खोदते हैं, बोरिंग करते हैं या नदी-तालाब से जल लेकर खेती-पटाते हैं और तब जो फसल लहलहाती है, यह प्रभु की दया कही जाएगी।
बिल्ली का छोटा बच्चा म्याऊँ-म्याऊँ करता रहता है। उसकी माँ को उसकी सुरक्षा की चिन्ता होती है, वह उसे एक जगह से दूसरी और दूसरी से तीसरी जगह ले जाकर रखती है और उसकी सुरक्षा करती है। हम कह सकते हैं कि बिल्ली के बच्चे को अपनी माँ की कृपा प्राप्त है। दूसरी तरफ आपने बंदरिया और उसके बच्चों को जंगल में या पेड़ों पर उछलते-कूदते देखा होगा। जैसे ही कोई आहट होती है, बन्दरिया अपने बच्चे की ओर देखती है। बच्चा दौड़कर आता है और अपनी माँ की गोद में बैठ जाता है। माँ बच्चे को सीने से लगाकर पेड़ पर ऊपर चढ़ जाती है। बच्चे ने प्रयास किया, तब उसकी माँ ने उसे सुरक्षा दी, यह उसकी दया कही जाएगी। अर्थात् बिल्ली के बच्चे को माँ की कृपा प्राप्त होती है और बंदर के बच्चे को माँ की दया। संत पलटूदासजी महाराज ने लिखा है-
“ माता बालक कहँ राखती जौं प्राण है ।
फनि मणि धरैं उतार वाही पर ध्यान है ।।
माली रक्षा करै सींचता पेड़ ज्यों ।
अरे हाँ रे पलटू, भक्त संग भगवान गउ और बच्छ त्यों ।।”
उन्हीं प्रभु की अनुकम्पा से आज अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का यह 90वाँ वार्षिक अधिवेशन होने जा रहा है।
संतमत अर्थात् संतों का मत। यह किसी एक संत के नाम पर चलाया गया मत नहीं है। इसमें सभी धर्म, मजहब, सम्प्रदाय, रिलिजन (त्मसपहपवद) आदि के संतों की मान्यता है। संतमत में कोई संत श्रेय और कोई हेय नहीं, बल्कि सभी उपादेय हैं। अभी आपलोगों ने सुना कि संतमत समुद्रमत है।
एक बार कुँए ने समुद्र से कहा-‘जितनी नदियाँ आपके पास आती हैं, आप सबको अपनी गोद में बिठाते हैं, किन्तु मैं वर्षों से आपके निकट रहता हूँ, आप मेरी पूछ तक नहीं करते। पिता की दृष्टि में सभी संतान समान होनी चाहिए, फिर ऐसी विषमता क्यों?’ समुद्र ने उत्तर दिया-‘मेरे पास जितनी भी नदियाँ आती हैं, वे सभी अपने तटबंधों को तोड़कर आती हैं। इसलिए उन सबके लिए मेरी गोद है। लेकिन तुमने तो अपने चारों ओर चारदीवारी बना रखी है, फिर तुम मेरी गोद में कैसे आओगे? तुम भी अपनी चारदीवारी को तोड़ दो, तो तेरे लिए भी यह गोद है। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय)।
संतमत कहता है कि चारदीवारी को तोड़ो, धर्म, मजहब, सम्प्रदाय की संकीर्णता से ऊपर उठो। संतमत में सभी संतों के विचारों का समावेश है। यही कारण है कि आज इसमें वैदिक धर्मावलंबियों के साथ-साथ ईसाई, इस्लाम, बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि सभी मत के लोग सम्मिलित हैं। संतमत में जहाँ आप वेद और पुराण की बातें सुनेंगे, वहीं आप बाइबिल और कुरआन की बातें भी सुन पाएँगे। यह सर्वधर्म- समन्वय मत है।
अभी आपलोगों ने रामचरितमानस का पाठ सुना। उसमें प्रसंग यह था कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम जब लंकापति रावण का संहारकर श्रीसीताजी का उद्धारकर, विभीषण को वहाँ का राज्यभार सौंपकर अयोध्या आए और राज्य-सिंहासन पर बैठकर राज्य- संचालन करने लगे, तब उन्होंने गुरुजन, पुरजन, सज्जन, ब्राह्मण, प्रजागण प्रभृति सबको बुलाकर उपदेश दिया। उपदेश में पहली बात उन्होंने कही-
‘बड़े भाग मानुष तनु पावा ।’
इस वाक्य में भगवान श्रीराम नर तन की उपादेयता बतलाते हैं। वे इस बात को भली-भाँति जानते थे कि जबतक हमारी प्रजा इस संसार में रहेगी, उसे किसी प्रकार का दुःख नहीं होगा। शरीर के साथ का वर्तमानकालिक जीवन उनका सुखमय है, किन्तु यह शरीर एक-न-एक दिन अवश्य छूटेगा। शरीर छूटने के बाद वे जहाँ जाएँ, वहाँ भी उनका जीवन सुखमय हो, इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे उनको मार्गदर्शन देना चाहते हैं; क्योंकि मानव शरीर पाने पर भी सभी के विचार-व्यवहार एक से नहीं, भिन्न-भिन्न होते हैं। उदाहरणार्थ-जिस समय भगवान श्रीराम रावण से युद्ध कर रहे थे, उस समय उन्होंने कहा था-
“ जनि जल्पना करि सुजस नासहि
नीति सुनहिं करहिं छमा ।
संसार महँ पुरुष त्रिविध
पाटल रसाल पनस समा ।।
एक सुमनप्रद एक सुमनफल
एक फलइ केवल लागहीं ।
एक कहहिं कहहिं करहिं अपर
करहिं कहत न बागहीं।।”
भगवान श्रीराम रावण से कहते हैं कि तुम बकवास करके व्यर्थ ही अपने सुयश एवं समय को क्यों नष्ट कर रहे हो? जो नीति की बात है, मैं कहता हूँ, सुनो। संसार में तीन तरह के व्यक्ति होते हैं। एक गुलाब के समान, दूसरे आम के समान और तीसरे कटहल के समान। गुलाब के पेड़ में केवल फूल-ही-फूल लगते हैं, फल नहीं। आम के पेड़ में फूल और फल दोनों लगते हैं। कटहल के पेड़ में केवल फल लगते हैं, फूल नहीं। इसी प्रकार कुछ लोग लंबी-चौड़ी बातें बनाते हैं, पर करते-धरते कुछ भी नहीं; वे गुलाब की तरह हैं। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ कहता पै करता नहीं, मुख का बड़ा लबार ।
आखिर धक्का खाएगा, साहब के दरबार ।।”
“ एक कहै दूजी कहै, दो दो कहै बनाय ।
ये दो मुख का बोलना, घना तमाचा खाय ।।”
दूसरे व्यक्ति आम के समान होते हैं। आम के पेड़ में पहले मंजर लगता है, पीछे फल होता है। उसी प्रकार कुछ व्यक्ति जो कहते हैं, उसे पूरा भी करते हैं।
तीसरे प्रकार के व्यक्ति जो कि कटहल के समान होते हैं, वे कहते नहीं कि मैं ‘ऐसा करूँगा’ या ‘वैसा करूँगा’, लेकिन जो कार्य उचित है, जो कर्तव्य कर्म है, उसे वे बिना कहे-सुने करके दिखला देते हैं।
किसी ने कहा कि तीन ही नहीं, चार प्रकार के व्यक्ति होते हैं। एक होते हैं बेर के समान, दूसरे नारियल के समान, तीसरे शिला सदृश और चौथे अंगूर के समान। तात्पर्य यह कि जैसे बेर का ऊपरी भाग मुलायम होता है, लेकिन उसके भीतर की गुठली बड़ी कड़ी होती है। उसी तरह कुछ व्यक्ति ऊपर-ऊपर से बड़ी मीठी, चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं, लेकिन उनके मन में गुठली, गाँठ होती है। संत कबीर साहब के शब्दों में हम कह सकेंगे-
‘कथनी मीठी खाँड़ सी, करनी विष की लोय।’
वाली बात वे चरितार्थ करते हैं। दूसरे व्यक्ति नारियल के समान होते हैं। जैसे नारियल का ऊपर भाग कड़ा होता है, लेकिन उसके अंदर स्वच्छ जल और मुलायम उजली गरी होती है। उसी तरह कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं कि उनके मुँह से भले ही कभी कोई कड़ी बात निकल जाय, पर उनका हृदय स्वच्छ पवित्र और कोमल होता है। तीसरे व्यक्ति शिला यानी पत्थर के समान होते हैं अर्थात् जैसा वचन कर्कश, वैसा ही हृदय भी पत्थर। ‘बाहर भीतर एक समान।’ चौथे व्यक्ति होते हैं अंगूर के समान। अंगूर ऊपर से मुलायम, भीतर भी मुलायम, खाने में सुस्वादु, पौष्टिक और बलवर्धक होता है। ऐसे ही वे व्यक्ति हमेशा उचित, सुहावनी और मुलायम बातें कहते हैं। अर्थात् सत्य, कल्याणप्रद एवं प्रिय वचन बोलते हैं, जिसमें मानवहित निहित रहता है।
गो0 तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है कि इनके अतिरिक्त अन्य तीन तरह के व्यक्ति भी होते हैं। एक का मन गुबरैला के समान, दूसरे का घर की मक्खियों की तरह और तीसरे का मन मधुमक्खियों के समान होता है। ऐसे तीनों प्रकार के व्यक्तियों की संज्ञा उन्होंने इस प्रकार दी है-
“ विषयी साधक सिद्ध सयाने ।
त्रिविध जीव जग वेद बखाने ।।”
फुलवारी में रंग-बिरंग के फूल खिलते हैं। दूर-दूर से मधुमक्खियाँ आकर उसका रसपान करती हैं, मधु बनाती हैं। लेकिन बगल में रहनेवाला गुबरैला कीड़ा वहाँ नहीं जाता है। वह पखाने की गोलियाँ बनाता है और उसी को लुढ़काता फिरता है। उसी में वह आनन्द मानता है। उसी तरह कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो नजदीक में सत्संग होता है, भगवद्चर्चा होती है, पर वहाँ वे नहीं जाते। विषय-वासना में उलटते-पुलटते हुए मस्त रहते हैं। इन्हें विषयी कहते हैं। दूसरे लोग घर की मक्खियों की तरह होते हैं। घर में यदि मिठाइयाँ बन रहीं हों, तो मक्खियाँ उनका रस लेती हैं और यदि उसी घर में नन्हें-मुन्ने ने पखाना कर दिया तो वे उसपर भी जाकर बैठती हैं। पखाने को हटाकर जब साफ कर दिया जाता है तो वे मक्खियाँ फिर से मिठाइयों पर आ जाती हैं। इसी प्रकार कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो कभी भगवान का नाम भी लेते हैं और कभी विषयों में भी रमण करते हैं। इन दोनों ओर रहनेवाले की संज्ञा साधक की दी गई है। तीसरे सिद्ध पुरुष मधुमक्खी की तरह होते हैं, जैसे- मधुमक्खी सिर्फ फूल का पराग ग्रहण करती है, उसी तरह सिद्ध पुरुष भगवत् चरण कमल से अनुराग रखकर उसका पराग ही ग्रहण करते हैं और ब्रह्मानन्द में मग्न रहते हैं।
कथित चार प्रकार के व्यक्तियों के अतिरिक्त समाज में अन्य चार प्रकार के व्यक्ति भी देखने को मिलते हैं-मक्खीचूस, कंजूस, उदार और दाता। मक्खीचूस वैसे होते हैं, जैसे यदि घीउ में मक्खी पड़ जाय तो वे उसे निकालकर फेंकना नहीं चाहते, उसे चूसकर फेंकते हैं, ताकि घीउ बरबाद न हो। दूसरे होते हैं-कंजूस, वे अपने लिए तो सब कुछ करते हैं, पर दूसरों के लिए कुछ भी नहीं। तीसरे होते हैं-उदार, वे अपने लिए भी व्यवस्था करते हैं और दूसरों का भी ख्याल करते, ध्यान रखते हैं। चौथे होते हैं-दाता जो अपनी परवाह नहीं करते हैं, पर दूसरों के हित के लिए सब कुछ करने को तैयार रहते हैं, करते हैं। हमारे गुरुदेव कहा करते थे कि यदि दाता नहीं बन सको, तो कम-से-कम उदार तो अवश्य बनो।
भगवान श्रीराम कहते हैं कि मनुष्येत्तर जितने भी प्राणी हैं, उन्हें अपने आत्म-कल्याणार्थ सोचने की क्षमता नहीं है, लेकिन तुम तो सोच-समझ सकते हो। सोचो कि तुम्हें जो मनुष्य का शरीर मिला हुआ है तो तुम किस श्रेणी के व्यक्ति हो। अबतक अपने आत्मकल्याणार्थ अथवा परोपकारार्थ तुमने क्या किया है? किसी कार्य को करने के पहले सोच लेना बुद्धिमत्ता कहलाती है; सोचते हुए काम करना या काम करते हुए सोचना सतर्कता है और काम करके पीछे पश्चाताप करना मूर्खता है। गिरधर कवि की उक्ति है, किन्तु युक्ति-युक्त है विचारिए-
“ बिना विचारे जो करे, सो पाछे पछताय ।
काम बिगाड़े आपनो, जग में होत हँसाय ।।
जग में होत हँसाय, चित्त में चैन न आवै ।
खान पान अरु राग रंग, कुछ मन नहिं भावै ।।
कह गिरधर कविराय, करमगति टरै न टारै ।
खटकत है दिन रैन, किया जो बिना विचारै ।।”
विचार करने का समय हमें मिला हुआ है। इस मनुष्यतन में आकर हम यह विचार करें कि इसकी उपादेयता क्या है? परमप्रभु परमात्मा ने जो सृष्टि की है, उसमें मानव शरीर सर्वोपरि है। हमारा शरीर 84 अंगुलों का है। यह 84 अंगुल का शरीर परमात्मा ने हमलोगों को 84 लाख योनियों से छूटने के लिए दिया है। इसी शरीर में हम भक्ति करके प्रभु को पाकर आवागमन के चक्र से छूट सकते हैं। मनुष्येत्तर किसी शरीर में यह क्षमता नहीं, विवशता है।
भगवान श्रीराम कहते हैं कि मनुष्य का शरीर तुमको मिला है। तुम भाग्यवान हो, पर तुम्हारा भाग्य तब और बढ़ जाएगा जब-‘बड़े भाग पाइये सत्संगा’ अर्थात् जब तुम सत्संग करोगे तो तुम्हारा भाग द्विगुण हो जाएगा। यदि जिज्ञासा हो कि सत्संग करने से क्या लाभ होगा? तो इसका समाधान हमारे गुरुदेव करते हैं-
“ करि सत्संग गुरु खोज करिय, चुनिये गुरु सच्चा ।
बिन सद्गुरु का ज्ञान पंथ सब, कच्चहिं कच्चा ।।”
सत्संग में परमप्रभु की महिमा सुनने को मिलेगी। उनकी महिमा-विभूति और उपकारिता को सुनते-सुनते उनमें आकर्षण होगा। मन में प्रेरणा होगी कि हम भी उनकी भक्ति करके उन्हें प्राप्त करें। तब जिज्ञासा होगी कि भक्ति करें तो किस तरह? उत्तर में निवेदन है कि जिन्होंने भक्ति की है, उनकी शरण में जाना होगा और उनसे भक्ति की युक्ति सीखनी होगी। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय में कहा है-
“ तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।”
तत्वदर्शी के पास जाकर प्रणिपात करो, परिप्रश्न करो और उनकी सेवा करो। वे तुम्हें उस ज्ञान का उपदेश करेंगे, जिसके आचरण से प्रभु मिलेंगे, मुक्ति मिलेगी, परमकल्याण होगा।
भगवान श्रीराम ने नवधा भक्ति में शवरी को उपदेश के क्रम में गुरु-सेवा का आदेश दिया है-
‘गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।’
जो कोई मानरहित होकर गुरुपद-पंकज की सेवा करता है, तो रामचरितमानस बतलाता है कि वह लोक, वेद में बड़भागी होता है।
“ जे गुरु पद अम्बुज अनुरागी ।
ते लोकहु वेदहु बड़भागी ।।”
उसका भाग्य और बढ़ जाता है। लेकिन गुरु-चरणों की सेवा करने का अर्थ केवल पैर दबाना, नहलाना- धुलाना और खिलाना-पिलाना ही नहीं है। यह तो मामूली बात है। किन्तु सभी व्यक्ति इस तरह की सेवा कर भी नहीं सकते हैं। असली सेवा तो उनकी आज्ञा का पालन करना है।
‘आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा ।’
जब हम किसी सच्चे गुरु की शरण में जाते हैं तो वे हमें कुछ जप-ध्यान करने के लिए बतलाते हैं। पहले जप होता है, पीछे ध्यान। जिस इष्ट के नाम का हम जप करते हैं, उनके स्थूल-सगुण-साकार रूप का ध्यान भी करना चाहिए। संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ दरसन उनके उर माँहि करै बड़भागी ।
तिनके तरने की नाव किनारे लागी ।।”
जो कोई अपने इष्ट के रूप का ठीक-ठीक मानस ध्यान करते हैं तो भवसागर से तरने की तरणि उनके निकट आ जाती है। गुरु नानक देवजी महाराज ने कहा है-
‘गुरु की मूरति हिरदै बसाए । जो ईछै सोई फलु पाए ।।”
आज तो गुरु-मूर्ति का खंडन होता है। कहते हैं कि गुरु-मूर्ति को प्रणाम नहीं करो, उनके आगे हाथ नहीं जोड़ो। पर गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं कि गुरु-मूर्ति को हृदय में बसा लोगे तो तुम्हारी सारी कामनाएँ पूरी हो जाएगी। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नयन चकोर ।
पलक पलक निरखत रहो, गुरु मूरति की ओर ।।”
और संत शिवनारायण स्वामी कहते हैं-
“ निहारो यारो गुरु मूरति की ओर ।
गुरु मूरति सूरति बिच निरखो, तब उर होत इंजोर ।।”
अगर गुरु-मूर्ति को अपने अन्दर सही-सही उतार लोगे तो ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ हो जाएगा। अंधकार से प्रकाश में जाओगे। संत सद्गुरु तुम्हें सब कुछ दे सकते हैं; क्योंकि वे कल्पवृक्ष और कामधेनु के समान होते हैं। सन्त चरणदासजी महाराज की वाणी है-
“ कल्पवृक्ष गुरुदेव मनोरथ सब सरैं ।
कामधेनु गुरुदेव क्षुधा तृष्णा हरैं ।।”
इस विषय से सम्बन्धित प्रेरणादायक एक लघु कथा है। सुनिए-जंगल में रहनेवाला एकलव्य नाम का एक भील बालक था। वह धनुर्विद्या सीखने हेतु आचार्य द्रोण के पास गया। आचार्य द्रोण ने कहा-‘मैं केवल राजकुमारों को सिखलाता हूँ, तुम्हें नहीं सिखला पाऊँगा।’ एकलव्य लौटकर चला आया। उसने मन-ही-मन आचार्य द्रोण को अपना गुरु मान लिया था। उसने आचार्य द्रोण की एक मूर्ति बनाई और उसका ध्यान करने लगा। ध्यान में उसे जिस तरह के संकेत मिलते, उसी अनुरूप वह सर-संधान करता। उसी मूर्ति के ध्यान से वह धनुर्विद्या में इतना कुशल हो गया कि उसने अर्जुन को भी पीछे छोड़ दिया। आचार्य द्रोण ने अर्जुन से कहा था कि धनुर्विद्या में तुम्हें सबसे आगे बढ़ाऊँगा। एब बार आचार्य द्रोण पाँचो पाण्डव के साथ जंगल-भ्रमण को निकले। उनलोगों के साथ एक कुत्ता भी था। कुत्ता साथ छोड़कर आगे चला गया। एकलव्य जंगल में बैठकर गुरु-मूर्ति का ध्यान कर रहा था। कुत्ता उसके काले-कलूटे शरीर को देखकर भूँकने लग गया। उसने आँखें खोलीं और तत्क्षण इतने तीर उस कुत्ते के मुँह में प्रवेश करा दिये कि उसका मुँह ही बंद हो गया। उसपर भी विलक्षणता यह कि उतने तीर मुँह में प्रवेश करने के बाद भी रक्त का एक बूँद नहीं गिरा। एकलव्य पुनः ध्यान पर बैठ गया और कुत्ता उसी हालत में लौटकर अपने स्वामी के पास आ गया। सभी देखकर दंग रह गए। अर्जुन ने आचार्यजी से कहा-‘गुरुदेव! आपने कहा था कि तुम्हें धनुर्विद्या में सबसे आगे बढ़ाऊँगा, किन्तु जिसने कुत्ते के मुँह को तरकश बना दिया है, यह तो मुझसे भी बढ़ा हुआ है। यह कौन है?’ आचार्य ने कहा-‘चलो, आगे पता चलेगा।’ सब लोग आगे चले। पदाघात की आहट से पुनः एकलव्य का ध्यान भंग हुआ। एकलव्य ने आचार्य द्रोण को सामने पाकर उनके श्रीचरणों में प्रणाम निवेदित किया। आचार्य ने उससे पूछा-‘इस कुत्ते को इस तरह वाण किसने मारा?’ एकलव्य अपनी ओर संकेत करके बोला-‘आपके शिष्य ने।’ आचार्य ने कहा-‘मैंने तो तुम्हें यह विद्या नहीं सिखलाई?’ एकलव्य ने उत्तर दिया-‘आपने सिखलाई तो नहीं, लेकिन मैंने आपकी मूर्ति-गठन कर उसका ध्यान करना शुरू किया। उस ध्यान में मुझे जो-जो संकेत मिलते गए, उसी प्रकार मैं सर-संधान करने लगा, और ध्यान करते-करते आज इस स्थिति में आया हूँ।’ कहने का तात्पर्य यह कि एकलव्य ने धनुर्विद्या में कुशल होने की कामना से गुरु-मुर्ति का ध्यान किया तो उसमें कुशल हो गया। उसी तरह जो अपने इष्ट या गुरु के रूप का ध्यान करेंगे, उनके रूप को हृदय में बसाएँगे, तो बाबा नानकदेव के वचनानुसार उनकी कामना पूरी होगी। इस प्रकार संत सद्गुरु द्वारा दीक्षा प्राप्तकर अपने अन्दर गुरु-मूर्ति के दर्शन करने पर भाग्य चतुर्गुणा हो जाएगा। यह तो स्थूल-सगुण-साकार भक्ति हुई। इसके आगे की भक्ति के विषय में गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ श्री गुरु-पद-नख मनि गन जोती ।
सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ।।
दलन मोह तम सो सुप्रकासु ।
बड़े भाग उर आवइ जासू ।।
उघरहिं बिमल विलोचन ही के ।
मिटहिं दोष दुःख भव रजनी के ।।”
मानस जप और मानस ध्यान के बाद जब कोई दृष्टि साधन की क्रिया करते हैं, तो उनके अन्तर के नयन खुल जाते हैं। विमल विलोचन का उन्मेष होता है। उनके भाग्य का क्या कहना! वे अन्धकार से प्रकाश में चले जाते हैं और उनका भविष्य-जीवन प्रकाशमय हो जाता है। उसका भाग्य अष्टगुण अधिक हो जाता है, लेकिन इतने पर भी भक्ति की परिसमाप्ति नहीं हो जाती। संतमत के अनुयायी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टि साधन के बाद नादानुसन्धान की क्रिया होती है, जो भक्ति की पराकाष्ठा है। हमारे गुरुदेव कहते हैं-
“ अद्भुत अन्तर की डगरिया, जा पर चलकर प्रभु मिलते।।
दाता सतगुरु धन्य धन्य जो राह लखा देते।
चलत पंथ सुख होत महा है, जहाँ अझर झरते।।
अमृत ध्वनि की नौबत झहरत, बड़भागी सुनते।
सुनत लखत सुख लहत अद्भुती, ‘मेँहीँ’ प्रभु मिलते।।”
साधक जब अन्तस्साधना करके प्रकाश में जाता है तो पहले वह अनहद नादों को सुनता है, पश्चात् अनाहत नाद को। अनहद नाद की साधना करने वाले का सोलह आने भाग्य जग जाता है और जो अनाहत नाद की साधना करते हैं, उनके लिए तो कहना ही क्या है! वह अनाहत नाद साधक को परमप्रभु परमात्मा से जा मिलाता है। जिनको परमप्रभु मिल गये, उनसे और बड़ा भाग्यवान कौन होगा? तब वे भगवान हीं नहीं, सर्वेश्वर स्वरूप हो जाते हैं। मनुष्य शरीर पाने से भाग्योदय होता है। साधना करते-करते, उसमें बढ़ते-बढ़ते यहाँ तक पहुँच जाता है अर्थात् प्रभु मिल गये, काम समाप्त हुआ, मानव जीवन सार्थक हुआ।
भगवान श्रीराम कहते हैं कि इसी के लिए यह मनुष्य शरीर मिला है। भगवद्भजन करो और शुभ कर्मों को करो। यदि अभी भगवद्भजन नहीं करते हो तो परलोक में दुःख पाओगे। सिर धुन-धुन कर पछताओगे। काल, कर्म और ईश्वर को व्यर्थ ही दोष लगाओगे। इस तरह करने से कोई लाभ नहीं होगा। वस्तुस्थिति को समझो, मनुष्य का शरीर संसार-रूपी समुद्र को पार करने के लिए नाव है, प्रभु की कृपा अनुकूल वायु है और सद्गुरु मल्लाह हैं। खोजने से संत सद्गुरु भी मिल जाते हैं। उनसे सद्युक्ति लेकर सदाचार का पालन करते हुए भक्ति करो। प्रभु का साक्षात्कार होगा और तुम भवसागर से पार हो जाओगे। फिर भी यदि तुम भवसागर पार होने का यत्न नहीं करते हो तो अंतकाल में तुम्हारी वही दशा होगी, जो आत्महत्या करनेवालों की होती है। यह भगवान श्रीराम का कथन है।
अतएव चेतो, सवेरे चेतो। ‘गई सो गई अब राख रही को’ चरितार्थ करो। जो बीत गया उस समय को किसी तरह पकड़कर ला नहीं सकते। वर्तमान तुम्हारे साथ है, तुम्हारे हाथ है। इसलिए अभी से आरम्भ करो, तुम्हारा भविष्य बन जाएगा। बूँद-बूँद पानी से घड़ा भर जाता है। उसी तरह थोड़ी-थोड़ी भक्ति करके एक दिन पूर्णता को प्राप्त करोगे और तुम्हारा जीवन पूर्ण कल्याणमय हो जाएगा।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 02-03-2001 ई0 को अखिल भारतीय संतमत- सत्संग के 90वें वार्षिक महाधिवेशन अररिया में अपराह्नकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, अगस्त, 2001 ई0)

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माननीय मुख्यमंत्री श्रीबाबूलाल मरांडीजी, आगत सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
आपलोगों को ज्ञात कराया गया है कि यहाँ संतमत का सत्संग है। संतमत कोई नया मत, नया धर्म, नया मजहब, नया सम्प्रदाय या नया रिलीजन (Religion) नहीं है। यह परम पुरातन, सनातन वैदिक मत है। वैदिक मत होते हुए भी यह किसी अवैदिक मत से राग-रोष या घृणा-द्वेष नहीं करता है। संतमत संतों के मत का-ज्ञान का प्रचार-प्रसार करता है तथा उसी के आधार पर अपना विचार प्रकट करता है। संतमत में खंडन-मंडन की कोई बात नहीं होती।
एक समय की बात है। बादशाह अकबर ने बीरबल से पूछा-‘तुम कितने पढ़े-लिखे हो?’ बीरबल ने उत्तर दिया-‘जहाँपनाह! मैं थोड़ा-बहुत पढ़ा-लिखा हूँ।’ बादशाह अकबर ने कहा-‘एक बात बोलो, थोड़ा पढ़े हो या बहुत; दोनों बातें क्यों कहते हो?’ बीरबल ने उत्तर दिया-‘जहाँपनाह! जहाँ बहुत पढ़े- लिखे लोग होते हैं, वहाँ मैं कम बन जाता हूँ और जहाँ कम पढ़े-लिखे लोग होते हैं, वहाँ मैं बहुत बन जाता हूँ। इसीलिए मैंने थोड़ा-बहुत दोनों शब्दों का प्रयोग किया है।’ बादशाह अकबर ने कहा-‘बातें तो तुम लम्बी-चौड़ी बनाते हो, लेकिन मैं एक रेखा खींच देता हूँ, तुम इसका स्पर्श नहीं करो, मेटो नहीं, किन्तु छोटी बना दो।’ बीरबल ने बादशाह की रेखा के बगल में एक उससे लंबी रेखा खींच दी और कहा-‘जहाँपनाह! देखिए, मैंने आपकी रेखा का स्पर्श नहीं किया, मिटाया नहीं; लेकिन मेरी रेखा के सामने आपकी रेखा छोटी हो गई।’
इसी प्रकार संतमत किसी धर्म का स्पर्श नहीं करता, किसी को मेटता नहीं अर्थात् किसी का खण्डन नहीं करता, किसी का धर्म-परिवर्तन नहीं कराता, बल्कि कर्म परिवर्तन कराता है। यानी असत् कर्मों को छुड़ाकर सत् कर्म में लगाता है। पापकर्मों से हटाकर पुण्यकर्म करने की प्रेरणा देता है। अखाद्य- अपवित्र खान-पान का त्याग कराकर सात्विक पवित्र भोजन करना सिखाता है। संतमत बतलाता है कि सदाचार समन्वित होकर ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर-भक्ति करो। तुम्हारा इहलोक और परलोक दोनों कल्याणमय होगा। सर्वप्रथम खान-पान का सुधार होना चाहिए। हमारे गुरु महाराज ने कहा है-
“ खान-पान को प्रथम सम्हारो ।
तब रस-रस अवगुण सब मारो ।।”
मांस-मछली, अंडा, शराब आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। इसका सेवन धर्म और स्वास्थ्य दोनों ही दृष्टि से हानिकारक है। अमेरिका के दो वैज्ञानिकों-डॉ0 माइकल एस0 ब्राउन और डॉ0 जोसेफ एल0 गोल्डस्टीन को इस विषय पर खोज के लिए 2,25000 डॉलर के नोवेल पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया है। उन्होंने बतलाया कि मांस और अण्डे का सेवन खतरनाक है। इससे हार्टअटैक, जोड़ो में दर्द, पित्ताशय व मूत्रशय में पथरी, चर्मरोग आदि व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। शराब पीने से मस्तिष्क खराब हो जाता है और आँत से संबंधित अनेक बीमारियाँ होती हैं। स्वास्थ्य खराब हो जाता है, शरीर कमजोर हो जाता है और आदमी बेकाम हो जाता है।
एक बार एक शराबी शराब पीकर घर लौट रहा था। संध्या हो चुकी थी। चलते-चलते वह सड़क के किनारे लुढ़क गया और नाली में गिर गया। नाली में पड़े-पड़े वह बड़-बड़ा रहा था-नगरपालिका के चेयरमैन को बुलाओ, मैं उसे समझाऊँगा। सारा दिन तो वह नाले को सड़क के बगल में रखता है, पर जब मेरे टहलने का समय होता है, तो उसे सड़क के बीच में रख देता है। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि।)
संतमत नशा, हिंसा के साथ झूठ, चोरी और व्यभिचार से भी बचने का उपदेश देता है। जो झूठ बोलता है उसपर कोई विश्वास नहीं करता। झूठ बोलनेवाले के लिए ऐसा कोई पाप नहीं, जिसको वह कर न सके। झूठ को सब पापों का बाप कहा गया है। यह सभी पापों का जन्मदाता है। कितना भी पाप कोई कर ले और कोई पूछे कि तुमने किया? वह कह देगा कि ना, मैंने नहीं किया। क्या हुआ? सारा पाप उस झूठ के झोले में समा गया। चोरी मत करो। अर्थात् दूसरे की वस्तु उसकी स्वीकृति के बिना मत लो। व्यभिचार-परस्त्री और परपुरुष-गमन मत करो। सभी धर्म इन पंच पापों को छोड़ने का उपदेश करते हैं।
आज इस राँची के इलाके में मुरहू और मलियादाह गाँव के लगभग पाँच सौ आदिवासियों ने संतमत के ज्ञान को अंगीकार कर मांस, मछली, अंडा, शराब आदि सेवन करना छोड़ दिया है। अपनी जीविका चलाते हुए पवित्र जीवन बिताते हैं। जिसको कोई समझानेवाला नहीं है, वहाँ भी संतमत प्रचार-प्रसार द्वारा मार्गदर्शन देकर उसका कल्याण करता है।
अभी लगभग एक महीने पूर्व में नेपाल राज्य से सत्संग करके लौटा हूँ। करीब पचास साल पहले मैं अपने गुरुदेव के साथ नेपाल गया था। वहाँ तीन दिनों के सत्संग का कार्यक्रम था। सत्संग का काम पूरा हो चुका था। वहाँ के सूबेदार ने खबर की कि महर्षिजी को रुकने कहिए, मैं कुछ बातें करूँगा। लोगों के मन में हुआ कि सूबेदार ने तीन दिनों तक सत्संग सुना है तो उनके मन में आध्यात्मिक जिज्ञासा हुई होगी। लेकिन होता क्या है, आते ही सूबेदार ने कहा कि ‘हम आप पर केस करने जा रहे हैं। जबतक केस का फैसला नहीं हो जाता, आप भारत नहीं जा सकते।’ उनसे पूछा गया कि ‘केस क्यों करने जा रहे हैं? उन्होंने उत्तर दिया-‘आपलोग क्रांतिकारी हैं, भारत से नेपाल में क्रांति करने आए हैं।’ उनसे गुरु महाराज ने पूछा-‘तीन दिनों के सत्संग में आपने क्रांति की कौन-सी बात सुनी?’ उन्होंने कहा-‘सो तो मैंने नहीं सुनी, लेकिन जब आपलोग आए थे, तो आपका स्वागत लाल झंडे से हुआ था। यह लाल झंडा क्रांति की निशानी है।’ गुरु महाराज ने कहा-‘झंडे तो लाल, हरे, पीले, नीले सभी रंग के थे।’ सूबेदार ने कहा-‘सो जो हो, लेकिन लाल रंग का झंडा था कि नहीं?’ अब उस सूबेदार महाशय को समझाए तो कौन! नेपाली भाषा जाननेवाले जो वहाँ के कुछ प्रतिष्ठित सत्संगी लोग थे उन्होंने उनको समझाया- बुझाया, तब कहीं वे शांत हुए।
एक दिन तो वह था, जब वहाँ के लोग संतमत से अपरिचित थे और इस बार के सत्संग में वहाँ की सरकार ने भरपूर सहयोग किया। लगभग डेढ़ लाख लोगों की उपस्थिति थी। उतने लोगों के लिए जो पंडाल बना था उसके लिए वहाँ की सरकार ने मुफ्रत में जमीन दी, बिजली और पानी की निःशुल्क व्यवस्था की; जबकि वहाँ घर-घर में पानी का मीटर लगा हुआ है। इसके अतिरिक्त एक लाख रुपये की सहयोग राशि भी नेपाल सरकार ने दी।
संतमत के प्रचार से नेपाल के लोगों के जीवन में आमूल परिवर्तन हुआ है। जिस समय हमारे गुरुदेव ने वहाँ संतमत का प्रचार शुरू किया था, उस समय वहाँ के देहाती लोग ठीक से कपड़ा पहनना भी नहीं जानते थे। वहाँ की महिलाएँ एक साढ़े तीन हाथ का कपड़ा अपने सीने पर बाँधती थी, जो घुटने के नीचे तक आता था। बस यही उनका पोशाक था और पुरुष वर्ग के लोग विष्टी (लंगोट) पहनते थे। मांस, मछली, अंडा, शराब उनका खान-पान था। बरसात के दिनों में पहाड़ी नदियों में बहुत मछलियाँ आती थीं। वे लोग उन मछलियों को पकड़-पकड़कर खाते थे और बची मछलियों को कूट-कूटकर गोलियाँ बनाते, फिर उसे सुखाकर रखते थे। जब चैत-वैशाख में नदियाँ सूख जातीं, तो उन्हीं गोलियों को आग में पकाकर खाते थे। गुरु महाराज ने उन अनपढ़ लोगों को लिखने-पढ़ने के लिए प्रेरित किया, संतमत का ज्ञान उन्हें समझाया-बुझाया, खाने-पीने का सही तरीका सिखलाया। भारत से सत्संगी परिवार की महिला को भेजकर उनकी महिलाओं को साड़ी पहनना सिखलाया। आज वहाँ के लोग भी भद्रजनों की भाँति कपड़े पहनते हैं, विद्यार्जन करते हैं, सात्विक आहार करते हैं तथा जीविकोपार्जन करते हुए सत्संग-ध्यान भी करते हैं।
आज हमारे बीच झारखण्ड राज्य के मुख्यमंत्री श्रीबाबूलाल मराण्डीजी आए हुए हैं। इनको देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। इनकी और मेरी पहली ही मुलाकात नहीं है, बल्कि पहले भी मुलाकात है। जिस समय ये मुख्यमंत्री-पद पर प्रतिष्ठित नहीं थे, उस समय जो इनमें सादगी, सरलता और विनम्रता थी, वह आज भी इनमें विद्यमान है। गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में, ‘प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं’ तथा ‘श्री मद वक्र न कीन्ह केहि’ लिखकर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। भक्त की जिज्ञासा का समाधान भगवन्त करते हैं-
“ भरतहि होहि न राज मद, विधि हरिहर पद पाइ ।
कबहुँ कि कांजी सीकरन्हि, क्षीर समुद्र नसाइ ।।”
इसी प्रकार मैं देख रहा हूँ कि श्रीमराण्डीजी में भी पद का मद नहीं है। इनकी ऋजुता, कर्मठता तथा शालीनता से मुझे बड़ी प्रसन्नता है। इनकी शुभोन्नति के लिए में शुभाशीर्वाद देता हूँ।
अब इनके नाम के संबंध में थोड़ा सुनिए। ‘माननीय’ और ‘मरांडी’ इन युगल शब्दों में ‘माननीय’ सम्मान-सूचक और ‘मरांडी’ उपाधि-सूचक शब्द है। ‘बाबू’ और ‘लाल’; ये दोनों शब्द अनेकार्थक होने के कारण बहुभाव द्योतक हैं। बाबू शब्द का व्यवहार छोटे बच्चों के लाड़-प्यार-दुलार में किया जाता है। प्रायः ऐसा भी देखा जाता है कि ‘बाबू’ शब्द का प्रयोग जहाँ छोटे बच्चों के लिए किया जाता है, वहाँ बच्चे भी अपने पिता के लिए ‘बाबू’ शब्द का उपयोग करते हैं। इतना ही नहीं, श्रेष्ठजनों के लिए यह आदर-सूचक भी माना जाता है।
यदि हम ‘बाबू’ शब्द को रुढ़ि संज्ञा से यौगिक और योगरुढ़ि संज्ञा में परिवर्तित कर सकें, तो इसकी व्यापकता और अधिक हो जाएगी। ‘बा’ फारसी शब्द है, जिसका अर्थ ‘साथ’-‘सहित’ होता है। जैसे ‘बाआवोताव’ यानी चमक-दमक के साथ, ‘बाईमान= ईमानवाला। तथा ‘बू’ फारसी भाषा का ही स्त्रीलिंग शब्द है, जिसका अर्थ होता है-‘गंध’। इस प्रकार ‘बाबू’ शब्द का अर्थ हुआ-सुगंध के साथ। ‘सुगंध’ कई चीजों में पाई जाती है। यथा-चंदन, केसर, पुष्प आदि। पुष्पों में जो सुगंध होती है, उसको तिल में बसाकर सुगंधित तैल या इत्र आदि बनाते हैं। ‘इत्र’ अरबी भाषा का शब्द है।
‘इत्र’ शब्द से संबंधित एक बहुत सुन्दर और रोचक आख्यान है। सन 1628 ई0 से 1658 ई0 तक शाहजहाँ भारत के बादशाह थे। वे सुगंधि के बड़े शौकीन थे। वे जिस ह्रद में स्नान करते थे, उस ह्रद के जल में स्नान से कुछ घंटे पूर्व बहुत से सुगंधित पुष्प रख दिए जाते थे। जल में वास आ जाने पर उस सुवासित जल से वे स्नान करते थे। उनके लिए प्रतिदिन इत्र बनाया जाता था। उनकी घ्राण-शक्ति इतनी तेज थी कि वे ताजा और बासी इत्र की पहचान कर लेते थे। वे प्रतिदिन ताजा इत्र का व्यवहार करते थे, बासी नहीं।
उस समय के नवाब तथा उनके संसर्गी लोग भी तैल-फुलेल-इत्र आदि लगाया करते थे।
अंग्रेजों ने नवाब वाजीद अली शाह को लखनऊ से कलकत्ता भेज दिया। उनके संपर्क में आने वाले वहाँ के प्रतिष्ठित लोग भी सुगंधित द्रव्यों का उपयोग करने लगे। वे लोग अंग्रेज पदाधिकारियों से मिलने जाते, तो सेन्ट लगाकर जाते। उस सुवास के कारण अंग्रेज लोग इनलोगों को ‘बाबू’ शब्द से अभिहित करने लगे, जो कालान्तर में एक आदरसूचक शब्द के रूप में परिणत होकर रूढ़ हो गया। जैसा कि आज भी अंग्रेजों की देन ‘गुप्त’ शब्द का ‘गुप्ता’ और ‘मिश्र’ शब्द का ‘मिश्रा’ शब्द प्रचलित है। इतना ही नहीं, इन शब्दों का प्रयोग करने में हम अपने को गौरवान्वित भी समझते हैं। जबकि इन शब्दों के अर्थ उत्तम नहीं हैं।
हाँ, तो मैं गंध के संबंध में कह रहा था। भगवान बुद्ध के अनन्य भक्त स्थविर आनंद ने एक दिन भगवान से पूछा-‘भन्ते! सारगंध, मूलगंध और पुष्पगंध सीधी हवा ही जाती है, उल्टी हवा नहीं जाती। क्या, ऐसी कोई गंध है, जो सीधी हवा भी जाती हो और उल्टी भी?’ भगवान ने उत्तर देते हुए कहा-‘पुष्प, चन्दन, तगर या चमेली; किसी की भी सुगंधि उल्टी हवा नहीं जाती, किन्तु संतो-सज्जनों की सुगन्ध उल्टी हवा भी जाती है। सत्पुरुष सभी दिशाओं में सुगन्ध बहाते हैं। चन्दन वा तगर, कमल वा जूही; इन सभी की सुगन्धों से शील (सदाचार) की सुगन्ध उत्तम है। चंदन और तगर की जो गंध फैलती है, वह अल्पमात्र है और जो शीलवानों की गंध होती है, वह उत्तम गंध देवताओं में फैलती है।’
संतमत में सदाचार का एक विशिष्ट स्थान है। संतमत कहता है-सदाचार की आधारशिला पर ही ज्ञान, योग-युक्त भक्ति का भव्य भवन बन सकता है। सदाचार-हीन व्यक्ति सदा दीन, हीन और मलिन बना रहेगा। उसकी लोकोत्तर उन्नति नहीं हो सकती।
'If wealth is lost, nothing is lost;
If health is lost, something is lost;
If charactor is lost, everything is lost.'
अर्थात् यदि सम्पत्ति नष्ट हुई तो कुछ नष्ट नहीं हुआ। यदि स्वास्थ्य नष्ट हुआ तो थोड़ी क्षति हुई। किन्तु यदि चरित्र नष्ट हो गया, तो सब नष्ट हो गया।
जो सदाचार का पालन करते हैं, अर्थात् झूठ नहीं बोलते, चोरी नहीं करते, नशीली किसी चीज का सेवन नहीं करते, हिंसा नहीं करते, व्यभिचार नहीं करते और एक ईश्वर पर विश्वास करते हैं, ऐसे पवित्र व्यक्ति ही संत सद्गुरु के बताए आंतरिक मार्ग पर चलकर ब्रह्म को प्राप्त करते हैं और ब्रह्मवत् हो जाते हैं।
“ सोइ जानइ जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ।।”
(गोस्वामी तुलसीदासजी)
‘बाबू’ के विषय में तो आपलोगों ने सुन लिया, अब ‘लाल’ के संबंध में भी कुछ सुनिए। जैसे ‘बाबू’ शब्द बहुव्यापक है, उसी भाँति ‘लाल’ शब्द भी बहुअर्थवाचक है। छोटे बच्चों को उसके माता-पिता लाड़-प्यार करते हुए ‘लाल’ शब्द का प्रयोग करते हैं। बचपन में बाल-वर्ग की पाठ्य-पुस्तक में मैंने एक कविता पढ़ी थी, जो मुझे आज भी स्मरण है। प्रभातकाल में एक माँ अपने सोये बच्चे को ‘लाल’ शब्द से संबोधितकर जगाती है; यथा-
“ उठो लाल आँखों को खोलो ।
पानी लायी हूँ मुँह धोलो ।।
जाग जगमगा उठा जगत सब ।
मेरे लाल जाग तू भी अब ।।--’
संतप्रवर सूरदासजी के शब्दों में हम कह सकेंगे-
‘जसुमति माय लाल अपने को शुभदिन डोल झुलायो ।’
इस ‘लाल’ शब्द में माँ का कितना प्यार भरा है! कौन जानता था कि एक साधारण आदिवासी दम्पत्ति का ‘लाल’ इतना कमाल करेगा कि वह भारत का लाल कहलाएगा और अपनी ज्ञान-गरिमा से उजाड़ झारखण्ड को उजागर करेगा।
‘लाल’ शब्द के अनेक अर्थों में एक अर्थ बहुमूल्य रत्न भी होता है। तीनों लोकों में जितने प्रकार के, जितने भी लाल हों, उन सबको समेटकर यदि एकत्र किया जाय, फिर भी संत कबीर के ‘लाल’ की तुलना में वह अत्यन्त तुच्छ होगा; जैसे प्रभाकर-प्रकाश के समक्ष जुगनू-ज्योति। उनका कथन है-
“ लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल ।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ।।”
तथा संत कबीर के विचार में कोई भी व्यक्ति कितना भी जागतिक लाल क्यों न पा ले, फिर भी वह कंगाल ही बना रहेगा।
“ लाल लाल जो सब कोइ कहै, सबकी गाँठी लाल ।
गाँठी खोलि कै परखै नाहीं, तासे भयो कंगाल ।।”
किसी समय एक अच्छे धार्मिक बादशाह थे। उनके दरबार में गुणवानों, विद्वानों और साधु-संतों का अच्छा सम्मान होता था। उनमें अन्य गुणों के अतिरिक्त दानशीलता भी थी। उनकी दानशीलता की प्रशंसा सुनकर एक फकीर उनके पास गए। वह समय बादशाह के नमाज पढ़ने का था। बादशाह ने नम्रतापूर्वक कहा-‘फकीर साहब! अभी नमाज अदा करने का वक्त हो गया है, मेहरबानी कर आप थोड़ी देर के लिए यहाँ तशरीफ रखें। नमाज अदा कर चुकने के बाद आप से गुफ्रतगू कर लूँगा। फकीर साहब वहाँ बैठ गए और बादशाह उनसे थोड़ी ही दूर पर जायेनमाज बिछाकर नमाज पढ़ने लगे। जबतक वे नमाज पढ़ते रहे, तबतक फकीर साहब वहाँ बैठे रहे। नमाज पूरी हो जाने के बाद बादशाह अल्लाह के सामने हाथ जोड़कर कहने लगे-‘या अल्लाह परवरदीगार! मुझे तन्दुरुस्ती दे, मेरी औलाद को खुशकिस्मत बना, खजाने में बरकत दे, फौज को कामयाब कर आदि----।’ सुनते-सुनते फकीर साहब का मन ऊब गया और वे उठकर चलने लगे। बादशाह की नजर जब उनपर पड़ी, तो हाथ जोड़कर पूछने लगे-‘फकीर साहब! आप किसी काम से मेरे पास आए थे, किन्तु बिना कुछ कहे-सुने जाने लगे, मुझसे क्या खता हुई?’ फकीर साहब ने उत्तर दिया-‘खता तुमसे नहीं, मुझसे हुई। मैंने सुना था कि तुम बहुत खैरात करते हो, इसी से तुम्हारे पास आया था। मगर मैंने देखा कि तुम खुद भीखमंगे हो, मुझे क्या दोगे? अभी तुम जिनसे माँग रहे थे, उन्हीं से मैं भी माँग लूँगा।’
वस्तुतः जागतिक हीरा, लाल, जवाहर कोई कितना भी क्यों न पा लें, जबतक भीतर में किसी प्रकार की माँग बनी हुई है, तबतक वह कंगाल ही है। प्रश्नोदय होता है कि तब वह कौन-सा लाल है, जिसे पाकर कंगालपन दूर हो जाय और हमारा जीवन निहाल हो जाय? संत कबीर साहब कहते हैं-‘सबकी गाँठी लाल।’ वह गाँठ क्या है? गो0 तुलसीदासजी इसका इस भाँति स्पष्टीकरण करते हैं-
“ जड़ चेतनहि ग्रन्थि पड़ि गई ।
जदपि मृषा छूटत कठिनई ।।”
साधनाभ्यास के द्वारा जब जड़ और चेतन की ग्रन्थि खुलती है, तब परमात्मा-रूपी लाल मिलता है। उसी को प्राप्त कर संत कबीर साहब कहते हैं-
‘लाली देखन मैं गयी, मैं भी हो गई लाल ।’
अर्थात् परमात्मा को पाकर वह भी वही हो जाता है। प्रसन्नता की बात है कि हमारे बीच श्री मरांडीजी मुख्यमंत्री-रूपी जागतिक लाल प्राप्त कर उपस्थित हैं। मैं चाहूँगा कि ये भी संत कबीर के लाल की ओर उन्मुख हो सकें, तो मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी। (श्रोताओं की ओर से श्री सद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)।
उस परमात्मा-रूपी लाल को खोजने के लिए कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं है। संत कबीर साहब ने कहा है-‘घट घट में वह साईं रमता।’ और हमारे गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) कहते हैं-
“ निज तन में खोज सज्जन, बाहर न खोजना ।
अपने ही घट में हरि हैं, अपने में खोजना ।।
दोउ नैन नजर जोड़ि के, एक नोक बना के ।
अन्तर में देख सुन सुन, अन्तर में खोजना ।।”
दृष्टि की दोनों धारों को मिलाकर एक करो। जब दोनों धाराएँ मिलेंगी तो पूर्ण सिमटाव होगा, ऊर्ध्वगति होगी, आवरण भेदन होगा और तुम अंधकार से प्रकाश में चले जाओगे। इसका संकेत बाइबिल में भी है-‘यदि तेरी आँखें एक हो तो तेरा सारा शरीर उजियाला होगा।’ एक फकीर ने भी कितना अच्छा कहा है-
“ जिगर वोह हुस्न एक सूई का मंजर याद है अबतक ,
निगाहों का सिमटना औ हुजूमें नूर हो जाना ।”
अर्थात् जिसकी निगाहें सिमटती है, वह प्रकाश में पहुँच जाता है।
आप ईसाई, इस्लाम, वैदिक किसी धर्म को लीजिए, सबका मूल सिद्धान्त एक है। बाहर में डाल-पात तो अनेक हैं। निष्कर्ष यह कि अन्तस्साधना के द्वारा अन्तःप्रकाश को प्राप्त करें। जो अन्तःप्रकाश को प्राप्त करते हैं, वे अन्तर्नाद भी सुनते हैं।
“ बजती है पाँच नौबतें, सुनि एक एक को ,
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।”
अपने अन्दर जो ध्वनि होती है, वही ब्रह्मनाद या आवाजेगैब है। सृष्टि के आदि में वह शब्द हुआ था। बाइबिल में लिखा है- In the beginning was the word, the word was with God and the word was God.
इस विषय का प्रतिपादन कुरआन-शरीफ में है-खुदा ने कहा ‘कुन’ और हो गया।
वेद में आया है-‘एकोऽहम् बहुस्याम’-मैं एक हूँ, बहुत हो जाऊँ।
जो उस आदिशब्द को पकड़ते, हैं उनके लिए संत कबीर साहब कहते हैं कि वे भव-बन्धन से छूट जाते हैं।
“ आदिनाम पारस अहै, मन है मैला लोह ।
परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह ।।”
लोगों में विश्वास है कि पारस एक पत्थर होता है, जिसका लोहे में स्पर्श करा देने से लोहा सोना हो जाता है। लेकिन आज तक किसी ने उस पारस से सोना बनते नहीं देखा। संत कबीर साहब का कहना है कि वह पारस आदिशब्द है। परमात्मा से जो शब्द निःसृत हुआ है, उसे ओ3म्, स्फोट, उद्गीथ आदि नामों से अभिहित किया गया है। उस शब्द को जो कोई पकड़ते हैं तो वह शब्द उसको परमात्मा से मिला देता है। जैसे जो नदी चलते-चलते समुद्र में मिल जाती है, तो उसकी संज्ञा समुद्र हो जाती है, उसी तरह जीव उस शब्द को पकड़कर परमात्मा में जा मिलकर वही हो जाता है। मुण्डक उपनिषद् में आया है-
“ यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं
गच्छन्ति नामरूपे विहाय ।
तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।”
जिस प्रकार निरन्तर बहती हुई नदियाँ अपने नाम-रूप को त्यागकर समुद्र में अस्त हो जाती हैं; उसी प्रकार विद्वान नाम-रूप से मुक्त होकर परादिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है।
इस प्रकार आवागमन का चक्र छूट जाता है। दैहिक, दैविक और भौतिक; इन त्रितापों से जो मानव संतप्त होता रहता है सदा के लिए मुक्त हो जाता है। लेकिन इस मार्ग पर चलने के लिए हमारा जीवन पवित्र होना चाहिए। गुरु नानक देवजी महाराज ने कहा है-
‘सूचै भाड़ै साचु समावै विरले सूचाचारी ।’
पवित्र बरतन में सत्य अँटता है। अपने जीवन को पवित्र बनावें, सदाचार का पालन करें, अपने और परिवार के भरण-पोषण के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र उद्यम अवश्य करें। यथासंभव दूसरे का उपकार करें, समाज की सेवा करें, देश की सेवा करें, अपनी योग्यता के अनुकूल विश्व की सेवा कर सकें तो अत्युत्तम। नित्य-नियमित रूप से सत्संग-भजन करें। इससे इहलोक और परलोक दोनों में कल्याणमय जीवन होगा। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
माननीय मुख्यमंत्रीजी के पास यद्यपि समय का अभाव है। फिर भी इन्होंने सत्संग में अपना बहुत-सा समय दिया है। इसके लिए इनको मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ और इनके सहित सबलोगों के लिए प्रभु से मंगलकामना करता हूँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 28-04-2001 ई0 को राँची जिला संतमत- सत्संग के 11वें अधिवेशन; राजकीय उच्च विद्यालय राँची में अपराह्नकालीन सत्संग के सुअवसर
पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अगस्त, 2001 ई0)
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आदरणीय डॉ0 तौहिद साहब, सरदार अवतार साहब, डॉ0 कृष्णानन्दजी, प्रो0 सुनील बाबू, मंचासीन महात्मागण समवेत सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आज आषाढ़ महीने की पूर्णमासी है। आज ही की तिथि में वेदव्यासजी महाराज का आविर्भाव इस जगतीतल पर हुआ था। इनके शरीर का रंग कृष्ण था और इनका जन्म द्वीप में हुआ था, इसलिए इनका नाम कृष्णद्वैपायन हुआ। जब इन्होंने वेद का विभाजन और सम्पादन किया, तब इन्हें वेदव्यास कहा जाने लगा। ये बहुत बड़े पंडित, ज्ञानी, ध्यानी, यशस्वी, मनस्वी, वर्चस्वी, ओजस्वी, त्यागी, विरागी और ईश्वर अनुरागी थे।
इनकी ख्याति देश-विदेश में फैल गई। इनके पांडित्य की गरिमा जान ईरान के विद्वानों ने इन्हें आमंत्रित किया। इन्होंने वहाँ जाकर उन विद्वानों से शास्त्रर्थ किया और उन्हें पराजित कर विजयी हुए। तब इनकी संज्ञा जगद्गुरु की हुई। उसी जगद्गुरु के नाम पर यह पूर्णिमा व्यास-पूर्णिमा के नाम से अभिहित है। इस दिन भक्तगण अपने-अपने गुरु का अर्चन-वन्दन-पूजन आदि किया करते हैं।
संत कबीर साहब ने कहा है-
“ कबीर पूरे गुरु बिना, पूरा शिष्य न होय ।
गुरु लोभी सिष लालची, दूनी दाझन होय ।।”
जबतक पूरे गुरु नहीं मिलेंगे, शिष्य पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता है। प्राइमरी स्कूल के अध्यापक से पढ़कर अगर कोई एम0 ए0 पास करने की आशा करता है, तो यह दुराशा ही होगी। जो पूरे गुरु होते हैं, वे कैसे होते हैं और उनसे क्या मिलता है? किसी शायर ने बड़ा अच्छा कहा है-
“ जो बात दवा से नहीं होती, वह बात दुआ से होती है ।
मिल जाते जब पूरे मुर्शिद, तब बात खुदा से होती है ।।”
जो पूरे गुरु होते हैं वे खुदा से बातचीत करा देते हैं, संग करा देते हैं। खुदा का साक्षात्कार कौन करा सकते हैं? जिसने स्वयं साक्षात्कार किया है। किसी समय स्वामी विवेकानंद ने श्रीरामकृष्ण परमहंसजी से पूछा था कि ‘आपने ईश्वर-दर्शन किए हैं?’ श्रीरामकृष्ण परमहंसजी ने उत्तर दिया-‘हाँ मैंने दर्शन किए हैं। जैसे मैं तुमको देख रहा हूँ, उसी तरह मैं उनको देखता हूँ।’
खेत उत्तम हो और बीज निर्जीव हो अथवा बीज सजीव हो और खेत अनुत्तम हो, तो फसल नहीं उग सकती। किन्तु यदि खेत अच्छा हो और बीज सजीव हो तो फसल लहलहा उठेगी। इसी प्रकार शिष्य योग्य हो और गुरु अयोग्य हो अथवा गुरु योग्य हो और शिष्य अयोग्य हो तो बीज मंत्र फलीभूत नहीं होता। किन्तु यदि गुरु योग्य हो और शिष्य भी श्रद्धासंयुक्त पवित्र पात्र हो तो चेतना जाग्रत हो उठेगी। ठीक वैसे ही, जैसे बुझे हुए दीप को प्रज्वलित प्रदीप उद्दीप्त कर देता है।
गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
‘दीपक से दीपक परगासिआ त्रिभवण जोत सवाई ।’
भगवान बुद्ध ने कहा है-
“ यावज्जीवम्पि चे बालो पण्डितं पयिरुपासति ।
न सो धम्मं विजानाति दब्बी सूपरसं यथा ।।”
कोई मूर्ख यदि ज्ञानवान गुरु के साथ रहकर अपना जीवन बिता दे, तदपि उनके ज्ञान को वह उसी तरह लाभ नहीं कर सकता, जैसे कलछी सब्जी को उलटाती-पलटाती है, पर उसका स्वाद नहीं जानती। पत्थर हजारों वर्ष पानी में रह जाए, पर उसमें पानी प्रवेश नहीं करता।
चंदन का पेड़ अपनी शीतल सुगंध से निकटस्थ पेड़ों को चंदन बना देता है। जब एक जड़ वृक्ष अपनी सुगंधी बसाकर दूसरे पेड़ को अपने जैसा बना सकता है, तो चेतन गुरु क्या नहीं कर सकते! लेकिन संत कबीर साहब कहते हैं-
“ कबीर चंदन के ढिगे, नीम भी चंदन होय ।
बूड़े बाँस बड़ाइया, यों मत बूड़ो कोय ।।”
अन्य पेड़ तो चंदन के निकट रहकर चंदन बन जाते हैं, पर बाँस चंदन नहीं बनता। क्यों? अन्य पेड़ों का भीतरी भाग ठोस होता है, उसमें ग्राहक शक्ति होती है, पर बाँस का भीतरी भाग तो खोखला (खाली) होता है, उसमें ग्राहक शक्ति होती नहीं, वह ग्रहण क्या करेगा? उसी तरह जिस व्यक्ति का हृदय खोखला है-श्रद्धाहीन है, गुरु में आस्था नहीं है, वह गुरु के ज्ञान को क्या ले सकता है!
दिल्ली में हजरत निजामउद्दीन के नाम पर एक रेलवे स्टेशन है। वहाँ तो बड़े-बड़े बादशाह हुए, पर उनके नाम पर वहाँ स्टेशन का नाम नहीं पड़ा, क्यों?
हजरत निजामउद्दीन औलिया एक कामिल फकीर थे। उनके बाइस चेले, शिष्य थे। वे सभी चाहते थे कि इनके बाद हमको ही गद्दी मिले। सब-के-सब सोचते थे कि हम गुरु बनें, हम गुरु बनें। हजरत साहब ने उन सबकी परीक्षा लेने की सोची, ताकि योग्य उत्तराधिकारी की पहचान हो जाए। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा-‘चलो जी, आज बाजार घूमने चलते हैं। बाइसो शिष्य उनके साथ हो लिए। बाजार से नीचे वेश्यालय था, घूमते-घूमते वे वहाँ चले गए। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा-‘तुमलोग यहीं ठहरो। मुझे काम है, मैं ऊपर कोठे पर जाता हूँ।’ हजरत साहब ऊपर कोठे पर चढ़ गए और शिष्य लोग दृष्टि टिकाए हुए थे कि देखें, हमारे गुरु वेश्या के यहाँ क्या-क्या करते हैं। हजरत साहब ने फरमाया-‘देखोजी, मेरे लिए रोटी लाओ, दाल लाओ और शराब की बोतल लाओ।’ सभी चीजें आने लगीं। इन दृश्यों को देखकर शिष्य लोग सोचने लगे, हमारे गुरुजी वेश्या के घर में खाना खाएँगे, शराब भी पीएँगे, तो आगे और बात भी हो सकती है। एक-एक करके शिष्य लोग वहाँ से खिसकने लगे। वे भोजन क्या करते, उनको तो शिष्यों की परीक्षा लेनी थी। हजरत साहब ने वेश्या से कहा-‘तुम दूसरी जगह जाकर सोओ, मुझे इस कमरे में सोने दो।’ उन्होंने सारी रात वहीं बिता दी और सबेरे जब कोठे से नीचे उतरे तो देखते हैं कि एक शिष्य को छोड़कर सब-के-सब जा चुके थे। जो एक रह गए थे, उनका नाम था अमीर खुसरो। उतरते ही हजरत साहब ने अमीर खुसरो से पूछा-‘तुम अकेले हो और सब कहाँ गए?’ उसने उत्तर दिया-‘आपको ऊपर देखकर आपके प्रति सबके मन में घृणा हो गई। वे लोग सोचने लगे कि ऐसे भी कोई गुरु होते हैं कि जो वेश्या-गमन करे और शराब पीए। सभी चले गए।’ हजरत साहब ने उससे पूछा-‘तुम क्यों नहीं गए?’ अमीर खुसरो ने उत्तर दिया-‘चला तो मैं भी जाता, पर मैंने चारो तरफ अपनी नजर दौड़ायी, किन्तु आपके कदमों को छोड़कर मेरे लिए कहीं जगह नहीं दिखायी दी। मैं कहाँ जाता?’ सच्चे गुरु को सच्चा शिष्य मिल गया। उन्होंने हँसकर शिष्य को अपने गले से लगा लिया और अपनी गद्दी उन्हीं को दे दी।
आपलोगों ने ‘सत्संग-योग’ में अमीर खुसरो की वाणी पढ़ी होगी। उन्होंने कहा है-सुनिए, मैंने भी उन महापुरुष जगद्गुरु भगवान श्री स्वामी रामानंद के दर्शन किए हैं। अपने गुरु ख्वाजा साहब की तरफ से मैं तोहफए बेनजीर (अनुपम भेंट) लेकर पंचगंगा घाट पर गया था। स्वामीजी ने दाद दी थी और मुझपर जो मेह्र (कृपा) हुई थी, उससे फौरन मेरे दिल की सफाई हो गई थी और खुदा का नूर झलक गया था।’
जो गुरु पूरे होते हैं, वे शिष्य को खुदा का नूर दिखलाते हैं। अन्वेतार्क उपनिषद् में लिखा है-‘गु’ कहते हैं अंधकार को और ‘रु’ कहते हैं तम- निरोधक को। अर्थात् अंधकार का निरोध करने वाले, प्रकाश में ले जानेवाले-तमसो मा ज्योतिर्गमय करानेवाले गुरु होते हैं। संत कबीर साहब का वचन है-
“ गुरु नाम है ज्ञान का, सिष्य सीख ले सोय ।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु सिष्य न कोय ।।”
‘गुरु’ ज्ञान को कहते हैं, शरीर को नहीं। जिस शरीर में ज्ञान रहता है, वह गुरु का शरीर कहलाता है। संसार में अनेक प्रकार के ज्ञान हैं, उनके अलग-अलग गुरु होते हैं, किन्तु आध्यात्मिक गुरु विषय से निर्विषय की ओर ले जाते हैं। निर्विषय तत्व की उपलब्धि के लिए युक्ति बतलाते हैं, क्रियाविशेष बतलाते हैं। जो शिष्य एकनिष्ठ होकर गुरु की सेवा करता है, वह उस ज्ञान को प्राप्त करता है।
कुछ लोगों की भावना होती है कि शिष्य का शरीर जिन पाँच तत्वों-क्षिति, जल, पावक, पवन और गगन से बना हुआ होता है, गुरु का शरीर भी उन्हीं पंच तत्वों से बना है। फिर दोनों में अंतर क्या है? समझने की बात यह है कि दुनिया में अनेक प्रकार के वृक्ष हैं, पर क्या वे सभी वृक्ष कल्पवृक्ष की समता कर सकते हैं? संसार में अनेक धेनुएँ (गाएँ) हैं तो क्या वे कामधेनू के समान हैं? दुनिया में नदियाँ बहुत-सी हैं, पर क्या वे सभी नदियाँ गंगा, आवेजमजम और जार्डन की तरह हैं? हम आकाश में बहुत-से पक्षियों को उड़ते देखते हैं, तो क्या सभी पक्षी गरुड़ और काकभुशुण्डि के समान हैं? नहीं है। उसी तरह गुरु का शरीर भी साधारण शरीर की तरह होता है, पर वह साधारण नहीं है, उसमें ज्ञान भरा हुआ होता है। वे केवल वाक्य ज्ञान में निपुण नहीं होते हैं। उनमें वाक्य ज्ञान के साथ आचरणीय ज्ञान भी होता है। उनमें वचन और कर्म की एकता होती है।
आज संसार में कहीं शांति नहीं है। सर्वत्र अनाचार, दुराचार, व्यभिचार, बलात्कार न मालूम और क्या-क्या अत्याचार फैले हुए हैं। किसी लौकिक विद्या के जानकार गुरु के पास या सरकार के पास इसे दूर करने का कोई उपाय नहीं है। लाठी-डंडे मारकर, कुछ दिनों जेल में रखकर क्या उसका सुधार हो जाता है? बदमाशों को, अपराधियों को जेल में भेजा जाता है तो वहाँ बदमाशों की संगति से उसे बदमाशी की ट्रेनिंग मिलेगी या साधुता की? साधुता तो वास्तविक साधु की संगति से ही आएगी। साधुओं में भी तथाकथित साधुओं के लिए कहना क्या!
कबीर साहब ने बड़ा ही स्पष्ट कहा है-
“ अवधू माया तजी न जाई ।।
घर को तजि के मठिया छाये, नारी तजि के चेरी ।
बेटा तजि के चेला कीन्हा, तहु मति माया घेरी ।।”
माँ, बाप, पत्नी, पुत्र, पुत्री, भाई, बहन आदि को छोड़कर घर से निकल गए हैं, लेकिन अपने चेले और चेली को नहीं छोड़ सकते। जगदासक्ति छूटी नहीं, ज्यों-की-त्यों बनी है। हम कितने बड़े महात्मा हैं! महर्षि मेँहीँ-पदावली में लिखा है-
“ अनासक्त जग में रहो भाई ।
दमन करो इन्द्रिन दुःखदाई ।।”
जो जगत से अनासक्त हैं, विरक्त हैं, वे ही प्रभु पद में अनुरक्त हो सकते हैं। अभी आपलोग हजरत निजाम उद्दीन और अमीर खुसरो की बातें सुन रहे थे। अमीर खुसरो से सम्बन्धित एक अन्य आख्यान सुनिए।
अमीर खुसरो मुल्तान के हाकिम के यहाँ मुलाजिम का काम करते थे। एक दिन कुछ बात हुई और उन्होंने नौकरी छोड़ दी। उन दिनों वहाँ पक्की सड़कें नहीं थी। ऊँट की सवारी होती थी। अपने सभी सामानों को कई ऊँटों पर लादकर वे अपने गुरु महाराज हजरत निजाम उद्दीन औलिया के पास दिल्ली चले। इधर हजरत साहब के पास एक गरीब आदमी आए, उनसे विनती की-‘हजरत साहब! मुझे अपनी लड़की की शादी करनी है, पर मेरे पास पैसे नहीं हैं। आप सहायता कर दें, तो बड़ी कृपा होगी।’ वे भी तो फकीर ही ठहरे, उत्तर दिया-‘देखो जी, लंगर का काम तो किसी तरह चल जाएगा, आज रुक जाओ। आज जो भेंट होगी, सभी तुमको दे दूँगा।’ दिन भर वह बेचारा बैठा रहा, पर हजरत साहब को किसी ने कुछ भेंट नहीं की। दूसरे दिन भी वह बैठा रहा, फिर भी कुछ भेंट नहीं आयी। तीसरे दिन भी इंतजार के बाद कुछ नहीं मिला, तो बेचारा उकता गया और हजरत साहब से जाकर कहा-‘आप भी तो फकीर ही ठहरे, मेरी क्या मदद हो सकती है। आप आज्ञा दें तो मैं जाऊँ।’ हजरत साहब ने उस व्यक्ति को अपनी जूती दे दी और कहा-‘इसे ले जाओ, बेच लेना।’ उसके मन में खिन्नता आयी कि इससे कितने पैसे मिलेंगे और इससे क्या शादी होनी है!
वह मन-ही-मन सोचता हुआ उदास चेहरा किए जूती लेकर जा रहा था। उधर से अमीर खुसरो आ रहे थे। रास्ते में दोनों में भेंट हो गयी। अमीर खुसरो को कुछ सुगन्ध मालूम पड़ी। उनके मन में हुआ कि यहाँ तो गुरु महाराज की सी सुगंध मालूम पड़ रही है। जब निकट दोनों आमने-सामने हो गए तो खुशबू बढ़ गई। फिर वे आगे बढ़ गए तो मन में होने लगा हो न हो इसी आदमी के पास कुछ है, जिससे खुशबू आ रही है। उन्होंने कहा-‘सुनो जी, कहाँ से आ रहे हो?’ उस व्यक्ति ने उत्तर दिया-‘बेटी की शादी करनी थी, गया था हजरत निजामुद्दीन औलिया के पास कि कुछ पैसे मिलेंगे, लेकिन वे भी तो फकीर ठहरे, कुछ नहीं मिला, इसलिए उदास जा रहा हूँ।’ अमीर खुसरो ने कहा-‘वे खाली हाथ तो किसी को नहीं भेजते, अवश्य कुछ-न-कुछ दिए होंगे।’ उसने कहा-‘हाँ, अपनी जूती दी है और कहा कि इसे बेच लेना।’ अमीर खुसरो ने कहा-‘लाओ, लाओ, देखें कौन-सी जूती है।’ उसने जूती दिखलाई तो अमीर खुसरो ने पूछा-‘इसे तुम बेचोगे?’ उसने कहा-‘हाँ, अमीर खुसरो ने कहा-‘लाओ, मुझे दे दो।’ उन्होंने जूती ले ली, अपने लिए एक ऊँट और अपनी पत्नी के लिए एक ऊँट रखकर सभी ऊँटों और उनपर लदे सामानों को देते हुए कहा-‘जाओ, यह इस जूती की कीमत हुई।’ अपने गुरुदेव की जूती के बदले अपनी सारी संपत्ति दे दी। इसको कहते हैं त्याग और गुरु के प्रति संपूर्ण समर्पण-भाव।
गुरु नानकदेवजी के बाद दूसरे गुरु हुए अंगद देवजी, तीसरे गुरु हुए अमरदासजी। उनके बाद चौथे गुरु कौन होंगे, यह समस्या खड़ी हो गई; क्योंकि उनके अनेक शिष्य गुरु बनने के लिए तैयार थे। गुरु अमरदासजी ने उन शिष्यों की परीक्षा लेनी सोची। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा-‘तुम सब मिलकर एक चबूतरा बनाओ।’ सबने मिलकर दिनभर में चबूतरा बनाया। संध्या समय उन्होंने कहा कि ठीक नहीं बना, इसे तोड़ दो। दूसरे दिन फिर सबने मिलकर चबूतरा बनाया और संध्या समय उन्होंने कहा-‘इसमें यह त्रुटि रह गई, तोड़ो इसको।’ दिनभर सभी शिष्य मिलकर चबूतरा बनाते और शाम में तोड़वा दिया जाता। इस प्रकार कई दिन हो गए, यही क्रम चलता रहा। शिष्यों के मन में होने लगा कि गुरुजी पागल हो गए हैं, पागल गुरु के साथ रहने से क्या लाभ? धीरे-धीरे सभी उम्वीदवार खिसकने लग गए। होते-होते सत्तर बार चबूतरा बनाया और तोड़ा गया। अंत में सभी भाग गए। एक शिष्य रह गए रामदास। उनसे पूछा-‘अरे! तुम नहीं गए?’ रामदास ने कहा-‘मुझे और काम क्या है? जो आप काम देंगे, वही मेरा काम है, चाहे चबूतरा बनाना पड़े या तोड़ना पड़े।’ यह सुनकर गुरु अमर दासजी प्रसन्न हो गए और चौथे गुरु के पद पर रामदास को प्रतिष्ठित कर उन्हीं को गद्दी दी।
जो पूरे गुरु का संग करते हैं, उनमें श्रद्धा-भक्ति रखते हैं, उनके आदेशानुकूल आचरण करते हैं, वे भी गुरु बन जाते हैं। जिज्ञासा हो सकती है कि शिष्य कितने दिनों तक गुरु का संग करे? उत्तर में निवेदन है कि आजकल आम का महीना है। आम के पेड़ में पहले मंजर हुआ, फिर उसमें छोटे-छोटे दाने हुए। वह बढ़ते-बढ़ते टिकोला हुआ। टिकोला से डंभक हुआ और होते-होते आम पककर तैयार हो गया। जो मंजर अंधड़-पानी में झड़ गया, वह उसी समय समाप्त हो गया। जो टिकोला बनकर पेड़ से गिर गया, लोग उसे पीसकर नमक-तेल मिलाकर चटनी बनाकर खाते हैं। जो डम्भक होकर पेड़ से गिरता है, उसको आचार-काशनी बनाकर खाते हैं। लेकिन जो आम आरंभ से पक जाने तक पेड़ में लगा रहता है, वह सुस्वादु, पौष्टिक तथा बलवर्द्धक होता है और उसमें वह शक्ति आ जाती है कि दूसरा पेड़ पैदा कर सकता है। उसी तरह जो शिष्य गुरु के ज्ञान में परिपक्व हो जाता है तो वह स्वयं गुरु बन जाता है। इतना ही नहीं, उसमें अपने जैसे कई बनाने की शक्ति आ जाती है। आवश्यकता है शिष्य में गुरु से ज्ञान लेने की योग्यता, क्षमता, पात्रता की।
सूर्योदय होता है। उसकी किरणें सर्वत्र समरूप में पड़ती हैं, फिर भी सबकी गतिविधि में एकरूपता नहीं। सूर्य की किरणें जब जमीन पर पड़ती हैं तो उसमें कोई चमक नहीं आती। वही किरण जब जल पर पड़ती है तो कुछ चमक आती है। और जब काँच पर पड़ती है तो इतनी चमक होती है कि उस पर हम नजर नहीं टिका सकते। क्यों? इसलिए कि जिसमें जितनी सफाई है, उसमें उतनी चमक होती है। उसी भाँति गुरु ज्ञान सूर्यरूप हैं, उनकी ज्योति सर्वत्र समरूप ज्योतित होती है, किन्तु जिस शिष्य का हृदय जितना शुद्ध होता है, पवित्र होता है, उतने अंश में वह गुरु के ज्ञान को ग्रहण कर स्वयं प्रकाशित होता है और जगत को प्रकाशित करता है। इसलिए एक फकीर ने कहा है-
“ दिल का हुजरा साफकर, जाना के आने के लिये ।
ध्यान गैरों का उठा, उसको बिठाने के लिये ।।
एक दिल लाखो तमन्ना, उसपै और ज्यादा हविस ।
फिर ठिकाना है कहाँ, उसको टिकाने के लिये ।।”
सद्गुरु के सद्ज्ञान से ही संसार का सच्चा कल्याण हो सकता है। जिन-जिन लोगों ने गुरु का ज्ञान ग्रहण किया, उनका कल्याण हुआ। आज भी जो कोई सच्चे गुरु के सद्ज्ञान को ग्रहण करेंगे, उनका कल्याण होगा। सब-के-सब यदि संतों के ज्ञान को अपना लें, तो संसार से सारे दुष्कर्म दूर हो जाएँगे और सर्वत्र शान्ति विराजेगी।
संतों का ज्ञान बतलाता है कि ईश्वर एक है, ईश्वर के पास जाने का रास्ता एक है और वह रास्ता बाहर संसार में नहीं, अपने अंदर है। परमात्मा की सृष्टि में जितने व्यक्ति हैं, सबके देखने का रास्ता एक है, वह है आँख; सुनने का रास्ता एक है, वह है आँख; सुनने का रास्ता एक है, वह है कान; गन्ध ग्रहण करने का रास्ता एक है, वह है नाक; भोजन ग्रहण करने का रास्ता एक है, वह है मुँह और मल-मूत्र विसर्जन करने के लिए भी एक-एक रास्ता है। कोई आँख बन्द करके कान से देख नहीं सकता, कान को बन्द करके नाक से सुन नहीं सकता या नाक को बन्द करके कान से गंध ग्रहण नहीं कर सकता। व्यक्ति चाहे किसी देश, किसी वेश, किसी जाति, धर्म, सम्प्रदाय, मजहब या रिलिजन (त्मसपहपवद) का क्यों न हो, परमात्मा ने सबके लिए एक-सा न्याय बरता है। उसी प्रकार परमात्मा तक जाने का रास्ता भी एक है। कुरआन शरीफ के सूरे-फातिहा में लिखा है-
‘ऐ कयामत के दिन का मालिक! मुझे सीधा रास्ता दिखा ।’
संसार में जितने रास्ते हैं, सभी टेढ़े-मेढ़े हैं। एक खुदा के पास जाने का रास्ता ही सीधा रास्ता है। वह रास्ता कहाँ है?
“ क्यों भटकता फिर रहा तू, ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए ।।”
कामिल फकीर का कलाम है कि अगर दिलवर का दीदार चाहते हो, परमात्मा का साक्षात्कार करना चाहते हो, तो रास्ता शहरग में है। अर्थात् सुषुम्ना, आज्ञाचक्र या छठा चक्र में है। उसी को दशमा द्वार भी कहते हैं। जबतक नौ द्वार में रहोगे, परमात्मा की ओर नहीं जा सकोगे। जब दशवें द्वार में जाओगे तो प्रभु की आज्ञा मिल जाएगी कि ‘आओ।’ गुरु नानकदेवजी महाराज फरमाते हैं-
“ नौ दर ठाके धावतु रहाये, दशवें निज घर बासा पाये ।
उथै अनहद शबद बजै दिन राती,
गुरुमती शबद सुनावनिया ।।”
जो कोई आज्ञाचक्र में जाते हैं, दशवें द्वार में जाते हैं, उनको अंतःप्रकाश मिलता है और वे पिण्ड से ब्रह्माण्ड में चले जाते हैं। ब्रह्माण्ड में जाने पर साधक ब्रह्मनाद प्राप्त करता है। एक फकीर का कलाम है-
“ गोश बातिन हो कुशादा जो करे कुछ दिन अमल ।
ला इला अल्लाह हो अकबर पै जाने के लिए ।।”
पहले जिकर और बाद में फिकर करते हैं। अर्थात् पहले मानस जप करते हैं, फिर मानस ध्यान करते हैं। तब सगलेनसीरा अर्थात् दृष्टियोग करते हैं और अंत में सुल्तान-उलजकार यानी नादानुसंधान करते हैं। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ आँख कान मुख बंद कराओ, अनहद झींगा शब्द सुनाओ ।
दोनों तिल एक तार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है ।।”
एक कामिल फकीर का फरमान है-
“ लब बन्दो गोश बन्दो चश्म बन्द ।
गर नवीने नूर हक बरबन बखन्द ।।”
आँख, कान और मुख को बन्द करो। जो क्रिया बतलायी जाती है, सदाचार समन्वित होकर उसकी साधना करो। तब यदि तुमको अंतःप्रकाश नहीं मिले, तो मुझपर हँसना, मेरी निन्दा करना।
जो पूरे गुरु होते हैं, वे कहते हैं कि आज्ञाचक्र से चलो, अंतःप्रकाश प्राप्त करो, वहाँ नाद मिलेगा। नाद में अपनी ओर आकर्षित करने का गुण होता है। उस ब्रह्मनाद को, आवाजेगैव को पकड़ो। वह तुमको परमात्मा तक, अल्लाह तक पहुँचा देगा। गुरुनानक देवजी महाराज ने कहा है-
“ घरि महि घरु देखाइ देह सो सतगुरु परखु सुजाणु ।
पंच शबद धुनिकार धुनि तह बाजै सबदु निसाणु ।।”
हमारे अंदर पाँच नौबतें हैं-स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य। स्थूल के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर साधक सूक्ष्म में, सूक्ष्म के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर कारण में, कारण के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर महाकारण में, महाकारण के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर कैवल्य में और कैवल्य के केन्द्रीय नाद को पकड़कर परमात्मा, अल्लाह तक पहुँच जाता है। साधना के साथ कुछ संयम आवश्यक हैं। अर्थात् झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों से बचकर रहना। जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई करना।
इतना कहकर मैं अपनी वाणी को विराम देता हूँ। आपलोग जो वर्षा, गर्मी की परवाह न करके यत्र-तत्र से इस सत्संग में पधारे हैं, उन सबको मैं धन्यवाद देता हूँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 05-07-2001 ई0 को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में गुरु-पूर्णिमा के सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, सितम्बर, 2001 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोग संत कबीर साहब की वाणी में सुन रहे थे-‘अबुझा मन जहँ केलि करे ।’
मन दो प्रकार के होते हैं-एक होता है अबुझा मन और दूसरा समुझा मन। जो विषयोन्मुख है, वह अबुझा मन और विषय की ओर से हटकर जो निर्विषय की ओर जाता है, वह समुझा मन है। जो समझ गया है कि-
‘तन सुख मन सुख इन्द्री सुख सब दुःख ।’
अब वह अबुझा नहीं रहा, समुझा हो गया। हमलोग समझते हैं, समझाते हैं, फिर भी मन अबुझा ही रह जाता है।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
“ सुनिय गुनिय समुझिय समुझाइये ,
दशा हृदय नहीं आवे ।”
हमलोग बहुत सुन चके हैं और गुने भी हैं। अपने अर्जित ज्ञान के आधार पर समझने की चेष्टा भी हमने की है और दूसरों को समझाते भी हैं, लेकिन अपने हृदय पर हथेली रखकर हम अपने-आपसे पूछें कि क्या जैसा हम समझा देते हैं, वह स्थिति हमारी अपनी आई है? क्यों नहीं आई? इसलिए कि हम साधना नहीं करते हैं। अगर हम अन्तस्साधना करें, तो जैसा हम दूसरों के लिए कहते हैं, वैसा हम स्वयं भी बन सकते हैं। जबतक हम अन्तस्साधना नहीं करेंगे, हमारी स्थिति नहीं बदल सकती। अन्तस्साधना के क्रम में सर्वप्रथम हम श्रवण करते हैं। श्रवण के बाद मनन और मनन के बाद निदिध्यासन होता है। निदिध्यासन के बाद अनुभव ज्ञान होता है। श्रवण-मनन तो हुआ, निदिध्यासन हुआ ही नहीं, तब अनुभव ज्ञान कैसे हो?
‘जेहि अनुभव बिन, मोहजनित भव दारुण विपति सतावे ।’
अनुभवहीन होने के कारण कहने के समय में हम सब उपदेश कह जाते हैं, पर जैसे ही मौका आता है, हमारा असली रूप सामने आ जाता है। ऐसा इसलिए कि हमने साधना की नहीं। हमारी बुराइयाँ छूटती नहीं, तो कोरे उपदेश से क्या लाभ?
भारत के अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर हुए, वे पढ़े-लिखे विद्वान और कवि थे। उन्होंने अपनी कविता में लिखा है-
“ जफर उनको न आदमी कहिएगा,
चाहे वह कितना ही शाहेफमौज का हो ।
जिसको ऐश में यादे खुदा नहीं,
और तैश में खौफे खुदा नहीं ।।”
वह आदमी नहीं, जिसमें आदमियत नहीं। आदमी का शरीर मिला हुआ रूप है, लेकिन आदमियत नहीं है, तो वह किस काम का हुआ! कबीर साहब ने कहा-
“ बैल गढ़न्ता नर गढ़ा, चूका सींग अरु पूँछ ।
एकहिं गुरु की भक्ति बिन, धिक दाढ़ी धिक मूँछ ।।”
प्रभु तो हमको बैल बना रहे थे, लेकिन सींग और पूँछ दोनों देना भूल गए, हम आदमी बन गए। अरे! अब मनुष्य बन गए, तो हममें मनुष्यता होनी चाहिए, मानवोचित कर्त्तव्य होना चाहिए, सार-असार का ज्ञान होना चाहिए, सत्य-असत्य का विवेक होना चाहिए, तदनुकूल हमारा आचरण होना चाहिए। इस नर-तन को पाकर भी अगर हम गुरु की भक्ति, प्रभु की भक्ति नहीं करते हैं, तो कबीर साहब कहते हैं कि दाढ़ी और मूँछ दोनों को धिक्कार है।
“ कबीर यह मन एक है, भावै तहाँ लगाय ।
भावै गुरु की भक्ति कर, भावै विषय कमाय ।।”
यह मन तो एक ही है, जिधर लगाना चाहें, लगाइए। इतने दिनों के सत्संग में हमने क्या समझा है-विषय अर्जन करना सार है या भगवद्भजन? भारत सरकार से लाइसेन्स बनवाकर एक रिवाल्वर ले लिया, अब यह हम पर निर्भर करता है कि उस रिवाल्वर से हम अपनी हत्या करें या आत्मरक्षा। इसी तरह परमात्मा ने मनुष्य-शरीर दिया, इसमें मन हमारा है। इस मन को हम पतन के गड्ढे में ले जाएँ या उत्थान के शिखर पर, यह हमपर है। इसका ज्ञान तो सत्संग से ही होगा। सत्संग की बातों को व्यवहार में लाने से होगा, केवल सुनने से नहीं होगा। एक कान से सुन लिया और दूसरे कान से निकाल दिया, तो वह सुनना किस काम का? सन्त कबीर साहब ने कहा है-
“ बाजीगर का बानरा, ऐसा यह मन जान ।
जीत लेय तो खेल है, नातर गाहक जान ।।”
आपलोगों ने देखा होगा, मदारी बन्दर को नचाता है और तमाशा दिखलाता है। बन्दर जबतक तमाशा दिखलाता है, तो लोग उसको पैसे देते हैं। उस पैसे से बाजीगर की जीविका चलती है और बन्दर की भी रक्षा होती है। जबतक बन्दर नाच दिखलाता है, तबतक तो ठीक है; लेकिन वही बन्दर नाच दिखाते-दिखाते किसी की साड़ी नोचने लगे, किसी की धोती फाड़ दे, किसी को काटने लगे, तब तो लाठी बाजीगर के ऊपर भी पड़ेगी और बन्दर के ऊपर भी। उसी तरह हमलोगों का मन जबतक भगवद्भजन करे, सत्कर्म करे, सदाचारी बना रहे, तबतक तो ठीक है। अगर उलटा करना शुरू किया, तो इसे दुःख उठाना पड़ेगा, जम की मार सहनी पड़े।
“ भूले मन को समझाय लीजिए,
सत्संग के बीच में आय के जी ।
अबकी बार नहीं चूकना,
मानुष तन पाय के जी ।।”
इस भूले-भटके मन को सत्संग में आकर समझाइए, बुझाइए। अगर सत्संग में आकर के भी अपना सुधार नहीं कर सके, तो कबीर साहब ने कहा-
‘सत्संगति सुधारा नहीं ताका बड़ा अभाग ।’
सत्संग की बातों को सुन करके जब कोई अपने को सुधारेगा, तो कभी-न-कभी उसका उद्धार अवश्य होगा। लेकिन, सत्संग सुनकर भी जो अपनी गलती को परखता नहीं है, परखने के बाद भी अपना सुधार नही करता, उसका उद्धार कब सम्भ्व है? सन्त पलटूदासजी ने कहा है-
“ धुबिया फिर मर जायेगा चादर लीजै धोय ।।
चादर लीजै धौय मैल है बहुत समानी ।
चल सतगुरु के घाट भरा जहँ निर्मल पानी ।।
चादर भई पुरानी दिनोंदिन बार न कीजै ।
सत्संगत में सौंद ज्ञान का साबुन दीजै ।।
छूटे कलिमल दाग नाम का कलप लगावै ।
चलिये चादर ओढ़ बहुरि नहिं भव में आवै ।।
पलटू ऐसा कीजिये मन नहीं मैला होय ।
धुबिया फिर मर जायेगा चादर लीजै धोय ।।”
धुबिया क्या है? यह शरीर धुबिया है। ‘धुबिया फिर मर जाएगा।’ एक-न-एक दिन यह शरीर तो छूटेगा ही। ‘चादर लीजै धोय।’ मनरूपी चादर को धो लीजिए। ‘मैल है बहुत समानी।’ कितने जन्म- जन्मान्तर की मैल इस मन में समाई हुई है, ठिकाना नहीं। चौरासी लाख योनियों के संस्कार इस पर पड़े हुए हैं, इसलिए इसे धोइए। चादर को कहाँ धोएँगे?
‘चल सतगुरु के घाट भरा जहँ निर्मल पानी ।’
सतगुरु का घाट-बाहर सत्संग में है। पहले तो मनरूपी चादर को इस घाट में धोइए, पश्चात् अन्तर में जो त्रिवेणी घाट-सुषुम्ना है, उसमें धोइए। ‘चादर भई पुरानी दिनों दिन बार न कीजै।’ जबसे सृष्टि हुई है, तबसे हम इस संसार में आए हुए हैं और हमारे साथ मन लगा हुआ है। तन तो कितने हो गए, मन वही पुराना है। अब देर नहीं कीजिए। ‘सत्संगत में सौंद ज्ञान का साबुन दीजै’ सत्संग में मन को डुबाकर उस पर ज्ञान का साबुन लगाइए, तब दाग छूटेगा। फिर अभी जो सुन रहे थे कि-‘विमल-विमल अनहद धुनि बाजे।’ उस नाम का कलप लगावे। कपड़ा साफ किया नहीं, उस पर लोहा कर रहे हैं, क्या लोहा होगा? अरे! कपड़ा धोकर साफ कर लीजिए, तब न लोहा कीजिएगा। जो कपड़ा जितना कम गंदा रहता है, उसे साफ करने में उतना ही कम पानी, कम साबुन, कम समय लगता है, लेकिन जो कपड़ा बहुत गंदा है, उसे साफ करने के लिए बहुत पानी चाहिए, बहुत साबुन चाहिए, बहुत समय भी चाहिए। उसी तरह जिनके संस्कार अच्छे हैं, थोड़े समय के सत्संग में उनका हृदय साफ हो जाता है।
एक थे मुसलमान साहब रज्जब खाँ, वे शादी करने के लिए चले। जाते-जाते रास्ते में एक संत का आश्रम था। उनका नाम था दादू दयालजी। रज्जबजी चले गए संत दादू दयालजी महाराज के दर्शन करने के लिए। मन में हुआ कि दर्शन करेंगे, आशीर्वाद लेंगे, शुभ-शुभ शादी होगी। संत-महात्मा का आशीर्वाद मिल जाएगा, तो दाम्पत्य जीवन सुखमय होगा। जैसे वे वहाँ पहुँचे, उस समय दादू दयालजी महाराज ध्यानस्थ थे। रज्जबजी के साथ में बारात सजी हुई थी। प्रतीक्षा में बैठ गए कि जब ध्यान से उठेंगे, तब दर्शन करेंगे, प्रणाम करेंगे। उधर बारात उकता रही थी, इधर ये निश्चिन्त होकर बैठे थे। जब संत दादू दयालजी महाराज ध्यान से उठे, तो जाकर प्रणाम किया। शादी करने के लिए जा रहे थे, शादी का पोशाक पहने थे, सजे-धजे हुए थे। सिर पर मौर पहने हुए देखते ही संत दादू दयालजी महाराज ने कहा-
“ रज्जब तें गज्जब किया, सिर पर बाँधा मोर ।
आये थे हरि भजन को, चले नरक की ओर ।।”
देखिए संस्कार क्या होता है! बस इसी बात से वे वहीं रह गए। शादी करने नहीं गए। सिर पर का मौर, पहने हुए कपड़े, सभी उन्होंने भाई को दे दिया और कहा-जाओ, लड़कीवाला दुःखी न हो जाए, जाकर तुम्हीं शादी कर लो। वे वहीं रहने लग गए और गुरु की सेवा में जीवन व्यतीत कर दिए। वे भी आगे चलकर एक बहुत बड़े महात्मा हुए। संस्कार यह होता है। जो दियासलाई भींगी हुई होती है, उसमें काठी घीसते-घीसते काठी टूट जाएगी, लेकिन वह जलने को नहीं, लेकिन जो सूखी दियासलाई होती है, वह एक बार घीसने से काठी भक से जल उठेगी। उसी तरह जो संस्कारहीन मन है, उपदेश देते रहिए, उस पर उसका असर नहीं होता है। और जो संस्कारवाला मन है, उपदेश सुनकर तुरत रज्जबजी के समान विषय त्यागकर निर्मल हो जाता है।
चरणदासजी महाराज की शिष्या सहजोबाई भी वैसी ही थी। सहजोबाई की शादी हो गई थी, अब ससुराल जाने की तैयारी हो रही थी। बाल सँवारे जा रहे थे, कपड़े पहनाए जा रहे थे, सखी-सहेली सब मिलकर उसे सजा रही थी। संयोग से चरणदासजी महाराज वहाँ पहुँच गए। उन्होंने सहजोबाई को सजते-सँवरते देखा, तो कहा-
“ चलना है रहना नहीं, चलना विश्वाबीस ।
सहजो तनिक सुहाग पै, कहा गुहावै शीश ।।”
इतना कहना था कि उसने सजावट के सभी सामान उतार दिए और ससुराल जाने का विचार भी छोड़ दिया। साधना करके परम भक्तिन बन गई। यह सब उच्च संस्कार का फल है। हम भी अपने संस्कार को बनाएँगे, तो बनेगा। बन करके नहीं आता है। कितने जन्मों के संस्कार थे, तभी एक काठी घीसने से अर्थात् एक बार के सत्संग से उसका कल्याण हो गया।
हमलोग सत्संग में आवें, बहुत अच्छी बात है। सत्संग के ज्ञान को सुनें, बहुत अच्छी बात है। श्रवण के बाद मनन करें, मनन के बाद निदिध्यासन करें, तब अनुभव ज्ञान होगा और तभी परम कल्याण होगा।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 9-12-2001 ई0 को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जनवरी 2002 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
जीवन में पवित्रता की अनिवार्य आवश्यकता है। पवित्र जीवन ही वास्तविक जीवन है, अपवित्र जीवन किस काम का? रात्रि-विश्राम के बाद प्रभातकाल में जब हमारी नींद टूटती है, तभी से पवित्रता शुरू हो जाती है। अर्थात् सोकर उठते ही हम आँखें धोते हैं, कुल्ली करते हैं, शौच जाते हैं, हाथ-पैर धोते हैं, दतवन करते हैं, घर-दरवाजों की सफाई करते-कराते हैं, स्नान करते हैं, कपड़े धोते हैं; ये सब सफाई-ही-सफाई हैं।
कितने लोग कपड़े तो साफ और धुले हुए पहनते हैं, लेकिन जब शौच करके उठते हैं, तो हाथ-साफ किए बिना ही अपने सारे कपड़े छूते हैं। यह कैसी पवित्रता है? देहातों में जहाँ शौचालय नहीं हैं, लोग लोटे में जल लेकर जंगल-बगीचे की ओर जाते हैं। शौच करके लौटते हैं, तो रास्ते में किसी पेड़ की टहनी तोड़ लेते हैं। बाएँ हाथ में लोटा लिए, दाएँ हाथ से दतवन करते हुए आ जाते हैं, तब हाथ साफ करते हैं। यह पवित्रता नहीं है।
अधिकांश लोग शौच करके तो पानी लेते हैं, पर पेशाब करके पानी नहीं लेते, उनका पेशाब उनके हाथों और कपड़ों में लगा रहता है। उसी शरीर से देवालयों और साधु-आश्रमों में जाते हैं। साधु-महात्मा तो पवित्र होते हैं। आगन्तुकजन अपने अपवित्र हाथों से साधु-संतों का चरण-स्पर्श करना चाहते हैं। वे कहते हैं कि दूर से प्रणाम करो, तो उनके मन में तकलीफ होती है। वे सोचते हैं कि ये कैसे साधु हैं, जो कि पैर नहीं छूने देते हैं। अरे भाई! पवित्र रहिएगा, तब न पवित्र व्यक्ति के चरण छूइएगा। जिस तरह शौच करके पानी लेते हैं, उसी तरह पेशाब करके भी पानी लें, तो अच्छा है। वैदिक धर्म में उच्चवर्ण के लोग पहले पानी लेकर लघुशंका जाते थे, पर अब तो कितने नहीं भी लेते हैं। इस संबंध में मुसलमान भाइयों के यहाँ अच्छी प्रथा है। बच्चे, बड़े सभी पानी लेकर लघुशंका जाते हैं। कहीं पानी न मिले, तो मिट्टी से काम लेते हैं।
हमलोग नदी, तालाब या नल-कूपादि के जल से स्नान करते हैं, साबुन लगाते हैं; इससे तन की सफाई होती है। यह बाहरी पवित्रता है। तन की सफाई के साथ-साथ मन की सफाई भी होनी चाहिए और वह होती है सत्संग से। फिर जब हम ध्यान करते हैं, तो उससे आत्मा की सफाई होती है। आत्मा आवरण रहित हो जाती है। संत कबीर साहब की वाणी आपलोगों ने सुनी-
“ सुकिरत करि ले नाम सुमिरि ले को जानै कल की ।
जगत में खबर नहीं पल की ।।”
सुकृति का अपभ्रंश ‘सुकिरत’ शब्द हुआ है। सु=अच्छा और कृत कहते हैं, कर्म को। सुकृति का अर्थ होता है-उत्तम कर्म। कीर्ति कहते हैं, यश को। संत कबीर साहब कहते हैं, शुभ कर्मों को करो। शुभ कर्म करने से सुकीर्ति होती है, सुयश फैलता है और अशुभ कर्म करने से अपकीर्ति होती है, अपयश फैलता है। भगवान बुद्ध की वाणी है-
सत्कर्म करनेवाले को पाँच चीजें मिलती हैं-(1) संसार में उनका सुयश फैलता है, (2) उनके धन का अपव्यय नहीं होता, (3) सभा में उनके वचन का प्रभाव पड़ता है, (4) उनकी मृत्यु सुखकर होती है तथा (5) मृत्योपरांत का जीवन सुखकर होता है। दुष्कर्म करनेवाले को भी पाँच चीजें मिलती हैं-(1) संसार में उनका अपयश फैलता है, (2) उनके धन का अपव्यय होता है, (3) सभा में उनके वचन का प्रभाव नहीं पड़ता, (4) उनकी मृत्यु दुःखकर होती है और (5) मृत्योपरांत का जीवन दुःखकर होता है।
अब हमलोग इस पर विचार करें कि अशुभ कर्म क्या है और शुभ कर्म क्या है? झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; ये पंच पाप अशुभ कर्म हैं, इन्हें करने से अपयश फैलता है। पंच पापों में झूठ सबसे बढ़कर है। हमारे गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ परमहंस) कहा करते थे कि झूठ एक ऐसा झोला है, जिसमें सभी पाप अँट जाते हैं। कोई कितना भी पाप कर ले, चोरी करे, नशा-सेवन करे, हिंसा और व्यभिचार करे; पूछने पर कह दे कि नहीं किया, तो सब पाप झूठ के झोले में अँट गया। जिस तरह हाथी के पदचिह्नों में सभी जीव-जन्तु के पदचिह्न अँट जाते हैं, उसी तरह झूठ के झोले में सभी पाप समा जाते हैं। इसीलिए कहा गया है-
“ साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
जाके हिरदय साँच हैं, ता हिरदय गुरु आप ।।”
पाप में रत रहनेवाला व्यक्ति, भक्ति और ध्यान क्या करेगा? लोगों को दिखलाने के लिए घंटों बैठकर ध्यान का ढोंग वह अवश्य कर सकता है, पर उससे ध्यान होनेवाला नहीं है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ बाहर क्या दिखलाइए, अन्तरी जपिए नाम ।
कहा महोला जगत से, पड़ा धनी से काम ।।”
बंगाल के संत रामप्रसाद सेन के वचन में है-
“ जाँक जम के कर ले पूजा, अहंकार हय मने मने ।
तूमी लूकिये ताँरे करबे पूजा, जानिवे ना रे जगज्जने ।।”
वस्तुतः हमारा हृदय पवित्र होना चाहिए। जो व्यक्ति एक ईश्वर पर विश्वास करते हैं, ईश्वर की प्राप्ति अपने अन्दर होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखते हैं, सत्संग करते हैं, ध्यान करते हैं, गुरु-सेवा करते हैं, शुभ-कर्म करते हैं; अतः उनकी सुकीर्ति होती है, उनका सुयश फैलता है।
गोस्वामी तुलसीदासजी की वाणी है-जो व्यक्ति पंचविषयों में बरतता है, भगवद्भजन नहीं करता है, वह कूकर-सूकर की भाँति है। जन्मान्तर में उसे कूकर-सूकर की योनि में जन्म लेकर दुःख उठाना पड़ेगा। आज जिन घृणित वस्तुओं को देखकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं, उन्हीं चीजों को श्वान-शृगाल की योनियों में जाने पर खाना पड़ेगा। उत्तरगीता में लिखा है-
“ आहार निद्रा भय मैथुनञ्च सामान्यमेतत पशुभिर्नराणाम् ।
ज्ञानं नराणामधिकं विशेषो ज्ञानेनहीना पशुभिः समानाः ।।”
आहार, निद्रा, भय और मैथुन; इन चार बातों के आधार पर पशु और मनुष्य में कोई पृथक्ता नहीं है। मनुष्य में ज्ञान की विशेषता है। ज्ञान के बिना मनुष्य पशु के समान है। जिज्ञासा हो सकती है-कौन-सा ज्ञान? बृहत्तन्त्रसार में लिखा है-
‘ज्ञानान्मोक्षमवाप्नोति तस्माज्ञानं परात्परम् ।’
अर्थात् ज्ञान से मोक्ष होता है, इसलिए ज्ञान से बढ़कर दूसरा उपदेश नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ धर्म ते विरति योग से ज्ञाना ।
ज्ञान मोक्षप्रद वेद बखाना ।।”
ज्ञान वह है, जो मोक्ष प्राप्त करा दे। ‘सा विद्या या विमुक्तये।’ विद्या वह है, जिससे मुक्ति मिलती है। मोक्षप्रद ज्ञान या विद्या को पवित्र और निर्विषयी व्यक्ति ही प्राप्त कर सकता है। कठोपनिषद् में आया है-
“ ना विरतो दुश्चरितान्नाशान्तो ना समाहितः ।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।।”
जो पाप कर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ शांत नहीं हैं और जिसका चित्त असमाहित या अशांत है, वह इसे आत्मज्ञान द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता है।
बाहरी और भीतरी, दोनों पवित्रता चाहिए। प्रयाग की त्रिवेणी में स्नान करने की मनाही नहीं है, वहाँ जाकर स्नान कर सकते हैं। उस त्रिवेणी में स्नान करने से तन पवित्र होगा। सत्संग-रूपी त्रिवेणी में स्नान करने से मन पवित्र होगा और अन्तर की त्रिवेणी (इड़ा, पिंगला और सरस्वती संगम) में स्नान करने से चेतन आत्मा पवित्र होगी। निर्मल जल में तन की परछाईं दीखती है और निर्मल मन में प्रभु का प्रतिबिम्ब दीखता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ जब दरसन देखा चाहिए, तब दरपन माँजत रहिये ।
जब दरपन लागी काई, तब दरस कहाँ ते पाई ।।”
हम आइने में चेहरा देखना चाहें, तो उसे साफ रखना होगा। जब दर्पण गंदा हो, तो चेहरा कैसे दीखेगा? इसी प्रकार यदि हमारा अन्तःकरण पवित्र न हो, तो प्रभु की परछाईं भी नहीं देख सकते, प्रभु को देखना तो सुदूर का बात है। गुरु नानकदेवजी फरमाते हैं-
“ सूचै भाडै़ साचु समावै विरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।”
पवित्र बरतन में सत्य अँटता है और आचरण को पवित्र कर सत्य को धारण करनेवाले विरले होते हैं।
हमलोग गंगा स्नान करने के लिए जाते हैं, तो उधर से गंगाजल ले आते हैं। पर क्या गंदे बरतन में गंगाजल भर लेते हैं? नहीं। पहले बरतन को माँजकर खूब साफ करते हैं, तब उस पवित्र बरतन में गंगाजल भरते हैं। वह परम प्रभु परमात्मा परम पवित्र है, उसे हम अपने अपवित्र हृदय में कैसे बिठाएँगे? संत तुलसी साहब ने कहा है-
“ दिल का हुजरा साफ कर, जाना के आने के लिये ।
ध्यान गैरों का उठा, उसको बिठाने के लिये ।।”
हम जूता पहनकर चलते हैं। कभी उसमें कंकड़ आ जाता है, तो वह चुभने लगता है, हम चल नहीं पाते हैं। जूता खोलकर कंकड़ निकाल देते हैं, तब हम आगे चलते हैं। हमारा जो चमड़े का पैर है, वह छोटा कंकड़ नहीं सह सकता है। परमात्मा के चरण-कमल उससे भी अत्यधिक कोमल हैं और हमारे हृदय में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, राग, द्वेष आदि दुर्गुणों के काँटे उगे हुए हैं, वे उन पर पैर कैसे रखेंगे?
जबतक इन्हें हटाएँगे नहीं, मानस जप और मानस ध्यान भी ठीक-ठीक नहीं हो सकता, दृष्टियोग और शब्दयोग तो दूर की चीज है। जल गंदा हो या उसमें हलचल हो, तो परछाईं नहीं देख सकते हैं। शांत और साफ जल में परछाईं देखते हैं। उसी तरह शांत हृदय में ही हम अपने इष्ट-रूप के दर्शन कर सकते हैं।
हम स्वयं अपनी परीक्षा करके देखें कि कितने दिनों से सत्संग और ध्यान करते आ रहे हैं, अबतक हमने क्या पाया? यदि कुछ पाया है, तो बहुत अच्छी बात है और अगर नहीं पाया, तो कारण क्या है? कारण को जानकर उसका निराकरण करें। पवित्रता का आचरण सबको करना चाहिए, इसमें साधु और गृहस्थ की कोई बात नहीं हैं। सिर्फ साधु का वेश बना लेने से कोई पवित्र नहीं हो जाता। श्रीकाष्ठ जिह्वा स्वामी ने बड़ा अच्छा कहा है-
“ कोई सफा न देखा दिल का, साँचा बना झिलमिल का ।।
को बिल्ली कोइ बगुला देखा, पहिरे फकीरी खिलका ।
बाहर मुख से ज्ञान छाँटते, भीतर कोरा छिलका ।।
भजन करन में गजब आलसी, जैसे थका मँजिल का ।
औरन के पीसन में सुरमा, जैसे बट्टा सिल का ।।
पढ़े लिखे कुछ ऐसेहि वैसे, बड़ा घमंड अकिल का ।
जहरी वचन यों मुख से निकले, साँप निकलता बिल का ।।
भजन बिना सब जप तप झूठा, झूठ तवक्का फजल का ।
क्या कहिये गुरु ‘देव’ न पाया, महरम आँख के तिल का ।।”
‘महरम आँख के तिल का’ अन्तस्साधना की बात है। इसका स्पष्टीकरण हमारे गुरुदेव करते हैं-
“ तिल द्वार तक के सीधे, सूरत को खैंच ला ।
अनहद धुनों को सुन सुन, चढ़ चढ़ के खोजना ।।”
साधक जब दृष्टि साधना की क्रिया करता है, तब उसे तिल (सुषुम्ना-द्वार) मिलता है। फिर-
“ स्थूल सूक्ष्म कारण महाकारण कैवल्यहु के पार ।
सुष्मन तिल हो पिल तन भीतर होंगे सबसे न्यार ।।
ब्रह्म-ज्योति ब्रह्म-ध्वनि को धरि-धरि ले चेतन आधार ।
तन में पिल पाँचो तन पारा जा पाओ प्रभु सार ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
जो सुषुम्ना के तिल में पैठते हैं, वे स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश कर जाते हैं। वहाँ उन्हें आन्तरिक नाद मिलता है, जो ध्वन्यात्मक शब्द है। ध्वन्यात्मक शब्द दो प्रकार के होते हैं-आहत और अनाहत। अपने अन्दर जो आहत शब्द मिलता है, उसे अनहद शब्द (नाद) कहते हैं और अनाहत शब्द को सार-शब्द, प्रणवध्वनि आदि कहते हैं। श्रीमद्भागवत के स्कन्ध11, अध्याय 21 में तीन प्रकार के शब्द बतलाए गए हैं-इन्द्रियमय, मनोमय और प्राणमय; यथा-
“ शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयम् ।
अनन्त पारं गंभीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत् ।।”
इन्द्रियमय शब्द वह है, जिसे हम मुँह से बोलते और कान से सुनते हैं। मन के द्वारा उच्चरित शब्द मनोमय कहलाता है। अन्तस्साधना के क्रम में जहाँ तक मन की गति है और जो शब्द मन के द्वारा ग्रहण होता है, वह भी मनोमय शब्द है। जब साधक अनहद शब्द को पार कर अनाहत शब्द को पकड़ता है, तो प्राणमय शब्द है। वह प्राणमय शब्द (ओ3म्, स्फोट, उद्गीथ आदि) परम प्रभु परमात्मा का वाचक है, उसी शब्द को पकड़कर परमात्मा तक पहुँचा जाता है। उसे ही गोस्वामी तुलसीदासजी ने उलटा नाम कहा है। यथा-
“ उलटा नाम जपत जग जाना ।
बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना ।।”
हम जो शब्द बोलते और सुनते हैं, वह नाभि से निकलता है और हृदय, कण्ठ तथा मुँह के उच्चारण स्थानों में ठोकर लगकर बाहर निकलता है, वह पिण्डी शब्द है। दूसरा होता है ब्रह्माण्डी शब्द, जो ऊपर से ब्रह्मांड में आता है, फिर ब्रह्मांड से पिण्ड में। पिण्डी शब्द वर्णात्मक और सगुण होता है, जबकि ब्रह्माण्डी शब्द ध्वन्यात्मक और निर्गुण होता है। ये दोनों शब्द एक-दूसरे के उलटे हैं। यही उलटा नाम है। इन सब गंभीर बातों को सत्संग में जाकर जानना चाहिए और संत सद्गुरु से सद्युक्ति जानकर साधना करनी चाहिए। आज-कल कहकर टालना नहीं चाहिए।
“ आज कहै मैं काल्ह भजूँगा, काल्ह कहै फिर काल्ह ।
आज काल्ह के करत ही, औसर जासी चाल ।।”
पुनः संत कबीर साहब कहते हैं-
‘को जानै कल की, जगत में खबर नहीं पल की ।’
भूतकाल यानी अतीत जो व्यतीत हो गया और भविष्य अज्ञात है, कोई ठिकाना नहीं कि क्या होगा! लेकिन वर्तमान हमारे हाथ है, हम अपने वर्तमान को जैसा बनाएँगे, हमारा भविष्य वैसा ही बनेगा। जो अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाना चाहते हैं, वे पवित्र जीवन बितावें और शुभ कर्मों को करते हुए भगवद्भजन करें। इहलोक और परलोक दोनों जीवन कल्याण्मय होगा।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर दिनांक 17-02-2002 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अप्रैल 2002 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
संतों ने जागतिक जीवों को विविध प्रकार से उपदेश देकर उनके भव-क्लेश को निःशेष करने का प्रयत्न किया है। कभी वे वात्सल्य भाव में कहते हैं, तो कभी दाम्पत्य भाव में; कभी सख्य भाव में कहते हैं, तो कभी सेवक-सेव्य भाव में। दाम्पत्य भाव में जीव को नारी-रूप में और परमात्मा को पुरुष रूप में वर्णन किया गया है। जैसे, कबीर साहब कहते हैं-
‘घूँघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।’
यहाँ पति-पत्नी का-दाम्पत्य जीवन का भाव दिखलाया गया है।
“ सखिया वा घर सबसे न्यारा,
जहँ पूरन पुरुष हमारा ।।”
यहाँ सहेली से बातचीत होती है। एक तो यह घर है, दूसरा वह घर है। लड़कियाँ जहाँ जन्म लेती हैं, वहाँ वह सदा रहती नहीं है। जबतक उसका विवाह नहीं होता, तबतक वह पितृगृह अर्थात् नैहर में रहती है। जब उसका विवाह होता है, तब वह पितृगृह से अर्थात् ससुराल जाती है। वास्तव में वही उसका अपना घर है। नैहर के घर के लिए तो कबीर साहब ने कहा-
‘दिन दस नैहरवा खेलि ले, निज सासुर जाना हो ।’
जबतक हम पाँच कमेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के अंदर रहते हैं, इस संसार में भूले रहते हैं। यही ‘दिन दस’-अल्प दिन नैहर में रहते हैं। लड़कियाँ थोड़े ही दिनों तक नैहर में रहती हैं। वास्तव में तो उसको ससुराल में ही रहना है। यहाँ जीव यानि सुरत को स्त्रीरूप में व्यवहार किया गया है। वह एक दूसरे से कह रही है। जिस घर में रह रही है, वह तो ‘यह घर’ है; लेकिन इस घर में उसको रहना नहीं है। रहना कहाँ है? ‘वा घर’-उस घर में रहना है। वह घर कैसा है? सबसे न्यारा है, भिन्न-ही-भिन्न है। जिस घर में अभी हमलोग रह रहे हैं संत कबीर साहब ने कहा है-
“ कहा मढ़ावे मेड़िया, लम्बी भीत उसार ।
घर तो साढ़े तीन हत्थ, घना तो पौन चार ।।”
जिस घर में जीव रह रहा है या सुरत रह रही है, यह ‘घना तो पौने चार’ है, नहीं तो अपने-अपने हाथ से सब कोई साढ़े तीन हाथ के होते हैं। लेकिन इस घर में रहना नहीं है। उस घर में जाना है, जो सबसे न्यारा है। क्षर से न्यारा है, अक्षर से न्यारा है। सत से न्यारा है, असत् से न्यारा है। सगुण से न्यारा है, निर्गुण से न्यारा है। सुख से न्यारा है, दुःख से न्यारा है। दिन से न्यारा है, रात से न्यारा है। हानि से न्यारा है, लाभ से न्यारा है। सबसे न्यारा-ही-न्यारा है। वही न्यारा घर सबसे प्यारा है। जागतिक घर में जितनी बार आओ, इसको छोड़ना ही पड़ेगा। लेकिन वही एक अमर घर है, जिस घर में जाकर जीव लौटता नहीं है। वह सच्चा पतिघर है। वही परमात्म-धाम है। कठोपनिषद् में यम ने नचिकेता को बतलाया था-
“ इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्त्वमुत्तमम् ।
सत्त्वादधि महानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम् ।।
अव्यक्तात्तु परः पुरुषो व्यापकोऽलिंग एव च ।
यं ं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति ।।”
इन्द्रियों के परे मन है। पाँच कर्मेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के ऊपर शासन करनेवाला मन है। मन जिस इन्द्रिय को जो करने के लिए कहता है, वह इन्द्रिय वही काम करने लग जाती है। मान लीजिए कि जैसे-थाली में पच्चीस चीजें परोसी हुई हैं। मन ने कहा कि पेड़ा खाना है तो हाथ पहले पेड़ा उठाता है। जैसे ही पेड़ा उठाकर हाथ मुँह में देना चाहता है कि मन कहता है-पहले पेड़ा नहीं, रसगुल्ला खाओ। तो हाथ पेड़ा रख देता है, रसगुल्ला उठा लेता है। अभी यहाँ हजारों आदमी बैठे हुए हैं; लेकिन मन जिसको देखने के लिए कहेगा, आँख उसी को देखेगी। इन्द्रियों को जो प्रेरित करता है, वह है मन। इसलिए कहा गया-‘इन्द्रियेभ्यः परं मनो।’ इन्द्रियों के परे मन है। ‘मनसः सत्त्वमुत्तमम्।’ मन से श्रेष्ठ है बुद्धि। मन का काम है-संकल्प-विकल्प करना, प्रस्ताव पेश करना; लेकिन उसका निर्णय बुद्धि करेगी। मन कहेगा, ऐसा करना है; बुद्धि कहेगी-नहीं, तुमको ऐसा नहीं करना है। बुद्धि के समक्ष मन पंगु हो जाता है। बुद्धि में भी भेद है। तमोगुणी बुद्धि होती है, रजोगुणी बुद्धि होती है और सतोगुणी बुद्धि होती है। तमोगुणी बुद्धि तो कुछ भी अनाप-सनाप कह देगी। उसके अनुकूल चलने से परिणाम अनाप-सनाप ही होगा। रजोगुणी बुद्धि निर्णय नहीं कर पाती है कि क्या करें, क्या नहीं करें। लेकिन जो सात्विक बुद्धि होती है वह सही निर्णय कर देती है कि क्या करने से हमारा कल्याण होगा। और वैसा करने से कल्याण होता है। इसलिए कहा, मन से बुद्धि श्रेष्ठ है। और ‘सत्त्वादधि महानात्मा’-उसके परे महतत्त्व है, अपरा प्रकृति है। जिसको गीता में अष्टधा प्रकृति कहा गया है। ‘महतो अव्यक्तमुत्तमम्’- अपरा प्रकृति के परे परा प्रकृति है, जिसको अव्यक्त कहा गया है और उससे परे- ‘अव्यक्तात्तु परः पुरुषो’ यानी वह है ‘परम पुरुष परमात्मा’ उसी के लिए कबीर साहब ने कहा है-‘पूरन पुरुष हमारा।’ क्षर-अक्षर के परे जो पुरुषोत्तम है, वही ‘पूरण पुरुष’ है। उस ‘पूरण पुरुष’ से एक बार जीव मिल जाता है, तो फिर उससे बिछुड़ता नहीं है। मुण्डक उपनिषद् के मुण्डक 3, खंड 2, मंत्र 8 में आया है-
“ यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय ।
तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।”
जिस भाँति निरन्तर बहती हुई नदियाँ अपने नाम-रूप को त्यागकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार विद्वान नाम-रूप के अवलंब से अनामी, अरूपी परमात्मा में जाकर मिल जाते हैं। जैसे जो नदी समुद्र में मिल जाती हैं, वह फिर उससे अलग नहीं हो सकती। उसकी संज्ञा नदी की नहीं रहकर समुद्र की हो जाती है, वैसे ही जो जीव साधना करके अपने अंदर उस परम पुरुष को प्राप्त कर लेता है, तो फिर वह संसार में आता नहीं है, तब उसकी संज्ञा ‘जीव’ नहीं रहकर ‘पीव’ हो जाती है। वह ऐसा धाम है, वह ऐसा स्थान है, जहाँ एक बार चले जाने के बाद फिर वहाँ से लौटना नहीं होता है। संसार के जितने संबंध हैं, सभी संबंध जुड़ते और टूटते हैं। मिलन होता है, फिर बिछुड़न होता है। योग होता है, वियोग होता है। लेकिन वही एक संबंध है, जिससे एक बार संबंध हो जाने पर वह संबंध कभी विच्छेद नहीं होता है। योग से कभी वियोग नहीं होता है। उस मिलन में कभी बिछुड़न नहीं होता है। संत कबीर साहब उसी ओर चलने का संकेत करते हैं। पुनः वे कहते हैं-
“ मोरे जियरा बड़ा अँदेसवा, मुसाफिर जैहौ कौनी ओर ।।
मोह का सहर कहर नर नारी, दुइ फाटक घनघोर ।
कुमती नायक फाटक रोके, परिहौ कठिन झिंझोर ।।
संसय नदी अगाड़ी बहती, बिषम धार जल जोर ।
क्या मनुवाँ तुम गाफिल सोवौ, इहवाँ मोर न तोर ।।
निसिदिन प्रीति करो साहेब से, नाहिन कठिन कठोर ।
काम दिवाना क्रोध है राजा, बसैं पचीसो चोर ।।
सत्त पुरुष इक बसैं पछिम दिसि, तासों करो निहोर ।
आवै दरद राह तोहि लावै, तब पैहौ निज ओर ।।
उलटि पाछिलो पैंड़ो पकड़ो, पसरा मना बटोर ।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, तब पैहौ निज ठौर ।।”
जब कहीं मेला लगता है, तो उसमें कितनी ही चीजें लुभावनी होती हैं। कहीं देखने की चीज होती है, कहीं खेलने की और कहीं खाने की चीज होती है। उस मेला में हमलोग घूमने और सामान खरीदने लग जाते हैं। सामान भी उतना ही खरीदते हैं, जितना लेकर हम चल सकें। उसी तरह संसाररूपी मेले में हम आये हैं और लुभावनी चीजों में खोए हुए हैं। यहाँ कर्म का बोझा इतना जमा कर लेते हैं कि ढोना मुश्किल हो जाता है। हम जितना अधिक जमा कर लेते हैं, तब हम भूल जाते हैं कि हम कहाँ से आये थे और हमें कहाँ जाना है। हम मेले में ही बस जाते हैं। कहते हैं कि यहीं सब कुछ है और यही सब कुछ है। मेला में मन बसने से झमेला भी हो जाता है। जब हमारी ममता बढ़ जाती है, तो जिसने मेला रचा है, वह सोचता है-अब दिन-दिन इसकी ममता बढ़ेगी, इसकी ममता तोड़ दो। चाहे जिस चीज से हमारी ममता होती है, वही चीज समाप्त हो जाती है या ममता रखनेवाला ही संसार से चल देता है।
संत-महात्मा कहते हैं-इस संसार में तुम क्यों खो रहे हो। परमात्मा की ओर चलो। एक बार स्वामी विवेकानन्दजी को उनके गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज ने गाना गाने के लिए कहा। उन्होंने गाया-
“ मन चल निज निकेतने ।
संसार विदेशे विदेशीर भेषे, केन भ्रम अकारणे ।
विषय पंचक आर भूतगण,
सब तोर पर केहय ना आपन ।
पर प्रेमे केन हयेछ मगन। भूले छ आपन जने ।।”
ऐ मन! जो तुम्हारा अपना घर है, उसकी ओर चलो। यह संसार क्या है? ‘संसार विदेशे’-यह संसार विदेश है। और ‘विदेशीर भेषे’-तुम जो यहाँ रहते हो, विदेशी के भेष में रहते हो। ‘केन भ्रम अकारणे’-क्यों अकारण, व्यर्थ में भ्रमित हो रहे हो? वह तो तुमको छोड़ना ही पड़ेगा। रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द; ये पाँच विषय और तुम्हारा पाँच तत्त्व का शरीर; ये सब क्या हैं? ‘सब तोर पर----’ ये सभी पराये हैं, तुम्हारा अपना कोई नहीं है। जब तुम्हारा अपना नहीं है, तब दूसरे के प्रेम में फँसकर तुम क्यों डूब रहे हो? और जो तुम्हारा अपना है, उस परमात्मा को तुम भूल गये हो।
इस विषय से बिल्कुल मिलती-जुलती बातें हम महर्षि मेँहीँ-पदावली में पाते हैं-
“ जनि लिपटो रे प्यारे जग परदेसवा ,
सुख कछु इहवाँ नाहिं ।।
यह परदेसवा काल को भेसवा,
जो रे आवयँ दुख पाहिं ।
सुधि करो प्यारे हो आपन देश के,
जहवाँ क्लेश कछु नाहिं ।।”
तथा-
‘जीवो परम पिता निज चीन्हो, कहते संतन हितकारी ।’
परम पिता-प्रभु को चीन्हो। कैसे चीन्होगे? अपने अंदर-ही-अंदर चलने से। जड़ को छोड़ो, चेतन को छोड़ो, क्षर को छोड़ो, अक्षर को छोड़ो, सगुण को छोड़ो, निर्गुण को छोड़ो; इन सबको छोड़ने पर जो मिलेगा, उससे परम कल्याण हो जाएगा। परमानन्द की प्राप्ति हो जाएगी।
“ निज घर में निज प्रभु को पावे अति हुलसावै ना ।
‘मेँहीँ’ अस गुरु संत उक्ति यमत्रस मिटावै ना ।।”
उस प्रभु को जिस दिन जहाँ प्राप्त कर लोगे, फिर वही अपना परम घर होगा। आवागमन का चक्र छूट जाएगा, सारे क्लेश मिट जाएँगे।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 03-03-2002 ई0 को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, नवम्बर 2004 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलोग जानते हैं कि गोस्वामी तुलसीदासजी के इष्ट भगवान श्रीराम थे। पर जब हम गोस्वामीजी की रचना का ठीक-ठीक अवलोकन करते हैं, अध्ययन-मनन करते हैं, तो जानने में आता है कि उनके इष्ट राम अवश्य थे; किन्तु उन्होंने गुरु को उनसे भी विशिष्ट माना है। रामचरितमानस में विभिन्न तरहों से गुरु को प्रतिष्ठित किया गया है। मानस का ऐसा कोई भी काण्ड नहीं है, जिसमें गोस्वामीजी ने गुरु की चर्चा नहीं की हो। जैसे, बालकाण्ड में उन्होंने लिखा है-
“ बंदउँ गुरु पद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु बचन रबिकर निकर ।।”
कृपा के समुद्र, मनुष्य के रूप में ईश्वर, जिनका वचन महामोह-रूप अंधकार-राशि को नाश करने के लिए सूर्य की किरणों का समूह है, ऐसे गुरु के चरण-कमल को मैं प्रणाम करता हूँ।
लेकिन जैसे ही आप बालकांड से अयोध्या कांड जाएँगे, तो वहाँ आप पाएँगे-
“ श्रीगुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि ।
बरनऊँ रघुवर विमल जसु, जो दायक फल चारि ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि मैं गुरु के चरण-कमल की धूलि से अपने मनरूपी दर्पण को स्वच्छ कर श्रीरामजी के पवित्र यश का वर्णन करता हूँ, जो चारो फलों (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) को देनेवाला है।
जब हम रामचरितमानस के तीसरे कांड- अरण्यकांड में जाते हैं, तो वहाँ भगवान राम शवरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हैं। उसमें तीसरी भक्ति में वे कहते हैं-
‘गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भक्ति अमान ।’
गुरु-सेवा का अर्थ है-उनकी आज्ञा का पालन करना। ‘आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा।’ (रामचरित- मानस) यदि कोई अहंकारी बनकर गुरु की सेवा करे और मन में अपने मान-सम्मान की भावना रखे, तो उसका परिणाम उत्तम नहीं होता।
संत कबीर साहब कहते हैं-
“ अहं अग्नि हिरदे जरै, गुरु से चाहे मान ।
तिनको जम न्योता दिया, हो हमरे मेहमान ।।”
मान-रहित होकर गुरु की सेवा करो। जब हम रामचरितमानस के चौथे काण्ड-किष्किंधा कांड में जाते हैं, तो वहाँ पर गा्रेस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ भूमि जीव संकुल रहे, गये सरद रितु पाइ ।
सद्गुरु मिले जाहि जिमि, संसय भ्रम समुदाइ ।।”
वर्षा ऋतु में बहुत-से कीड़े-मकोड़े उत्पन्न होते हैं, जो शरद ऋतु में धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं। जिस तरह शरद ऋतु में कीड़े-मकोड़े समाप्त हो जाते हैं, उसी तरह जिनको संत सद्गुरु मिल जाते हैं, उनके जो संशय -भ्रम समुदाय हैं, धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं। संत कबीर साहब की वाणी है-
“ गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप ।
हर्ष शोक व्यापै नहीं, तब गुरु आपहिं आप ।।”
जब किष्किन्धाकांड से आगे हम सुंदरकांड में पहुँचते हैं, तो वहाँ पाते हैं-
“ सचिव बैद गुरु तीनि जौं, प्रिय बोलहिं भय आस ।
राज धर्म तन तीनि कर, होइ बेगहि नास ।।”
‘जो रोगी के मन भावै, सो वैदा फरमावै ।’ इस युक्ति के अनुसार जो गुरु चेले की हाँ में हाँ मिलाता है, वह सच्चा गुरु नहीं है और उस गुरु से चेले का उपकार या उद्धार नहीं हो सकता। मंत्री राजा को उचित सलाह देनेवाले होते हैं। अगर मंत्री उचित परामर्श नहीं दें, तो वह राज्य टिकता नहीं है। राजा ने जैसा कह दिया, मंत्री ने हाँ-में-हाँ मिला दिया, यह उचित नहीं। मंत्री वे होते हैं, जो मंत्रणा करते हैं, सोचते-विचारते हैं और यथार्थ विचार देते हैं। रोगी जो खाने के लिए माँगे और वह भोजन पथ्यानुकूल नहीं हो, फिर भी खाने के लिए यदि वैद्य वह भोजन उसको दे दे, तो रोग बढ़ेगा और रोगी मरेगा। गोस्वामीजी कहते हैं कि सचिव हों, वैद्य हों या गुरुदेव हों; अगर भय के कारण या कुछ पाने की आशा से उचित बात नहीं कहते हैं, तो न वह राज्य रहेगा, न वह धर्म रहेगा और न वह रोगी व्यक्ति रहेगा।
अब हम उससे आगे लंकाकांड में जाते हैं, जिसको युद्धाकांड भी कहा गया है। राम-रावण का युद्ध होता है, वहाँ गुरु-पूजन को रक्षा-कवच का स्थान दिया गया है-
“ कवच अभेद विप्र गुरु पूजा ।
एहि सम विजय उपाय न दूजा ।।”
कोई युद्ध करने जाए और शरीर पर कवच नहीं रहे, तो आदमी युद्ध में कितनी देर टिकेगा? अविलंब घायल होकर धराशायी हो जाएगा। यह संसार भी एक रणक्षेत्र है, समरक्षेत्र है। संसार में माया की आसुरी सेना को पराजित के लिए कवच चाहिए। यह क्या है? वह अभेद कवच है-गुरु की पूजा। जो गुरु की पूजा करता है, तो गुरु उनकी रक्षा करते हैं। परम भक्तिन सहजोबाई कहती हैं-
‘सहजो गुरु रक्षा करैं, मेटैं सब दुख द्वन्द्व ।’
आगे हम सप्तम कांड-उत्तरकांड में पहुँचते हैं, तो उसमें बतलाया गया है कि जैसे दैहिक, दैविक, भौतिक; ये त्रिताप होते हैं, उसी तरह से मानसिक ताप भी होते हैं। जैसे शरीर में विविध प्रकार के रोग होते हैं, उसी तरह मन में भी विविध प्रकार के रोग होते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मात्सर्य; ये सब मन के रोग हैं। इन रोगों की दवा कहाँ मिलेगी? तो गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ सद्गुरु वैद वचन विस्वासा ।
संयम यह न विषय के आसा ।।
रघुपति भगति सजीवन मूरी ।
अनूपान श्रद्धा मति पूरी ।।”
“ यहि विधि भलेहि सो रोग नसाहीं ।
नाहिं तो कोटि जतन नहिं जाहीं ।।”
वैद्य जो दवा देते हैं, उसके साथ वे अनुपान और संयम भी बतलाते हैं। भवरोगों की दवा संत सद्गुरु-रूपी वैद्य देते हैं। क्या देते हैं-‘रघुपति भगति सजीवन मूरी ।’ भगवद् भक्ति-रूपी संजीवनीबूटी देते हैं और कहते हैं-संयम से रहो। संयम क्या है?
‘संयम यह न विषय के आसा ।’
सद्गुरु के वचन पर विश्वास करो। अगर गुरु वाक्य में विश्वास नहीं है, श्रद्धा नहीं है, तो पार्वतीजी ने कहा है-
“ गुरु के वचन प्रतीति न जाके ।
सपनेहुँ सुख सिधि सुलभ न ताके ।।”
जिसको अपने गुरु पर विश्वास नहीं है, सद्गुरु ने जो कह दिया, उस बात पर वह अटल नहीं है, तो स्वप्न में भी उसको सुख नहीं मिल सकता और न सिद्धि मिल सकती है।
इस तरह हम देखते हैं कि रामचरित-मानस के प्रत्येक काण्ड में गुरु की महिमा गायी गयी है। मात्र रामचरितमानस ही नहीं, गोस्वामीजी ने अपने अन्यान्य पुस्तकों-विनय-पत्रिका, दोहावली, तुलसी सतसई, हनुमान चालीसा आदि में भी गुरु की महिमा गायी गयी है। यथा-
“ श्रीगुरु पद कमल भजहिं, मन तजि अभिमान ।
जेहि सेवत पाइय हरि, सुख निधान भगवान ।।”
(विनय-पत्रिका)
अर्थात अहंकार छोड़कर हरि-रूप श्रीगुरुदेव की चरण-कमल की सेवा करो, जिसकी सेवा से सुख के भंडार हरि भगवान को प्राप्त करोगे।
“ भेद जाहि विधि नाम महँ, बिनु गुरु जान न कोय ।
तुलसी कहहिं बिनीत वर, जौं बिरंचि सिव होय ।।”
(तुलसी सतसई)
अर्थात् नाम-भजन के रहस्य को कोई गुरु के बिना नहीं जान सकता। चाहे वह ब्रह्मा या शिव ही क्यों न हो।
गोस्वामीजी ने मात्र गुरु की महिमा ही नहीं गायी है, बल्कि उन्हें भगवान से भी श्रेष्ठ बतलाया है। वे कहते हैं कि राम का नाम कल्पवृक्ष और राम की भक्ति कामधेनु के समान सुफलदायक है; किन्तु इससे व्यक्ति का आंशिक मंगल ही संभव है। यदि कोई अपना सर्वमंगल चाहता है, पूर्ण कल्याण चाहता है, तो उसे गुरु के चरणरज का आश्रय लेना चाहिए। यथा-
“ राम नाम कलि काम तरु, राम भगति सुर धेनु ।
सकल सुमंगल मूल जग, गुरु पद पंकज रेनु ।।”
(रामचरितमानस)
गोस्वामीजी के दृष्टिकोण को ठीक-ठीक समझने के लिए अब हम उन्हीं की रचना-हनुमान चालीसा पर दृष्टिपात करते हैं-
“ श्रीगुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि ।
बरनऊँ रघुवर विमल जसु, जो दायक फल चारि ।।”
यह दोहा गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरित- मानस के हनुमान-चालीसा के आरंभ में ही लिखा है। गोस्वामीजी हनुमान चालीसा लिखकर हनुमानजी की गुण-गाथा गा रहे हैं। गोस्वामीजी के इष्ट राम थे। किन्तु वहाँ पर राम की वन्दना नहीं कर, गुरु की वंदना की है। उन्होंने वहाँ गुरु को सर्वोच्च स्थान दिया है।
पहले श्रीगुरु चरण की वंदना करके भगवान को दूसरा स्थान देते हैं-‘बरनउँ रघुबर विमल जसु’ और जिस हनुमान की गाथा गाने के लिए वे तैयार हुए हैं, उनको तीसरा स्थान देते हैं-‘बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरौं पवन कुमार।’ आगे चलकर के उसी हनुमान चालीसा में गोस्वामीजी कहते हैं-
“ जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करो गुरुदेव की नाईं ।।”
जब गोस्वामीजी के इष्ट राम थे, तो उनको कहना चाहिए था कि-
“ जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करो रघुवर की नाईं ।।”
अथवा वे हनुमानजी की गुणगाथा ही गाने को प्रस्तुत हैं और वे स्वयं कह रहे हैं कि हमारे पास बल, बुद्धि, विद्या, विवेक कुछ नहीं है, तो हमारा कल्याण कैसे होगा, सो भी हम नहीं जानते हैं। तब ऐसी स्थिति में गोस्वामीजी को कहना चाहिए कि-
“ जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करो जो तुम्हहिं सोहाई ।।”
हमारे कल्याण के लिए जो हो, सो आप कीजिए, हम आपकी प्रार्थना कर रहे हैं। लेकिन न तो रघुवर को और न ही हनुमान को स्थान देते हैं। कहते हैं-‘कृपा करो गुरुदेव की नाईं ।’ गुरुदेव की तरह कृपा करो। गुरुदेव की कृपा कैसी होती है? बड़ी विलक्षण होती है-‘कृपासिन्धु नररूप हरि।’ सिंधु में से कितना ही जल निकाल लीजिए वह कभी घटता नहीं है। उसी तरह गुरु-कृपा के समुद्र हैं।
कृपा और दया में अंतर है। बिना प्रयास के जो इच्छित वस्तु की प्राप्ति होती है, वह प्रभु की कृपा है और प्रयास करने पर जो इच्छित वस्तु की प्राप्ति होती है, वह प्रभु की दया है। जो गुरु होते हैं, वे कृपालु होते हैं। किस तरह के कृपालु होते हैं? जब हम फुलवाड़ी में जाते हैं, तो किसी फूल से हम सुगंधि नहीं माँगते हैं। वे सभी पुष्प स्वाभाविक ही सुगंध देते हैं। माँगने की जरूरत नहीं पड़ती। छोटा बच्चा अबोध है, वह कुछ माँगता नहीं है; लेकिन उसकी माँ जानती है कि हमारे बच्चे को किस चीज की आवश्यकता है। बच्चे की आवश्यकता की पूर्ति उसकी माँ करती है। बच्चे को माँगना नहीं पड़ता है।
हम सूर्य से कभी प्रार्थना नहीं करते कि आप हमें इतना प्रकाश दीजिए। हम कभी चन्द्रमा से प्रार्थना नहीं करते कि अपनी शीतलता दीजिए। बिना माँगे ही फूल अपनी सुगंध देता है। बिना माँगे ही माँ बच्चे के लिए सब कुछ करती है। बिना माँगे ही सूर्य अपना प्रकाश देता है। बिना माँगे ही चन्द्रमा शीतलता देता है। उसी तरह गुरु बिना माँगे ही अपने शिष्यों को वह सब कुछ देते हैं, जिसकी उन्हें आवश्यकता होती है। वे सब जानते हैं कि हमारे शिष्य को क्या चाहिए। कभी ऐसा भी देखा गया है कि शिष्य तो माँग करते हैं; लेकिन गुरु देते नहीं हैं, क्यों? इसलिए कि शिष्य की जो माँग है, वह अगर वे दे दें, तो उसका अहित होगा। गुरु वह देते हैं, जिससे शिष्य का हित हो।
“ गुरु देवें तासो अधिक, राम सके नहिं देय ।
मूर्ख बिगाड़े आपनो, गुरु तजि रामहिं सेय ।।
सहजो गुरु रक्षा करैं, मेटैं सब दुख द्वन्द्व ।
मन की जाने सब गुरु, कहा छिपावै अंध ।।”
लेकिन गुरु भी सच्चा होना चाहिए, कच्चा नहीं। स्वामी विवेकानन्दजी ने लिखा है, ‘मेरे सामने एक वाचाल मूर्ख भले ही बात बना सकता है; लेकिन वह गुरु नहीं हो सकता है।’ गुरु में योग्यता होनी चाहिए। वह श्रोत्रिय होना चाहिए, ब्रह्मविद होना चाहिए, निष्पाप होना चाहिए, त्यागी होना चाहिए। ये सब गुरु के गुण हैं। इन गुणों से जो गुणान्वित हैं, वे गुरु होते हैं। वास्तविक बात तो यह है कि-
“ गुरु नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोय ।
ज्ञान मर्याद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोय ।।”
यदि सच्चे गुरु न हों, तो परिणाम क्या होगा?-‘गुरु गये कहिके, चेला मुए बहिके।’ कच्चे गुरु से कुछ कहने को नहीं है।
एक योगिराज थे। चौदह सौ वर्ष उनकी उम्र थी। उन्हीं के समय में संत ज्ञानेश्वर हुए। उनकी उम्र चौदह साल की थी। योगिराज का नाम था-चांगदेवजी महाराज। हठयोग की साधना उन्होंने इस तरह की थी कि वे सिंह की सवारी और साँप का चाबुक रखते थे। सिंह पर कोई चले, तो तमाशा देखनेवाले बहुत हो जाएँगे। उनके शिष्य बहुत हो गये थे; लेकिन जब उन्होंने सुना कि ज्ञानेश्वर नाम का बहुत बड़ा ज्ञानी है। उनके जो प्रधान शिष्य थे, उनके द्वारा ज्ञानेश्वरजी को पत्र लिखवाया। लेकिन पत्र के ऊपर उन्होंने न तो प्रणाम लिखा और न आशीर्वाद लिखा। मन में हुआ कि हम चौदह सौ वर्ष के हैं और वह चौदह वर्ष का है, उनको हम प्रणाम कैसे करेंगे। इसलिए प्रणाम नहीं लिखा। आशीर्वाद भी लिखते तो मन में हुआ कि वे बहुत बड़े संत हैं, तो आशीर्वाद भी कैसे दिया जाए!
जिस समय पत्रवाहक पत्र लेकर आये, उस समय संत ज्ञानेश्वर के भाई निवृत्तिनाथ और उसकी बहन मुक्ताबाई वहाँ पर बैठी हुई थी। पत्र को देखकर मुक्ताबाई ने कहा,‘भैया! जिस तरह का पत्र है, उसका उत्तर भी उसी तरह का होना चाहिए। निवृत्तिनाथ ने कहा, ‘बात तो सही कहती हो।’ संत ज्ञानेश्वरजी बोले ठीक है, उत्तर दिया जाएगा। समय निश्चित कर दिया गया अमुक तारीख को अमुक समय में चांगदेवजी महाराज आकर भेंट करेंगे। निश्चित समय पर योगिराज चांगदेवजी सिंह की सवारी पर और हाथ में साँप का चाबुक लेकर चले। उनके बहुत शिष्य लोग उनके पीछे-पीछे चले। तमाशा देखनेवाले भी कुछ लोग हो गये। जिस समय वे आ रहे थे, उस समय संत ज्ञानेश्वर एक चबूतरा पर बैठे हुए थे। दूर से ही देखा कि वे आ रहे हैं। संत ज्ञानेश्वरजी ने कहा,‘अरे चबूतरा! चल, उनके स्वागत करने के लिए, महाराजजी आ रहे हैं न!’ चबूतरा उठकर उधर चला। जब भेंट हुई, तो चबूतरा की सवारी देखकर योगिराज का अभिमान गल गया, अवाक् हो गये। उन्होंने सोचा कि मैं तो चेतन सिंह पर बैठा हुआ हूँ और ये जड़ चबूतरा पर बैठे हुए आ गये मेरे पास। तुरंत सिंह की सवारी से वे नीचे उतर जाते हैं। संत ज्ञानेश्वरजी के चरणों में जाकर साष्टांग करते हैं और कहते हैं, ‘आप मुझे वह ज्ञान दीजिए, जो आपके पास में है। मैं आपका शिष्यत्व ग्रहण करता हूँ।
विचारणीय विषय है कि कहाँ चौदह सौ वर्ष के शिष्य और कहाँ चौदह वर्ष के गुरु। वास्तविक बात तो यह है कि गुरु और शिष्य में मूल्यांकन ज्ञान का होता है, उम्र का नहीं। संत ज्ञानेश्वरजी ने कहा, ‘आप आ गये हैं और मुझसे दीक्षा लेना चाहते हैं तो मैं आपको दीक्षा दूँगा। लेकिन आपके जितने शिष्य आपके साथ में आए हैं, इनमें से यदि कोई अपना सिर मुझे दे दे, तो उसके बदले में मैं आपको दीक्षा दे सकता हूँ। यही दीक्षा की दक्षिणा हो जाएगी। अब उनके शिष्य जितने आए थे, एक-एक करके भागना शुरू किए। सोचने लगे कि कहीं गुरु महाराज मेरा ही नाम नहीं ले लें कि तू ही सिर दे दो। जितने शिष्य थे, सब के सब चलते बने, एक भी नहीं रहा। अब तो बेचारे चांगदेवजी महाराज ही रह गये। उन्होंने कहा, ‘महाराज! सब तो चले गये, अब तो मैं ही बचा हूँ। लीजिए मेरा सिर आपके आगे है; लेकिन मुझको दीक्षा दे दीजिए।’ संत ज्ञानेश्वर ने कहा,‘शीश देने का मतलब गला काटना नहीं है, अपने अहंकार को देना है। तुमने अहंकार दे दिया, मुझे दक्षिणा मिल गयी। मैं तुमको अवश्य दीक्षा दूँगा।’ संत ज्ञानेश्वरजी ने चांगदेवजी को दीक्षा दी। इसलिए संत कबीर साहब ने कहा-
“ सीस दिये जो गुरु मिलैं, तौ भी सस्ता जान ।
गुरु से ज्ञान जो लीजिए, सीस दीजिए दान ।
बहुतक भोंदू बहि गये, राखि जीव अभिमान ।।”
उम्र की विशेषता नहीं होती, ज्ञान की विशेषता होती है। उस ब्रह्म का जो गुरु ज्ञान देते हैं, वे ही ब्रह्मज्ञानी गुरु हैं। ऐसे ही गुरु के लिए संतों की वाणियों में कहीं-कहीं ईश्वर को और ब्रह्मज्ञानी गुरु को समान बतलाया गया है। यथा-
“ गुरु साहब तो एक है, दूजा सब संसार ।
आपा मेटै गुरु भजै, तो पावै करतार ।।
गुरु साहब करि जानिये, रहिये शब्द समाय ।
मिलैं तो दण्डवत् बंदगी, पल पल ध्यान लगाय ।।”
योगशिखोपनिषद् में भगवान शंकर ब्रह्माजी से कहते हैं-
“ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवः सदाशिवः ।
न गुरोरधिकः कश्चिन्त्रिषु लोकेषु विद्यते ।।”
ऐसा भी कहा गया है कि ‘प्रभुहू ते गुरु अधिक जगत विख्यात अहै।’ प्रभु से अधिक होते हैं गुरु। क्यों अधिक हैं? इसलिए कि-
“ हरदम प्रभु रहैं संग, कबहुँ भव दुःख न टरे ।
भव दुःख गुरु दें टारि, सकल जय जयति करे ।।”
जबसे हमलोग इस संसार में आये हैं, तो परमात्मा सर्वव्यापक होने के कारण हममें हैं ही, पर कभी उन्होंने हमसे कहा कि तुम्हारे शरीर में अमुक जगह बैठा हुआ हूँ, दर्शन कर लो, उद्धार हो जाएगा? नहीं कहा। लेकिन-
“ हरि ने मोसूँ आप छिपायौ,
गुरु दीपक दे ताहि दिखायौ ।।”
(सहजोबाई)
हम अज्ञानवश परमात्मा को खोजने के लिए बाहर में भटकते हैं, पर गुरु कहते हैं-
“ निज तन में खोज सज्जन, बाहर न खोजना ।
अपने ही घट में हरि हैं, अपने में खोजना ।।”
इसलिए गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ जे सउ चंदा उगवहिं सूरज चढ़हिं हजार ।
ऐते चानन होदिया, गुरु बिन घोर अंधार ।।”
एक चन्द्रमा की कौन कहे, सौ चन्द्रमा उदय हो जाएँ, हजारों सूर्य उदय हो जाएँ; लेकिन जागतिक कितना भी प्रकाश क्यों न हो, जबतक संत सद्गुरु नहीं मिलेंगे, तबतक अंदर का अज्ञान अंधकार दूर नहीं हो सकता।
“ गुरु ज्ञान सूर्य रूप, उनकी ज्योति अनूप ,
उर के नाशै तम कूप, भजो साध गुरु ऐ ।।”
-महर्षि मेँहीँ-पदावली
हमारे अंतःपुर में प्रभु भरपूर है; लेकिन तम दूर नहीं होता है। तम दूर तो गुरु की कृपा से ही होगा। इसलिए गुरु की विशेषता है। हमलोग प्रतिदिन स्तुति में कहते हैं-‘परम पुरुषहु तें अधिक गावैं संत सुजान।’ इसलिए गुरु की जो मर्यादा है, सर्वोपरि है। जिनको हम भगवान कहकर पूजते हैं, उन्हें भी गुरु धारण करना पड़ा। कबीर साहब कहते हैं-
“ राम कृष्ण से को बड़ा, तिनहुँ तो गुरु कीन ।
तीन लोक के ठाकुरे, सो गुरु के आधीन ।।”
राम और कृष्ण के एक नहीं, दोनों के दो गुरु हुए। भगवान राम के विश्वामित्र लौकिक गुरु थे और वशिष्ठजी पारलौकिक गुरु थे। उसी तरह भगवान कृष्ण के संदीपन मुनि लौकिक गुरु थे और गर्ग मुनि आध्यात्मिक गुरु थे। जो भगवान हैं, वे भी गुरु धारण करते हैं। लेकिन आजकल कुछ हवा ऐसी बह गयी है कि लोग कहते हैं-‘गुरु तो भगवान ही हैं, परमात्मा ही हैं, दूसरे गुरु करने की जरूरत नहीं है।’ लेकिन जो यह बात कहते हैं, दूसरे को सिखलाते हैं कि गुरु करने की जरूरत नहीं है, उपदेश करते हैं, वे तो स्वयं गुरु बन ही गये। ये हैं-छप्र गुरु। जब परमात्मा गुरु हैं ही, फिर तुम उपदेश देकर गुरु क्यों बनते हो?
इसमें कोई शक नहीं है कि परमात्मा आदिगुरु हैं। बच्चा जन्म लेता है, उसे भूख लगती है, तो वह रोने लगता है। माँ अपना स्तन बच्चे के मुँह में डालकर उसे दूध पिलाती है। पर क्या माँ सिखाती है कि दूध को इस तरह से चूसो, ऐसे घूँटो, तेरे पेट में जाएगा और तेरी भूख मिटेगी? वह कौन सिखाता है? परमात्मा ही सिखाते हैं। आदिगुरु परमात्मा हैं ही। लेकिन परमात्मा को पाने के लिए नर-रूप में हरि को आना होता है। जो परब्रह्म परमात्मा निराकार हैं, निर्गुण हैं, वे ही सगुण साकार में नराकार होकर आते हैं, हमको उपदेश देते हैं। उनके उपदेश से ही हमारा भव-क्लेश मुक्त हो सकता है, अन्यथा नहीं। इसलिए निर्गुण निराकार ब्रह्म तो हैं ही और सगुण साकार ब्रह्म-ये संत सद्गुरु हैं। जबतक इनकी पूजा हम नहीं करेंगे, इनसे हम दीक्षा नहीं लेंगे, इनके वचनों पर नहीं चलेंगे, तबतक हमारा कल्याण नहीं होगा।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 10-03-2002 ई0 को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, दिसम्बर 2004 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
यह अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग का 91वाँ वार्षिक अधिवेशन है। यह बतलाता है कि इसके पूर्व नब्बे वार्षिक अधिवेशन हो चुके हैं। नब्बे हमलोग कैसे लिखते हैं-9 के आगे शून्य देते हैं, यह एक सैन है। कबीर साहब ने कहा है-
“ जो कोई समझै सैन से, ताको कहिए बैन ।
सैन बैन समझ नहीं, ताको कछु नहीं कैन ।।”
यह सैन क्या है, 9 के आगे शून्य। जब से सृष्टि हुई है और इस सृष्टि में हमलोग आए हैं, नौ दरवाजे में ही घूम रहे हैं। नौ के आगे शून्य है। वह संकेत करता है कि नौ के आगे कोई दशवाँ दरवाजा भी है। उस दशवें दरवाजे की ओर जाओ। लेकिन उस शून्य को भी देख करके हमलोग कुछ नहीं समझ पाये, तब 91 वाँ वार्षिक अधिवेशन कहता है कि 9 के बाद 1 और द्वार है उसको जानो कि वह एक द्वार क्या है? 9 द्वार तो हमलोग जानते हैं-आँख के दो द्वार हैं, कान के दो द्वार हैं, नाक के दो द्वार हैं, मुँह का एक द्वार हैं और मल-मूत्र विसर्जन के दो द्वार हैं। ये नौ द्वार पिण्ड में हैं, लेकिन दशवाँ द्वार पिण्ड-ब्रह्माण्ड की संधि स्थल पर है। उस ओर इंगित करता है। जबतक हमलोग इन आठ दरवाजे में हैं, तब क्या हो रहा है और यदि हम दशवें द्वार में जाएँ, तब क्या होगा? इस सन्दर्भ में पंजाब में बहुत बड़े महान संत हो गए हैं-गुरुनानक देवजी महाराज, उन्होंने बतलाया है-
“ नउ दरि ठाके धावतु रहाए,
दसवै निज घरि वासा पाए ।
उथै अनहद सबद बजहि दिन राती,
गुरमति शबदु सुणावणिआ ।।”
जबतक तुम नौ दरवाजे में रहोगे, आवागमन के चक्र में पड़े रहोगे, विषयों में तुम भुले हुए रहोगे। लेकिन जब तुम दशवें दरवाजे में प्रवेश करोगे, तो वहाँ जाओगे, जहाँ तुम्हारा निज घर है। निज घर में जाकर क्या होगा, तो महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं-
“ निज घर में निज प्रभु को पावै, अति हुलसावै ना ।
‘मेँहीँ’ अस गुरु सन्त उक्ति, यम-त्रस मिटावै ना ।।”
आवागमन के चक्र से छूट जाओगे। वह दशवाँ दरवाजा क्या है, कहाँ है? भगवान शंकर ने ब्रह्माजी से इस प्रकार कहा था-
“ वामदक्षे निरुन्धन्ति प्रविशन्ति सुषुम्नया ।
ब्रह्मरन्ध्रं प्रविश्यांतस्ते यान्ति परमां गतिम् ।।”
(योगशिखोपनिषद्)
जो बायें और दायें को रोकता है अर्थात इड़ा, पिंगला को रोकता है, सुषुम्ना में प्रवेश कर जाता है। और जो सुषुम्ना में प्रवेश करता है, वही ब्रह्मरन्ध्र्र में प्रवेश करता है। जो ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश करता है, वही ब्रह्म को प्राप्त करता है। ब्रह्म के पास जाने का यही एक मार्ग है। यों कहने के लिए लोग कहा करते हैं कि एक नगर में जाने के लिए चारो ओर से रास्ते होते हैं। किसी भी नगर से रास्ते में प्रवेश कर सकते हैं, लेकिन परमात्मा के पास जाने के लिए अनेक नहीं एक ही रास्ता है। हमलोग अपने-अपने रहने के लिए घर-मकान बनाते हैं और प्रभु के लिए भी घर बनाते हैं। मन्दिर बनाते हैं, मस्जिद बनाते हैं, गिरजा बनाते हैं। हमलोग तो अपने लिए बनाते हैं, प्रभु के लिए भी बनाते हैं। क्या प्रभु अपने लिए घर नहीं बनाते हैं? प्रभु ने भी अपने लिए घर बनाया है। मंदिर, मस्जिद और गिरजा तो पूजा घर है, उसमें जाकर हम उनकी पूजा करते हैं। पर वहीं प्रभु मिलेंगे, ऐसी बात नहीं है जब हम शरीर-रूपी मंदिर में प्रवेश करेंगे, गिरजा में प्रवेश करेंगे, मस्जिद में प्रवेश करेंगे, तभी प्रभु के दर्शन होंगे। जैसे देखने का रास्ता एक है-आँख, सुनने का रास्ता है-कान, गंध ग्रहण करने का रास्ता है-नाक, भोजन ग्रहण करने का रास्ता है-मुँह, मल-मूत्र विसर्जन के लिए भी एक-एक रास्ता नियुक्त है। चाहें वे हिन्दू हों, मुसलमान हों, जैन हों, बौद्ध हों, सिक्ख हों, ईसाई हों, नर हों वा नारी हों, किसी देश वा वेश के हों, सबके लिए एक ही समान बात है। उसी तरह परम प्रभु परमात्मा तक जाने का एक ही रास्ता है, और वह रास्ता बाहर का नहीं है अपने भीतर का है। यही बतलाने के लिए यह 91 वाँ वार्षिक अधिवेशन है। शरीर स्थित नौ द्वारों के बारे में महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं-
“ तन नव द्वार हो रामा, अति ही मलीन हो ठामा ।
त्यागि चढ़ु दशम द्वारे, सुख पाउ रे भाई ।।”
ये नौं द्वार जो हमारे हैं, ये मलिन हैं, अपवित्र हैं। बल्कि यदि हम विवेक विलोचन से अवलोकन करें, तो पायेंगे कि इस शरीर में जैसे-जैसे हम नीचे की ओर जाते हैं, वैसे-वैसे हमारी अज्ञानता बढ़ती है और अपवित्रता भी बढ़ती है। जैसे हमारी आँखें है, आँखों से हम बाह्य जगत का दृश्य देखते हैं। लेकिन आँखों से हम जितनी दूर की चीजों को देख सकते हैं, कान से उतनी दूर के शब्द को सुन नहीं सकते, क्योंकि आँख से कान नीचे है। कान से जितनी दूर के शब्द को हम सुन सकते हैं, नासिका से उतनी दूर की गंध को ग्रहण नहीं कर सकते हैं, क्योंकि कर्णेन्द्रिय से नासिका नीचे है। नासिका से जितनी दूर की गंध को हम ग्रहण कर सकते हैं, जिभ्या से उतनी दूर पर रखी चीज का रसास्वादन नहीं कर सकते है; क्योंकि नासिका इन्द्रिय रसनेन्द्रिय नीचे है। इस प्रकार सिद्ध है कि जैसे-जैसे हम नीचे की ओर जाते हैं, वैसे-वैसे हमारी अज्ञानता बढ़ती है। अब प्रश्न है कि जैसे-जैसे नीचे की ओर जाते हैं, उतनी अपवित्रता भी बढ़ती है, यह कैसे? मान लीजिए हमारे कोई मित्र किसी कारण-विशेष से दुःखी है, हमारे सामने वे रो रहे हैं। उनकी आँखों से अजस्त्र-धारा प्रवाहित हो रही है, ऐसी परिस्थिति में हम क्या करते हैं? अपना रूमाल निकाल करके उनकी आँखों के आँसू को पोछते हैं और कहते हैं-रोइये नहीं, धैर्य धारण कीजिए, उनको हम विविध प्रकार से सान्त्वना देते हैं, ढाढ़स बँधाते हैं। विचारणीय विषय है कि जिस मित्र की आँखों के आँसुओं को हम अपने रूमाल से पोछ देते हैं, यदि उन्हीं मित्र के कान से गुज्जू निकलता हो तो क्या पोछेंगे? नहीं पोछेंगे। इसी प्रकार उनकी नाक से यदि नेटा निकलता हो तो हम नहीं पोछेंगे। उनके मुँह से लार निकलता हो तो हम नहीं पोछेंगे और नीचे की इन्द्रियों से निःसृत मल-मूत्र के लिए तो कहना ही क्या? अब हम दूसरी तरह से सोचें, सच्छास्त्रें में लिखा है-जब हम जाग्रतावस्था में रहते हैं, तो नेत्र में रहते हैं। स्वप्नावस्था में कंठ में चले जाते हैं और सुषुप्ति की अवस्था में हृदय में चले जाते हैं।
“ नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निं संस्थितम् ।।”
(ब्रह्मोपनिषद्, कृष्णयजुर्वेद)
इस वेद वाक्य से संत चरणदासजी महाराज की वाणी में कितना साम्य है, मिलाकर देखिए-
“ जाग्रत वासा नैन में स्वप्न कंठ स्थान ।
जान सुषुप्ति हृदय में नाभि तुरीय मन तान ।।”
सन्त दरिया साहब बिहारी कहते हैं-
“ जानि ले जानि ले सत्त पहिचानि ले ,
सुरत साँची बसै दीद दाना ।”
और सन्त तुलसी साहब की वाणी सुनिए-
“ सत सुरति समझि सिहार साधौ ,
निरखि नित नैनन रहो ।”
जाग्रतावस्था में आँख में रहने के कारण हम दूर तक देखते हैं। जब हम स्वप्नावस्था में आँख से नीचे उतरकर कंठ में चले जाते हैं, तो नजदीक का भी ज्ञान हमको नहीं रहता है। उस समय हम मानसिक जगत में घुमते रहते हैं और जब कंठ से नीचे हृदय में चले जाते हैं तो वहाँ मानसिक जगत भी छूट जाता है और ऊपर कंठ में आते हैं तो पूर्ववत मानसिक जगत में घुमते हैं। कंठ से ऊपर जब हम आँख में आते हैं तो जाग्रतावस्था में आ जाते हैं और तब हमें स्थूल जगत का ज्ञान होने लग जाता है। संतों ने कहा कि यदि तुम अपने को इन तीनों अवस्थाओं से परे चौथी अवस्था तुरीय में ले जाओ तो तुमको उस दिव्य अलौकिक जगत का ज्ञान होगा। जहाँ से तुम इस स्थूल शरीर और संसार में आये हो। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ वा घर की सुधि कोई नहीं बतावे ,
जा घर से जीव आया हो ।”
हम कहाँ से आये हैं और हमको कहाँ जाना है, यह बतलाने वाला कोई नहीं है। यह तो कोई संत सद्गुरु ही बतला सकते हैं। इस 91वाँ वार्षिक अधिवेशन में यह बात बतलायी जाएगी। सत्संग की तिथियाँ 7, 8 और 9 निश्चित की गयी। जरा इस पर भी हम विचार करें। ये सात, आठ और नौ तिथियाँ क्या बतलाती है? इस सप्तमी तिथि के विषय में हम गोस्वामी जी के शब्दों में कहना चाहेंगे-
“ सातईं सप्तधातु निरिमित तनु, करिय विचार ।
तेहि तनु केर एक फल, कीजिए पर उपकार ।।”
सप्तधातुओं-रक्त, रस, मेद, मज्जा, मांस, अस्थि और वीर्य से हमारा शरीर निर्मित है। गोस्वामी जी का कहना है कि इस शरीर को पाकर विचार कीजिए कि क्या करना है जरा विचार शब्द पर हम विचार करें, विचार किसको कहते हैं? संत वचन है-
“ को मैं आया कहाँ से, कित जाना क्या सार ।
को मम जननी को पिता, या को कहिये विचार ।।”
यह विचार करना है। भगवान बुद्ध का जमाना था वे चारिका करके भोजन करते थे। जिस गाँव में भोजन करते थे, उस गाँव के बाहर वृक्ष के नीचे बैठ जाते थे, गाँव के कुछ लोग वहाँ एकत्रित होते और भगवान बुद्ध कुछ उपदेश वाक्य कहकर अपने विहार चले जाते थे। विहार कहने का मतलब बिहार प्रान्त से नहीं, बल्कि उनकी कुटियों से है। उस समय उनकी कुटिया निवास आश्रम को विहार की संज्ञा दी जाती थी। एक बार किसी गाँव में भिक्षाटन करके वे गाँव के बाहर में बैठ गए। वहाँ गाँव के कुछ लोग इकट्ठे हो गए। भगवान बुद्ध उपदेश करने लग गए। संयोग से उस गाँव की एक युवती लड़की जिसका विवाह नहीं हुआ था, वह भी आ गयी, जहाँ भगवान बुद्ध बैठे थे, वह वहीं उनके निकट नीचे में बैठ गयी। भगवान उपदेश वाक्य समाप्त करने के बाद उस लड़की से पूछते हैं-कुमारिके! तू कहाँ से आयी है? वह लड़की कहती है-‘भन्ते! मैं नहीं जानती’, भगवान बुद्ध पूछते हैं-‘तू कहाँ जाएगी’, लड़की कहती है-‘भन्ते मैं नहीं जानती’, भगवान बुद्ध पूछते हैं-‘तू नहीं जानती है?’, लड़की उत्तर देती है-‘मैं नहीं जानती हूँ’, भगवान बुद्ध पूछते हैं-तू नहीं जानती है, लड़की कहती है-हाँ भगवन! जानती हूँ। भगवान बुद्ध पूछते हैं कि तु जानती है? लड़की उत्तर देती है कि मैं नहीं जानती हूँ, वहाँ जितने लोग बैठे थे, उनलोगों के मन में आक्रोश हुआ कि यह कोई छोटी बच्ची नहीं है, सयानी लड़की है। इतने बड़े महान सन्त पूछ रहे हैं कि कहाँ से आयी हो, तो कहती है कि मैं नहीं जानती हूँ, पूछते हैं कि कहाँ जाएगी, तो कहती है, नहीं जानती हूँ, जब भगवान पूछते कि नहीं जानती हो तो कहती है कि हाँ जानती हूँ। जब भगवान पूछते हैं कि जानती हो, तो कहती है कि नहीं जानती हूँ। यह कैसी अशिष्ट लड़की है सबके मन के आक्रोश को जानकर भगवान बुद्ध ने पुनः उस लड़की से पूछा-‘कुमारिके!’ मैं तुमसे क्या पूछ रहा हूँ और तुम क्या उत्तर दे रही है? वह लड़की कहती है-‘भन्ते! आप जानते हैं कि मैं अमुक पेशकार की पुत्री हूँ और आप यह भी जानते हैं कि मेरी शादी हुई नहीं है तो मैं कहाँ से आयी हूँ और कहाँ जाऊँगी, यह बात आप जानते ही हैं, लेकिन आपका पूछना यह नहीं है। आपका पूछना है कि संसार में, इस शरीर में तुम कहाँ से आयी है? भगवन! मुझे क्या पता, मैं पूर्व जन्म क्या थी और कहाँ से आयी हूँ, इसलिए मैंने कहा कि मैं नहीं जानती हूँ। आपने पूछा कि कहाँ जाएगी? भगवन! मुझे क्या पता कि शरीर छूटने पर मैं कहाँ जाऊँगी, इसलिये कहा कि नहीं जानती हूँ। आपने पूछा-नहीं जानती है? तो मैंने कहा कि जानती हूँ अर्थात संसार से एक दिन जाना है। आपने पुनः पूछा कि जानती है? तो मैंने उत्तर दिया, नहीं जानती हूँ अर्थात कब जाऊँगी, यह नहीं जानती हूँ।
हमलोगों को भी यह सोचना है, विचारना है कि हम कहाँ से आये हैं और कहाँ जाएँगे? तथा अन्य संत भी कहते हैं कि ‘याको कहिए विचार।’ यह देव दुर्लभ मनुष्य शरीर हमलोगों को मिला हुआ है, इसकी उपादेयता क्या है, हमलोग जानें। गोस्वामी जी कहते हैं कि ‘कीजिए पर उपकार।’ इस परोपकार कार्य में चाहें हमारा तन लग जाय, मन लग जाय, धन लग जाय, वचन लग जाय, जो लग जाय, वह तो हमारे हिस्से का होगा, बाकी बचा हुआ भाग किसके हिस्से में जाएगा, पता नहीं। गुरु गोरखनाथजी कहते हैं-
“ सप्त धातु का काया प्यंजरा, ता माहिं जुगति बिन सूवा ।
सतगुरु मिलै तो उबरै बाबू, नहिं तो प्रलय हूवा ।।”
यह सप्त धातु का बना हुआ पिंजरा है, इस पिंजरे में जीव रूप सुग्गा बैठा हुआ है। इस सुग्गे को पढ़ने के लिए जो सिखा दिया गया है, जैसे-राम-राम, शिव-शिव, वाह गुरु आदि वही यह पढ़ रहा है, कर रहा है। लेकिन जबतक सन्त सद्गुरु नहीं मिलेंगे, तबतक इससे निकलने का रास्ता इसको नहीं मिलेगा।
आठवीं तिथि क्या बतलाती है-
“ आठइँ आठ प्रकृति पर, निरविकार श्री राम ।
केहि प्रकार पाइय हरि, हृदय बसहिं बहु काम ।।”
संतमत-सत्संग के द्वारा आपको बतलाया जाएगा कि आठ प्रकृति के परे परम प्रभु परमात्मा किस प्रकार हैं। वास्तव में प्रकृति दो ही हैं-अपरा प्रकृति और परा प्रकृति। गोस्वामी जी ने अष्टधा प्रकृति को आठ प्रकृति कहा है। अपरा प्रकृति ही अष्टधा प्रकृति है; क्योंकि इसके अभ्यंतर में मिट्टी, जल, अग्नि, हवा, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार; ये आठ चीजें है। गोस्वामी जी कहते हैं-अष्टधा प्रकृति के परे निर्विकार श्रीराम हैं। वे निर्विकार श्रीराम कैसे मिलेंगे, जबकि हमारे हृदय में बहुत सी कामनाएँ बैठी हैं। जबतक हम निर्विकारी नहीं हो सकेंगे, उस निर्विकारी प्रभु को नहीं प्राप्त कर सकते। ब्रह्माण्ड पुराणोत्तर गीता में लिखा है-
“ नवछिद्रान्विता देहाः स्नुवत्ते जालिका इव ।
नैव ब्रह्म न शुद्धं स्यात् पुमान् ब्रह्म न विन्दति ।।”
अर्थात नवछिद्र विशिष्ट शरीर से ज्ञान, विज्ञानादि निरन्तर निःसृत होते रहते हैं। मानवगण इन्द्रिय संयम करके देहाभिमान और रागादि परित्यागपूर्वक साक्षात् ब्रह्मवत् परिशुद्ध न होकर किसी प्रकार ब्रह्म का लाभ नहीं कर सकते।
हम अपने अन्दर से कामनाओं को कैसे निकालेंगे, अन्तःपुर का प्रक्षालन कैसे होगा और हम निर्विकार प्रभु को कैसे पाएँगे आदि बातें क्रम-क्रम से इस सत्संग में बतलाई जाएगी। अब आगे नवमी तिथि आती है, यह क्या बतलाती है-
“ नवमी नव द्वार-पुर वसि, न आपु भल कीन ।
ते नर जोनि अनेक भ्रमत, दारुन दुख दीन ।।”
कहते हैं-जबतक हम शरीर के नौ द्वार रूप पुर में रहेंगे, तबतक आवागमन के चक्र में पड़े रहेंगे, इससे हमारी अपनी भलाई नहीं हो सकेगी। अभी तो हम अपने को शरीर जान रहे हैं, इसलिए शरीर सुख के लिए ही सब कुछ कर रहे हैं। हमारा जितना प्रयास है, इन्द्रिय सुख के लिए है। लेकिन हम न तो शरीर हैं और न इन्द्रिय ही। हम शरीर, इन्द्रिय से परे हैं। हम अपने को जानें, पहचानें। एक बंगाली महात्मा योगी पंचानन भट्टाचार्य ने कहा था-
“ आमी आमी करि बूझते न पारी ।
के आमी अमाते आछे की रतन ।।
कोन शक्ति बले बेड़ाइ चले बलै ।
कारे अभावे हय देह अचेतन ।।
देहे माझे आछे प्राणेरि संचार ।
ताहा तेई बली आमी या आमार ।।
प्राण गेले चले हवे शवाकार ।
केवाकार कोथाय रव धन-जन ।।”
‘हम-हम’ तो कह रहे हैं, लेकिन ‘हम’ हैं कौन, कभी भेंट हुई अपने से? हम गोरे हैं, काले हैं, नाटे हैं, मोटे हैं, दुबले हैं, पतले हैं, कैसे हैं? वस्तुतः हम लोग केवल शरीर ज्ञान में हैं, अपना ज्ञान नहीं है। शरीर का ज्ञान रहने के कारण ही हम शरीर से सम्बन्धित व्यक्ति और वस्तु का उपभोग करते हैं, इससे लाभ लेते हैं। लेकिन जिस दिन हमको स्वयं का ज्ञान हो जाएगा कि हम अमुक हैं, उस दिन उससे सम्बन्धित लाभ हमको मिलेगा। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ ईस्वर अंस जीव अविनासी ।
चेतन अमल सहज सुख रासी ।।
सो माया बस भयउ गोसाईं ।
बंधेउ कीर मर्कट की नाईं ।।”
यह ‘ईस्वर अंस जीव अविनासी’ जब पीव को प्राप्त कर लेगा, तब उसका सारा दुःख दूर हो जाएगा। जितने प्रकार के दैहिक, दैविक, भौतिक आदि ताप हैं, इनसे मुक्ति मिल जाएगी।
यह दो हजार, दो ईस्वी है। दो के बाद दो शून्य लिखकर फिर दो लिखते हैं। इस प्रकार इधर से अथवा उधर से, जिधर से भी पढ़िए बीस हो जाता है। यह बीस बतलाता है कि मानव शरीर पा करके उन्नीस (खोटा) काम मत करो। जो काम करो बीस (शुभ) काम करो, इक्कीस (उत्तमोत्तम) काम करो। यह उत्तमोत्तम कार्य भगवद्भजन, सत्संग, परोपकार और स्वावलम्बी जीवन है। यह मनुष्य शरीर की उपादेयता है।
इतना बड़ा विशाल आयोजन किसलिए है, यह क्या सन्देश देता है, यह भूमिका के रूप में मैंने थोड़ा-सा आपलोगों के समक्ष रखा।
आज ‘सत्संग’ के विषय में पाठ करके आपलोगों को सुनाया गया है। जिज्ञासा होती है-सत्संग किसको कहते हैं? सत्संग में दो शब्द हैं-सत् और संग। सत् सापेक्ष शब्द है। सापेक्ष कहते हैं-स+अपेक्ष। जिसको दूसरे की अपेक्षा होती है, वह है सापेक्ष। जब दो पदार्थ परस्पर उलटे गुणवाले हों और एक दूसरे के अपेक्षित हों, वह सापेक्ष शब्द है। जैसे सत् है, उसका सापेक्ष असत् होगा। जैसे दिन-रात, हानि-लाभ, सुख-दुःख, पाप-पुण्य; ये सभी सापेक्ष शब्द हैं, एक दूसरे के उलटे गुणवाले हैं। लेकिन एक जहाँ रहेंगे, दूसरे भी वहाँ रहेंगे। जिसका संग करने के लिए यह आयोजन किया गया है, वह सत् क्या है? संसार की जितनी चीजें हैं, सारी चीजें नाशवान हैं, असत् हैं।
परमात्मा ने जो सृष्टि की है, उस सृष्टि के पाँच बड़े-बड़े मण्डल हैं। जिसमें हमलोग रह रहे हैं, यह स्थूल मण्डल है। इसके बाद सूक्ष्म मंडल है, इसके बाद कारण मंडल है, उसके बाद महाकारण मण्डल है; ये चार बड़े-बड़े जड़ के मण्डल हैं और ये क्षर हैं। इन चार मण्डलों के परे पाँचवाँ कैवल्य मंडल है। वह कैवल्य मंडल क्षर नहीं, अक्षर है। वह जड़ नहीं, चेतन है। जबतक हम इन चार मण्डलों में रहेंगे, तबतक हम असत् में रहेंगे, तबतक हम क्षर में रहेंगे। और जब हम इन चारों मण्डलों को पार करके पाँचवें मण्डल में स्थित होंगे, तब हमको अपने सत्-स्वरूप का ज्ञान होगा। और जब अपने स्वरूप का ज्ञान होगा, तब परमात्म-स्वरूप का भी ज्ञान होगा। जबतक अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं होगा, तबतक सत्-स्वरूप परमात्मा का ज्ञान नहीं होगा।
यह जीवात्मा सत् है और परमात्मा भी सत् है। परमात्मा में जीवात्मा को मिला देना, इस प्रकार सत् का सत् से संग होना सत्संग है। गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है-
“ सूचै भाड़ै साचु समावै बिरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।”
अर्थात् पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है। जड़ावरण अपवित्र बर्तन है, इसमें जीवात्मा रहकर परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता है। इनको पार करना है। कैवल्य मण्डल में जाकर-परा प्रकृति में अवस्थित होना है, तब अपना और परमात्मा दोनों का ज्ञान होगा। इसलिए एक शायर ने बड़ा अच्छा कहा है-
“ इबादत है किसी नाशाद को फिर शाद कर देना ।
इबादत है किसी बर्बाद को आबाद कर देना ।।
यही सीखा है सागर हमने मुर्शद के कदम छूकर ।
खुदा से हो अगर मिलना पता खुद का लगा लेना ।।”
जबतक खुद का पता नहीं मिलेगा, तबतक खुदा का पता नहीं मिलेगा। जबतक आत्मा का पता नहीं मिलेगा, तबतक परमात्मा का पता नहीं मिलेगा। चारो मंडलों को पार करने पर, चारों जड़ शरीरों को पार करने पर आत्मा का पता चलेगा। फिर जीव और पीव मिलकर एक हो जाएगा।
यह सत्संग बहुत उच्च श्रेणी का सत्संग है, इससे बढ़कर और कुछ हो नहीं सकता है। लेकिन जबतक यह सत्संग नहीं मिला है अर्थात् जीवात्मा- परमात्मा का मिलन नहीं हुआ है, तबतक हमलोग क्या करें? सत्-स्वरूप सर्वेश्वर का जिन्होंने साक्षात्कार कर लिया है, ऐसे सत् जन का संग भी सत्संग है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
“ सोइ जानहि जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ।।”
जो जल समुद्र में जाकर मिल जाता है, उसकी संज्ञा समुद्र ही हो जाती है। उसी तरह जो जीव परमात्मा से जाकर, मिल करके एक हो जाता है, उसकी संज्ञा वही हो जाती है, वह परमात्मा से अभिन्न हो जाता है। लेकिन ऐसे संतों की पहचान भी कठिन है; क्योंकि हमारे पास उस तरह का मीटर नहीं है, जिससे हम ठीक-ठीक उनकी पहचान कर सकें।
एक साधु बाबा ने अपने शिष्यों को एक छड़ी दिया और कहा कि यह लो, तुम जिसके सामने इस छड़ी को रखोगे, उसके अंदर क्या दोष-गुण हैं, इसमें देख लोगे। शिष्य ने छड़ी ले ली। उसने सोचा कि और लोगों को तो पीछे देखेंगे, पहले अपने गुरुजी को ही देख लें कि इनमें क्या गुण-अवगुण हैं। उसने उस छड़ी को गुरुजी के सामने कर दिया, तो उसकी नजर में गुरुजी के अंदर के गुण-दोष सब कुछ आ गए। गुरुजी के अवगुणों को देखकर वह सोचने लगा कि इतने दिनों तक मैंने इनकी व्यर्थ सेवा की; क्योंकि इनमें तो दोष भरे पड़े हैं। मैं तो समझता था कि ये विकार-रहित, निर्दोषी हैं, पवित्र हैं। अब इनके साथ रहना ठीक नहीं है। गुरुजी ने उस शिष्य से कहा-अच्छा, मुझे तो तुमने देख लिया। अब तुम अपनी ओर छड़ी घुमाकर देखो, तुम कैसे हो? शिष्य ने जब अपनी ओर देखा, तो दंग रह गया। वह सोचने लगा-अरे! हम तो सभी दुर्गुणों से भरे पड़े हैं।
इसी प्रकार लोग तो दूसरे को मीटर लगाकर देखते हैं, लेकिन अपने में मीटर लगाकर देखना भूल जाते हैं। जरा झाँककर देखो तो अपने में क्या है?
“ देखि के परदोष रज सम, कहत गिरि सम सोई रे ।
दोष अपने मेरु सम हैं, तिन्हें राखत गोई रे ।।”
-गो0 तुलसीदासजी
संतों में कोई दोष नहीं होता। दोष हमारी दृष्टि में रहता है। संतों का संग दूसरी श्रेणी का सत्संग है। लेकिन जब कोई संत हमारे सामने नहीं हों, तब हम किसका संग करें, ऐसी जिज्ञासा हो सकती है? उत्तर में निवेदन है कि जो संत हो चुके हैं, उन सन्तों की जो वाणियाँ हैं, उन सन्तों की वाणियों का हम संग करें, यह भी सत्संग है। यह तीसरी श्रेणी का सत्संग है। कुछ दिन हम सत्संग करते रहेंगे, संतवाणी का संग करते रहेंगे, तो कभी-न-कभी प्रभु की कृपा हो जाएगी और दुर्लभ संत के दर्शन हो जाएँगे। दूसरी श्रेणी का सत्संग करते-करते उनसे सद्युक्ति लेकर सदाचार समन्वित होकर, सत् साधना करने लग जाएँगे तो सत्-स्वरूप सर्वेश्वर का साक्षात्कार करके पहली श्रेणी का भी सत्संग हो जाएगा।
अभी हमलोग संतवाणी का संग करने के लिए यत्र-तत्र से यहाँ एकत्र हुए हैं। संतों ने क्या कहा है, उसको हम सुनेंगे, समझेंगे, विचारेंगे और व्यवहार में लाएँगे, हमारा परम कल्याण होगा, परमात्मा का ज्ञान ऐसा है कि वह सर्वत्र है। परमात्मा सर्वव्यापी होने के कारण वह बाघ में भी रहते हैं और गाय में भी रहते हैं। बाघ का संग करने से क्या होगा और गाय का संग करने से क्या होगा, सो समझिए। उसी तरह परमात्मा सज्जन में भी रहते हैं और दुर्जन में भी रहते हैं। सज्जन तो गाय के समान होते हैं और दुर्जन बाघ के समान। बाघ के सामने जाइए तो वह आपको खा लेगा। उसी तरह दुर्जन के सामने जाइए तो आपके सद्ज्ञान को खा लेगा। गाय हमको दूध देती है, उसका दूध हम जीवन भर पीते हैं। माता का दूध उतना नहीं पी पाते हैं, जितना कि गाय का दूध पीते हैं। जैसे जीवन भर गाय हमको दूध देती रहती है, उसी तरह संत-महात्मागण अपने जीवन भर हमको सद्ज्ञान देते रहते हैं। जिस तरह दूध पीकर हम पुष्ट होते हैं, उसी तरह संतों के ज्ञान को लेकर हम संतुष्ट होते हैं।
शारीरिक बल के लिए भोजन की आवश्यकता होती है, मानसिक बल के लिए इस सत्संगरूपी भोजन की आवश्यकता होती है और आत्मबल के लिए भगवद् भजन करने की आवश्यकता होती है। ये तीनों प्रकार के भोजन चाहिए। तन का भोजन चाहिए, मन का भोजन चाहिए और आत्मा का भी भोजन चाहिए।
जो संत होते हैं, वे हमको देते ही देते रहते हैं। संत सुन्दरदासजी महाराज ने कितना अच्छा कहा है-
“ साँचो उपदेश देत भली भली सीख देत ,
समता सुबुद्धि देत कुमति हरतु है ।
मारग बताई देत भावहू भगति देत ,
प्रेम की प्रतीति देत अभरा भरतु हैं ।
ज्ञान देत ध्यान देत आतम विचार देत ,
ब्रह्म कूँ बताई देत ब्रह्म में चरतु है ।
सुन्दर कहत जग संत कछु लेत नाही ,
निशदिन संत जन देवो ही करतु हैं ।”
वे संत हमको देते ही देते रहते हैं। संतमत बतलाता है कि सत् और असत् से क्या लाभ और क्या हानि होती है-
“ सत-संगति से हो जाता नर विषयों से निस्संग ।
फिर व्यामोह रहित हो जाता हो सर्वत्र असंग ।।
मोह विगत होते ही होता मन निश्चलता युक्त ।
निश्चलता आते ही वह हो जाता जीवन मुक्त ।।”
सत्संग से प्रेम करनेवाला जीवनमुक्त हो जाता है। शरीर में रहते हुए अशरीरी हो जाता है, विदेह हो जाता है। गुरु नानकदेवजी महाराज गृहस्थ थे, पर परिवार में रहते हुए निर्लिप्त थे। राजा जनकजी राजपाट सब कुछ चलाते थे, पर असंग होकर रहते थे। संतमत बतलाता है अपने परिवार, घर-गृहस्थी को छोड़ने की जरूरत नहीं है। घर-गृहस्थी, परिवार में रहो, अपना काम-धंधा सँभालते रहो, लेकिन निर्लिप्त हो करके रहो। गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है-
“ जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नैसाणै ।
सुरति शबदि भवसागरु तरिअै नानक नामु बखाणै ।।”
संत कहते हैं-जल से कमल की उत्पत्ति होती है, वह अपने सौरभ से चारो ओर सुरभित करता है। दूर-दूर से भौंरे आते हैं और उसके पराग को लेकर जाते हैं। उसी तरह यह संसार क्या है-कीचड़ है, भवजल है, जिसमें तुम हो। तुम्हारा जीवन इस तरह का होना चाहिए, जैसे कमल का फूल। तुम्हारा यश लेने के लिए, तुम्हारा गुण लेने के लिए, तुम्हारा संग करने के लिए दूर-दूर से लोग आवें और लाभान्वित होकर जाएँ। लेकिन यह सब होगा कैसे? इसके लिए सत्संग की आवश्यकता है। जितने अंशों में हमारा मन सत्संग में लगेगा, उतने ही अंशों में हमारा सुधार होगा।
सत्संग के संदर्भ में गुरुदेव का वचन है-
“ नित सत्संगति करो बनाई, अन्तर बाहर द्वै विधि भाई ।
धर्म कथा बाहर सत्संगा, अन्तर सत्संग ध्यान अभंगा ।।”
उन्होंने सत्संग के बाह्य और अंतर दो प्रकार बतलाए हैं। यह धर्म कथा की चर्चा बाहर का सत्संग है और जब जीव पीव से मिलने के लिए अभंग ध्यान करता है, तब अंतर का सत्संग होता है। जो अपना कल्याण चाहते हैं, उन्हें दोनों ही प्रकार का सत्संग करना चाहिए।


महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 91वाँ वार्षिक महाधिवेशन, कटिहार में दिनांक 07-04-2002 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग के
सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, दिसम्बर 2002 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
संस्कृत में ‘अस्ति’ और ‘नास्ति’, ये दो शब्द बहुत प्रचलित हैं। ईश्वर के लिए जो अस्ति शब्द का प्रयोग करते हैं, वे आस्तिक और जो नास्ति शब्द का प्रयोग करते हैं, वे नास्तिक कहलाते हैं। नास्तिक भी दो तरह के होते हैं। जो व्यक्ति जीवात्मा और परमात्मा, इन दोनों में से किसी पर विश्वास नहीं करते, उन्हें पूर्ण नास्तिक कहा जाता है। जो जीवात्मा को तो मानते हैं, पर परमात्मा को नहीं, वे अर्द्ध नास्तिक कहलाते हैं।
कतिपय सज्जन भगवान महावीर और भगवान बुद्ध को अनीश्वरवादी या नास्तिक बताते हैं, किन्तु जब उनके सद्ग्रन्थों का अवलोकन किया जाता है, तो पता चलता है कि ये दोनों संत आस्तिक थे, नास्तिक नहीं। भगवान महावीर ने कहा-‘आत्मानं विद्धि।’ अर्थात् आत्मा को जानो। महाभारत में लिखा है-
“ आत्माक्षेत्रज्ञ इत्युत्तफ़ः संयुक्तः प्राकृतैर्गुणैः ।
तैरेव तु विनिर्मुक्तः परमात्मेत्युदाहृतः ।।”
जबतक आत्मा प्रकृति में या संसार में बद्ध रहता है, तबतक उसे क्षेत्रज्ञ या जीवात्मा की संज्ञा दी जाती है और वही प्राकृत गुणों से मुक्त होने पर ‘परमात्मा’ कहलाता है।
इन बातों को दृष्टि में रखते हुए भगवान महावीर को अनीश्वरवादी कैसे कहा जा सकता है? बौद्ध धर्म के प्रमुख ग्रन्थ धम्मपद में भगवान बुद्ध का वचन है-
“ अत्ताहि अत्तनो नाथो को हि नाथो परो सिया ।
अत्तना व सुदन्तेन नाथं लभति दुल्लभं ।।”
(अत्तवग्गो)
अर्थात् आत्मा ही आत्मा का स्वामी है; भला कोई दूसरा उसका स्वामी क्या होगा? आत्मा (जीवात्मा) को अच्छी तरह दमन कर लेने से वह दुर्लभ स्वामी को प्राप्त करता है।
उपयुक्त प्रसंग में ‘नाथं’ शब्द द्वितीया कारक में प्रयुक्त हुआ है। यहाँ दुर्लभ नाथ कौन है? भगवान बुद्ध ने दुर्लभ नाथ कहकर परमात्मा का ही संकेत किया है। एक बार का प्रसंग है कि बौद्ध जगत के सुप्रसिद्ध विद्वान भिक्षु जगदीश काश्यप से गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) ने पूछने की कृपा की थी-‘भगवान बुद्ध ने ईश्वर के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा है, क्यों? काश्यपजी ने उत्तर दिया-भगवान बुद्ध के समय में समाज में कर्मकाण्ड बहुत प्रचलित था। लोग ईश्वर के नाम पर हिंसाएँ किया करते थे। इसीलिए उन्होंने ईश्वर या परमात्मा शब्द का प्रयोग नहीं किया। लेकिन प्रकारान्तर से उन्होंने कहा है। धम्मपद के जरावग्गो में आया है-
“ अनेक जाति संसारं सन्धाविस्सं अनिब्बिसं ।
गहकारकं गवेसन्तो दुक्खा जाति पुनप्पुनं ।।”
अर्थात् अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा, (शरीररूप) गृह-निर्माण करनेवाले की खोज में। बार-बार का जन्म दुःखमय हुआ।
“ गहकारक! दिट्ठोसि पुन गेहं न काहसि ।
सब्बा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसंखितं ।
विसंसारगतं चित्तं तण्हानं खयमज्झगा ।।”
अर्थात् हे गृहनिर्माण करनेवाले! मैंने तुम्हें देख लिया, तुम फिर घर नहीं बना सकते। तुम्हारी सब कड़ियाँ टूट गईं, गृह का शिखर गिर गया, चित्त संस्कार-रहित हो गया, तृष्णाओं का क्षय हो गया।
भगवान बुद्ध की इन वाणियों से पता चलता है कि वे पूर्ण आस्तिक थे। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलकजी ने बड़ा अच्छा लिखा है-‘जैसे कोई पुत्र अपने पिता की पैतृक सम्पति लेकर पृथक् हो जाय, उसी तरह वैदिक रूप पिता के भगवान महावीर और भगवान बुद्ध रूप पुत्र पैतृक सम्पत्ति लेकर पृथक् हो गए हैं। ये कोई भिन्न नहीं।’
सृष्टि की ओर जब हम दृष्टि करते हैं, तो ईश्वर के अस्तित्व की परिपुष्टि हो जाती है। संसार में हम जितनी भी चीजें देखते हैं, सभी सान्त (ससीम) हैं। पृथ्वी गोल है, चन्द्रमा गोल है, सूर्य गोल है। यह गोलाई उनकी सीमा दर्शाती है। जितने तारे हैं, सबकी सीमा है। प्रश्नोदय होता है कि इन सारे ससीम पदार्थों के पार में आखिर क्या है? जबतक हम अनन्त शब्द का प्रयोग नहीं करते हैं, तबतक प्रश्न सिर पर रह ही जाता है। अगर कोई पूछे कि अनन्त के बाद क्या है? तो इसका अर्थ यह होता कि वह व्यक्ति अनन्त शब्द का अर्थ नहीं जानता है। अनन्त तत्त्व एक से अधिक नहीं हो सकता। अनन्त शब्द का अर्थ होता है, जिसका अन्त नहीं। जिसका अन्त ही नहीं है, उसके बाद क्या हो सकता है? वस्तुतः यह अनन्त तत्त्व ही परमात्मा है।
भगवान महावीर और भगवान बुद्ध को कुछ लोग जैसे अनीश्वरवादी कहकर घोषित करते हैं, वैसे ही लोगों में कुछ अन्य प्रकार की भ्रांतियाँ भी हैं; यथा-संत कबीर साहब और गुरु नानकदेव को निर्गुणवादी संत तथा गो0 तुलसीदास एवं सूरदासजी को सगुणवादी संत कहकर जानना। इस प्रकार की धारणा संत साहित्य से अपनी अनभिज्ञता का परचिय देना है। जितने संत हुए साधना आरम्भ में सब-के-सब सगुणवादी थे। पश्चात् निर्गुण ब्रह्म की उपासना करते-करते ब्रह्म का साक्षात्कार कर निर्गुणवादी हुए। अवश्य ही किसी संत ने अपनी वाणी में सगुण की अधिक चर्चा की है, तो किसी ने निर्गुण की; परन्तु सब-के-सब संत उसी एक ईश्वर को माननेवाले थे। कृष्ण यजुर्वेद में आया है-
“ नामरूपविहीनात्मा परसंवित्सुखात्मकः ।
तुरीयातीतरूपात्मा शुभाशुभविवर्जितः ।।”
आत्मा नाम और रूप से विहीन, परज्ञान-स्वरूप, सुखमय, तुरीय से भी अतीत, शुभ और अशुभ से विवर्जित है।
इसी भाँति गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-वह नाम-रूपविहीन, अखंड, अनन्त स्वरूप ईश्वर एक-ही-एक है। यथा-
“ एक अनीह अरूप अनामा ।
अज्र सच्चिदानन्द पर धामा ।।”
तथा- “ व्यापक व्याप्य अखंड अनन्ता ।
अखिल अमोघ शक्ति भगवन्ता ।।”
संत कबीर साहब की वाणी है-
“ मेरा साहब एक तू, दूजा कहा न जाय ।
दूजा साहब जो कहूँ, साहब खड़ा रिसाय ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज के वचन में आया है-
‘एको एक सो अपर परंपरु परखि खजाने पाइदा ।’
संत दादू दयालजी कहते हैं-
‘दादू एक रंगे रंगि लागा, ता में रह्या समाई ।’
जितने संत हुए सबने एक ईश्वर की मान्यता दी है। विश्व के प्रचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में एक मंत्र आया है-‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।’ वह प्रभु एक ही है, लेकिन सद्विप्र उसे अनेक नामों से अभिहित करते हैं। ईसाई उसे गॉड या स्वर्गस्थ पिता कहते हैं, चीनी तितीन, यहुदी जेहोवा, पारसी अहुरमज्द और वैदिक धर्मावलम्बी उसको ब्रह्म या परमात्मा कहते हैं। कोई उसे स्त्री रूप में, तो कोई पुरुष रूप में मानते हैं, पर वास्तव में वह न स्त्री है और न पुरुष ही। कोई उसको सगुण रूप में और कोई निर्गुण रूप में मानते हैं। वस्तुतः वह निर्गुण में भी है और सगुण में भी है तथा निर्गुण-सगुण के परे भी है। सच्छास्त्रें में उसे ‘अवाघ्मनसगोचर’ अर्थात् मन-वाणी से परे कहा गया है। शाण्डिल्य उपनिषद् में आया है-
‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सः ।’
अर्थात् परमात्मा मन-वाणी से परे है। केनोपनिषद् में इस प्रकार कहा है-
“ यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।”
जो मन से मनन नहीं किया जाता, बल्कि जिससे मन मनन किया हुआ कहा जाता है, उसी को तू ब्रह्म जान। जिस इस देशकालावच्छिन्न वस्तु की लोक उपासना करता है, वह ब्रह्म नहीं है। सामवेद में कहा गया है-
“ ओ3म् सयोजत उरुगायस्य जूति वृथा क्रीडन्तं मिमिते न गावः ।
परीणसं कृणुते तिग्म शृंगो दिवा हरिर्ददृशे नक्तमृज्रः ।।”
इस मंत्र के द्वारा वेद भगवान उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यो! हाथ, पैर, गुदा, लिङ्ग, रसना, कान, त्वचा, आँखें, नाक और मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर को प्रत्यक्ष करने की चेष्टा करना, झूठ ही एक खेल करना है; क्योंकि इनसे वह नहीं जाना जा सकता। वह तो इन्द्रियातीत है। हाँ, वह पूर्व मंत्रेक्त परमहंस योगी, उस अनाहत नाद से सम्पन्न परमात्मा को, जिसकी ज्योति शरीर के बाहर और भीतर चन्द्र-सूर्यादि अनेक लोक-लोकान्तरों में तेज और नाना प्रकार की ज्योतियाँ प्रकट करती है, और उस सोम को, जो विस्पष्ट प्रकाश से युक्त होकर दिन और रात प्रकाशित होता है, प्राप्त करते हैं।
वेदों-उपनिषदों के बाद अब हमलोग अन्यान्य संतों की वाणियों की ओर दृष्टिपात करें कि परमात्मा के सम्बन्ध में वे क्या कहते हैं। गुरु गोरखनाथजी महाराज कहते हैं-
“ बस्ती न शून्यं शून्यं न बस्ती, अगम अगोचर ऐसा ।
गगन शिखर महि बालक बोलहिँ वाका नावँ धरहुगे कैसा ।।”
बस्ती-जहाँ लोग बसते हों। शून्य = खाली स्थान। संसार में हम इन दो तरहों के स्थान को देखते हैं। लेकिन जो संसार से परे है, जो न बस्ती है और न शून्य ही। उसके लिए क्या कहा जा सकता है?
एक साधु बाबा थे। जंगल में कुटिया बनाकर रहते थे। एक यात्री उस होकर जा रहा था। यात्री साधु बाबा के श्रीचरणों में प्रणाम निवेदित कर पूछता है-‘बाबा! बस्ती कितनी दूर है?’ साधु बाबा ने कहा-जंगल पार करते ही बस्ती मिल जाएगी। वह यात्री चलता गया, जाते-जाते जंगल पार कर गया। उसको श्मशान घाट मिला, बस्ती वहाँ थी नहीं। वह लौटकर आया और कहता है-महात्मन्! आपने तो बतलाया कि जंगल के पार में बस्ती है, लेकिन वहाँ बस्ती कहाँ? वहाँ तो उजाड़ है-श्मशान घाट है। साधु बाबा ने कहा-बेटा! तुमने समझा नहीं। अरे! बस्ती किसको कहते हैं? जहाँ लोग बसते हैं, उसी को तो बस्ती कहते हैं! तुम जिसे बस्ती कहते हो, वह तो उजाड़ है। क्योंकि वहाँ से लोग मर-मरकर उसी श्मशान घाट में जाकर बसते हैं, जहाँ एकबार बसने पर फिर उसे कोई हटा नहीं सकता। उस परमात्मा के लिए क्या कहा जाय? न बस्ती कहा जा सकता है, न शून्य ही। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ जाकर नाम अकहुआ भाई ।
ताकर कहा रमैनी गाई ।।”
जो अकथ है, उसके लिए क्या कहा जाय; जो नाम रूपातीत है, उसे हम क्या नाम दें? कोई भी पिता अपने पुत्र का नाम रखते हैं, अभिभावक अपने बच्चे को किसी नाम से पुकारते हैं, लेकिन जो सबका पिता है, सबका अभिभावक है, उस जगत पिता का नाम कौन रखेगा? इसीलिए उसका नाम ही है-अनाम।
संत पलटू साहब की वाणी में है-
“ जो कोइ चाहै नाम तो अनाम है ।
कहन सुनन में नाहि निःअच्छर काम है ।।
रूप कहूँ अनरूप पवन अनरेख ते ।
अरे हाँ रे पलटू गैव दृष्टि ते संत नाम वह देखते ।।”
गुरु गोरखनाथजी महाराज परमात्मा के लिए ‘बस्ती न शून्यं शून्यं न बस्ती’ कहने के बाद अगम और अगोचर शब्द का भी प्रयोग करते हैं। अगम का अर्थ है बुद्धि से परे और अगोचर का अर्थ है इन्द्रियातीत। जहाँ गाएँ चरती हैं, देहात में उसे गोचर भूमि कहते हैं। गो का अर्थ इन्द्रिय भी होता है। इन्द्रियाँ विषयों में विचरण करती हैं, अतः वह इन्द्रिय गोचर है, किन्तु परमात्मा इन्द्रिय अगोचर है।
हमारी इन्द्रियों में इतनी कम शक्ति है कि एक इन्द्रिय का काम दूसरी इन्द्रिय नहीं कर सकती। एक-एक इन्द्रिय के लिए एक-एक विषय नियुक्त है, मात्र उसी को वह ग्रहण कर सकती है। आँख केवल देखती है, कान केवल शब्द ग्रहण करता है, नासिका गन्ध ग्रहण करती है, जिभ्या रसास्वादन करती है और त्वचा स्पर्श का ज्ञान करती है। हाथ से कुछ पकड़ते हैं, पैर से चलते हैं, मुँह से कुछ बोलते हैं और नीचे की दो इन्द्रियों से मल-मूत्र विसर्जन करते हैं। इन दस बाहरी इन्द्रियों के अतिरिक्त मन, बुद्धि चित्त और अहंकार चार अन्तःकरण की इन्द्रियाँ हैं। मन संकल्प-विकल्प करता है, बुद्धि इस पर विचार करती है, चित्त स्पन्दन का काम करता है और अहंकार से मैंपन का बोध होता है। ये चौदह इन्द्रियाँ अपना-अपना काम करती हैं। नाक में दो छेद हैं, कान में भी दो छेद हैं; पर नाक का काम कान नहीं कर सकता और कान का काम नाक नहीं कर सकती। जब एक इन्द्रिय एक विषय के अतिरिक्त दूसरे विषय को ग्रहण नहीं कर सकती, तब जो इन्द्रियातीत प्रभु है, उसको वह पावे, कैसे सम्भव है? दूसरी बात यह है कि हमारी सभी इन्द्रियाँ मोटी-मोटी हैं और वह परब्रह्म परमात्मा सूक्ष्मतम हैं। अतः स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण संभव नहीं। जिस प्रकार दीवार घड़ी को खोलने और बंद करने के जो औजार होते हैं, वे मोटे-मोटे होते हैं, उससे हाथ की घड़ी के छोटे-छोटे कलपूर्जों को खोलना या बंद करना असंभव है, उसी प्रकार सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमात्मा को ग्रहण करने में हमारी मोटी-मोटी इन्द्रियाँ सक्षम नहीं हैं। इसलिए संत कबीर साहब ने भी परमात्मा को अगोचर कहा है-
“ नैना बैन अगोचरी, श्रवणा करनी सार ।
बोलन के सुख कारने, कहिये सिरजनहार ।।”
गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
“ अलख अपार अगम अगोचरि ना तिसु काल न करमा ।
जाति अजाति अजोनी संभउ ना तिसु भाव न भरमा ।।”
संत कबीर साहब और गुरु नानक साहब को तो लोग निर्गुणियाँ संत कहते हैं। अस्तु, अब जिन्हें लोग सगुणियाँ संत कहते हैं अर्थात् गो0 तुलसीदासजी औैर संत सूरदासजी से हम पूछें कि ईश्वर के बारे में वे क्या कहते हैं। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं-
“ राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।”
ये भी राम के स्वरूप को सर्वव्यापक, अकथ, अपार, वचन और बुद्धि से परे बतलाते हैं। विचारणीय विषय है, एक होता है रूप, दूसरा होता है सरूप और तीसरा होता है स्वरूप। जो नेत्र से ग्रहण हो, वह है रूप। रूप के सहित जो रहता है, वह सरूप और जो निज रूप या आत्मरूप है, वह स्वरूप। यहाँ गोस्वामीजी ने इसी स्वरूप या निज रूप की ओर संकेत किया है। वह स्वरूप या निज रूप कैसा है, क्या है? इस विषय का विनय-पत्रिका में उन्होंने स्पष्टीकरण किया है-
“ अनुराग सों निज रूप जो जग ते विलक्षण देखिये ।
संतोष सम शीतल सदा दम देहवंत न लेखियै ।।
निर्मल निरामय एकरस तेहि हरष शोक न व्यापई ।
त्रैलोक पावन सो सदा जाकी दशा ऐसी भई ।।”
किसी स्वर्णकार के निकट यदि हम स्वर्ण-हार बेचने के लिए ले जाएँ, तो वह स्वर्ण की कीमत देगा, हार की नहीं। स्वर्णकार की दृष्टि स्वर्ण पर रहती है, न कि जेवर पर। उसी तरह यह शरीर जेवर है और इसके अन्दर जो निवास करनेवाली आत्मा है, वह है स्वर्ण। संतों की दृष्टि आत्मा पर रहती है, शरीर पर नहीं। गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है-
“ हिय निर्गुण नयनन्हि सगुण, रसना नाम सुनाम ।
मनहु पुरट सम्पुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।”
सोने का डिब्बा हो और उसमें रत्न रखा हुआ हो तो सोने की कीमत कम नहीं होती है, लेकिन जो वस्तु उस डिब्बे में रखी हुई होती है, उस डिब्बे से अधिक उसकी कीमत होती है। उसी तरह भगवान का सगुण रूप सोने का डिब्बा है और उसमें जो निर्गुण-निराकार ब्रह्म अवस्थित है, वह है रत्न।
अब हमलोग संत सूरदासजी महाराज का भी विचार जानने की चेष्टा करें, वे कहते हैं-
“ अविगत गति कछु कहत न आवै ।
ज्यों गूँगहि मीठे फल को रस अन्तरगत ही भावै ।।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर अमित तोष उपजावै ।
मन बानी को अगम अगोचर सो जानै जो पावै ।।
रूप रेख गुन जाति जुगुति बिनु निरालम्ब मन चकृत धावै ।
सब विधि अगम विचारहि तातें सूर सगुन लीला पद गावै ।।”
अविगत = जो कहीं से हीन नहीं हो अर्थात् जो सर्वव्यापी परम प्रभु परमात्मा है, उसकी गति कुछ कही नहीं जा सकती। गति किसमें होती है? जो जहाँ नहीं रहता है, वहाँ वह जाता है। जो सर्वत्र है ही, वह कहाँ जाएगा, कहाँ से आएगा? आकाश कहाँ है, कहाँ नहीं है। महर्षि मेँहीँ-पदावली में लिखा है-
‘प्रभु जी व्यापक जनु गगन रहाहीं ।’
गगन कहाँ है और कहाँ नहीं है। वह कहाँ से आएगा, कहाँ जाएगा? उसी तरह जो आत्मस्वरूप- परमात्मस्वरूप-अनन्तस्वरूप है, उसका कहीं से आना और कहीं जाना नहीं होता। जो आता और जाता है, उसके विषय में संत कबीर साहब कहते हैं कि वह माया है, ब्रह्म-परमात्मा नहीं।
“ आवे जाय सो माया साधो, आवै जाय सो माया ।
है प्रतिपाल काम नहीं बाको ना कहुँ गया न आया ।।”
वह कहीं जाता अथवा कहीं से आता नहीं है, सर्वत्र एकरस रहता है। सूरदासजी महाराज कहते हैं, अविगत की गति कुछ कहने में नहीं आती। किस तरह कहने में नहीं आता? जैसे कोई गूँगा आदमी है, आप उसको मीठा फल खिलाकर पूछिए कि कैसा स्वाद लगा, तो वह नहीं बतला सकता। इसका अर्थ यह नहीं कि गूँगे को उस फल का स्वाद या रस मालूम नहीं हुआ? स्वाद को वह जानता है, लेकिन बेचारा वर्णन करने में असमर्थ है। उसी प्रकार ब्रह्म-रस के आनन्द को साधक अपने अन्दर ही महसूस करता है, उसे इन्द्रियों के द्वारा व्यक्त नहीं कर सकता। वह स्वाद कैसा है? सूरदासजी कहते हैं-परम स्वाद। हमलोगों को इन्द्रियों के स्वाद का ज्ञान तो है, लेकिन परम स्वाद कैसा होता है उसका ज्ञान नहीं है। संत कबीर साहब ने इस सम्बन्ध में बड़ा विचित्र उत्तर दिया है। उन्होंने कहा है-
“ नर नारी के स्वाद को, खसी पुरुष क्या जान ।
तैसे आतम सुख को, ज्ञानी ही पहचान ।।”
इस आनन्द के सम्बन्ध में योगीवर पंचानन भट्टाचार्यजी ने बंग भाषा में बड़ा अच्छा लिखा है-
“ आनन्दे आनन्द बाढ़े प्रति क्षण ,
दशेन्द्रिय थाके शून्ये ते बन्धन ।
रिपुचय पराजय सकलि आनन्दमय ,
अनुभव मात्र रय, आर सब पाय लय ,
जेमन जीवने जीवन थाके ना ।।”
जो विषयानन्द होता है, उसमें थोड़ी देर आनन्द और बाद में निरानन्द हो जाता है। लेकिन आत्मानन्द में क्षण-प्रतिक्षण वृद्धि होती है, घटने का कोई प्रश्न ही नहीं होता। साधक की पाँचो ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँचो कर्मेन्द्रियाँ शून्य के बंधन में बँधकर रह जाती हैं, आगे नहीं बढ़ सकतीं। आगे क्यों नहीं बढ़ सकतीं, इसका उत्तर संत दरिया साहब इस भाँति देते हैं-
“ मन बुद्धि चित्त अहंकार की, है त्रिकुटी लग दौर ।
जन दरिया इनके परे, ब्रह्म सुरत की ठौर ।।
मन बुद्धि चित्त अहंकार ये, रहै अपनी हद माहि ।
आगे पूरण ब्रह्म है, सो इनकी गम नाहि ।।”
इन इन्द्रियों की दौड़ त्रिकुटी तक ही है, उसके बाद जहाँ से इसकी उत्पत्ति हुई है, वहाँ जाकर ये विलीन हो जाती हैं। ब्रह्म का ज्ञान इन इन्द्रियों को नहीं हो सकता।
रिपुचय पराजय-साधक के अंदर जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य-षट रिपु हैं, ये हार जाते हैं। मनोजय हो जाता है। जीवन आनन्दमय हो जाता है। फिर क्या होता है? ‘अनुभव मात्र रय’ वहाँ पर श्रवण, मनन, निदिध्यासन ज्ञान नहीं रहता, अनुभव ज्ञान हो जाता है। अनु = पीछे, भव = उत्पन्न होना। ‘अनुभव’ वह ज्ञान है जो ज्ञान सबसे पीछे होता है। उसके बाद और कोई ज्ञान बाकी नहीं रह जाता। वह अनुभव ज्ञान साक्षात्कार का ज्ञान है।
‘जेमन जीवने जीवन थाके ना ।’
वह शरीर में तो रहता है, लेकिन विदेह हो करके-मृतवत् रहता है। हमारे गुरुदेव की वाणी में आया है-
“ साधन में पगि जाय अति हि गंभीर हो ,
या तन सुधि नहि रहै, धीरवर वीर सो ।
साँझ भोर दिन रैन कछू जानै नहीं ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ बाहर जड़वत रहै ,
माहि चेतन सही ।।
जैसे मृतक शरीर में सारी इन्द्रियाँ रहती हैं, लेकिन कोई इन्द्रिय काम नहीं करती। उसी तरह जो साधना करके अपने अन्दर में प्रवेश कर जाते हैं, वे भीतर से जाग्रत रहते हैं, किंतु बाहर से निश्चेष्ट रहते हैं। इसीलिए कहा-‘जीवने जीवन थाके ना’ जिस तरह शरीर में जीवन है ही नहीं। वे बाहर से अचेत और भीतर में सचेत रहते हैं। पुनः परमात्म-स्वरूप के सन्दर्भ में वे कहते हैं-
“ रूपरेख गुण जाति जुगति बिनु
निरालंब मन चक्रित धावै।”
जिसका कोई रूप नहीं है, रेखा नहीं है। वह त्रयगुण रहित निर्गुण है। उसे किसी प्रकार की उपमा देकर बतलाया नहीं जा सकता। साधनारम्भ में निर्गुण निराकार का आधार नहीं लिया जा सकता। निरालम्ब के अवलम्ब हेतु सगुण-साकार चाहिए। इसलिए आगे चलकर वे कहते हैं-
“ सब विधि अगम विचारहि ताते ।
सूर सगुन लीला पद गावै ।।”
निर्गुण को सुगम समझकर सूरदासजी महाराज पहले सगुन लीला पद का वर्णन करते हैं। वे संकेत करते हैं कि सगुण से आरंभ कर निर्गुण को प्राप्त करो और निर्गुण से भी परे पर-ब्रह्म परमात्मा के पास पहुँच जाओ।
इसी परमात्म-स्वरूप को गीता में क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष के परे पुरुषोत्तम की संज्ञा दी गयी है; यथा-
“ द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।।”
इस संसार में नाशवान और अविनाशी; ये दो प्रकार के पुरुष हैं। इनमें सम्पूर्ण भूतप्राणियों के शरीर तो नाशवान है और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है।
“ उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य विभर्त्यव्यय ईश्वरः ।।”
इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा इस प्रकार कहा गया है।
अपरा प्रकृति असत है, क्षर है तथा परा प्रकृति सत एवं अक्षर है। इस सत-असत और क्षर-अक्षर के जो परे है, वह पर-ब्रह्म परमात्मा है। अपरा प्रकृति सगुण है और परा प्रकृति निर्गुण है। इन दोनों के परे जो है, वह है परमात्मा। इसीलिए संतमत के सज्जन प्रतिदिन पाठ किया करते हैं-
“ सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर औरु अक्षर पार में ।
निर्गुण सगुण के पार में सत असत हू के पार में ।।”
रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी ने ईश्वर के दो रूप बतलाये हैं। वे कहते हैं कि सगुण और निर्गुण दोनों रूप ईश्वर के हैं।
‘एक दारुगत देखिय एकू । पावक युग सम ब्रह्म विवेकू ।।’
लकड़ी में अग्नि छिपी रहती है, लेकिन हमलोग लकड़ी देखते हैं अग्नि नहीं। जब लकड़ी का घर्षण किया जाता है, तब उसमें व्यापक अग्नि प्रकट होकर दीखती है। हमारे गुरुदेव कहते हैं-
‘मेंहदी में लाली घीउ दूध में, फूल में वास समान हो राम-राम ।’
मेंहदी में लाली है, पर पत्ता हरा मालूम पड़ता है। जब उसको घिसते हैं, तब उसकी लाली मालूम पड़ती है। दूध में घृत है, लेकिन दूध दीखता है, घृत नहीं। हम फूल देखते हैं, लेकिन उसकी सुगंधी को नहीं देखते हैं। गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है-
“ पुहुप मधि जिउ वास वसतु है मुकुर माहि जैसे छाई ।
तैसे ही प्रभु बसे निरंतर घटही खोजो भाई ।।”
उस अव्यक्त परमात्मा को किस तरह प्रत्यक्ष किया जाय? स्वामी ब्रह्मानंदजी ने बताया है-
“ जिमि दूध के मथन से, निकसत है घीउ जतन से ।
तिमि ध्यान की लगन से पर ब्रह्म ले निहारा ।।”
जिस तरह दूध के मंथन से उसमें छिपे घृत को पृथक् किया जाता है, उसी तरह अपने अन्दर ध्यान की मथानी से मथिये तो परब्रह्म परमात्मा प्रकट हो जाएँगे। ध्यान की इस युक्ति को जानने के लिए संत सद्गुरु की शरण जाना आवश्यक है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 08-04-2002 ई0 को अखिल भारतीय संतमत- सत्संग के 91वें वार्षिक महाधिवेशन, कटिहार में प्रातःकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, मई 2002 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
संतमत-सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। वह ईश्वर-भक्ति अंधी भक्ति नहीं, ज्ञान-योग-युक्त भक्ति है। जिनकी हम भक्ति करना चाहें, उनके स्वरूप का ज्ञान हमें होना चाहिए; पहले परोक्ष ज्ञान, पीछे अपरोक्ष ज्ञान। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है-
“ जाने बिनु न होइ परतीती ।
बिनु परतीति होइ नहीं प्रीती ।।
प्रीति बिना नहि भगति दृढ़ाई ।
जिमि खगेस जल कै चिकनाई ।।”
जबतक हम किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में कुछ जानेंगे नहीं, तबतक जो उसकी उचित सेवा-भक्ति होनी चाहिए, नहीं हो सकेगी। और जब जान जाएँगे, तब जो उचित सेवा है, वह होगी।
ईश्वर के सम्बन्ध में जबतक हम समझेंगे नहीं कि वे स्वरूपतः कैसे हैं, तबतक उनकी भक्ति कैसे कर सकेंगे? नाम के बिना नामी को कैसे जान सकेंगे? परम प्रभु परमात्मा के अनेक नामों में ‘राम’ भी एक नाम है। ‘रम’ धातु से राम शब्द बना है, जिसका अर्थ होता है-जो सबमें रमण करता हो। ‘रमन्ति योगिनो यस्मिन् स रामः।’ जिसमें योगी-जन रमण करते हैं, वह राम है। संत कबीर साहब की वाणी है-
“ एक राम दशरथ घर डोलै ।
एक राम सब घट घट बोलै ।।
एक राम का सकल पसारा ।
एक राम है सबसे न्यारा ।।”
संत गरीब दासजी ने राम के विषय में बतलाया है-
“ अल्लह अविगत राम है, बेचगून निर्वाण ।
मेरा मालिक है सही, महल मढ़ी नहि ठाम ।।”
वह राम ही अल्लाह है। कुरान शरीफ के अलबकरा पारा एक, सूरा दो में लिखा है-‘पूरब और पश्चिम सब अल्लाह के हैं। तुम जिस ओर रुख करोगे, अल्लाह का रुख भी उसी ओर है। वह अल्लाह सर्वव्यापक है, सब कुछ जाननेवाला है।’ अल्लाह शब्द ‘आला’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ है-सबसे बड़ा। जिससे बड़ा और कोई नहीं हो सकता, वह है अल्लाह। वही है परम प्रभु परमात्मा, वही है God , वही है राम।
सीता हरण के पश्चात् का एक प्रसंग है। हनुमानजी लंका पहुँचे और उन्होंने सीताजी से भेंट की। अशोक वाटिका का विध्वंस किया। रावण का मान-मर्दन कर सम्पूर्ण लंका जला दी। सम्पूर्ण लंका तो जल गई, लेकिन विभीषण का घर नहीं जला। रावण ने विभीषण को बुलाकर पूछा-‘सारी लंका जल गई और तुम्हारा घर नहीं जला, क्या कारण है? क्या उस बन्दर से तुम्हारी मैत्री थी या पहले की जान-पहचान थी?’ विभीषण राम-भक्त तो थे ही, बड़े विद्वान और बोलने में बड़े कुशल भी थे। उन्होंने कहा-‘आप यहाँ के राजा हैं, मैंने आपका और भाभीजी का; दोनों का नाम अपने मकान के ऊपर लिख रखा था, फिर कैसे जलता?’ रावण ने कहा-‘तुम तो अपने घर पर ‘राम’ लिखे हुए हो और कहते हो कि मेरा और मन्दोदरी का नाम लिखा था।’ विभीषण ने उत्तर दिया-‘मैंने संक्षेप में आपके नाम रावण का ‘रा’ और मन्दोदरी का ‘म’ मिलाकर ‘राम’ लिखा है। मेरा घर कैसे जलता!’ ‘राम’ की ऐसी महिमा है, अगर हमारे हृदय मे विराजित ‘राम’ का प्रत्यक्षीकरण हो तो हमारा सब काम पूरा हो जाय और परम कल्याण हो जाय।
यह संतमत उसी राम की भक्ति बतलाता है। एक बार नारद मुनि भगवान श्रीराम के पास पहुँचते हैं और कहते हैं-
“ यद्यपि प्रभु के नाम अनेका ।
श्रुति कह सकल एक तें एका ।।
रामनाम सबहिन ते अधिका ।
होउ नाथ अघ खग गन बधिका ।।”
यह हमको वरदान दीजिए। भगवान राम ने उनको वरदान दे दिया। राम क्या है, इसको हम अच्छी तरह समझें। राम के सगुण और निर्गुण दोनों रूप हैं। पहले सगुण साकार से भक्ति आरंभ करो, उसके बाद निर्गुण निराकार तक जाओ, ऐसी संतवाणी कहती है।
एक सज्जन श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज के पास पहुँचे। उन्होंने कहा-‘मैं गृहस्थ हूँ, मेरे पास समय नहीं है, आप एक ऐसा उपदेश दीजिए, जिसमें सारा का सारा ज्ञान भरा पड़ा हो। श्रीरामकृष्ण परमहंसजी ने उत्तर दिया-
‘ब्रह्म सत्य जगन्मिथ्या ।’
इसको जान लो, फिर कुछ जानने के लिए बाकी नहीं रह जाएगा। ब्रह्म सत्य है, उसके अतिरिक्त जो है, वह भ्रम है, मिथ्या है। किस तरह? गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
“ रजत सीप महँ भास जिमि, जथा भानुकर वारि ।
जदपि मृषा तिहु काल सो, भ्रम न सकै कोउ टारि ।।”
“ ऐसेहि जग हरि आश्रिम रहई ।
जदपि असत्य देत दुःख अहई ।।”
सीपी में सूर्य की किरण पड़ती है, तो वह चाँदी-सी भासती है। सूर्य की किरण रेतीले मैदान पर पड़ती है, तो वहाँ पानी-सा भासता है। न तो रेतीले मैदान में पानी है और न सीपी में चाँदी ही, लेकिन इस भ्रम को कोई दूर नहीं कर सकता। जिस तरह सूर्य के आधार पर ही ये दोनों भासते हैं, उसी तरह परम प्रभु परमात्मा के आधार पर ही यह संसार भासता है। गोस्वामीजी कहते हैं कि यद्यपि यह असत्य है, फिर भी दुःख देता है। लोग कह सकते हैं कि जो असत्य है, वह दुःख क्या दे सकता है? लेकिन ऐसा भी होता है। इस सम्बन्ध का एक प्रसंग सुनिए-
एक युवक ने विवाह किया। वह अपनी पत्नी को साथ लेकर अपने घर लौट रहा था। लड़की की विदाई में देर हो गई, रास्ते में ही रात हो गई। लड़के ने सोचा कि रात के समय अब कहाँ जाएँ? स्टेशन के नजदीक ही धर्मशाला थी, उसमें वे दोनों ठहर गए। और भी बहुत-से लोग उस धर्मशाला में थे। जब दोनों खा-पीकर निश्चिन्त हुए और अपने कमरे में बैठे, तो प्रेमालाप में लड़के ने अपनी पत्नी से पूछा-कहो, हमलोगों को जब लड़का होगा तो उसको तुम क्या पढ़ाओगी? पत्नी बोली कि मेरा मन है लड़का को डॉक्टर बनाने का। आपका क्या मन है? लड़के ने कहा-मेरा मन है वकील बनाने का। उसकी पत्नी कहती है-नहीं, वकील बनाना ठीक नहीं है, डॉक्टर बनाना ही ठीक है। लड़का कहता है-देखो! डॉक्टरी सबकी चलती नहीं, किसी-किसी की चलती है, लेकिन जो वकालत करेगा, तो कुछ-न-कुछ कमाकर तो लावेगा ही। उसकी पत्नी कहती है कि नहीं, वकालत में तो वकील स्वयं झूठ बोलते हैं और दूसरे से भी झूठ बोलवाते हैं। झूठी कमाई ठीक नहीं है। जो थोड़ी-सी सच्ची-पवित्र कमाई होगी वही ठीक, लोगों का उपकार तो होगा। इस प्रकार वार्तालाप होते-होते बात बढ़ गई। लड़की कहती डॉक्टर बनाऊँगी और लड़का कहता है कि वकील बनाऊँगा। देहात में कहावत है कि लकड़ी को माठने से उसमें चिकनापन आता है और बात के माठने से उसमें रुखड़ापन आता है। लड़का नौ जवान ठहरा, आवेश में आकर पत्नी को जोर से एक थप्पड़ लगा दिया। बेचारी रोने लग गई और रोते-रोते कहने लगी-मैं तो डॉक्टर ही बनाऊँगी। फिर दूसरा थप्पड़ मारते हुए क्रोधित स्वर में कहता है-वकील बनाना छोड़कर डॉक्टर-डॉक्टर कर रही है। दूसरा थप्पड़ लगा कि बेचारी और जोर-जोर से फूट-फूटकर रोने लगी। आस-पास के कमरे में जो लोग थे, वे सब इकट्ठे हो गए। लोगों ने पूछा-अरे भाई, थोड़ी देर पहले आपलोग तो बड़े प्रेम से आपस में बातें कर रहे थे, अभी क्या बात हो गई, जो रोने-धोने की नौबत आ गई। लड़की कहती है-देखिए न, मैं अपने लड़के को डॉक्टर बनाना चाहती हूँ और ये वकील बनाना चाहते हैं। लड़के ने कहा-मैं अपने पुत्र को वकील बनाना चाहता हूँ और यह डॉक्टर बनाना चाहती है। इस प्रकार जब दोनों ने अपनी-अपनी फरियाद रखी, तो लोग कहने लगे-‘देखो भाई! आजकल का जमाना ऐसा नहीं है कि आपलोग जैसा चाहेंगे, वैसा हो जाएगा। लड़के की रुचि जाननी पड़ती है कि वह क्या पढ़ना चाहता है, क्या बनना चाहता है। लड़का को बुलाओ और पूछो कि वह क्या पढ़ना चाहता है? इस पर दोनों लज्जित होते हुए संकुचित स्वर में कहने लगे, अभी तो हमलोग शादी करके आ ही रहे हैं, लड़का कहाँ है?
यह घटना बतलाती है कि जैसे लड़का तो हुआ नहीं और मार-पीट, रोना-धोना सब तो हो ही गया। इसी प्रकार यद्यपि संसार मिथ्या है, फिर भी उससे दुःख होता है।
‘यद्यपि असत्य देत दुःख अहई।’ यही बात गोस्वामीजी ने कही है। यह प्रत्यक्ष सत्य है कि संसार असत्य है, लेकिन उसका जो दुःख-सुख है, वह तो हमलोग भोग ही रहे हैं। इसीलिए संत सूरदासजी महाराज ने कहा है-
“ ताते सेइये यदुराई।
संपति विपति विपति सौं संपति देह धरे को यहै सुभाई ।।
तरुवर फूलै फलै परिहरै अपने कालहि पाई ।
सरवर नीर भरै पुनि उमड़ै सूखे खेह उड़ाई ।।
द्वितीय चंद्र बाढ़त ही बाढ़ै घटत घटत घटि जाई ।
सूरदास सम्पदा आपदा जिनि कोऊ पतिआई ।।”
यह संसार सापेक्ष है। यहाँ दुःख है तो सुख भी, लाभ है तो हानि भी। हम देखते हैं, एक पेड़ है उसमें फूल होता है, फल होता है, फिर सब झड़ जाते हैं। एक सूखी नदी है, वर्षा हुई पानी जम गया, बाढ़ आई पानी भर गया। फिर कुछ दिनों के बाद पानी सूख जाता है। अमावस्या तिथि में सारी रात अंधेरा रहता है, परिवा तिथि में चन्द्रोदय होता है। पश्चात् द्वितीया आती है। होते-होते चाँद पूर्णिमा को प्राप्त होता है। सारी रात प्रकाश-ही-प्रकाश बना रहता है। वही चन्द्रमा पूर्णिमा से घटते-घटते अमावस्या को प्राप्त होता है। पूर्ववत् अंधेरा छा जाता है। इस तरह सम्पत्ति और विपत्ति का घटना और बढ़ना संसार का नियम है। सब दिन एक-सा नहीं रहता। इसलिए क्या करो? जो घटे नहीं, बढ़े नहीं, सदा एकरस रहे? उस राम की भक्ति करो-‘ताते सेइये यदुराई।’ सम्पत्ति हो या विपत्ति, इस पर विश्वास नहीं करो कि यह सदा रहनेवाला है।
वह परम प्रभु परमात्मा कहाँ है और कहाँ नहीं है? वह सर्वत्र है। जब कौरवों की सभा में द्रौपदी की साड़ी खींची जा रही थी, तो बेचारी विलख-विलख कर रो रही थी। करुण-क्रन्दन करती हुई वह भगवान को पुकारने लगी-
“ दुःख हरो द्वारिका नाथ शरण में तेरी ।
बिन काज आज महाराज लाज गई मेरी ।।
दुःशासन वंश कुठार महादुःखदाई ।
कर पकड़त मेरी चीर लाज नहीं आई ।।
पाँचो पति बैठे मौन कौन गति होई ।
ले नंद नंदन को नाम द्रौपदी रोई ।।
करि करि विलाप संताप सभा में तेरी ।
दुःख हरो द्वारिका नाथ शरण में तेरी ।।”
भक्त के पुकारने में देर होती है, भगवान के पधारने में नहीं। द्रोपदी की करुण पुकार भगवान सुनते हैं और उसकी साड़ी बढ़ने लग जाती है। दुःशासन की भुजा में दस हजार हाथी का बल था। साड़ी खींचते-खींचते उसकी भुजा का बल समाप्त हो गया, लेकिन साड़ी समाप्त नहीं हुई। साड़ी का पहाड़ लग गया। द्रौपदी की प्रतिष्ठा बच गई।
महाभारत के युद्ध में कौरवों का विनाश हुआ, पाण्डवों की जीत हुई। युधिष्ठिर महाराज राजगद्दी पर बैठे और निष्कंटक राज्य करने लगे। एक दिन भगवान श्रीकृष्ण ने कुन्ती से कहा-जिस काम के लिए मैं आया था, वह काम पूरा हो गया, अब हमको जाने की आज्ञा दीजिए। द्रौपदी के साथ पाँचो भाई पाण्डव वहाँ बैठे हुए थे। द्रौपदी ने कहा-‘केशव! सब काम तो आपने अवश्य किया, लेकिन कौरवों की सभा में जब मेरी पूरी फजीहत हो गई, तब आपने हमारी रक्षा की।’ भगवान कृष्ण ने कहा-‘द्रौपदी! उसमें तुम्हारा दोष है या मेरा?’ द्रौपदी ने कही-‘दुःशासन ने जैसे ही मेरी साड़ी पकड़ी, वैसे ही मैंने आपको पुकारना शुरु किया, लेकिन आप देर से आये।’ भगवान कृष्ण ने कहा-‘देखो, द्रौपदी! दूसरे का छोटा-सा दोष लोग बहुत बड़ा बनाकर देखते हैं और अपना बहुत बड़ा दोष रहने पर भी उसको बहुत छोटा मानते हैं।’
“ देखि कै परदोष रज सम, कहत गिरि सम सोइ रे ।
दोष अपने मेरु सम है, तिन्हें राखत गोइ रे ।।”
द्रौपदी ने कहा-‘मेरा क्या दोष है, आप बतला दीजिए।’ भगवान कृष्ण ने कहा-‘तुम मुझको यह कहकर पुकार रही थी-‘दुःख हरो द्वारिकानाथ शरण में तेरी।’ तो द्वारिका से दिल्ली आने में देर लगेगी कि नहीं, तुम्हीं बतलाओ? ओर जब तुमने कहा कि ‘हृदयेश! मेरी रक्षा करो’ तो हृदयेश कहते ही मैं तेरी साड़ी में प्रवेश कर गया, दुःशासन का बल शेष हो गया, तुम्हारी साड़ी निःशेष रह गई।’
विचारणीय विषय है कि जो हमारी रक्षा के लिए दूर से आवें और देर से आवें, हम उनकी पुकार करें अथवा जो हमारे अंग-संग हर वक्त मौजूद रहते हैं, उनकी! सन्त प्रवर सूरदासजी ने सब-उर-पुरवासी निरंजन राम के लिए माधव शब्द का प्रयोग किया है। मा = माया, धव = पति। माधव = माया पति। साथ ही, उन्होंने उस कृपा सिन्धु प्रभु से भवसिन्धु पार करने की प्रार्थना की है। जैसे समुद्र में जल होता है, उसमें लहर होती है, ग्राह-मछली आदि जीव-जन्तु होते हैं। उसी प्रकार भवसागर में क्या जल है, क्या तरंग है, क्या मगर-मछलियाँ आदि जीव-जन्तु हैं, भव में पड़े जीव की कैसी दयनीय दशा होती है, तथा जग-उदधि पार करने में क्या-क्या विघ्न हैं, किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है प्रभृति बातों का उन्होंने अपने एक पद्य में सजीव चित्र-चित्रित किया है। यथा-
“ अबके माधव मोहि उधारि ।
मगन हौं भव-अंबु-निधि में, कृपा सिन्धु मुरारि ।।
नीर अति गंभीर माया, लोभ लहरि तरंग ।
लिये जात अगाध जल में, गहे ग्राह अनंग ।।
मीन इन्द्रिय अतिहि काटत, मोट अघ सिर भार ।
पग न इत उत धरन पावत, उरझि मोह सेंवार ।।
काम क्रोध समेत त्रिष्णा, पवन अति झकझोर ।
नाहि चितवन देत तिय सुत, नाक नौका ओर ।।
थक्यो बीच बेहाल विहवल, सुनहु करुणां मूल ।
स्याम भुज गहि काढ़ि डारहु, ‘सुर’ ब्रज के कूल ।।”
यह संसार माया का महासागर है। इससे निकलना सामान्य बात नहीं। जबतक प्रभु कृपा नहीं होगी, निकल नहीं सकते। प्रभु की कृपा कब होती है? प्रभु को याद करने से। जब हम प्रभु की याद करेंगे, तो वह प्रभु तक जाएगी, उधर से वह दया बनकर आएगी। उनकी दया मिल जाने से सब कुछ हो सकता है।
संतमत बतलाता है कि एक ईश्वर पर विश्वास करो। उस ईश्वर की प्राप्ति अपने अन्दर होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखो। गोस्वामीजी ने कहा है-
‘एक भरोसा एक बल, एक आस विश्वास ।’
एक ईश्वर की भक्ति करो। जैसे वृक्ष की जड़ में पानी डालने से समूचा वृक्ष हरा-भरा हो जाता है, फूलने-फलने लग जाता है, उसी तरह एक ईश्वर की भक्ति में सबकी भक्ति हो जाती है। सन्त कबीर साहब की वाणी है-
“ अछय पुरुष एक पेड़ है, निरंजन वाकी डार ।
तिरदेवा शाखा भये, पात भया संसार ।।”
संत सुन्दर दासजी ने भी एकेश्वरवादी बनने की सीख दी है और त्रिगुण के परे निर्गुण को पकड़ने की प्रेरणा दी है; यथा-
“ ब्रह्म कुलाल रचे बहु भाजन,
कर्मन के वश मोहि न भावै ।
विष्णुहि संकट आय पड़े,
गर्भ काहुक रक्षक काहु सतावै ।।
संकर भूत पिशाचन के पति,
हाथ कपाल लिये बिललावै ।
ताहिते सुन्दर तिरगुन त्यागि,
सो निर्गुण एक निरंजन ध्यावै ।।”
हजरत मुहम्मद साहब ने कहा-एक ईश्वर विश्वासी बनो, बहुदेव उपासी मत बनो। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कृष्ण का वचन है कि अव्यभिचारिणी भक्ति करो। जो पतिव्रता नारी होती है, वह एक पति को भजती है। उसी तरह जो सच्चे भक्त होते हैं, एक ईश्वर को पकड़कर रखते हैं, ईश्वर उसकी रक्षा करते हैं। कुरान शरीफ अलबकरा सूरा-2, पारा-3 में लिखा है-‘जो अल्लाह पर इमान लाते हैं तो अल्लाह उनकी रक्षा करते हैं, सहायता करते हैं और उनको अन्धकार से प्रकाश में ले जाते हैं।’ भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-‘योगक्षेमं वहाम्यहम्।’ मैं अपने भक्तों का योगक्षेम करता हूँ-क्या चाहिए, वह जुटा देता हूँ और जो देता हूँ, उसकी रक्षा भी करता हूँ। इस सम्बन्ध की एक उपदेश-प्रद अतिरोचक कहानी मुझे याद आती है।
एक बार यूनान का बादशाह बीमार हुआ। बहुत चिकित्सा करने पर भी रोग आराम नहीं हुआ। उन्होंने अपने हकीमों से कहा-मैं इतने दिनों से तुमलोगों की परवरिश करता रहा हूँ और तुमलोग मुझे रोगमुक्त नहीं कर सकते! तुम्हें पालने-पोषने से क्या लाभ हुआ? हकीमों ने कहा-‘जहाँपनाह! इसके लिए जो औषधि है, वह मिलनी बहुत कठिन है। इसलिए हमलोग लाचार हैं।’ बादशाह ने कहा-बताओ, क्या औषधि है, सारे संसार से छानकर लायी जाएगी। हकीमों ने उत्तर दिया-‘एक ग्यारह साल के स्वस्थ, अमुक-अमुक गुणधारी लड़के का कलेजा निकालकर उससे तेल बनाना पड़ेगा। उसी तेल से आप रोगमुक्त हो सकते हैं।’
बादशाह ही ठहरे, अपने लोगों को उस तरह का लड़का खोजने के लिए राज्य भर में भेज दिया। यह भी कह दिया कि उसके माँ-बाप जितने पैसे लेना चाहे, दे देना। कहावत है-‘खोजने से खुदा मिलते हैं, फिर आदम क्यों नहीं मिलेगा।’ वैसा ही लड़का मिल गया। उसके माँ-बाप ने पैसे लेकर उस लड़के को राजा के आदमियों के हवाले कर दिया। लड़के को दरबार में लाया गया। बादशाह ने हकीमों से पूछा-‘आपलोग जैसा चाहते थे, यह लड़का वैसा ही है न?’ उनलोगों ने कहा-‘हाँ, ठीक है।’ बादशाह ने काजी को बुलाकर पूछा-‘मेरी जान बचाने के लिए इस लड़के की जान ली जा सकती है?’ काजी ने उत्तर दिया-आप देश के बादशाह हैं। आपकी जान बचाने के लिए कई जाने भी चली जाए तो अनुचित नहीं है। काजी ने लड़के को मारने का फतवा (आदेश) दे दिया। जल्लाद बुलाया गया। जल्लाद हाथ में हथियार उठाकर उसे मारने के लिए ज्यों ही तैयार हुआ, वैसे ही लड़के ने आसमान की ओर देखकर ठठाकर हँस दिया। बादशाह ने जल्लाद को संकेत किया कि तलवारा रोको। तलवार रूक गयी। बादशाह ने उस लड़के से पूछा-तुम अपने माता-पिता से बिछुड़ गये हो और अभी तुरत तुम्हारी जान जानेवाली है, फिर भी तुम हँस रहे हो, इसका क्या कारण है? लड़के ने कहा-‘मेरी जान जाएगी, आपकी जान तो बचेगी न! आप अपना काम कीजिए।’ राजा के पुनः आग्रह करने पर लड़के ने कहा-मैंने सुना था कि बाल-बच्चे माँ-बाप के कलेजे होते हैं। बच्चे के लिए अपनी जान देते हैं; लेकिन दुनिया में माँ-बाप कैसे होते हैं, यह मैंने देख लिया कि उन्होंने चाँदी के चंद टुकड़ों के लिए मुझे बेच दिया। सुना था कि राजा-प्रजा के माता-पिता होते हैं। दुनिया के राजा को भी मैंने देख लिया, जो अपनी जान बचाने के लिए एक निरीह, गरीब बच्चे की जान लेने को तैयार हैं। यह भी सुना था कि काजी का न्याय सच्चा होता है, आज मैंने काजी के न्याय को भी देख लिया। अब ऐ अल्लाह परवरदीगार! दीन-दुखियों के मालिक! तुम्हारा न्याय मुझे देखना है कि तुम क्या करते हो? लड़के के तथ्य पूर्ण उपदेशमय वाक्य को सुनकर बादशाह का दिल पिघल गया। वह अपनी गद्दी से नीचे उतरकर लड़के को गले से लगाते हुए कहा-तुमने मेरी आँखें खोल दी। जाओ, तुम मुक्त कर दिए गए। प्रभु-अनुकम्पा से बादशाह भी रोगमुक्त हो गया।
संतमत बतलाता है कि एक ईश्वर पर अचल विश्वास और पूर्ण भरोसा रखना चाहिए। साथ ही अपने अन्तर में उनकी प्राप्ति के लिए सदाचार समन्वित होकर भक्ति करनी चाहिए।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 08-04-2002 ई0 को अखिल भारतीय संतमत- सत्संग के 91वें वार्षिक महाधिवेशन, कटिहार में अपराह्नकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, जून, 2002 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
संतमत-सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। ईश्वर-भक्ति में तीन बातों की प्रधानता होती है-स्तुति, प्रार्थना और उपासना। स्तुति कहते हैं यशगान करने को। जिनका हम सद्गुण सुनते हैं, बड़ाई, अच्छाई सुनते हैं, उनकी ओर हमारा आकर्षण होता है। जिनके हम दुर्गुण सुनते हैं, अवगुण सुनते हैं, उनकी ओर से विकर्षण होता है।
हमलोग परमात्मा की स्तुति करते हैं उनके बड़प्पन को जानने के लिए। ऐसा नहीं कि हम स्तुति करते हैं तो इससे परमात्मा खुश होते हैं या अगर कोई निंदा करते हैं तो इससे वे नाखुश होते हैं। वे निंदा-स्तुति दोनों में सम रहते हैं। रामचरितमानस में लिखा है-
“ यद्यपि प्रभु के राग न रोषा ।
गहई न पाप पुण्य नहीं दोषा ।।
तदपि करइ सम विषम विहारा ।
भगत अभगत हृदय अनुसारा ।।”
ईश-स्तुति करने से हमारा हृदय पवित्र होता है, इसलिए हम उनकी स्तुति करते हैं। हमलोगों के यहाँ वैदिक धर्म में जैसे स्तुति है, इसाई धर्म में प्रेयर है और इस्लाम धर्म में नमाज है। उस नमाज में भी अल्लाह की खूबियों का बखान किया जाता है। तुम दयालु हो, कृपाल हो, मोहितेकुल्ल (सर्वव्यापक) हो कहकर स्तुति करते हैं।
स्वामी दयानदंजी ने कहा है कि प्रत्येक मानव को प्रतिदिन स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए। जो स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करते, वे पशुवत् हैं। हमलोग भी प्रतिदिन स्तुति करते हैं। आपलोगों ने देखा होगा, यहाँ पहले ईश-स्तुति हुई है, पश्चात् संत-स्तुति हुई है और तत्पश्चात् सद्गुरु-स्तुति हुई है। स्तुति के बाद प्रार्थना का स्थान आता है। प्रार्थना करने का अर्थ है कि नम्रतापूर्वक प्रभु से हम कुछ माँगते हैं। क्योंकि ऐसा कोई हृदय नहीं है, जिस हृदय में किसी प्रकार की माँग न हो। जिस हृदय में माँग नहीं है, वे तो संत होते हैं।
“ चाह गई चिता मिटी, मनुवाँ वेपरवाह ।
जाको कछू न चाहिए, सोई शाहंशाह ।।”
संसार में जो शाह होते हैं, उनके हृदय में भी माँग होती है। लेकिन जो शाहों-के-शाह-संत होते हैं, उनमें माँग नहीं होती है। वे दूसरों को देनेवाले होते हैं। लेकिन जनसाधारण लोगों के हृदय में माँग तो होती ही है। प्रश्न होता है-हम माँगें तो क्या माँगें? संत कबीर साहब ने कहा-
“ क्या माँगू कछु थिर न रहाई ।
देखत नैन चल्यो जग जाई ।।”
हम देखते हैं, इस संसार में कुछ भी स्थिर रहनेवाला नहीं है। किसी ने कहा कि बाल-बच्चे ही माँग लो। तो कबीर साहब उत्तर देते हैं-
“ एक लाख पूत सवा लाख नाती ।
जा रावण घर दिया न बाती ।।”
कितने बाल-बच्चे माँगोगे? जिसके पास एक लाख पुत्र और सवा लाख नाती थे, उसके घर में कोई दीया-बत्ती जलानेवाला नहीं रह गया। तुम बाल-बच्चे माँगकर क्या करोगे?
भगवान बुद्ध का जमाना था। उनकी एक शिष्या को एक पोता था। संयोग से पोता का शरीर छूट गया। वह बेचारी रोती-बिलखती भगवान बुद्ध की शरण में जाकर चरण पकड़कर रोने लग जाती है। भगवान बुद्ध पूछते हैं-‘अरी! तुम तो बड़ी बुद्धिमती है, तुम क्यों रो रही है?’ उसने कहा-‘भन्ते! क्या बतलाऊँ, एक पोता था, वह चल बसा। उसी के दुःख से दुःखी हूँ।’ भगवान बुद्ध ने कहा-‘अच्छा बतलाओ, इस नगर में कितने लोग रहते हैं?’ वह बोली-‘भन्ते! इसमें तो करोड़ो की संख्या में लोग रहते हैं।’ भगवान बुद्ध ने पूछा-‘अगर मैं तुमको इतने पोते दे दूँ, तब तो तुम प्रसन्न होगी न?’ वह बोली-‘भगवन्! तब तो मेरे सुख का क्या कहना है?’ भगवान बुद्ध ने पुनः पूछा-‘अच्छा एक बात बतलाओ, इस नगर में कभी कोई मरते भी हैं?’ उसने उत्तर दिया-‘भन्ते! जहाँ करोड़ो की संख्या है, वहाँ तो पचीस-पचास लोग रोज मरते हैं।’ भगवान बुद्ध ने कहा-‘तुमको करोड़ों की संख्या में पोते हों और पचीस-पचास रोज मरे, तो तुमको सुख होगा या दुःख?’ हाथ जोड़कर वह बोली-‘भन्ते! मैं समझ गयी, अब हमको एक भी पोता नहीं चाहिए।’
किसी ने कहा-‘अच्छा, पुत्र नहीं माँगो तो धन माँग लो।’ संत कबीर साहब उत्तर देते हैं-सोने का महल रूप का छाजा, छोड़ चले नगरी के राजा। तो पुनः जिज्ञासा होती है-माँगो तो क्या माँगो?
गो0 तुलसीदासजी महाराज इसका समाधान करते हैं-
“ जग जाँचिये काहु न जाँचिये जो ,
जग जानकी जानहि जाँचिये जी ।
जेहि जांचत जाँचकता जरि जाय ,
जो जारत जोर जहानहि जी ।।”
ऐसी याचना करो कि याचना ही जलकर समाप्त हो जाय। किस चीज की याचना की जाय?
एक राजा थे। उनकी दो रानियाँ थीं। राजा विदेश जाने लगे तो छोटी रानी से पूछा-‘बतलाओ, मैं अमुक देश जा रहा हूँ, वहाँ से तुम्हारे लिए क्या-क्या लाऊँ?’ उसने एक लम्बी फेहरिश लिखवा दी कि वहाँ की ये-ये चीजें प्रसिद्ध हैं, मेरे लिए लेते आना। फिर राजा ने बड़ी रानी के पास जाकर उससे पूछा-‘मैं अमुक देश जा रहा हूँ। बतलाओ, वहाँ से मैं तुम्हारे लिए क्या-क्या ले आऊँ?’ बड़ी रानी ने कहा-‘आप सकुशल मेरे पास लौट आएँ, मैं यहीं चाहती हूँ।’ राजा विदेश गए, जितने दिनों की यात्र थी, पूरी करके लौट आए। छोटी रानी ने जो-जो चीजें मँगाई थीं, उसके अनुकूल सारी चीजें ले जाकर उसे दे दिया। वह खुश हो गई। बड़ी रानी ने तो कुछ नहीं माँगा था। जितनी चीजें उन्होंने छोटी रानी के लिए ली थी, उतनी चीजें बड़ी के लिए भी ले ली थी। इसके अतिरिक्त उसके मन में जो हुआ कि ये-ये चीजें अच्छी हैं, वह सब चीजें भी खरीदकर उसके लिए ले आए। सब चीजें देते हुए कहते हैं-लो, अब प्रसन्न हो न! उसने कहा-‘मुझे तो आप चाहिए, आप इन सबसे बढ़कर हैं।’ राजा उसी के पास रह गए। जब राजा ही उनको मिल गए, तो बाकी क्या रह गया?
कहने का तात्पर्य यह कि उसी तरह जो जगत के राजा जगपति परमात्मा हैं, उससे उन्हीं की माँग कीजिए। उनके मिल जाने पर फिर कुछ माँगने के लिए बाकी नहीं रह जाएगा।
प्रार्थना के बाद उपासना की बारी आती है। उप+आसन अर्थात् निकटता, समीपता। प्रभु का आसन जहाँ है, उनकी निकटता हमको होनी चाहिए, यह है उपासना। प्रभु कहाँ हैं, उनकी उपासना किस तरह करें? संत कबीर साहब ने कहा है-
“ सुरत फँसी संसार में, ताते पड़िगा दूर ।
सुरत बाँधि सुस्थिर करो, आठो पहर हुजूर ।।”
हमारी चित्तवृत्तियाँ जो संसार में फैली हुई हैं, इस कारण वह प्रभु हमसे दूर हैं। अगर हम चित्तवृत्तियों को समेटकर एकाग्र कर सकेंगे, तो वह हमारे हाजिर हजूर हैं। चित्तवृत्ति का सिमटाव कैसे हो? इसके लिए संतों ने बतलाया-जप करो और ध्यान करो अर्थात् जिकर और फिकर करो। जप के कई प्रकार हैं, यथा-वाचिक, उपांशु, श्वॉस और मानस। वाचिक जप से उपांशु जप में दश गुणा लाभ है, श्वास जप में सौ गुणा और मानस जप में हजार गुणा लाभ है। जप का मंत्र जितना छोटा हो, उतना ही अधिक मूल्यवान होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने लिखा-
“ मंत्र परम लघु जासु वस, बिधि हरि हर सुर सर्व ।
महामत्त गजराज कहँ, बस कर अंकुश खर्व ।।”
हाथी बहुत बड़ा जानवर होता है, लेकिन एक छोटा अंकुश उसको वश में कर लेता है। उसी तरह हमारा जो मनरूप गजराज है, इसको वश करने के लिए मंत्रराज है। वह मंत्रराज बहुत छोटा यानी परम लघु होना चाहिए। एक तो लघु का अर्थ छोटा होता है, उस पर गोस्वामीजी कहते हैं-मंत्र परम लघु होना चाहिए। जप और ध्यान के लिए एक फकीर ने कहा है-
“ जिकर करके शिखर हेरे, फिकर रारंकार की ।
जाके लगी अनहद तान हो, निर्वाण निर्गुण नाम की ।।”
जप में आकर्षण शक्ति होती है।
रावण लंका में था और उनका एक पुत्र पाताल में था, जिसका नाम अहिरावण था। भगवान श्री राम से युद्ध करते हुए जब रावण की सेनाएँ समाप्त हो चुकी, उनके परिवार के अधिकांश लोग समाप्त हो गए, तो वह सोचने लगा कि अब क्या करें? वह मंत्र विशेष जानता था, जिसके द्वारा वह किसी को आकर्षित कर सकता था। रामचरितमानस में लिखा है-
“ मंत्रकर्षण जप दश भाला ।
अहिरावण मन डोल पताला ।।”
मंत्र के आकर्षण से अहिरावण पाताल से लंका आ गया अपने पिता के पास।
इसी प्रकार यदि गुरु प्रदत्त मंत्र सिद्ध हो जाय, तो साधक के आगे के कार्य सिद्ध होते जाएँगे। महर्षि मेँहीँ-पदावली में लिखा है-
‘गुरु जाप जपन साँचो तप सकल काज सारणं।’
गुरु महाराज के जमाने की बात है-एक विद्यार्थी था। वह आई0 एस-सी0 में पढ़ता था। उसने गुरु महाराज से दीक्षा ली थी और मनोयोगपूर्वक जप किया। जप करने से उसको एक प्रकार की सिद्धि मिल गई थी। वह यह कि यदि कोई व्यक्ति उससे कुछ पूछते तो उसका उत्तर वह देता था। वह लकड़ी के कोयले को पाउडर बनाकर रखता था और जिज्ञासा करने पर वह उस पाउडर को अपनी बाँह पर लगा देता था, उनके प्रश्न का उत्तर उसकी बाँह पर निकल आता था।
उसके पिताजी ने गुरु महाराज से सारी बातें कही। गुरु महाराज बोले-‘जाकर मना कर दीजिए कि वह वैसा नहीं करे; क्योंकि यह तमाशा दिखाने की चीज नहीं है।’ उसके पिता ने उसे समझाया, लेकिन लड़का तो लड़का ही ठहरा, वैसा ही करता रहा। फिर उसके पिताजी ने गुरु महाराज से आकर कहा-लड़का बात नहीं मानता है। गुरु महाराज बोले-मेरे पास ले आइए। उस समय गुरु महाराज कुप्पाघाट आश्रम में थे। वहाँ उन दिनों कुछ कॉलेज के विद्यार्थी रहते थे। वे सब भी कुछ-कुछ पूछने लगे और उसका उत्तर वह उसी तरह देने लगा। आश्रम-निवासी बुजुर्ग लोगों ने कहा-देखो जी, तुम इधर-उधर तमाशा दिखलाते हो, हमलोग इसे नहीं मानेंगे। चलो, गुरु महाराज के पास। हम वहाँ प्रश्न पूछेंगे, तब जो सही उत्तर निकलेगा तो समझेंगे कि सही बात है। गुरु महाराज अपने आसन पर विराजमान थे और हमलोग भी वहाँ बैठे थे। कुछ लोगों के साथ वह लड़का वहाँ गया। एक बुर्जुग व्यक्ति ने कुछ पूछ दिया। उसने कोयले का पाउडर बाँह पर लगाया, लेकिन कुछ उत्तर नहीं आया। क्या हो गया? गो0 तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है-
“ मायापति सेवक सन माया ।
करइ तो उलटि पड़इ खगराया ।।”
गुरु महाराज ने मनाही की थी। मनाही की बात उसने नहीं मानी, तो उसकी विद्या ही समाप्त हो गई।
जो कोई एकाग्रतापूर्वक जप करते हैं, उसमें शक्ति आ जाती है, सिद्धि मिल जाती है।
हमारा मन विषधर साँप की तरह है, इसे वश में करने के लिए मंत्र जप है। मंत्र कहते हैं, जिससे मन को त्रण मिलता है। मंत्र जप में एक इष्ट के नाम का जप किया जाता है, उसके बाद इष्ट रूप का ध्यान किया जाता है। गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है-
“ अंतरि गुरु आराधणा जिह्वा जपि गुरुनाउ ।।
नेत्री सतिगुरु पेखणा स्त्रवणी सुनणा गुरु नाउ ।।
सतिगुर सेती रतिआ दरगह पाइअै ठाउ ।।
कहु नानक किरपा करे जिसनो एह वथु देइ ।।
जग महि ऊतम काढ़ीअहि बिरले केई केइ ।।1।।
इसी संदर्भ में कुछ संतों की वाणी इस प्रकार है-
“ अति पावन गुरुमंत्र मनहि मन जाप जपो ।
उपकारी गुरु रूप को मानस ध्यान थपो ।।”
-महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज
“ गुरु ही को करि ध्यान, नाम गुरु को जपो ।
आपा दीजै भेंट पूजन गुरु ही थपो ।।”
-संत चरणदासजी महाराज
“ मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।
-संत कबीर साहब
“ निहारो यारो गुरु मूरति की ओर ।
गुरु मूरति सूरति बिच निरखो तब उर होत इंजोर ।।”
-संत शिवनारायण स्वामी
यह मानस जप और मानस ध्यान है। इस्लाम धर्म में सूफी लोग मंत्र जप अर्थात् जिकर करते हैं और अपने मुर्शद के शक्ल का ध्यान करते हैं। वे इस तरह उनका ध्यान करते हैं कि फनाफिल मुर्शिद हो जाते हैं। उसके बाद वे सूक्ष्म साधना करते हैं, उसमें वे फनाफिल रसूल हो जाते हैं और अन्त में फनाफिल्लाह हो जाते हैं।
“ नुख्ते के हेरफेर से, तुमसे जुदा हुआ ।
नुख्ता जो धरा सर पर, खुद ही खुदा हुआ ।।”
“ खुदा जुदा की एक ही सूरत, नुख्ता भेद बताता है ।
नुख्ता नीचे नुख्ता ऊपर, नुख्ता आता जाता है ।।”
‘खे’ अक्षर से खुदा और ‘जिम’ अक्षर से जुदा शब्द बनता है। दोनों में एक बिन्दा का अन्तर होता है। ऊपर में बिन्दा दे दीजिए तो खुदा शब्द हो जाएगा और बिन्दा नीचे में दीजिए तो जुदा शब्द हो जाएगा। जब हमारी सुरत ऊपर चढ़ जाय, तब हम खुदा में मिल जाएँगे और अगर हमारी सुरत नीचे गिर गई तो हम खुदा से जुदा होकर संसार में रहेंगे। आवश्यकता है अपनी सुरत को समेटकर स्थान-विशेष पर लगाने की।
भगवान कृष्ण ने उद्धवजी से कहा था कि पहले हमारे सम्पूर्ण शरीर का ध्यान करो और फिर हमारे मुस्कानयुक्त मुख का ध्यान करो। मुँह का ध्यान हो जाय, तो शून्य में ध्यान करो।
शून्य ध्यान से क्या होता है? संत कबीर साहब कहते हैं-
‘शून्य ध्यान सबके मन माना । तुम बैठो आतम स्थाना ।।’
जो शून्य ध्यान करता है, उसका मन मान जाता है। यह मन है पाजी, जब शून्य ध्यान करता है, तब राजी होता है।
किसी ने मीराबाई से पूछा-हमलोग ध्यान करने के लिए बैठते हैं तो मन में कितनी-कितनी बातें आने लगती हैं, ध्यान तो लगता ही नहीं है। आपका मन कैसे लग गया कि आप इतनी बड़ी साधिका बन गईं? तो मीराबाई कहती है-
‘मीरा मन मानी, सुरत शैल असमानी ।’
अर्थात् जब मैंने आसमान की यात्र की, तब मेरा मन मान गया। क्या मीराबाई हवाई जहाज से आकाश में उड़ती थी? अरे! बाह्याकाश में नहीं, वह तो अन्तराकाश में सुरत से उड़ती थी। इसी शून्य ध्यान के लिए शास्त्र में लिखा है-
“ न ध्यानं ध्यानमित्याहुर्ध्यानं शून्यगतं मनः ।
तस्य ध्यानप्रसादेन सौख्यं मोक्षं न संशयः ।।”
(ज्ञानसंकलिनी तंत्र)
सामान्यतया जिसको लोग ध्यान कहते हैं, वास्तव में वह ध्यान नहीं है। ध्यान तो वह है, जब मन शून्यगत हो जाय। उसी ध्यान से सुख और मोक्ष मिलता है। यह ध्यान सूक्ष्म ध्यान है। कबीर साहब ने कहा है-
“ गागर ऊपर गागरी, चोले ऊपर द्वार ।
सूली ऊपर साँथरा, जहाँ बुलावे यार ।।”
गागर कहते हैं घड़ा को। घड़ा के उपर घड़ा है, फिर वहाँ द्वार है। क्या मतलब हुआ? यह शरीर घड़ा है-स्थूल घड़ा। इसके भीतर सूक्ष्म घड़ा है, उसके भीतर कारण घड़ा है, उसके भीतर महाकारण घड़ा है, उसके भीतर कैवल्य घड़ा है। स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर के बीच में छेद है, यही है-‘चोले ऊपर द्वार’। वही द्वार है प्रभु के पास जाने का। एक फकीर का कलाम है-
“ क्यो भटकता फिर रहा तू ए तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है दिलवर पै जाने के लिए ।।”
शहरग अर्थात् सुषुम्ना से रास्ता आरम्भ होगा। संसार में तुम क्यों भटक रहे हो? दिलवर के पास, प्रभु के पास अगर जाना चाहते हो तो वहीं से चलो।
“ कुदरती कावे के तू मेहराव में सुन गौर से ।
है आ रही धुर से सदा, तेरे बुलाने के लिए ।।”
परमात्मा रूपी यार तुमको बुला रहे हैं, लेकिन यार की भाषा तुम सुन नहीं रहे हो, समझ नहीं रहे हो।
उदाहरणार्थ छोटे-छोटे बच्चे एक साथ खेल रहे होते हैं। विद्यालय जाने का समय हो गया है। वे लोग खेल में इतने मशगूल हैं कि विद्यालय जाना भूल गए हैं। एक बच्चे की माँ दूर से पुकार रही है, बच्चा सुन नहीं रहा है। उस रास्ते से जानेवाला कोई राहगीर सुनता है कि किसी का नाम लेकर कोई पुकार रही है। वह जाकर कहता है कि अरे! अमुक नाम का लड़का कौन है, तुम्हारी माँ पुकार रही है। तब वह लड़का वहाँ से चलता है और घर आता है। माँ कहती है-तुम्हारे विद्यालय जाने का समय हो गया है, जल्दी खाओ और विद्यालय जाओ। माँ की बात मानकर बच्चा विद्यालय जाता है, मनोयोगपूर्वक पढ़ता है। पढ़ते-पढ़ते एक दिन वह विद्वान बनता है। इहलोक में सुख से जीवन-यापन करता है।
जिस तरह माँ पुकारती है, किन्तु बच्चा नहीं सुनता है, सुननेवाला कोई दूसरा होता है जो जाकर उसको कहता है। उसी तरह परमात्मा हमको पुकार रहे हैं, लेकिन हम सांसारिक जीव मायाजाल में-विषयों में इतने मशगूल हैं कि उनकी आवाज नहीं सुन रहे हैं। जो संत सद्गुरु हैं वे उनकी आवाज को सुनते हैं, वे हमको कहते हैं-अरे! प्रभु तुमको पुकारते हैं, वहाँ क्यों नहीं जाते हो? यदि हम भी संत सद्गुरु की बात मानकर अन्तर पथ के पथिक बनें, तो एक दिन हमारा भी परम कल्याण हो जाएगा।
हमलोग स्नान करके-शरीर को पवित्र करके तब मंदिर में जाते हैं। मंदिर, मस्जिद या गिरजा कहीं भी जायँ, शरीर को पवित्र करके जाते हैं। वह मंदिर, मस्जिद या गिरजा स्थूल है तो स्थूल शरीर को धोकर जाते हैं। प्रभु के पास जाने का जो सूक्ष्म रास्ता है, उसमें जाने लिए सुरत को नहलाना होगा, पवित्र करना होगा। कहाँ नहलाना होगा? त्रिवेणी संगम पर। वह त्रिवेणी संगम कहाँ है-
‘गंग जमुन सरस्वती संगम पर, संध्या करु नित भाई ।’’
-महर्षि मेँहीँ-पदावली
शरीर में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का जो संगम है, वहीं गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम है। वहाँ स्नान कीजिए, तब उस देवालय या शिवालय में, मस्जिद या गिरजा में प्रवेश कर सकेंगे। परम प्रभु परमात्मा ने अपने लिए यही घर बनाया है। वे रहते सब जगह हैं, लेकिन मिलते हैं इसी घर में। और कहीं वे नहीं मिलते हैं। इसी के लिए दृष्टियोग की क्रिया करते हैं।
दो रेखाओें का मिलन एक विन्दु पर होता है। हमलोग विद्यालय में पढ़ते हैं-कल्पना किया कि अ, ब, स एक त्रिभुज है। प्रत्यक्ष हमारे सामने त्रिभुज बना हुआ होता है, फिर भी हम कहते हैं-कल्पना किया कि अ, ब, स एक त्रिभुज है। प्रत्यक्ष के बाद फिर कल्पना क्यों? इसीलिए कि त्रिभुज बनता है-तीन रेखाओं से और रेखा बनती है विन्दु से। विन्दु की परिभाषा है कि जिसका स्थान है परिमाण नहीं है अर्थात् लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई कुछ नहीं है। क्या इस तरह का विन्दु किसी ने आजतक बनाया है? किसी ने संसार में देखा है? जहाँ हम कलम की नोक रखते हैं, वहाँ जो छोटे-से-छोटा चिह्न होता है, उसको हम विन्दु की संज्ञा देते हैं। उसकी माप तो कलम की नोक हो गई। लेकिन विन्दु तो होना चाहिए जिसका स्थान है, लेकिन माप नहीं है। वह कौन-सी रेखा है? कहीं-न-कहीं असली चीज होती है, तब उसकी नकली चीज बनती है। तो कहीं-न-कहीं असली विन्दु है। वस्तुतः विन्दु से रेखा और रेखा से त्रिभुज बनता है। चूँकि नकली रेखा से त्रिभुज बना, इसलिए कहते हैं कल्पना किया। असली कहाँ है? हमलोगों की जो दृष्टि-धारें हैं, इसमें लम्बाई-ही-लम्बाई है, चौड़ाई नहीं है। इन दृष्टि धार-रूप दो रेखाओं का मिलन जहाँ पर होगा, वहाँ जो विन्दु उत्पन्न होगा, वह असली विन्दु होगा। वह किस रंग का विन्दु उत्पन्न होगा? कलम में जिस रंग की स्याही होती है, कलम जहाँ रखते हैं उसी रंग का चिह्न उत्पन्न होता है। हमलोगों की दृष्टिधारें प्रकाशमयी होने के कारण इनके मिलन से जो विन्दु उत्पन्न होगा, वह प्रकाशमय होगा। इसी के विषय में तेजोविन्दूपनिषद् में लिखा है-
‘तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् ।।1।।’
(कृष्ण यजुर्वेद, अ0 1)
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
“ कवि पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 8, श्लोक 9)
वह सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियन्ता, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करनेवाले, अचिन्त्य रूप, सूर्य के सदृश प्रकाशरूप, अन्धकार के परे है।
आँखें बन्द करने पर अन्धकार-ही-अन्धकार दीखता है। इसी अन्धकार में अपने को स्थिर करना है। किस तरह से और कहाँ करना है, इसकी युक्ति सीखनी होगी। अगर हमको आर्ट्स पढ़ना है, तो आर्ट्स प्रोफेसर के पास जाना होगा, कॉमर्स पढ़ना है, तो कॉमर्स प्रोफेसर के पास जाना होगा, साइंस पढ़ना है, तो साइंस प्रोफेसर के पास जाना होगा, उसी तरह इस अध्यात्म-ज्ञान को सीखने के लिए जो अध्यात्म-ज्ञान के गुरु होंगे, उनके पास जाना होगा। इसलिए एक कामिल फकीर ने कहा है-
“ मुर्शिदे कामिल से मिल, सिद्क और सबूरी से तकी ।
जो तुझे देगा फहम शहरग के पाने के लिए ।।
गोश बातिन हो कुशादा जो करे कुछ दिन अमल ।
ला-इला-अल्लाह हो अकबर पै जाने के लिए ।।”
शहरग कहते हैं सुषुम्ना को-आज्ञाचक्र के केन्द्र विन्दु को। यहाँ ही दृष्टि साधन की क्रिया की जाती है। एक बंगाली महात्मा हुए योगी पंचानन भट्टाचार्य। उन्होंने कहा-
“ मूलधारा बधि पंच चक्र भेदी
आज्ञाचक्रे यदि थाके निरबधि ।
देखिबे से निधि जावे भव व्याधि
भासिबे आनन्द सागरे ।।”
मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत और विशुद्ध; इन पाँचों चक्रों के ऊपर जो छठा चक्र है, उसका नाम है आज्ञाचक्र। जो वहाँ जाते हैं, उसके लिए प्रभु की आज्ञा हो जाती है आने के लिए। जो उनकी आवाज सुनते हैं, वे उन प्रभु के पास चले जाते हैं। इसी विषय को प्रकारान्तर से गुरु नानक देवजी महाराज की वाणी में सुनिए-
“ दिन महि रैणि रैणि महि दीनी,
अरु उसण शीत विधि सोई ।
ताकि गति मति अवरु न जाणै,
गुरु बिनु समझ न होई ।।”
अर्थात् दिन में रात करो और रात में दिन करो। जिन्होंने अधिक सत्संग नहीं किया है, वे कहेंगे कि ये पागलपन की बात है। जब दिन है तो दिन है, जब रात है तो रात है। दिन में रात और रात में दिन करो, यह कैसी बात है? ऐसा भी कहीं होता है? गुरु नानकदेवजी इसका स्पष्टीकरण इस भाँति देते हैं-
‘उष्ण शीत विधि सोई ।’
दिन में सूर्य के कारण उष्ण या गर्मी रहती है। और रात में चन्द्रमा के कारण शीत यानी सर्दी होती है। हमारी दृष्टि की दो धाराएँ हैं-दाहिनी और बाईं। दाहिनी धारा उष्ण और बायीं धारा शीत है। संत कबीर साहब की वाणी में हम कह सकेंगे-
‘दाहिने सूर चन्द्रमा बायें, तिनके बीच छिपाना है ।’
ये निगेटिव और पॉजिटिव दोनों धाराएँ जहाँ पर मिलेंगी, वहाँ पर बल्ब जलेगा, प्रकाश होगा। जहाँ बल्ब जलेगा, वहाँ पर भाइब्रेशन-शब्द भी होगा। अर्थात् जहाँ अन्तर्ज्योति मिलेगी, वहाँ अन्तर्नाद भी मिलेगा। अन्तर्नाद में पहले अनहद नाद मिलेगा, पश्चात् अनाहत नाद (सार शब्द) मिलेगा। पुनः गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
‘ताकी गति मति अवरु न जाणै,
गुरु बिन समझ न होई ।’
अर्थात् जबतक संत सद्गुरु नहीं मिलेंगे, इस विषय की समझ नहीं मिलेगी, इसका सद्ज्ञान नहीं मिलेगा। महर्षि मेँहीँ-पदावली में है-
‘बिन दया संतन की मेँहीँ जानना इस राह को ।
हुआ नहीं होता नहीं वो होनहारा है नहीं ।।”
हाँ, तो मैं विन्दु-अन्तर्ज्योति और अंतर्नाद के विषय में कह रहा था। भगवान शंकर का वचन योगशिखोपनिषद् अ0 2 में लिखा है-
‘विन्दुपीठं विनिभिद्य नादालिगमुपस्थितम् ।’
जो कोई विन्दु पर प्रतिष्ठित होते हैं, तो वहाँ उनको नाद मिलता है। नाद में अपनी ओर खीचने का-आकर्षण करने का गुण होता है। उदाहरणार्थ-जैसे अन्धेरी रात है। हाथों-हाथ नहीं सूझ रहा है, लेकिन तू-तू करके यदि आप कुत्ता को पुकारेंगे तो कुत्ता आपके पास चला आएगा। चूँकि आपके पास से आवाज गई तो उस आवाज को सुनकर कुत्ता आपके पास आ जाता है, उसी तरह जो परमात्मा की ओर से आवाज आ रही है, उसको सुननेवाला कहाँ जाएगा? परमात्मा के पास जाएगा। एक फकीर का कलाम है-
“ गोश बातिन हो कुशादा जो करे कुछ दिन अमल ।
ला-इला-अल्लाह हो अकबर पै जाने के लिए ।।”
दृष्टियोग यानी सगलेनसीरा के अमल-अभ्यास से आन्तरिक कान खुल जाता है और वह उस आवाजेगैब को सुनकर परम प्रभु परमात्मा के पास, अल्लाह के पास पहुँच जाता है। नजात मिल जाता है-मोक्ष मिल जाता है। वह भवसागर पार होता है। प्रभु के पास जाने का यही एक रास्ता है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 09-04-2002 ई0 को अखिल भारतीय संतमत- सत्संग के 91वें वार्षिक महाधिवेशन, कटिहार में प्रातःकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, जुलाई, 2002 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोग संतमत के सत्संग में सम्मिलित हुए हैं। संतमत समुद्रमत है। यह सबके लिए है। संतमत में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि सभी भाई मिलकर एक साथ रहते हैं। संतमत में जात-पात की कोई बात नहीं होती। संत दादू दयालजी ने कहा है-
“ जे पहुँचे ते कहि गए, तिनकी एकै बात ।
सबै सयाने एक मत, तिनकी एकै जात ।।”
स्वामी दयानन्दजी महाराज पंजाब भ्रमण कर रहे थे। उन दिनों वहाँ नाई को छोटी जाति मानकर उनके घर के भोजन-पानी ग्रहण नहीं करते थे। लेकिन स्वामी दयानन्दजी महाराज ने एक नाई के यहाँ जाकर भोजन किया। किसी ने पूछा कि ‘महाराज! आपने यह क्या किया?’ स्वामी दयानन्द ने कहा-‘क्या किया? मैंने तो कुछ नहीं किया?’ उसने कहा-‘आपने नाई की रोटी खाई है, कैसे कुछ नहीं किया।’ स्वामी दयानन्दजी ने उत्तर दिया-‘मैंने नाई की रोटी नहीं खाई है, मैंने तो गेहूँ की रोटी खाई है।’
अभी आपलोगों ने रामचरितमानस के पाठ में सुना कि भगवान श्रीराम परम भक्तिन शवरी के यहाँ पधारते हैं और उनकी पूजा को स्वीकार करते हैं। केवल फूल-पत्तियों से पूजा हो गई, ऐसी बात नहीं। वहाँ जाते हैं तो खाते-पीते भी हैं। शवरी भगवान के सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो जाती है और कहती है-
“ केहि विधि स्तुति करऊँ तुम्हारी ।
अधम जाति में जड़ मति भारी ।।
अधम ते अधम अधम अति नारी ।
तिन्ह मह मैं अति मंद अधारी ।।”
एक कॉलेज की कुछ छात्रएँ प्रोफेसर के पास गई और उत्तेजित स्वर में रामचरितमानस की उपर्युक्त चौपाइयाँ दिखाते हुए बोलीं कि देखिए, नारी जाति के साथ तुलसीदासजी ने किस तरह का व्यवहार किया है। ‘अधम ते अधम अधम अति नारी’ कह दिया है। प्रोफेसर ने समझाने की चेष्टा की, लेकिन उन छात्रओं का क्रोध शान्त नहीं हुआ। वे सब-के-सब चली गईं प्रिंसिपल साहब के पास और उसने कहा-‘देखिए, तुलसीदासजी ने यह क्या लिखा है, क्या यह उचित है?’ प्रिंसिपल साहब ने भी छात्रओं को समझाने की भरपूर चेष्टा की, लेकिन उतावली छात्रओं ने कहा कि रामचरितमानस में यह पन्ना रहने योग्य नहीं है। ऐसा कहकर उनके सामने में ही रामचरितमानस का वह पन्ना फाड़ दिया। तब प्रिंसिपल साहब ने कहा-गोस्वामी तुलसीदासजी ने सब नारियों के लिए नहीं, बल्कि तुम जैसी नारियों के लिए ही लिखा है-‘अधम अति नारी।’ अगर एक रामचरितमानस का एक पन्ना फाड़ ही दिया गया, तो इससे क्या हुआ!
भगवान श्रीराम परम भक्तिन शवरी की बातों का समर्थन नहीं कर अपने विचार प्रकट करते हैं। वे कहते हैं-जाति-पाँति के कारण कोई छोटा नहीं होता, मैं केवल एक भक्ति का नाता मानता हूँ-
“ कह रघुपति सुनु भामिनि बाता ।
मानउँ एक भगति कर नाता ।।”
उन्होंने भामिनी शब्द का प्रयोग किया है। भामिनी कहते हैं-क्रोध करनेवाली नारी को और जो अति सुन्दरी होती है उसको। शवरी को कुरूपा थी; क्योंकि उन्होंने एक संत से कुरूपा होने का वरदान लिया था और क्रोध करनेवाली तो वह थी नहीं। फिर भी भगवान ने भामिनी शब्द का प्रयोग क्यों किया, ऐसी जिज्ञासा हो सकती है। उत्तर में निवेदन है कि भगवान चमड़े की सुन्दरता नहीं देखते हैं, वे उनकी भक्ति की सुन्दरता को देखकर भामिनी शब्द का प्रयोग किए हैं।
यह शरीर और उसके ऊपर चिकना-चुपड़ा चमड़ा क्या है? जैसे कोई मकान बना हुआ हो और उसके ऊपर सुन्दर प्लास्टर किया गया हो, अगर विचार करके देखा जाय तो उसके अन्दर ईंट है, पत्थर है, कंकड़ है, बालू है और सीमेंट है। उसी तरह इस शरीर में रक्त है, मांस है, मेद, मज्जा, हड्डियाँ आदि भरे पड़े हैं। उसके ऊपर चिकने चमड़े का प्लास्टर चढ़ा हुआ है। संत सुन्दर दासजी महाराज ने कहा है-
“ जा शरीर माहि तू अनेक सुख मानि रह्यो ।
ताहि तू विचार यामें कौन बात भली है ।।
मेद मज्जा मांस रग रग में रक्त भरयो ।
पेट हू पिटारी-सी में ठौर ठौर मली है ।।
हाड़न सूँ भर्यो मुख हाड़न को नैन नाक ।
हाथ पाँउ सोऊ तो हाड़न की नली है ।।
सुन्दर कहै याहि देखि मत भूलो कोऊ ।
भीतर तो भंगार भरी ऊपर तो कली है ।।”
यह शरीर क्या है? क्षणभंगुर-नाशवान है। शरीर में रहनेवाली आत्मा अजर, अमर, अविनाशी है; उसकी पहचान करो।
अष्टावक्रजी जब राजा जनकजी के दरबार में पहुँचे, तो उनकी कुरूपता को देखकर वहाँ उपस्थित सभी सभासद हँस पड़े। सबको हँसते हुए देखकर अष्टावक्र मुनि भी हँस पड़े। सभासदों ने पूछा कि ‘महात्मन! आपके हँसने का क्या कारण है?’ अष्टावक्र मुनि ने कहा-‘पहले आपलोग हँसे हैं। इसलिए पहले आपलोग हँसने का कारण बताइए, तब मैं बताऊँगा।’ सभासदों ने कहा-‘महात्मन्! क्षमा कीजिएगा, आपकी जैसी कुरूपता हमलोगों को आज तक देखने में नहीं आई। इसलिए हमलोगों को हँसी आ गई। आपके हँसने का क्या कारण हुआ?’ अष्टावक्र मुनि ने कहा-‘मैंने सुना था, राजा जनक के राज-दरबार में बड़े-बड़े विद्वान, पंडित, ऋषि, महर्षि, आत्मज्ञ, तत्त्ववेत्ता सज्जन रहते हैं। लेकिन यहाँ आकर मुझे यही मालूम पड़ा कि यह चमारों की सभी है। जितने यहाँ बैठे हैं, सब-के-सब चमार हैं।’ सभासदों ने पूछा-‘महात्मन! आप सबको चमार कैसे कह रहे हैं?’ अष्टावक्र मुनि ने उत्तर दिया-यदि आपलोग आत्मज्ञ होते तो आत्मदर्शन करते, लेकिन आपलोगों ने मेरे शरीर की हड्डी और चमड़े की पहचान की है। चमड़े और हड्डी की पहचान करनेवाले तो चमार ही होते हैं। जो ब्रह्मवेत्ता होते हैं, वे सबमें ब्रह्म का दर्शन करते हैं। तकिया का खोल कोई पीला, कोई नीला और कोई उजला होता है, लेकिन सबके अन्दर की रूई उजली होती है। गाय कोई काली होती है, कोई उजली होती है, कोई लाल, कोई चितकबरी होती है, लेकिन सबके अन्दर दूध एक ही रंग का यानी उजला होता है। उसी तरह शरीर से कोई लंबा होता है, कोई नाटा होता है, कोई दुबला-पतला होता है और कोई मोटा-तगड़ा होता है। यह तो शरीर की हाड़-मांस की बनावट है, लेकिन शरीर में वास करनेवाली आत्मा एक ही है। नदी टेढ़ी-मेढ़ी होती है, उसका पानी टेढ़ा-मेढ़ा नहीं होता। गन्ना टेढ़ा होता है, लेकिन उसका रस टेढ़ा नहीं होता। उसी तरह सबमें निवास करनेवाली आत्मा एक होती है, उस आत्मा की पहचान करो। संतमत बतलाता है-
“ जात पाँत पूछे नहि कोई ।
हरि को भजे सो हरि का होई ।।”
इस बात को भगवान श्रीराम स्वयं स्वीकारते हैं और कहते हैं-
“ जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई ।
धन बल परिजन गुण चतुराई ।।
भगति हीन नर सोहइ कैसा ।
बिनु जल बारिद देखय जैसा ।।”
बादल का गर्जन हो, पानी नहीं बरसे तो कैसा लगेगा? जैसे बिना जल का बादल शोभाहीन लगता है, उसी तरह कोई जाति-पाँति में ऊँचा हो, धन और बल में बढ़ा हुआ हो, लेकिन भक्ति नहीं हो तो शोभाहीन होता है। जिस किसी भी डाल में फल लगता है, वह डाल स्वयं झुक जाती है। उसी तरह जिनमें विद्वता होती है अथवा किसी प्रकार की गुणवत्ता होती है, वे झुकनेवाले होते हैं। जो विद्वज्जन होते हैं, वे सुन्दर पुष्प के समान होते हैं और उनकी विनम्रता उसकी सुगन्धि होती है। विद्वान होकर भी जिनमें विनम्रता नहीं है, तो वे सुगन्धिहीन सुमन-सदृश होते हैं। शवरी भक्ति की पराकाष्ठा तक पहुँची हुई थी, इसलिए उनमें विनम्रता उसी प्रकार की थी। वे अपनी दीनता प्रकट करती हैं कि मैं अधम से अधम हूँ। लेकिन विचारणीय विषय यह है कि जिनको भगवान ने प्रमाणपत्र स्वयं दिया हो कि ‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।’ क्या वे नीच हो सकती हैं!
वास्तविक बात तो यह है कि-
“ बड़े बड़ाई ना करे, बड़े न बोले बोल ।
रहीमन हीरा कब कहै, लाख टका मेरो मोल ।।”
-रहीम कवि
संत पलटूदासजी महाराज ने बड़ा अच्छा कहा है-
“ साहब के दरबार में केवल भक्ति पियार ।।
केवल भक्ति पियार गुरु भक्ति में राजी ।
तथा सकल पकवान खाया दासी-सुत भाजी ।।
जप तप नेम आचार करे बहुतेरा कोई ।
खाये शवरी के बेर मुए सब ऋषि मुनि रोई ।।
राजा युधिष्ठिर यज्ञ बटोरा जोरा सकल समाजा ।
मरदा सबका मान श्वपच बिन घंट न बाजा ।।
पलटू ऊँची जाति का मत कोई करे अहंकार ।
साहब के दरबार में केवल भक्ति पियार ।।”
भगवान श्रीकृष्ण दुर्योधन को समझाने के लिए गए थे, लेकिन भगवान की बात उन्होंने नहीं मानी। दुर्योधन ने बहुत हीरे-जवाहिरात देकर भगवान को अपने पक्ष में लाना चाहा। उन्हें भोजन करने के लिए निमंत्रण दिया, किन्तु भगवान ने उसकी भेंट स्वीकार नहीं की। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘तुम्हारे यहाँ मैं भोजन कैसे करूँगा, मैं तो दूत बनकर आया हूँ। दूत जिस उद्देश्य को लेकर आता है, उसके पूरा होने पर वह भोजन करता है। मैं जिस उद्देश्य को लेकर आया था, वह उद्देश्य पूरा नहीं हुआ। तुम्हारे यहाँ कैसे भोजन करूँ?’ दुर्योधन के मन में आया, पाण्डवों को उसकानेवाला, उसका पक्षधर यही है। इसको यहाँ बाँध लिया जाय, तो सब पाण्डव ठंढे पड़ जाएँगे। उनलोगों ने श्रीकृष्ण को बाँधने की चेष्टा की। भगवान तो भगवान ही थे। उन्होंने अपना विराट रूप दिखलाया और कहा-‘बाँधो इसको, कैसे बाँधते हो? इसको तो यशोदा माई ने प्रेम की रस्सी से बाँधा था। तुम किससे बाँधोगे?’ भगवान वहाँ से विदुरजी के यहाँ आते हैं और उनका शाक ग्रहण करते हैं।
संत कबीर साहब कहते हैं-
“ मोहि भावे ला भगति भिलिनिया के ,
राजा जी आये योगी जी आये ।
घंटा बजौलन डोमिनिया के ,
मोहि भावै ला भगति भिलिनिया के ।।”
कहते-कहते अन्त में उन्होंने कहा-
“ कहै कबीर सुनो भाई साधु ,
हमहू तँ हईं जोलहिनिया के ।।”
हाँ प्रसंग यह था कि ‘भगवान श्रीराम शवरी को नौ प्रकार की भक्ति बतलाते हैं।’ शवरी तो सभी प्रकार की भक्ति में पूर्ण थी ही, लेकिन उनको माध्यम बनाकर भगवान ने हमलोगों को उपदेश दिया है। वे कहते हैं-
‘प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा ।’
पहली भगति संतों का संग है। संतों के संग से क्या होता है? जब हमलोगों को डॉ0 साहब से भेंट होती है तो मन में दवाई और अस्पताल की बात याद आती है। कभी वकील साहब से भेंट हो जाती है तो कचहरी और मुकदमा की बात याद आती है। कभी मुल्ला साहब से भेंट हो जाय, तो मस्जिद और कुरान की बात याद आती है। कभी पंडितजी से भेंट हो जाय तो मंदिर, वेद और पुराण की बात याद आती है; किन्तु जब साधु-संतों के दर्शन हो तो क्या बात याद आती है? कबीर साहब ने कहा-
“ कबीर दर्शन साधु के, साहब आवै याद ।
लेखा की याही घड़ी, बाकी के दिन बाद ।।”
अर्थात् साधु-संतों के दर्शन से परम प्रभु परमात्मा की याद आती है। उन्हीं का वचन है-
“ परम पुरुष की आरसी, संतों की ही देह ।
लखा जो चाहे अलख को, इनही में लखि लेह ।।”
आइने में हमलोग अपना चेहरा देखते हैं। उसी तरह संतों के अन्दर प्रभु विद्यमान हैं, उन्हें देख सकते हैं; लेकिन उसके लिए नेत्र चाहिए। यद्यपि वे सर्वव्यापक होने के कारण सर्वत्र हैं, तथापि इस साधारण नेत्र से उस परमात्मा को नहीं देख सकते। कबीर साहब का वचन है-
‘चाम चश्म सो नजरि न आवे खोजु रूह के नैना ।’
जिस तरह का संग किया जाता है, उस तरह का रंग लगता है। हम संत के पास जाएँगे और वे कुछ नहीं भी बोलेंगे तो भी उनकी नैसर्गिक आभा हममें प्रवेश करेगी और हमारी तमोगुणी वृत्ति हटाकर सतोगुणीवृत्ति स्थापित करेगी।
“ कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुण तीन ।
जैसी संगति बैठिए, तैसे ही फल दीन ।।”
स्वाति की जो बूँद होती है, वह सीप में गिरने से वहाँ मोती का रूप हो जाती है। केले के वृक्ष के ऊपर पड़ने से वहाँ कर्पूर हो जाता है। हाथी पर पड़ने से गजमुक्ता, साँप पर पड़ने से मणि और बाँस पर पड़ने से वंशलोचन हो जाता है। स्वाति बूँद एक ही है, लेकिन जिस-जिस का संग होता है, उसमें उस-उस तरह का रूप और गुण हो जाता है।
मकरध्वज एक आयुर्वेदिक दवा होती है, उसको शहद के साथ खाने से जो गुण होगा, घी के साथ उसका दूसरा गुण हो जाता है। मक्खन के साथ खाने से तीसरा और दही के साथ सेवन करने से चौथा गुण हो जाएगा। अर्थात् अनुपान भेद से गुण-भेद हो जाता है। इसी प्रकार अगर हम संतों का संग करेंगे तो संतों का रंग लगेगा, परिणाम क्या होगा? संत तुलसी साहब ने कहा-
‘जब रंग संग अपंग आलीरी अंग सतमत सब मरै ।’
यानी हमारा मन जो विषयों में दौड़ता रहता है, संतों के संग से इसकी चंचलता दूर हो जाती है। कबीर साहब ने कहा है-
“ मन पाँचों के वश पड़ा, मन के वश नहि पाँच ।
अपने-अपने स्वाद में, सभी नचावै नाच ।।”
यह मन जब साधु का संग करता है, तब वश में होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज का वचन है-
“ जब द्रवहि दीन दयाल राघव, साधु संगति पाइये ।
जेहि दरस परस समागमादिक पाप राशि नसाइये ।।”
जब प्रभु की बड़ी कृपा होती है, तब साधु का संग मिलता है। जिनके दर्शन से, स्पर्शन से समागम आदिक से पापों का नाश होता है। दर्शन, स्पर्शन, समागम आप कर लें, ठीक है; लेकिन उसके बाद उसमें आदिक शब्द लगा हुआ है। अर्थात् वे जो कुछ बतावेंगे, उसका पालन कीजिए तो ‘पाप राशि नसाइए’ हो जाएगा।
साँप बाहर में टेढ़ा-मेढ़ा चलता है, पर जिस समय वह बिल में जाता है, उस समय सीधा हो जाता है। उसी तरह हमारा मन रूपी साँप विषयों में बड़ा टेढ़ा-मेढ़ा चलता है। जब वह दशम द्वार में जाएगा, तो उसको सीधा होना पड़ेगा। इस दशवें द्वार का पता संत बताते हैं। उस छेद का भेद संत के अतिरिक्त कोई नहीं जानता। इसलिए ‘प्रथम भगति संतन्ह कर संगा’ कहा गया।
संत जो कहे, उसे मन लगाकर सुनो। ऐसा नहीं कि साधु रंग करने के लिए गए, लेकिन मन जहाँ-तहाँ विचरण कर रहा है, इससे लाभ नहीं होगा।
“ नित प्रति दर्शन साधु के, औ साधुन के संग ।
तुलसी काहि वियोग ते, ना लागा हरि रंग ।।”
प्रतिदिन सत्संग करते हैं, परन्तु सत्संग का रंग मन पर नहीं चढ़ता है। ऐसा क्यों? गोस्वामी तुलसीदासजी उत्तर देते हैं-
“ मन तो रमे संसार में, तन साधुन के संग ।
तुलसी याहि वियोग ते, ना लागा हरि रंग ।।”
सत्संग में जहाँ जाते हैं, वहाँ मनोयोगपूर्वक सुनिए कि महात्माजी क्या बात कह रहे हैं। इसलिए भगवान ने कहा-‘दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।’ प्रभु की बड़ाई सुनेंगे, महिमा सुनेंगे तो उनके ऐश्वर्य और विभूति का ज्ञान होगा, उनके उपकार का ज्ञान होगा। फिर हमारे मन में आकर्षण होगा कि हम भी प्रभु का भजन करें। प्रभु का भजन करें तो कैसे? यह जानने के लिए-गुरु के पद-पंकज की सेवा करो। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-
“ तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदशिनः ।।”
तत्त्वदर्शी के पास जाओ, ज्ञानी के पास जाओ, प्रणिपात करो, नम्रतापूर्वक परिप्रश्न करो, वे तुम्हारी जिज्ञासा तृप्त करेंगे। कबीर साहब के बारे में कहावत है-
“ कबीर का गाया गावै, तो गजब का धक्का खावै ।
कबीर की वाणी बूझै, तो तीनों लोक सूझै ।।
कबीर की उल्टी वाणी। बरसे कँवल भीजै पाणी ।।”
कुछ लोग ऐसा अर्थ करते हैं कि यह ‘नयन’ कमल है, जब कोई रोते हैं तो हाथ से पोंछते हैं। तो यह नयन कमल हुआ और पानी माने पाणि यानी हाथ। लेकिन यह अर्थ यथार्थ नहीं है। साधक जब साधना करता है, तो वह अनुभव करता है कि आज्ञाचक्र के ऊपर सहस्त्रदल कमल है। वहाँ से चेतनधार की वर्षा होती है। जब सुरत वहाँ पहुँचती है तो उसको पान करती है, उसमें सराबोर हो जाती है, भींग जाती है। यह है-‘बरसै कँवल भीजै पानी।’ संत कबीर साहब के कहने की कला कुछ निराली होती है। वे गुरु-शिष्य के संबंध में कहते हैं-
“ गुरु नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोय ।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु और शिष्य न कोय ।।
अहं अग्नि हृदय जरै, गुरु से चाहै मान ।
तिनको जम न्योता दिया, हो हमरे मेहमान ।।”
इसलिए मानरहित होकर गुरु की सेवा करनी चाहिए। भगवान श्रीराम कहते हैं-
“ गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।
चौथी भगति मन गुन गन, करइ कपट तजि गान ।।”
चौथी भगति है-गुरु जो स्तुति-विनती बतला दे, सो करो। यहाँ से उपासना का आरंभ है।
“ मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा ,
पंचम भजन सो वेद प्रकासा ।।”
गुरु मंत्र का जप करो। जप चार प्रकार के होते हैं-वाचिक, उपांशु, श्वास और मानस। वाचिक जप के उच्चारण-शब्द को दूसरे लोग भी सुनते हैं। उपांशु जप में कंठ और होठ हिलते हैं, जिसको दूसरे कोई नहीं सुन सकते हैं। श्वास के लेने और छोड़ने में जो जप किया जाता है, वह श्वास-जप कहलाता है। जिस जप में कंठ, जिभ्या या होठ नहीं हिलते, मन से ही मंत्रवृत्ति होती है, वह मानस जप कहलाता है। वाचिक जप से दस गुणा लाभ उपांशु जप में, शतगुणा श्वास जप में और सहस्त्र गुणा मानस जप में होता है। मानस जप सब जपों में श्रेष्ठ है, इसको सब जपों का प्राण कहा गया है। मंत्र-जप का शब्द जितना छोटा हो, उतना उत्तम होता है।
अगर ठीक-ठीक मंत्र जप होने लग जाय तो ‘जपात् सिद्धिः’-अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। हमारे गुरुदेव कहते हैं-‘गुरु जाप जपन साँचो तप सकल काज सारणं।’ यह मोटी उपासना है। जहाँ जप होता है, वहाँ पर ध्यान भी साथ रहता है। जो जिस किसी चीज का नाम लेता है, उस चीज का रूप भी उसके सामने आ जाता है। जैसे अगर हम खीरा का नाम लेते हैं तो खीरा का रूप हमारे सामने आएगा, कटहल का नहीं। अगर हम कटहल का नाम लेते हैं, तो कटहल का रूप हमारे सामने आएगा, आम का नहीं। हमारे दो बेटे हैं, और दो बेटियाँ हैं। जिस बेटे का नाम लेकर हम पुकारते हैं, उस बेटे का रूप हमारे सामने आता है, बेटी का रूप नहीं। जिस बेटी का नाम लेकर पुकारते हैं, उस बेटी का रूप हमारे सामने आता है, बेटा का नहीं। उसी तरह जो जिस इष्ट-मंत्र का जप करता है, उस इष्ट का रूप भी उसके सामने आता है। इस तरह यहाँ मंत्र-जप के साथ मानस ध्यान भी निहित है। यह मानस जप और मानस ध्यान पाँचवीं भक्ति है।
“ छठ दम सील विरति बहु कर्मा ।
निरत निरंतर सज्जन धर्मा ।।”
छठी भक्ति में बतलाते हैं कि सज्जनों के धर्म में रहो। बहुत-से कर्मों से अपने को विरक्त रखो और दमशीलता की साधना करो। दमशील अर्थात् इन्द्रियनिग्रह का स्वभाववाला बनो। हमारी इन्द्रियाँ विषयों में जाती है। विषयों की ओर से हमारा सिमटाव होना चाहिए। यह कैसे होगा?
हमारे गुरुदेव कहा करते थे-जैसे तुम कमरे में सोए हुए हो, रात का समय है और पाँच आदमी आकर तुम्हारे पाँच अंगों को पाँच तरफ खींचे। यानी दो आदमी तुम्हारे दोनों हाथों को खींचे, दो आदमी तुम्हारे दोनों टाँगों को खींचे और एक आदमी तुम्हारे सिर को खींचे। पाचो अंगों को पाँच आदमी द्वारा खींचे जाने पर तुम्हारे शरीर में क्या तुमको कुछ बल मालूम पड़ेगा? कोई बल मालूम नहीं पड़ेगा; क्योंकि शक्ति पाँच भागों में बँट रही है। लेकिन अगर वे खींचना छोड़ दें और तुम किसी एक को जकड़ करके दोनों हाथों से पकड़ लो तो क्या होगा? समूचे शरीर का बल दोनों हाथों पर आ जाएगा। किसी चीज को दोनों हाथों से उठाते हैं, तो समूचे शरीर का बल उसमें लग जाता है। उसी तरह हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच विषयों में दौड़ती है, तो हमें कुछ भी बल मालूम नहीं पड़ता है। जब हम उन विषयों को छोड़कर दृष्टि की दोनों धारों को मिलाकर एक करते हैं, तो जितनी वृत्ति बाहर फैली हुई है, वह सिमट करके एक विन्दु पर आ जाएगी, पूर्ण सिमटाव हो जाएगा, ऊर्ध्वगति हो जाएगी। अन्तःप्रकाश हो जाएगा। इसकी युक्ति संत सद्गुरु बतलाते हैं।
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
‘एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहीअै सोई ।’
दोनों दृष्टि धारों को मिलाकर जो एक करता है तो दमशीलता-इन्द्रियनिग्रह हो जाता है। बाहर की पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँचों कर्मेन्द्रियाँ समाप्त हो जाती हैं, निष्क्रिय हो जाती है। भीतर की चार इन्द्रियाँ रहती हैं। छठी भक्ति में-‘निरत निरंतर सज्जन धर्मा’ कहा गया है। सज्जनों का धर्म क्या है? सज्जन लोग झूठ नहीं बोलते, चोरी नहीं करते, नशीली किसी चीज का सेवन नहीं करते, हिंसा नहीं करते अर्थात् मांस, मछली, अंडा आदि नहीं ग्रहण करते और व्यभिचार नहीं करते। इन पंच पापों से वे विरत रहते हैं। एक ईश्वर पर विश्वास करते हैं। ईश्वर की प्राप्ति अपने अन्दर होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखते हैं। सत्संग, ध्यान और गुरु की सेवा करते हैं। इन पंच विधि कर्मों में रत रहते हैं और वे पंच निषेध कर्मों से विरत रहते हैं। जब मन इस तरह का बन जाएगा, तभी भजन के योग्य होगा।
जहाँ छठी भक्ति ‘दम’ की साधना है, वहीं सातवीं भक्ति ‘शम’ की साधना होती है। इसलिए भगवान ने कहा-
“ सातवँ सम मोहि मय जग देखा ।
मोते संत अधिक करि लेखा ।।”
जबतक कोई शम की साधना नहीं करता, तबतक समता प्राप्त नहीं हो सकती। शब्द की साधना ही शम की साधना है। कबीर साहब ने कहा है-
“ शब्द खोजि मन बस करै, सहज योग है येह ।
सत्त शब्द निज सार है, यह तो झूठी देह ।।”
इन्द्रियनिग्रह की साधना दृष्टियोग है और मनोनिग्रह की साधना शब्दयोग। नादविन्दूपनिषद् में आया है-
“ मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः ।
नियामनसमर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः ।।”
सातवीं भक्ति शम की साधना है-शब्द की साधना है। इसकी साधना सभी संतों ने की। संत कबीर साहब की वाणी है-
“ साधो शब्द साधना कीजै ।
जेहि शब्द से प्रगट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा-
“ शब्द तत्तु बीजं संसार। शब्दु निरालमु अपर अपार ।।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा। नानक भेदु न शब्द अलेषा ।।
शब्दै सुरति भया प्रगासा। सभ को करै शब्द की आसा ।।
पंथी पंखी सिऊँ नित राता। नानक शब्दै शब्दु पछाता ।।
हाट बाट शब्द का खेलु। बिनु शब्दै क्यों होवै मेलु ।।
सारी स्त्रिष्टि शब्द के पाछै। नानक शब्द घटै घटि आछै ।।”
संत दादू दयालजी महाराज कहते हैं-
“ एक शब्द सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोय ।
आगे पीछे तो करे, जो बल हीना होय ।।”
संत चरणदासजी महाराज के वचन में आया है-
“ जब से अनहद घोर सुनि ।
इन्द्रिय थकित गलित मन हूआ आशा सकल भुनी ।।”
मन इन्द्रियों को प्रेरित करता है, तब इन्द्रियाँ विषयों में जाती हैं। जब मन ही गल गया, तब इन्द्रियों को कौन प्रेरित करेगा और विषयों में जाएगा कौन? इसी के लिए दृष्टियोग और शब्द-योग की साधना है। जो कोई इन साधनाओं को करते हैं, वे सबमें एक परमात्मा को देखते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं-
“ सियाराम मय सब जग जानी ।
करऊँ प्रणाम जोड़ि युग पानी ।।”
जब सबमें एक-ही-एक ब्रह्म को देखता है, तो सातवीं भक्ति पूरी हो जाती है। आठवीं और नवमीं भक्ति को परिणामस्वरूप है।
‘आठवँ यथा लाभ संतोषा। सपनहुँ नहिं देखइ परदोषा ।।’
जो सज्जन सात प्रकार की भक्ति में निष्णात हो जायँगे, वे स्वाभाविक ही संतोषी हो जायँगे। उनको जो मिल जायगा, उसी में वे संतुष्ट रहेंगे। वे स्वप्न में भी दूसरे का दोष क्यों देखेंगे?
“ नवम सरल सब सन छल हीना ।
मम भरोस हिय हरस न दीना ।।”
वे सहज ही सरल और सबसे छल-हीन होंगे। एक प्रभु पर भरोसाा करेंगे तथा उनको दूसरे का भरोसा नहीं रहेगा। संत पलटूदासजी महाराज ने कहा-
“ साहब के दास कहाय यारो ,
जगत की आस न कीजिए जी ।
समरथ स्वामी को जब पाया ,
जगत से दीन न भाखिये जी ।।
साहब के घर कौन कमी ,
किस बात से अन्ते आंकिये जी ।
पलटू जो दुःख सुख लाख पड़े ,
वह नाम सुधारस चाखिये जी ।।”
भगवान कहते हैं, यदि नौ प्रकार की भक्ति में एक भी भक्ति जिनमें हो, तो वे हमारे अत्यन्त प्यारे हैं। कहना नहीं होगा, अगर कोई नवो प्रकार की भक्ति कर लें तो वे भगवान के कितने प्यारे होंगे। पश्चात् भगवान शवरीजी से सीताजी के संबंध में जिज्ञासा करते हैं। शवरीजी कहती हैं-यहाँ से थोड़ी दूर पर पंपासर है, वहाँ आप जाइए। वहाँ सुग्रीव मिलेंगे, वे आपको सीताजी के संबंध में सारी बात बताएँगे।
“ कहि कथा सकल विलोकि हरि मुख हृदय पद पंकज धरे ।
तजि योग पावक देह हरिपद लीन भई जहँ नहि फिरै ।।”
शवरीजी वहाँ लकड़ी की चिता नहीं बनाती हैं, बल्कि भगवान के सामने ही योगाग्नि में अपने शरीर को त्यागकर हरिपद में लीन हो जाती हैं, जहाँ से कोई लौटता नहीं।
जिसको हम छोटी जाति की समझते थे, वो पढ़ी-लिखी नहीं, कोई विदुषी नहीं, कुरूपा थी, वह ईश्वर की भक्ति करके ईश्वर को पा लेती है। तब जो अपने को कुलीन, विद्वान, सुन्दर और सर्वगुण सम्पन्न तथा अन्यों से अपने को विशेष समझते हैं, वे भक्ति करेंगे तो क्यों नहीं पाएँगे। परमप्रभु परमात्मा प्राप्त करने के सभी अधिकारी हैं, चाहे वे किसी जाति, किसी पाँति, किसी धर्म, किसी मजहब, किसी सम्प्रदाय के नर या नारी क्यों न हों।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 09-04-2002 ई0 को अखिल भारतीय
संतमत- सत्संग के 91वें वार्षिक महाधिवेशन, कटिहार में अपराह्नकालीन सत्संग के
सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जनवरी, 2003 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
परमात्मा ने अपनी सृष्टि में दो प्रकृति के लोगों का सृजन किया है। एक दैवी सम्पदा के लोग होते हैं और दूसरे आसुरी सम्पदा के। अर्थात् एक देवता के स्वभाववाले होते हैं, दूसरे असुर के स्वभाववाले। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय में इसे स्पष्ट करते हुए इस प्रकार कहा है-
“ तेजः क्षमा श्रुतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता ।
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत ।।”
हे अर्जुन! तेज, क्षमा, धैर्य, अन्तर-बाहर दोनों प्रकार की शुद्धि; कायिक, वाचिक, मानसिक-त्रिशुद्धि एवं किसी में भी शत्रुभाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव-ये सब दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं।
“ दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेक्ष च ।
अज्ञानं चाभिजातस्त पार्थ संपदमासुरीम् ।।”
हे पार्थ! दम्भ, घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध, कठोरता और अज्ञान-ये सब आसुरी-सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं।
पुनः भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि दैवी-सम्पदा मुक्ति के लिए और आसुरी सम्पदा बंधन के लिए मानी गई है। गोस्वामी तुलसीदासजी त्रिविध ईषणा को बंधन का कारण बतलाते हैं; क्योंकि ये तीनों मन को अपवित्र करनेवाले हैं।
“ सुत वित लोक ईषना तीनी ।
केहि कर मति यहि कृत न मलीनी ।।”
(रामचरितमानस)
आसुरी प्रकृति के लोगों का मन मलिन होता है। उनको चाहिए-सुत, वित्त और लोक-प्रतिष्ठा। अर्थात् संतान चाहिए, धन चाहिए और लोक में प्रतिष्ठा भी चाहिए। इसके लिए वे विविध प्रकार के उचित-अनुचित उपायों का अवलंब लेते हैं। झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, व्यभिचार करते हैं, हिंसा करते हैं, अत्याचार, दुराचार, भ्रष्टाचार आदि किया करते हैं, न मालूम कितने प्रकार के अनाचार में वे रत रहते हैं। इसका सुधार कैसे हो? गोस्वामी तुलसीदासजी का वचन है-
“ सठ सुधरहिं सतसंगति पाई ।
पारस परसि कुधातु सोहाई ।।”
सत्संग के द्वारा इनका भी सुधार हो सकता है। रत्नाकर एक लुटेरा था, मार-काट करता था, पर नारद मुनि का सत्संग पाकर उसका हृदय पवित्र हो गया। साधना करके उसने परमात्म-साक्षात्कार किया और आदिकवि वाल्मीकि के नाम से जगत प्रसिद्ध हुआ।
शांति और मुक्ति की राह पर चलने के लिए, परमात्म-दर्शन के लिए पवित्रता की, सफाई की बड़ी आवश्यकता है। तन की सफाई चाहिए, मन की सफाई चाहिए। और आत्मा की भी सफाई चाहिए। तन की सफाई तो हम साबुन-पानी से कर लेते हैं, पर मन की सफाई के लिए क्या करें? साबुन का एक ढेला खाकर एक गिलास पानी पी लें? नहीं। मन की सफाई सत्संग से होती है और आत्मा की सफाई ध्यान से।
हमलोग कई वर्षों से सत्संग में आते हैं। सत्संग सुनते और सुनाते हैं, उपदेश को सुनकर मन में उठता है कि अकर्तव्य कर्म नहीं करना चाहिए, लेकिन अवसर आने पर हम उसी काम में प्रवृत्त होने से चूकते नहीं। यदि सत्संग सुननेवाले और सुनानेवाले भी परिणाम जानते हुए भी अशुभ कर्मों को करें तो उनका सुधार और उद्धार हो, तो कैसे? संत कबीर साहब ने कहा-
‘सत्संगति सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ।’
प्रवचन करने का मतलब है कि जो उपदेश हम करें, उसके पहले हम स्वयं उसका आचरण करें। अगर हम आचरण नहीं करते हैं, तो हम प्रवचन करने के अधिकारी नहीं हैं। जिस तरह का हमारा प्रवचन है, उस तरह का हमारा आचरण भी होना चाहिए। अगर प्रवचन के अनुकूल आचरण नहीं है, तो उस प्रवचन का कुछ प्रभाव नहीं पड़ता। अगर किसी पर कुछ प्रभाव पड़ भी जाए, तो उससे अपना कल्याण नहीं होगा, बल्कि अकल्याण ही होगा।
ध्यान का समय है, पर जो साधु हैं, महात्मा हैं, वे भी गप-शप में समय बिताते हैं। सत्संग का समय है, पर इधर- उधर घूमते हैं। जब साधु होकर हम अपने मन को नियंत्रित नहीं रख सकते, समय की पाबन्दी नहीं रख सकते, तो हमें दूसरे को उपदेश करने का क्या अधिकार है? हम दूसरों से प्रतिष्ठा चाहते हैं, सम्मान चाहते हैं, यदि सम्मान मिल गया, तो मन प्रसन्न हो गया और नहीं मिला, तो मन खिन्न हो गया और हृदय में गिरह बैठ गई कि अमुक स्थान पर हमारा समुचित सम्मान नहीं हुआ। हम जिससे कुछ आकांक्षा रखते हैं, उसने यदि वह पूरा कर दिया, तो मन खुश हो गया, नहीं तो राग-द्वेष उत्पन्न हो गया। यदि हमारा राग-द्वेष निःशेष नहीं हुआ, तो संत तुलसी साहब ने कहा है-‘बहु सत्संग किया न किया’, ऐसे व्यक्ति का सत्संग करना और नहीं करना बराबर है। हम साधु-संन्यासी भी यदि गृहस्थों की तरह जीवन बितावें, उसी तरह का व्यवहार रखें, हमारा आचार-विचार भी उसी तरह का हो, तो गृहस्थ और संन्यासी में क्या अंतर रहा? इस दृष्टि से तो कितने गृहस्थ हमसे कई गुणा अच्छे हैं। वे अपने समयानुसार परिश्रम करके अर्थोपार्जन करते हैं। उन्हें परिवार चलाना है, बाल-बच्चों को खिलाना-पढ़ाना है, बच्चों का विवाह करना है आदि। इन सब कार्यों के लिए बेचारे पसीने की कमाई करते हैं। उन सब कामों से दो पैसे बचाकर साधु-संन्यासियों की भी सेवा करते हैं। दूसरी ओर हम हैं, जो साधु वेश में आकर भी अपना समय ध्यान में, सत्संग में नहीं लगाकर इधर-उधर लगावें, तो हम उनसे कितने अच्छे हैं, सो हम स्वयं समझें-विचारें। गृहस्थ तो बाल-बच्चों के लिए हाय-हाय करते हैं, पर साधु को न स्त्री है, न बेटा ही और न कुटुम्ब-परिवार ही चलाना है, तो हम किसके लिए पैसे बटोरने के पीछे दिन-रात हाय-हाय करते-फिरते हैं? उस पर भी कितना भी संग्रह हो जाए, संतोष नहीं होता। संत सुन्दरदासजी की वाणी है-
“ जौं दस बीस पचास भये सत,
होय हजार तो लाख मँगैगी ।
कोटि अरब खरब असंख्य,
धरापति होने की चाह जगैगी ।।
पृथ्वी पातालहु राज कराैं,
तृष्णा अधिकी अति आग लगैगी ।
सुन्दर एक संतोष बिना सठ,
तेरी तो आग कभी न बुझैगी ।।”
“ फिरै चहु दिशि जगत में, अरु वक्तृता देता फिरै ।
ध्यान बिनु नहीं शांति आवै, लोगहू कितनहु घिरै ।।”
-महर्षि मेँहीँ-पदावली
कबीर साहब ने माया की प्रबलता के संबंध में बड़ा अच्छा कहा है-
“ अवधू माया तजी न जाई ।
घर को छोड़ि के मठिया छाये, नारी तजि के चेरी ।
बेटा तजि के चेला कीन्हा, तहु मति माया घेरी ।।”
पहले तो हमने अपना घर-वार, परिवार, रोजगार; सब छोड़ दिया, लेकिन अब हम फिर दूसरा घर बनाने में लगे हैं। पत्नी को तो छोड़ दिया, लेकिन चेली को नहीं छोड़ सकते। घर में झगड़ा हो गया, तो बेटे को कह दिया तू-तू और मैं-मैं। बेटे को छोड़ सकते हैं, पर चेला को नहीं छोड़ सकते। चाहे वह चेला जैसा भी अच्छा या बुरा क्यों न करे। कहीं-कहीं तो चेला ही गुरु बन जाता है। जैसा वह पढ़ाता है, वैसा ही गुरु पढ़ता है।
“ गुरु शिष्य अंध बधिर कर लेखा ।
एक न सुनइ एक नहीं देखा ।।”
वाली बात चरितार्थ हो रही है। भला कहिए, ऐसा भी व्यक्ति कभी गुरु हो सकता है?
परमपूज्य गुरुदेव ने हमको भजन-भेद बताने का अधिकार दे दिया, इसलिए हम गुरु हो गए, ऐसी बात नहीं। उन्होंने कठोर तपस्या करके संतमत-सत्संग- रूपी फुलवाड़ी लगायी और उनकी सेवा एवं सुरक्षा-हेतु हमलोगों को माली के रूप में नियुक्त किया। मालिक तो वे स्वयं थे और अब भी हैं। आज यदि कोई माली अपने को मालिक समझने लगे, तो यह सर्वथा अनुचित होगा। उनसे हमको आदेश मिला कि संतमत की दीक्षा बता दो, इसलिए हम बताते हैं; लेकिन यदि हम अपने को गुरु समझने लगें, तो हमारी भारी भूल होगी। आज हम चाहते हैं कि उन गुरुदेव की तरह हमारी भी पूजा-प्रतिष्ठा हो। यह भूख क्यों? यदि पूजा और प्रतिष्ठा की भूख है, तो हम अपने को उस योग्य बनावें। अक्षरशः सत्य तो यह है कि जो उस योग्य होंगे, उनकी वैसी इच्छा होगी ही नहीं।
सूर्य अपनी पूजा और प्रशंसा नहीं चाहता और न उसके सामने जाकर कोई उसकी प्रशंसा ही करता है, फिर भी वह चारो ओर अपनी किरणों से सबको प्रकाशित करता है, जीवन देता है। फलतः सब लोग उसकी प्रशंसा-पूजा करते हैं। संत सद्गुरु ऐसे ही होते हैं। अगर हम दूसरों से अपना आदर-सत्कार चाहते हैं, पूजा-पाठ कराना चाहते हैं, दक्षिणा चाहते हैं, तो हम गुरु बननेयोग्य कहाँ हैं। हममें गुरु की योग्यता होनी चाहिए। गुरु कौन? गोस्वामीजी ने कहा है-
“ ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास ।
निर्गुण कहै जो सगुण बिनु, सो गुरु तुलसीदास ।।”
जहाँ ज्ञान है, वहाँ मान कहाँ और जहाँ मन में मान के लिए स्थान है, वहाँ ज्ञान कहाँ। अगर हमारी योग्यता नहीं है, फिर भी कोई हमारी पूजा करता है, तो हम पाप बटोरते हैं। वह बेचारा तो नहीं जानता है कि हमारी योग्यता क्या है; क्योंंकि उसके पास हमको मापने का कोई मीटर है नहीं, वह अन्यों की देखा-देखी हमारी पूजा करता है या अपनी श्रद्धा-व्यक्त करता है। हम तो जानते हैं कि हमारी योग्यता कैसी है, कितनी है? झूठ बोलकर, छल-कपट करके, येन-केन- प्रकारेण अपनी चतुराई लगाकर हम दूसरे को ठगते हैं और इसमें जब हमें मनचाही उपलब्धि मिल जाती है, तो हम अपने को चतुर समझने लगते हैं। ऐसे व्यक्ति के लिए संत कबीर साहब कहते हैं-‘कोई चतुर न पावे पार नगरिया बावरी।’ इसलिए-
“ मिथ्या कपट तजो चतुराई, तजो जाति अभिमान रे ।
दया दीनता समता धारो, हो जीवन मृतक समान रे ।।”
हम समझते हैं कि अपनी चतुराई से दूसरे को ठग रहे हैं, पर वास्तव में हम दूसरे को नहीं, अपने को ठग रहे हैं। हम यह भी नहीं समझते हैं कि हम स्वयं ठगे जा रहे हैं, लेकिन फिर भी हम ऐसा करते हैं। अपनी इस अज्ञानता को हम समझें।
चाहे हम अपने को ठगें या दूसरे को, इसका परिणाम अच्छा नहीं है। कुकर्म के कुपरिणाम को जानते हुए भी हम उसको करने से बाज नहीं आते, उससे डरते नहीं। क्यों? इसलिए कि हम अंधकार के कुएँ में पड़े हुए हैं। आसुरी प्रकृति के लोगों को अंधकार में रहना ही भाता है। जैसे उल्लू पक्षी को घनी अंधियारी प्यारी लगती है, पर जो दैवी प्रकृति के लोग हैं, वे सोचने लग जाते हैं कि हम इस अंधकार से कैसे निकलें? इसी के लिए आज रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड से पाठ हुआ है। इसमें बताया गया है कि अन्तस्साधना के साधक को अन्तःप्रकाश मिलने पर किनको दुःख और किनको सुख होता है। इस प्रसंग को वे एक रूपक का रूप देकर प्रस्तुत करते हैं। यथा-
“ जबतें राम प्रताप खगेसा ।
उदित भयेउ अति प्रबल दिनेसा ।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहु लोका ।
बहुतन सुख बहुतन मन सोका ।।”
जब कोई सद्गुरु से सद्युक्ति प्राप्त कर अन्तस्साधना करते हैं, तो उन्हें अपने अन्दर में प्रकाश की अनुभूति होती है। परिणाम क्या होता है? जैसे बाहर में हम दीपक जलाते हैं, तो उसमें कीड़े-फतिंगे आकर गिरते हैं और जल-मरकर समाप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार जब साधक अपने अन्दर प्रकाश देखता है, तो उसके अंदर के काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, राग-द्वेष, मान-अपमान आदि विकार रूप कीड़े उसमें जल-भुनकर समाप्त हो जाते हैं। अब हम जो अपने को बहुत बड़े संत और महात्मा समझते हैं, अपने अंदर झाँककर देखें कि हमारी दुष्प्रवृत्तियाँ कितनी मात्र में जली हैं? इसको मापने का मीटर जन-साधारण के पास नहीं है, बल्कि अपने ही पास है। हम स्वयं समझते हैं कि हम कहाँ तक पहुँचे हैं, लेकिन कभी-कभी कुछ लोग जिन्होंने वस्तुतः सत्संग किया है, वे हमारे आचार-व्यवहार को देखकर आँक लेते हैं कि ये कैसे महात्मा हैं। गोस्वामीजी ने कहा-जब राम का प्रबल प्रताप रूप सूर्य का अन्दर में प्रकाश हुआ, तो किसी को सुख हुआ और किसी को दुःख। सुख किसको हुआ और दुःख किसको हुआ? इस विषय में गोस्वामी तुलसीदासजी ने आन्तरिक सूर्य से बाह्याकाश के सूर्य की उपमा दी है। अथवा यों कहिए तुलनात्मक विवेचन किया है, मेल मिलाया है। यथा-
“ जिन्हहिं सोक से कहउँ बखानी ।
प्रथम अविद्या निसा नसानी ।।”
जब बाहर में सूर्योदय होता है, तो रात का अंत हो जाता है, उसी तरह जिसके अन्दर में सूर्य उदय हो जाता है, उसकी अज्ञानता-रूपी रात समाप्त हो जाती है। कहने का तात्पर्य यह कि अज्ञानता ही नहीं रही, तो अज्ञानता जनित जो कर्म होते हैं, उस प्रकार के साधक से वे नहीं होंगे। साधक ज्ञान में प्रतिष्ठित हो जाएगा, तो उसके सभी कर्म ज्ञानमय होंगे।
“ अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने ।
काम क्रोध कैरव सकुचाने ।।”
उल्लू चिड़िया सूर्य के प्रकाश में देख नहीं सकती है। इसलिए उसे सूर्य नहीं भाता है। सूर्योदय होते ही वह छिप जाती है। उसी तरह अंदर में जब सूर्योदय होता है, तो पापरूपी उल्लू छिप जाते हैं। कुमुद एक प्रकार का फूल होता है, जो रात में खिलता है और सूर्योदय होते ही सिकुड़ जाता है। उसी तरह अन्तःप्रकाश होने पर कुमुद फूल-काम और क्रोध सिकुड़ जाते हैं। इनकी प्रबलता नहीं रहती है।
“ विविध कर्म गुण काल स्वभाउ ।
ये चकोर सुख लहइ न काउ ।।”
चकोर पक्षी को चन्द्रमा प्रिय होता है, सूर्य नहीं। इसलिए उसे रात अच्छी लगती है, दिन अच्छा नहीं लगता। उसी प्रकार हमारे विविध कर्म, गुण और काल के स्वभाव जो हमें संसार के जाल में फँसाते हैं, ये चकोर रूप हैं। अंतःप्रकाश मिल जाने पर उन्हें दुःख हो जाता है।
“ मत्सर मान मोह मद चोरा ।
इनकर हुनर न कवनिउ ओरा ।।”
मत्सर का अर्थ है-डाह, ईर्ष्या। हम दूसरे की शुभ उन्नति देखना नहीं चाहते हैं। सोचते हैं कि हम वैसे नहीं हैं, वह वैसा कैसे बन गया? जैसे हम धनी नहीं हैं, लेकिन जो धनी हैं, उनके लिए सोचते हैं कि वे धनी कैसे हो गए? उनको देखकर मन में जलन होती है, इस जलन की निवृत्ति के लिए संतजन कहते हैं-तुम उन धनी व्यक्ति के पास जाओ, उनसे सीखो-समझो। जैसा वे विचार दें, तद्नुकूल तुम भी सद्प्रयास करो, तो तुम भी धनी बन जाओगे। ईर्ष्या होती है कि डॉक्टर नहीं बन सके, अमुक व्यक्ति कैसे बन गया? अरे भाई! तुम उनके निकट जाकर उनकी राय लो, विचार लो और जैसा वे कहें, वैसा करो, तो तुम भी डॉक्टर बन जाओगे। इसी प्रकार यदि तुम संत-महात्मा बनना चाहते हो, तो संत- महात्माओं के पास जाओ। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्- गीता में कहा है-
“ तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।”
-अध्याय 4 ।33
तत्त्व को जाननेवाले ज्ञानी पुरुषों से भली प्रकार दण्डवत् प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किए हुए प्रश्न द्वारा उस ज्ञान को जान, वे मर्म को जाननेवाले ज्ञानीजन तुझे उस ज्ञान का उपेदश करेंगे। स्वयं तो परिश्रम करेंगे नहीं कि उस पद को, प्रतिष्ठा को पाएँ; लेकिन दूसरे को देखकर अंदर-ही-अंदर जलते रहते हैं। अंदर में जब ईर्ष्या की आग लगती है, तो पहले स्वयं जलते हैं, फिर दूसरे को जलाते हैं। जिनके अन्दर ब्रह्म-प्रकाश होगा, उनके अन्दर निवास करनेवाले दुर्गुण यानी मत्सर, मान, मोह, मद आदि चोरों की कलाबाजी नहीं चलेगी। अर्थात् उनमें लोगों से मान-सम्मान पाने की इच्छा नहीं रहेगी। लोग भले ही उनका सम्मान करें, लेकिन वे अमानी बने रहते हैं। जागतिक माया-मोह, अहंकार आदि उनमें नहीं रहते।
“ धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना ।
ये पंकज विकसे विधि नाना ।।”
बाहर में सूर्योदय होने पर कमल खिल जाता है। उसी तरह जब अंदर में सूर्योदय होता है, तो धर्म रूप तालाब में ज्ञान-विज्ञान-रूपी कमल खिल जाते हैं। यानी वे एक अच्छे धर्मात्मा बन जाते हैं। उनका ज्ञान बढ़ जाता है, उनको विज्ञान की प्राप्ति हो जाती है।
“ सुख संतोष विराग विवेका ।
विगत सोक ये कोक अनेका ।।”
कोक कहते हैं-चकवा पक्षी को। चकवा- चकवी दोनों पक्षी रात में एक साथ नहीं रहते, जब दिन होता है, तो वे दोनों एक दूसरे से मिलते हैं। इसलिए उन्हें रात प्यारी नहीं होती, दिन प्यारा होता है। कहने का तात्पर्य यह कि अंदर में सूर्योदय होने पर सुख, संतोष, वैराग्य और विवेक-रूप अनेक चकवा पक्षी प्रसन्न हो जाते हैं। यानी इनकी वृद्धि हो जाती है।
कितने रामायण पाठ करनेवालों के मन में होता है कि यह राम प्रताप रूप सूर्य उस समय उगा था, जब त्रेतायुग में अयोध्या में भगवान श्रीराम अवतरित हुए थे। गोस्वामी तुलसीदासजी उनके भ्रम को भंग करने के लिए कहते हैं-
“ यह प्रताप रवि जाके, उर जब करइ प्रकास ।
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे, कहे ते पावहिं नास ।।”
वहाँ त्रेता, द्वापर, कलियुग या सतयुग की कोई बात नहीं है, बल्कि जब जिसके हृदय में यह सूर्य उदय हो जाएगा, चाहे वह कोई भी युग क्यों न हो, तो ‘पिछले बाढ़हिं’-सुख, संतोष, विराग, विवेक, ज्ञान-विज्ञानादि; ये सब सद्गुण बढ़ेंगे और ‘प्रथम जे कहे’-अविद्या, पाप, काम, क्रोधादि, दुर्गुण; ये सब विनष्ट होंगे।
वास्तविक बात तो यह है कि सदाचार समन्वित होकर हम जबतक अच्छी तरह ध्यान-भजन नहीं करेंगे, तबतक हमारे अन्दर से काम-क्रोध, राग-द्वेष आदि विकार मिटनेवाले नहीं हैं, चाहे कितने ही शास्त्रें को हम कंठस्थ कर लें, चाहे कितने ही बड़े वक्ता बन जाएँ। साधना करके जब हम अंधकार से निकलकर प्रकाश में प्रतिष्ठित होंगे, तब हमें सार-असार का, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का यथार्थ ज्ञान हो जाएगा। तभी हमारे अन्दर सुख, संतोष, विराग, विवेक, ज्ञान, विज्ञान आदि निवास करेंगे।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में सप्ताहिक सत्संग के अवसर पर दिनांक 08-09-2002 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, नवम्बर 2002 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
किन्हीं की जन्मतिथि पर जो उत्सव मनाया जाता है उसको जयंती कहते हैं। विविध गुणों से सम्पन्न व्यक्ति विशेष की जयंती मनायी जाती है। कोई संत महात्मा होते हैं, उनकी भी जयंती मनायी जाती है; लेकिन जो न समाजसेवी हों, न देशसेवी हों, न बलवान हों, न गुणवान हों, न श्रीमान् हों, न राजा हों, न महाराजा हों, उनकी जयंती कैसी? मैं महासभा के महानुभावों से आग्रह करुँगा कि आगे से मेरे नाम पर यह जयंती नहीं मनावें।
‘जयन्ती’ शब्द स्त्रीलिंग है और ‘जयंत’ शब्द पुलि्ंलग है। जयंती का शाब्दिक अर्थ होता है ‘विजयनी’ और जयंत का ‘विजय’। प्राचीन काल में एक राजा जब किसी दूसरे राजा पर चढ़ाई करके विजय प्राप्त करता था तो उस समय जो उल्लास मनाया जाता था उसमें दुन्दुंभि बजती और नगाड़े पर चोट दी जाती थी। वह जयंती होती थी।
एक समय का प्रसंग है। एक ब्राह्मण देवता महाराज युधिष्ठिर के पास कुछ याचना करने के लिए आये। महाराज युधिष्ठिर कुछ आवश्यक कार्य में व्यस्त थे। उन्होंने ब्राह्मण देवता से कहा-‘आप इसी समय कल पधारिए, आप जो मागेंगे, वह पूरा कर दूँगा।’ ब्राह्मण देवता निराश होकर उदास चेहरा लिए लौट रहे थे। भीम उधर से आ रहे थे। उन्होंने सोचा कि आजतक महाराज के पास से कोई उदास नहीं लौटा था, ये ब्राह्मण देवता उदास हैं, क्या बात है! उन्होंने उनसे पूछा-‘आपका चेहरा इतना उदास क्यों है?’ ब्राह्मण बोले-‘मैं महाराज युधिष्ठिर के पास कुछ याचना करने के लिए गया था; लेकिन महाराज युधिष्ठिर ने कल आने को कहा है। इसीलिए निराशा है। भीम ने उनसे कहा-‘अच्छा, आप कुछ देर ठहरिये।’
राजाओं के यहाँ नौबतखाने होते हैं, जिनपर नगाड़े रखे रहते हैं। भीम ने नौबतखाने पर जाकर नगाड़े पर चोट देना आरम्भ किया। दूर-दूर तक आवाज फैल गई। युधिष्ठिर महाराज ने आश्चर्य से पूछा-‘कोई विजय हो, कोई उल्लास हो, तब नगाड़ा बजाया जाता है। आज नगाड़ा क्यों बजाया जा रहा है?’ लोगों ने कहा-‘भीमसेन नगाड़ा बजा रहे हैं।’ महाराज युधिष्ठिर ने कहा-‘उन्हें बुलाओ!’ भीम को बुलाया गया। युधिष्ठिरजी महाराज ने उनसे पूछा-‘नगाड़े पर क्यों चोट दे रहे हो? आज कौन-सी विजय की बात है?’ भीमसेन ने कहा- ‘आज मुझे इतनी प्रसन्नता हुई है, जितनी प्रसन्नता कभी नहीं हुई थी। भैया! सभी काल के गाल में चले जा रहे हैंं और आपने काल पर विजय प्राप्त कर ली है। इससे बढ़कर और प्रसन्नता की बात क्या होगी! युधिष्ठिर महाराज ने पूछा- ‘मैंने काल पर विजय कैसे प्राप्त कर ली है?’ भीमसेन बोले-‘आपने ब्राह्मण देवता को कल आकर दान लेने के लिए कहा है। व्यक्ति को अपने एक श्वास पर अधिकार नहीं है और आपने तो कम-से-कम 24 घंटे के लिए काल पर विजय प्राप्त कर ही ली है।’ महाराज युधिष्ठिर ने शर्मिन्दा होते हुए कहा-‘अच्छा, बुलाओ ब्राह्मण देवता को।’ उन्हें बुलाकर उसी समय उनकी इच्छा पूरी कर दी गई।
तात्पर्य यह कि जब कोई विजय प्राप्त करते हैं, तब उत्सव मनाया जाता है, जयंती मनायी जाती है। पर संत लोग किसी पर विजय तो प्राप्त नहीं करते हैं, फिर उनकी जयंती क्यों मनायी जाती है? हमारी पाँच कर्मेंन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। इन दसो इन्द्रियों का राजा मन है-‘इन्द्रियाणां मनो नाथो।’ इस चंचल मन को संत लोग जीते हुए होते हैं, इसीलिए संतों की जयंती मनायी जाती है। यही मन है जो मनुष्य को बंधन में डालता है और यही मन है जो मुक्ति भी दिलाता है। ‘मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयोः।’ इसलिए मन जीता, तो सब जीत लिया।
अभी हमारे गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) व्यक्त रूप में हमलोगों के बीच नहीं हैं; लेकिन अव्यक्त रूप में वे विद्यमान हैं। वे महान थे, उनका ज्ञान भी महान था। उनके द्वारा प्रचारित संतमत का ज्ञान सबके लिए समान है। संतमत बतलाता है कि संसार में कैसा हाहाकार मचा हुआ है! अत्याचार, बलात्कार, लूटपाट और छिनछोर के साथ चोरी-छिपे न जाने कितने दुष्कर्म किये जाते हैं। लोग बम-पिस्तौल लेकर एक दूसरे की जान लेने को तैयार रहते हैं। जान लेना तो बाघ, सिंह आदि हिंस्र जानवरों का स्वभाव है; लेकिन आज मानव हिंसक पशु की तरह व्यवहार करने लगा है। संतमत बतलाता है कि मानव शरीर मिला है तो मानव का आचरण भी सीखो। मारकाट- लूटपाट तो दानव के काम हैं। इसमें मानवता कहाँ! आज भौतिक विज्ञान का विकास बहुत हुआ है और हो ही रहा है। भौतिक विज्ञान के विकास में हम पक्षी की तरह आकाश में उड़ना सीख गये हैं; मछली की तरह पानी में चलना सीख गये हैं; लेकिन मानव की तरह चलने के लिए नहीं सीख पाए हैं। पहले जमीन पर मानव बनकर चलने के लिए सीखें, तभी सच्चा विकास होगा। भारत के अन्तिम मुगल बादशाह जफर हुए। इन्होंने कहा-
“ जफर उसको न आदमी कहिएगा ,
जिसे ऐश में यादे खुदा नहीं ।
और तैस में खौफे खुदा नहीं ।।”
एक बार देव, दानव और मानव, तीनों ब्रह्माजी के पास पहुँचे। ब्रह्माजी ने उनके आने का कारण पूछा। तीनों बोले- “ हम आपसे शिक्षा ग्रहण करने के लिए आये हैं।” ब्रह्माजी ने तीनों को बारी-बारी से बुलाकर कहा कि तुम्हें ‘द’ अक्षर की शिक्षा दी जाती है। जब देव वहाँ से चलने लगे तो उन्होंने पूछा- “ मैंने जो ‘द’ अक्षर बतलाया, इसका मतलब तुमने क्या समझा?” उन्होंने कहा- “ हमलोग देव हैं, विषय के अभिलाषी हैं। इसलिए आपने ‘द’ अक्षर का उपदेश देकर कहा है कि इन्द्रियों का दमन करो।” फिर ब्रह्माजी ने दानवों से पूछा- “ तुमने ‘द’ अक्षर का क्या अर्थ समझा?” दानव ने कहा- “ हम दानव हैं। हमारा काम है अत्याचार, लूटपाट, मारकाट आदि करना। हम दिन दहाड़े हिंसा करते हैं। आपने ‘द’ अक्षर का उपदेश देकर जीवों पर दया करने कहा है।” इसके बाद ब्रह्माजी ने मानव को बुलाकर पूछा- “ तुमने ‘द’ अक्षर से क्या समझा?” मानव ने उत्तर दिया- “ हमलोग येन-केन-प्रकारेण धन संग्रह करते हैं। ‘द’ अक्षर का उपदेश देकर आपने हमें दान करने कहा है।” ब्रह्माजी तीनों के उत्तर से संतुष्ट हो गए।
यह शरीर रथ के समान है। दसो इन्द्रियाँ घोड़े हैं। इन इन्द्रियों का दमन करो। दसो इन्द्रियाँ जबतक बहिर्मुखी हैं, तब तक तुम दशानन रावण बने हुए हो, राक्षस हो। जब तुम दसो इन्द्रियों में फैली चेतन धारों को साधना द्वारा समेटकर केन्द्र में केन्द्रित कर लोगे तब तुम दशरथ कहलाओगे। और जब तुम दशरथ बन जाओगे तो तुम्हारे घर राम का जन्म होना स्वाभाविक है। जब राम राज्य होगा, तब कल्याण भी होगा। ब्रह्माजी ने जब दानवों को दया करने का उपदेश दिया, तो क्या यह उपदेश मानवों के लिए नहीं है? आज का मानव मात्र संग्रह करना जानता है, जबकि सभी धन धरा पर धरे रह जानेवाले हैं। इसलिए दान करो। गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है- ‘सो धन धन्य प्रथम गति जाकी।’ पसीने की कमाई से जो दान दिया जाता है, उससे विशेष पुण्य होता है।
हमलोगों का जीवन सिक्के के समान है। सिक्के का एक भाग देखा जाता है, पर दूसरा भाग ओझल रहता है। यदि सिक्के का एक भाग खरा होता है, तो उससे हम सिक्के को खरा नहीं कहते हैं, जबतक कि उसका दूसरा भाग भी खरा न हो। सिक्के को उलटकर जब देख लेते हैं कि दोनों भाग खरे हैं, तब उसको मानते हैं। उसी तरह हमलोगों के जीवन के भी दो भाग हैं। व्यक्त रूप में हम शरीर के साथ का जीवन देखते हैं। दूसरा जीवन वह है, जब हमारा शरीर नहीं रहेगा, सिर्फ हम रहेंगे। इस शरीर के साथ के जीवन के लिए हम बहुत मेहनत करते हैं, सुख अर्जित करते हैं; लेकिन विचारणीय प्रश्न यह है कि शरीर के बाद के लम्बे जीवन के लिए हम क्या कर रहे हैं? यदि हम बाद के जीवन के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं, तो हमारा जीवन खरा नहीं, अधूरा है। हम वहाँ खुशहाल कैसे रहेंगे? जिस तरह हम इस जीवन के लिए कुछ-न-कुछ कमाई करते हैं, वाणिज्य-व्यापार करते हैं, नौकरी करते हैं, ठीक उसी प्रकार अगले जीवन के लिए कुछ-न-कुछ ध्यान-भजन अवश्य करना चाहिए, ताकि लौकिक और पारलौकिक दोनों ही जीवन सुखमय हों। परलोक में भगवद्भजन ही पाथेय है; लेकिन इसकी शिक्षा-दीक्षा कौन देगा? संत कबीर साहब का वचन है-
“ बिन सतगुरु नर रहत भुलाना ,
खोजत फिरत राह नहिं जाना ।”
बिना गुरु की शरण गए मनुष्य प्रभु-प्राप्ति की राह पाने के लिए भटकता है, कल्याण की खोज में परेशान होता है; लेकिन समाधान नहीं मिलता है। परेशान कौन होता है? परे-से-परे (परमात्मा) को भूलकर जो अपनी ही शान में रहता है, वही परेशान रहता है। सुख-शांति, कल्याण कहाँ है? जो मिल रहा है, वह सब तो क्षणिक सुख-शांति है। अगर हम जीवन के सुख और दुःख को तराजू के दोनों पलड़ों पर तौलें तो देखेंगे कि दुःख का पलड़ा ही ज्यादा भारी है। आखिर सुख मिलेगा कैसे? संसार में आपको खूब दौलत हो जाये, खूब प्रतिष्ठा मिले, खूब गुणवती स्त्री मिले तो भी आपका जीवन दुःखमय ही है। सुख-शांति पाने का यत्न हमारे गुरुदेव बतलाते हुए कहते हैं-जब तुम जाग्रत् अवस्था में रहते हो तो चौदह इन्द्रियों के साथ रहते हो, विभिन्न चिन्ताएँ तुम्हारे दिमाग में रहती हैं। जाग्रत् से स्वप्न में जाते हो, तो वहाँ मात्र चार इन्द्रियाँ रहती हैं। उस समय बहुत कम चिन्ता रह जाती है; लेकिन स्वप्न से जब सुषुप्ति में जाते हो, यानी गहरी नींद में जाते तो मात्र एक इन्द्रिय चित्त ही रह जाती है। वहाँ जाकर स्वप्न में जो सुख-दुःख था, वह सब भूल जाते हो। आराम से सोए रहते हो और जब नींद टूटती है तब कहते हो कि आज बहुत आराम से सोए। अर्थात् इन्द्रियों का संग छूटने से शांति मिलती है, चैन मिलता है, सुख मिलता है। सुषुप्ति में तो एक इन्द्रिय रह जाती है; लेकिन संतजन कहते हैं कि जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे चौथी (तुरीय) अवस्था में जाओगे तो सारी इन्द्रियाँ छूट जाएँगी। तुलसीदासजी कहते हैं-
“ तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त ।
मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनंत ।।”
प्रभु सर्वव्यापक होने के कारण तुम्हारे अन्दर भी हैं और तुम भी इसी शरीर के अन्दर हो। इस सत्संग-प्रशाल के अन्दर यदि तुम किसी से मिलना चाहो तो यहाँ से बाहर जाने का क्या काम? अन्दर-ही-अन्दर चलकर मिल सकते हो। उसी तरह परमात्मा हमारे शरीर के अन्दर हैं, हम भी शरीर के अन्दर हैं। फिर बाहर भटकने से क्या लाभ! सद्गुरु से युक्ति जानकर भीतर- ही-भीतर चलो और परमात्मा से मिलकर दुःखों से छूट जाओ। मुण्डकोपनिषद् के अनुसार हम कह सकते हैं-
“ एक वृक्ष पर दो पक्षी अति सख्य भाव से थे रहते ।
खाते एक फलों को थे और एक बिना खाये हँसते ।।”
शरीररूपी वृक्ष पर जीवात्मा और परमात्मारूपी दो पक्षी रहते हैं। परमात्मा द्रष्टा है, वह हँसता है। जीवात्मा फल भोगता है और सुखी-दुःखी होता है। इससे बचने के लिए मन को भोगों से हटाना होगा, मन को निर्मल करना होगा। सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी बतलाते हैं-
“ गुरु जाप मानस ध्यान मानस कीजिये दृढ़ साधकर । इनका प्रथम अभ्यास कर श्रुत शुद्ध करना चाहिए ।।”
तथा-
“ प्रथमहि धारो गुरु को ध्यान ।
हो श्रुति निर्मल हो विन्दु ज्ञान ।।”
गुरुनाम का जप और गुरुरूप का ध्यान दृढ़तापूर्वक करो। इससे सुरत की पवित्रता और विन्दु ध्यान की योग्यता प्राप्त होगी। फिर विन्दु ध्यान की परिपक्वता से अन्धकार से प्रकाश में और स्थूल से सूक्ष्म में जाओगे। आत्मा के ऊपर अन्धकार, प्रकाश और शब्द के त्रयावरण पड़े हैं। इसीलिए गुरुदेव ने कहा-
“ घट तम प्रकाश व शब्द पट त्रय जीव पर हैं छा रहे ।
कर दृष्टि अरु धवनि योग साधान ये हटाना चाहिए ।।” दृष्टि-योग और नादानुसंधान की साधना करो, इससे अन्धकार, प्रकाश और शब्द के आवरण हट जाएँगे। तुम कौन हो- इसका ज्ञान हो जाएगा। जब तुमको अपना ज्ञान हो जाएगा तो परमात्मा का भी ज्ञान हो जाएगा। इसलिए अपने अन्दर-अन्दर चलो, बाहर नहीं।
इसके लिए घरवार, रोजगार, परिवार छोड़ने की आवश्यकता नहीं। अपने घर-परिवार में रहकर सच्ची कमाई करते हुए साधना करके परमात्मा को प्राप्त कर सकते हो। धनी-गरीब, विद्वान-अविद्वान, नर-नारी, बच्चे-बूढ़े सभी इस साधना को कर सकते हैं।
“ जितने मनुष तन धारि हैं प्रभु भक्ति कर सकते सभी ।
अन्तर व बाहर भक्ति कर घट-पट हटाना चाहिए ।।”
एक ईश्वर पर विश्वास करो, उसकी प्राप्ति अपने अन्दर में होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखो, गुरु की सेवा करो, सत्संग और ध्यान करो। जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करो। अपनी कमाई में से कुछ शुभ कर्मों में भी लगाओ। इससे तुम्हारा यह जीवन भी कल्याणमय होगा और परलोक भी कल्याणमय होगा। गुरुदेव के उपदेशों का सार थोड़े शब्दों में कह दिया। सबको धन्यवाद देते हुए मैं अपने प्रवचन में विराम देता हूँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर के सत्संग प्रशाल में इनकी
82वीं जयंती के शुभ अवसर पर 20-12-2002 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अक्टूबर 2007 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोग वासना के संदर्भ में सुन रहे थे। वासना किसको कहते हैं? एक होती है इच्छा, दूसरी होती है वासना। इच्छा बहुत तरह की होती है। आप अपने बच्चे को साथ लेकर बाजार जाते हैं, बाजार में रंग-बिरंग की विविध चीजें रहती हैं, उन्हें देखकर बच्चा कहता है-हमको यह दो, वह दो; यह चाहिए, वह चाहिए-यही इच्छा है और जिसमें मन बस जाए, उसको वासना कहते हैं। अर्थात् मन में जो बात बस गई है, चाहना बस गई है, इच्छा बस गई है, वह है वासना। यदि हमलोग तिल को गुलाब के फूल में रख दें, तो गुलाब-फूल का वास (सुगन्धि) उसमें बस जाएगी और उस तिल के पेरने से तेल में भी गुलाब की सुगन्धि मालूम होगी। उसी तरह हमारे मन में सवेरे से लेकर शाम तक कितनी इच्छाएँ हुईं, कितनी चाहनाएँ हुईं, ठिकाना नहीं। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ जेती लहर समुद्र की, तेती मन की दौर ।
सहजे हीरा नीपजै, जो मन आवै ठौर ।।”
फिर उन्होंने कहा-
‘सागर महि लहर उठत है, गिनिता गिनि न जाई ।’
लेकिन समुद्र-लहर की उपमा देकर ही उन्हें संतोष नहीं हुआ। वे मन की तरंग को समुद्र की तरंग से विशेष बतलाते हुए कहते हैं-
“ समुद्र लहर तो थोड़िया, मन लहरे घनियाय ।
केतिक आय समाइहैं, केतिक जाय बिसराय ।।”
इच्छाएँ तो अनगिनत उठती रहती हैं, पर जो इच्छा प्रबल होती है, वह मन में बस जाती है और वही है वासना। वह जल्दी निकलती नहीं। यह वासना कैसे निकलेगी? भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को उपदेश देते हुए कहा था-
“ द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य प्राणस्पन्दन वासने ।
एकस्मिंश्च तयोः क्षीणे क्षिप्रं द्वे अपि नश्यतः ।।”
चित्त रूप वृक्ष के दो बीज होते हैं-प्राणस्पन्दन और वासना। इन दोनों में से किसी एक के क्षीण करने पर दोनों नष्ट हो जाएँगे। हमलोग साँस लेते हैं, छोड़ते हैं, प्राणवायु को ग्रहण और त्याग करते हैं; यह प्राणस्पन्दन है। दूसरा बीज है वासना का। भगवान श्रीराम कहते हैं, यदि इन दो बीजों में से किसी एक का नाश कर दो, तो दोनों विनाश को प्राप्त हो जाएँगे।
हमलोग खेत में समूचा चना बोते हैं, तो उससे अंकुर निकलता है, पर यदि दोनों दालों को दो जगह करके बो दें, तो अंकुर नहीं निकलेगा। उसी तरह प्राणस्पन्दन और वासना; ये दालों के समान हैं। इन दो दालों में से एक दाल को समाप्त कर दें, तो अंकुर निकलेगा ही नहीं। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ वास सुरत ले आवई, शब्द सुरत ले जाय ।
परिचय श्रुति है स्थिरे, सो गुरु दई बताय ।।”
वासना और इच्छा ही संसार में लाती हैं। इसलिए कहा-‘वास सुरत ले आवई।’ सुरत में वासना बसने के कारण जीव को इस संसार में आना पड़ता है। ‘शब्द सुरत ले जाय।’ उस सुरत को यदि शब्द में लगा दिया जाए, तो ऊर्ध्वगति हो जाएगी। अन्तर्नाद की साधना करने से वह शब्द ले जाकर प्रभु से परिचय करा देगा। इसलिए ‘परिचय श्रुति है स्थिरे’ कहा और जब सुरत जाकर प्रभु से मिल गई, तब स्थिर हो गई। सुरत का फिर संसार में आना-जाना नहीं होगा। सुरत एक ही है, लेकिन एक सुरत हुई वासना की, दूसरी हुई शब्द में लगाने की और तीसरी हुई प्रभु से मिलने की।
“ कबीर यह मन एक है, भावै तहाँ लगाय ।
भावै गुरु की भक्ति कर, भावै विषय कमाय ।।”
शास्त्र कहता है-
‘मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः ।’
हमारा मन ही बंधन में डालता है और हमारा मन ही मोक्ष में ले जाता है। अगर हमारा मन वासनात्मक है, तो बंधन में डालेगा और अगर अनासक्त है, तो संसार से मुक्त करेगा। भगवान बुद्ध ने कहा-जितनी बुराई हमारा शत्रु नहीं कर सकता, उससे अधिक बुराई बुरे मार्ग पर लगा हुआ हमारा मन करता है। जितनी भलाई हमारे परिवार के भाई-बन्धु आदि कोई नहीं कर सकते, उससे अधिक भलाई सुमार्ग पर लगा हुआ हमारा मन करता है।
‘सुरत’ शब्द में कैसे और कहाँ लगेगी, इसके समाधान के लिए हमारे गुरुदेव कहते हैं-
‘मन तुम बसो तीसरो नैना, महँ तहँ से चल दीजो रे ।’
हमलोगों को दो आँखें हैं, जिनसे हम देखते हैं। एक आँख और है-जिसे तीसरी आँख कहते हैं, वह हमारे भीतर है। जिस तरह बाहर की दोनों आँखों से हम बाह्य जगत् को देखते हैं, उसी तरह अंदर की तीसरी आँख खुलने पर हम अन्तर्जगत् देखने लग जाएँगे। रामचरितमानस में आया है-
“ तब शिव तीसर नयन उघारा ।
चितवत काम भयउ जरि छारा ।।”
सर्वप्रथम भगवान शंकर ने अपने तीसरे नेत्र का उन्मेष किया था, इसलिए उसकी संज्ञा शिव-नेत्र पड़ गई। भगवान शंकर के चित्र में देखेंगे कि उसमें दोनों आँखों के ऊपर तीसरी आँख बनी हुई है, वह तीसरे नेत्र का प्रतीक है। भगवान शंकर जगत् के पिता हैं, हमलोग उनकी संतान हैं। जब पिता को तीन आँखें हैं, तो पुत्र को भी तीन आँखें होनी चाहिए। पिता ने उसका उन्मेष किया-खोला; लेकिन हमलोग तीसरी आँख नहीं खोल पाए हैं, इसलिए दिव्यदृष्टि विहीन-अंधे हैं। अगर हमलोग भी उस आँख को खोल लें, तो ‘चितवत काम भयउ जरि छारा’ हो जाएगा। काम किसको कहते हैं? संत कबीर साहब ने कहा है-
“ काम काम सब कोइ कहै, काम न चीन्है कोय ।
जेती मन की कल्पना, काम कहावै सोय ।।”
जो कोई साधना करते हैं, उनके मन की कल्पना, विडम्बना, भोग-वासना प्रभृति सब जलकर भस्म हो जाती हैं। यही तीसरी आँख के उन्मेष की विशेषता है। इसीलिए भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को उपदेश दिया था-
“ एक तत्त्व दृढ़ाभ्यासाद्यावन्न विजितं मनः ।।
प्रक्षीणचित्तदर्पस्य निगृहीतेन्द्रियद्विषः ।
पद्मिन्य इव हेमन्ते क्षीयन्ते भोगवासनाः ।।”
अर्थात् जबतक मन जीता नहीं गया है, तबतक एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास करो। वह एक तत्त्व क्या है? किसी एक इष्ट मूर्ति का हम ध्यान करते हैं, वह पाँच तत्त्व का शरीर है-क्षिति जल पावक गगन समीरा ।
हम जिस मूर्ति का ध्यान करें-चाहे राम का करें, चाहे कृष्ण का करें, चाहे देवी का करें, चाहे गुरु का करें, उसमें अंग-प्रत्यंग होंगे; ये सब पाँच तत्त्वों से बने हुए हैं। तब जिज्ञासा होगी, एक तत्त्व क्या है? जो एक-ही-एक है, जहाँ दूसरा कुछ नहीं है। जो दृष्टियोग की क्रिया करते हैं, उसको एकविन्दुता की प्राप्ति होती है, वही एक-ही-एक तत्त्व है। जो एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास करते हैं, तो वे ‘क्षीयन्ते भोगवासनाः’-भोगवासना से मुक्त हो जाते हैं।
जागतिक भोगों की जो इच्छा है, वही वासना का रूप लेती है, वह समाप्त हो जाती है। जब दृष्टियोग की क्रिया करते हैं, तो पूर्ण सिमटाव होता है, सिमटाव से ऊर्ध्वगति होती है। अंधकार का भेदन होता है, तब साधक अंधकार से प्रकाश में चला जाता है। साधक का मन प्रकाशमय हो जाता है। इससे मन उज्ज्वल हो जाता है, पवित्र हो जाता है। जहाँ पवित्र मन है, वहाँ फिर वासना कहाँ? जहाँ अपवित्र मन है, वहीं वासना रहती है।
एक बार अंधकार ने भगवान से कहा कि भगवन्! यह जो सूर्य है, हमारा जानी दुश्मन बना हुआ है। मैंने उसका कुछ बिगाड़ा नहीं है, फिर भी न जानें, क्यों वह मेरा पीछा करता-फिरता है। मैं जहाँ कहीं जाता हूँ, वह तुरंत थोड़ी देर के बाद वहाँ पहुँच जाता है। समूचे भारत के कोने-कोने में मैंने छिपकर देख लिया। यहाँ से अमेरिका चला जाता हूँ, तो कुछ घंटे के बाद वहाँ भी वह पहुँच जाता है। वहाँ से भागकर यहाँ आता हूँ और यहाँ से भागकर वहाँ जाता हूँ। फिर भी वह मेरा पिंड नहीं छोड़ता, मैं उससे परेशान हो गया हूँ। एक बार आप सूर्य को बुलाकर समझा देने की कृपा कीजिए और उससे पूछिए कि उसने मेरे साथ इतनी दुश्मनी क्यों ठानी है! भगवान ने कहा-अच्छा, तुम जाओ। मैं सूर्य को बुलाकर पूछता हूँ-क्या बात है? भगवान ने सूर्य को बुलाया। सूर्य के आने पर भगवान ने कहा-अंधकार तुम्हारी शिकायत कर रहा था कि तुम उसको जानी दुश्मन बने हुए हो। जहाँ कहीं भी वह जाता है, तुम उसका पीछा नहीं छोड़ते, क्या बात है, अंधकार ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? सूर्य ने हाथ जोड़कर भगवान से कहा-भगवन्! आज पहला दिन है जब आपके श्रीमुख से सुनने को मिला है कि अंधकार भी कोई चीज होती है। प्रभु! आज तक मेरी उनसे कभी भेंट नहीं है, मैं उसका क्या बिगाड़ँन्न्गा! अगर आपको मेरी बात पर विश्वास नहीं है, तो अंधकार को मेरे सामने बुला लीजिए, मैं हाथ जोड़कर उससे क्षमा-याचना कर लूँगा।
जैसे प्रकाश के सामने अंधकार जा नहीं सकता, उसी तरह अन्तस्साधना-द्वारा जिसका हृदय प्रकाशपूर्ण हो गया है, वहाँ विषय-वासना को स्थान कहाँ, उसके ठहरने के लिए जगह ही कहाँ है।
प्रकाश में जाने पर नादानुभूति होती है। साधक नाद को सुनने लगता है। नाद सुनने से क्या लाभ होता है। संत चरणदासजी महाराज कहते हैं-
“ जब से अनहद घोर सुनी ।।
इन्द्रिय थकित गलित मन हुआ, आशा सकल भुनी।।”
जैसे जब कोई पथिक चलते-चलते थक जाता है, तो उससे आगे वह चल नहीं पाता है। उसी तरह जो कोई नाद साधना करते हैं, तो उनकी इन्द्रियाँ थक जाती हैं और मन गल जाता है। विचारणीय विषय है-हमारी इन्द्रियाँ विषयों में कैसे जाती हैं? मन की प्रेरणा से मन जिस विषय को ग्रहण करने के लिए जिस इन्द्रिय को प्रेरित करता है, उस विषय को वह इन्द्रिय ग्र्रहण करने लगती है। उदाहरणार्थ-आँख रूप को ग्रहण करती है। जितने लोग यहाँ बैठे हुए हैं, आँखें उन सब लोगों को नहीं देखेंगी, वस्तुतः मन जिसको देखने के लिए कहेगा, आँख उसी को देखेगी। विविध तरह के शब्द होते हैं, लेकिन मन जिस शब्द को सुनने के लिए कहेगा, उसी ओर कान लग जाएगा। यदि एक ओर भगवान का नाम-कीर्त्तन हो रहा हो, लेकिन यदि मन उस ओर नहीं है, उनको सुनेगा नहीं और दूसरी ओर अगल-बगल में सिनेमा का गाना हो रहा हो, यदि मन सिनेमा का गाना सुनना चाहता हो और सुन रहा हो, तो उसके कान में भगवद्कीर्त्तन सुनाई नहीं पडे़गा।
अथवा यदि कीर्त्तन सुनने में मन लगा है, तो सिनेमा का गाना नहीं सुन पाएगा। और भी लीजिए, हमारे आगे थाली में भोजन की पचीस चीजें परोसी हुई हैं। आँखें देख रही हैं कि पचीस चीजें हैं। नासिका उन सबकी गंध ले रही है। यह खटाई की सुगंध है, यह मिठाई की सुगंध है, यह नमकीन की सुगंध है। सभी प्रकार की सुगंध नासिका ले रही है; लेकिन मन जो खाना चाहेगा, उसी चीज पर हाथ जाएगा और हम वही खाएँगे। इतना ही नहीं, अगर हाथ एक चीज उठाकर मुँह में देने भी लगे और मन को वह पसन्द नहीं है, तो मन बीच मेंं ही टोक देगा कि यह नहीं खोओ, वह खाओ और हम हाथ से उसे रखकर दूसरी चीज उठाकर भोजन करेंगे। कहने का तात्पर्य है कि इन्द्रियों में मन की प्रधानता है। इसीलिए कहा है-इन्द्रियाणां मनो नाथो। नादानुसंधान की क्रिया करने से इन्द्रियाँ थक जाती हैं और मन गल जाता है। जब मन ही गल गया, तो विषय भोग के लिए इन्द्रियों को प्रेरित कौन करेगा?
अन्तस्साधना में नादानुसंधान सर्वश्रेष्ठ होने पर भी सरल योग है, सहज योग है। संत चरणदासजी महाराज कहते हैं-
“ अनहद शब्द अपार दूर सों दूर है ।
चेतन निर्मल शुद्ध देह भरपूर है ।।”
वह शब्द समस्त शरीर में परिव्याप्त है, वह शब्द कैसा है और उसकी विशेषता क्या है, इस पर पुनः कहते हैं-
“ निःअक्षर है ताहि निःकर्म है ।
परमातम तेहि मान सोई परब्रह्म है ।।
याके कीन्हे ध्यान होत है ब्रह्म ही ।
धरै तेज अपार जाय सब भर्म ही ।।
याको छोड़ै नाहिं रहै सदा लीन ही ।
यही जो अनहद सार जान परवीन ही ।।
ध्यानी को मन लीन होय अनहद सुनै ।
आप अनाहत होय वासना सब भुनै ।।”
सब वासनाएँ जल-भुनकर समाप्त हो जाती हैं। इसलिए वासना-विनाश के लिए नादयोग सर्वोत्तम और सुगम योग है। नादविन्दूपनिषद्् में आया है-
“ मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः ।
नियामनसमर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः ।।”
जैसे मदमस्त हाथी कदली वन में जाता है, केले के पेड़ को खाता है, नोचता है और तोड़ता है; पर जब महावत अंकुश मारता है, तब वह आगे नहीं जाकर पीछे भागता है। उसी प्रकार हमारा मन रूप गजेन्द्र जो विषय की वाटिका में विचरण करता है, उछल-कूद मचाया करता है, जब उसको नाद-रूप अंकुश लगता है, तब विषय की ओर से मुड़कर निर्विषय की ओर जाता है। वह निर्विषय तत्त्व परमात्मा है। उसकी प्राप्ति के लिए कबीर साहब ने कहा है-
“ न जोगी जोग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।
सहज में ध्यान से पावै, सुरत का खेल जेहि आवै ।।”
यह सहज ध्यान और सरल ध्यान है। हठयोग की साधना के द्वारा प्राण का आयाम किया जाता है, साँस को खींचा जाता है, रोका जाता है और छोड़ा जाता है। नौली-धौति क्रिया होती है। नाड़ी-शोधन होता है। ये सारी क्लिष्ट क्रियाएँ हैं, जो कि सर्व साधारण जन के लिए साध्य नहीं, असाध्य हैं। हठयोग कठिन और सापद भी है। इसलिए उपनिषद् में आया है-
“ यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः ।
तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ।।”
(शांडिल्योपनिषद्)
जैसे सिंह, हाथी और बाघ धीरे-धीरे काबू में
आते हैं; उसी तरह प्राणायाम भी किया जाता है। प्रकारान्तर होने से वह अभ्यासी को मार डालता है।
सुपौल में एक सर्कसवाला आया था। वह तमाशा दिखलाता था। एक विशाल सिंह अपना मुँह खोलता और एक बच्ची उस सिंह के मुँह में अपना सिर डाल देती थी। इस दृश्य को देखकर लोग आवाक् रह जाते थे। सब दिन यह तमाशा होता था। एक दिन की बात है। सिंह ने अपना मुँह खोला और बच्ची ने अपना सिर उसके मुँह में डाल दिया, लेकिन बच्ची का एक बाल उसके दाँत में फँस गया। सिंह ने गुस्से में लड़की के सिर को अपने मुँह में दबा लिया। उसका राम-नाम सत्य हो गया। बच्ची समाप्त हो गई। सिंह ने यह नहीं समझा कि यह हमारे साथ रोज खेल खेल रही है-तमाशा दिखला रही है। सर्कसवाले ने उस सिंह को भी समाप्त कर दिया।
उसी तरह जो प्राणायाम की साधना करते हैं, उनसे अगर थोड़ी-सी भी असावधानी हो जाए, तो वह जान लेने के लिए बाज नहीं आता।
सहरसा जिला में एक योगी थे, उनकी बड़ी प्रसिद्धि थी। उन्होंने अपने शिष्य को हठयोग की क्रिया बतलायी थी। शिष्य बेचारा क्रिया कर रहा था। करते-करते कुछ चूक हो गई, जिस कारण उसकी छाती में दर्द हो गया। उसने अपने शिष्य से कहा-‘गुरु महाराजजी से जाकर कहो कि छाती में दर्द हो गया है। जबतक वह शिष्य गुरु के पास जाए और वे आवें; तबतक इनका शरीर ही छूट गया।
हठयोग की क्रिया सापद है और राजयोग की क्रिया निरापद है। राजयोग गृहस्थ, विरक्त सबके करने योग्य है। विद्वान, अविद्वान, धनी, निर्धन कोई भी कर सकते हैं, लेकिन हठयोग सब कोई नहीं कर सकते। राजयोग की क्रिया में मन लगा तो किए, नहीं लगा तो छोड़कर अपने काम में लग गए। इसमें कोई हानि की बात नहीं है। लेकिन हठयोग में मुद्रा है, मुद्रा में आप इतनी देर तक श्वास खींचेंगे, इतनी देर तक आपको रोककर रखना है, इतनी देर में छोड़ेंगे। इसमें व्यवधान हुआ तो हानि हो जाएगी, छाती या माथे में दर्द हो सकता है, कोई पागल भी हो जाता है। इसलिए कबीर साहब ने कहा है-
“ न जोगी जोग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।
सहज में ध्यान से पावै, सुरत का खेल जेहि आवै ।।”
हमारे गुरुदेव ने कहा है-
“ सहज ही निज काज हो तो कटु साज क्या सजे ।”
जब सहज में ही प्रभु मिलें, तो कटु साज-कठिन साधना की आवश्यकता क्या है।
“ विन्दु ध्यान विधि नाद ध्यान विधि ,
सरल सरल जग में परचारी ।।”
यह बहुत ही सरल और सीधा रास्ता है। यह सबके करने योग्य है, इससे वासना समाप्त होती है और परमात्म-दर्शन होता है। जिस तरह नदी का जल समुद्र में मिलकर समुद्र ही हो जाता है, फिर उसकी संज्ञा नदी नहीं रह जाती; उसी तरह यह जीव पीव में मिलकर ब्रह्म ही हो जाता है, फिर संसार में नहीं आता है। आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। यही संतमत की थोड़ी-सी बातें आपलोगों के सामने रखीं। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 22-12-2002 ई0 को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, फरवरी 2003 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोगों ने रामचरितमानस का पाठ सुना है, जिसमें बतलाया गया है सुख की प्राप्ति कैसे होगी। परमात्मा ने चार खानियों में 84 लाख प्रकार की योनियों का सर्जन किया। इन चौरासी लाख प्रकार की योनियों में मानव-शरीर को सर्वश्रेष्ठ बतलाया गया है। सभी प्राणी सुख चाहते हैं, मानव भी सुख चाहता है। सुख क्यों चाहता है, प्रश्न चिह्न लगता है। कोई शीतलता क्यों चाहता है, इसलिए कि वह उष्णता-गर्मी महसूस करता है। कोई पानी पीना क्यों चाहता है, इसलिए कि उसे प्यास लगी है। कोई भोजन करना क्यों चाहता है, इसलिए कि उसे भूख लगी है। चाहने का कोई कारण होता है। जितने प्राणी हैं सब-के-सब सुख चाहते हैं। क्यों चाहते हैं? इसलिए कि उनके जितने जन्म हुए, सभी जीवन में उन्होंने दुःख पाया है। दुःख पाने का मूल कारण शरीर ही है। अगर शरीर नहीं हो, तो कोई दुःख न हो, इसलिए संतों ने बतलाया कि जीवन में सुख और दुःख दोनों आते हैं, पर यदि तराजू के दोनों पलड़ों में एक तरफ सुख को और दूसरी तरफ दुःख को रख दें, तो दुःख का पलड़ा ही भारी होगा। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ हम चाले थे सुख को, बाटहिं मिलिया दुख ।
जाओ सुख घर आपने, हम जाने और दुख ।।”
बड़े-बड़े राजे-महाराजे भी धरती पर आए, पर सबने दुःख का अनुभव किया। राजा से रंक और कीड़े से हाथी तक संसार में जो आए, जितने आए, सब-के-सब रोए और दुःख हुए।
पाँचो भाई पांडव राजपुत्र थे; लेकिन उन्हें दर-दर का भिखारी बनना पड़ा, जंगल की खाक छाननी पड़ी, दूसरे राजा की पराधीनता का स्वीकार करनी पड़ी। जिस राजा युधिष्ठिर के यहाँ हजारों नौकर-चाकर थे, उन्हें राजा विराट के यहाँ नौकरी करनी पड़ी। जिस भीम की भुजाओं कें दस हजार हाथी का बल था, उसने रसोइये का काम किया। जिस अर्जुन के सारथी भगवान कृष्ण स्वयं बनते थे, वे दूसरे के यहाँ नर्तक बनकर रहे। जिस द्रौपदी के आगे-पीछे दासियाँ आदेश पाने के लिए खड़ी रहती थीं, उन्हें दासी का काम करना पड़ा। द्रौपदी के पाँचो पति बड़े-बड़े महारथी थे, फिर भी कौरवों की भरी सभा में उनकी साड़ी खींची गयी। भगवान कृष्ण ने उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा की। यह इतिहास बतलाता है कि जीवन दुःखों से भरा हुआ है।
आज तो हम चाहते हैं कि भगवन के दर्शन हो जाए और यह कि उनके दर्शन से हमारा दुःख दूर हो जाएगा। लेकिन जिनको मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पिताश्री कहलाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, उनके जीवन को देखिये कि उनको कितना सुख मिला! कहाँ तो पहले जीवन में पुत्रहीनता की ग्लानि थी, बुढ़ापे में पुत्र-हुआ भी तो पुत्र से जो सुख भोग मिलना चाहिए, नहीं मिल सका। वे भगवान श्रीराम को युवराज पछ पर प्रतिष्ठित करना चाहते थे, पर उनको जंगल भेजना पड़ा। परिणामस्वरूप पुत्र-वियोग का इतना असह्य दुःख हुआ कि वे उसे सहन नहीं कर सके, और-
“ राम राम कहि राम कहि, राम राम कहि राम ।
तनु परिहरि रघुवर विरह, राव गये सुरधाम ।।”
पुत्र के वियोग में उन्होंने रोते हुए शरीर छोड़ दिया। ये तो भगवान के पिता की बात हुई। अब हम स्वयं भगवान की ओर देखें। उन्होंने नर-शरीर धारण करके नर-लीला की। भले ही वे सुख-दुःख से परे हों; लेकिन लोक-दृष्टि में उनको भी दुःख भोगना पड़ा। जब सीताहरण हुआ, तो विकल होकर वन-वन उन्हें खोजते रहे। साधारण जन की पत्नी का अपहरण हो जाए या कहीं खो जाए, तो वह किसी वृक्ष से पूछेगा कि हमारी पत्नी इस तरह की थी, लंबी थी या नाटी थी, गोरी थी या काली थी, पतली थी या मोटी थी। हुलिया बतलाकर पूछेगा कि क्या इस तरह की नारी को आपने देखा है? लेकिन भगवान राम मनुष्य की कौन कहे, चिड़ियों से पूछते हैं, जानवरों से और भौंरों से पूछते हैं। स्त्री के विरह में मानो वे पागल-से हो गये थे।
“ हे खग मृग हे मधुकर श्रेणी ।
तुम देखो सीता मृग नैनी ।।”
इतना ही नहीं, जब लक्ष्मण को बाण लगता है और वे मूर्च्छित होकर गिर जाते हैं। भगवान राम रोते हैं, बिलखते हैं और कहते हैं-
“ जौं जनितउँ वन बन्धु बिछोहू ।
पिता वचन मनितउँ नहि ओहू ।।”
भगवान बुद्ध के समय की बात है। एक धनी सम्भ्रान्त परिवार की लड़की थी, जिसका नाम पटाचारा था। संयोगवश एक गरीब लकड़हारे के साथ उसका विवाह हो गया। उसका पति जंगल जाकर लकड़ी काटता था और उसे बेचता था। समय पाकर वह गर्भवती हुई, तो उसने अपने से कहा, ‘मैं यहाँ रहूँगी, तो मेरी देख-भाल, सेवा-सुश्रुषा नहीं हो पाएगी; इसलिए नैहर जाना चाहती हूँ।’ पति ने कहा, ‘नहीं, नहीं, तुम यहीं रहो। मैं तुम्हारी सारी व्यवस्था कर दूँगा।’ लेकिन बेचारा क्या कर पाता, गरीब आदमी था। समय आने पर पुत्र हुआ, पर उसकी ठीक तरह से देख-रेख नहीं हुई। समय बीतता गया। फिर दूसरी संतान होने का अवसर आया, फिर वह पतिदेव से कहती है कि पतिदेव! पिछली बार बहुत कष्ट था। इस बार मुझे नैहर जाने दीजिए। पति ने उत्तर दिया, ‘पिछली बार तो मैं व्यवस्था नहीं कर पाया था, पर इस बार तुम्हें किसी प्रकार की तकलीफ नहीं होगी। मैं अच्छी व्यवस्था करूँगा।’ बेचारी को पति की बात मानकर रह जाना पड़ा। समय पाकर फिर पुत्र होता है। लकड़हारा जंगल लकड़ी काटने जाता है, वहाँ उसे साँप डँस लेता है। बेचारी प्रतीक्षा कर रही है कि पतिदेव अब आ रहे हैं, अब आ रहे हैं, पर वह जीवित रहे, तब तो आए। जब घंटों बीत गये और लकड़हारा नहीं आया, तो येन-केन-प्रकारेण वह जंगल जाती है पति को ढूँढने के लिए। वहाँ पहुँचकर देखती है कि उसका पति मरा पड़ा है। अब बेचारी छाती पीटकर रोती है, बिलखती है, पर क्या करे, कोई उपाय नहीं है। जंगल से आती है और दोनों बच्चों को लेकर चलती है मायके के लिए। शरीर दुर्बल था। प्रसवोपरान्त की वेदना मिटी नहीं थी। रास्ते में एक नदी मिल जाती है। दो बच्चों को एक साथ नदी नहीं कर पाती, इसलिए एक बच्चे को नदी के इस किनारे में छोड़कर दूसरे को उस पार ले जाती है। उस बच्चे को उस पार में रखकर फिर पहले बच्चे को लेने के लिए इस पार आती है। बच्चा देखता है कि माँ आ रही है, तो वह घिसककर आगे बढ़ने लगता है। घिसकते-घिसकते नदी में गिर जाता है। बच्चा नदी में बह जाता है और बेचारी कुछ नहीं कर पाती है। फिर छाती पीटकर रोने लगती है, पर अपना कोई चारा नहीं-सहारा नहीं। फिर दूसरे बच्चे के पास लौटना चाहती है, अभी वह आधी नदी में ही थी कि उस नवजात शिशु को एक चील झपट्टा मारकर ले उड़ता है।
बेचारी दुःख से विह्वल हो पागल-सी हो गयी। कहने लगी, ‘पति को साँप ने काट लिया, एक बच्चा नदी में बह गया और दूसरे को चील खा गयी। इस प्रकार बिलखती-बिलबिलाती जा रही थी। नदी पार कर कुछ आगे पहुँची, तो उसके नैहर के एक गाँव के एक सज्जन से उसकी भेंट हुई। उससे अपने माता-पिता का समाचार पूछा। उस सज्जन ने कहा, ‘क्या बतलाऊँ, रात में छत गिर गई। तुम्हारे माता-पिता के साथ परिवार के सभी लोग दबकर मर गये। देखती नहीं, श्मशान घाट से धुआँ उठ रहा है। यह सुनकर बेचारी पागल हो गयी। न शरीर की सुधि रही, न वस्त्र की। इधर-उधर भटकने लगी। उसी अवस्था में एक दिन वह भगवान बुद्ध के पास गयी, पर भिक्षुओं ने उसकी उस अवस्था को देखकर रोक दिया। भगवान ने कहा, ‘उसे आने दो।’ वह आकर भगवान के चरणों पर गिर पड़ी। एक भिक्षुणी ने अपने वस्त्र से उसके शरीर को ढँक दिया। वह बड़बड़ाने लगी, ‘पति को साँप ने डँस लिया, एक बच्चा नदी में बह गया, दूसरे को चील खा गयी और माँ-बाप छत के नीचे दबकर मर गये।’
भगवान ने उसको आश्वासन दिया। उनकी कृपा से उसको अपने शरीर की सुधि हो गयी। वह दीक्षित होकर भिक्षुणियों के साथ रहने लगी। साधना करने लगी। एक दिन वह बाल्टी में जल भरकर लोटे से जल निकालकर हाथ-पैर धोने लगी। एक लोटा का जल बहकर जितनी दूर गया, दूसरे लोटे का जल बहकर उससे अधिक गया। इस प्रकार कई लोटे के जल को बहते देखकर उसको ज्ञान हुआ कि जिस लोटे में जितना जल रहता है, वह उतनी दूर जाता है। इसी प्रकार जिसका जितने दिनों की आयु होती है, वह उतने दिनों तक संसार में रहता है। मेरे पुत्रें और पितृ-परिवारवालों की आयु जितनी दिनों की थी, वे उतने दिनों तक संसार में रहे, उसके लिए चिन्ता करना व्यर्थ है। व्यर्थ की चिन्ता से हानि होगी, लाभ नहीं। ऐसा सोचकर वह मनोयोग से अंतस्साधना करने लगी और एक अच्छी भिक्षुणी हो गयी। कितना गिनाया जाए!
भगवान श्रीकृष्ण के सामने ही एक दिन में उनके संपूर्ण यदुवंशियों का विनाश हो गया। जिनके वंश का विनाश उनके सामने हो जाए, क्या उसको सुख होगा? इसलिए संत कबीर साहब ने कहा-
“ तनधर सुखिया कोइ न देखा,
जो देखा सो दुखिया हो ।
उदय अस्त की बात कहतु हैं,
सबका किया बिबेका हो ।।”
उदय से अस्त तक जितने जो कोई हुए, सबको एक दिन जाना पड़ा। इस संसार का नाम ही है मर्त्यलोक। यहाँ जो आएँगे, वे अवश्यमेव दुःख उठाएँगे और मरेंगे। संत कबीर साहब जैसे स्पष्टवादी संत ने यहाँ तक कह दिया-
“ साँच कहौं तो कोई न मानै,
झूठ कहा नहिं जाई हो ।
ब्रह्मा बिस्नु महेसुर दुखिया,
जिन यह राह चलाई हो ।।”
जबकि ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर-जैसे महान देव इस संसार में दुखिया हो, तो फिर इतन लोगों की क्या गिनती है! प्रश्नोदय होता है, तब सुख कैसे मिलता है? संत कबीर साहब उत्तर देते हैं-‘संत सुखी मन जीती हो।’
जिन्होंने अपने मन पर विजय प्राप्त कर लिया है, ऐसे संत ही सुखी हो सकते हैं, अन्य कोई सुखी नहीं हो सकते। शरीर या संसार में आना ही सब दुःखों का कारण है।
‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्’ होता रहता है। यह जो क्रम चला आ रहा है, इसका निरोध कैसे हो? शास्त्र कहता है-
“ देहावसानसमये चित्ते यद्यद्विभावयेत् ।
तत्तदेव भवेज्जीव इत्येव जन्मकारणम् ।।”
अर्थात् मृत्यु के समय में जीव के मन में जो भावना करता है, उसी भावना के अनुकूल उसका पुनर्जन्म होता है।
एक पौराणिक कथा है। उसमें बतलाया गया है कि जड़भरतजी जंगल में तपस्या करते थे। वहाँ उन्होंने एक हिरणी के बच्चे का पालन-पोषण किया। कुछ दिनों के बाद में वह बच्चा जंगल में भाग गया। मरने के समय में जड़भरत जी को उसी बच्चे की याद आयी और फलस्वरूप उनको हिरण की योनि में जाना पड़ा। लेकिन उन्हें पूर्व जन्म का ज्ञान था, इसलिए कुछ समय के बाद फिर उनको मनुष्य -शरीर मिला, तो विचार किया कि मैं संसार में आसक्ति नहीं रखूँगा और उन्होंने वैसा ही किया।
जिज्ञासा होती है-मरने के समय में हमें क्या याद रहना चाहिए, जिससे हमारा आगे का जन्म सुखमय हो, जिससे कि हम पुनः इस दुःखमय संसार में नहीं आवें? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
“ प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता 8/10)
इस संसार से चलने के समय अचल मन से भक्ति योगयुक्त होकर जो अपने प्राण को भुवों के मध्य रखकर शरीर त्याग देता है, वह दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है। अतएव इसकी सही क्रिया को जानकर हम साधना करें, तो फिर हमारा पुनर्जन्म नहीं होगा। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में बतलाया है कि अगर तुम्हारी साधना पूरी नहीं हुई, तो शरीर छूटने के बाद तुम विशाल स्वर्ग सुख भोगोगे और फिर इस संसार में किसी पवित्र श्रीमान् के घर में अथवा किसी योगी कुल में जन्म लोगे। जैसे गुरु नानकदेवजी महाराज महायोगी थे। उनके कुल में बाबा श्रीचंद का जन्म हुआ, वे भी महायोगी थे। उनके एक शिष्य बैलगाड़ी लेकर लकड़ी लाने जंगल गये। लकड़ियाँ चुनकर गाड़ी पर बोझ रहे थे कि जंगल में एक सिंह ने गर्जन किया। डर के मारे बैल भाग गया। श्रीचन्द बाबा के शिष्य ने सोचा कि लकड़ी कैसे जाएगी? जिस सिंह ने गर्जन किया था, उसी को कान पकड़कर वे ले आये और बैलगाड़ी में बैल के बदले उसी को जोड़ दिया। सिंह से कहा कि चलो, पहुँचाओ। बैल की जगह वह विशाल सिंह गाड़ी खींचते आया, जहाँ बाबा श्रीचन्द की धुनी जल रही थी। उसके बाद सिंह को छोड़ दिया कि जाओ तुम अपना घर, और बैल को खोजकर ले आए।
श्रीचन्द बाबा बहुत बड़े योगी थे, उन्हीं के नाम पर उदासी मत चला हुआ है। भक्ति करोगे, तो ऐसे ही बड़े योगी या पवित्र श्रीमान् घर में जन्म लोगे और पूर्वजन्म के संस्कार से प्रेरित होकर साधन करने लग जाओगे। करते- करते किसी जन्म में पूर्णता को प्राप्त करोगे। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि ‘जो शांति मुझमे विराजती है, वही शांति तुममें विराजने लगेगी। यह दृढ़ निश्चय जान लो कि बाहर संसार में शांति कहीं नहीं मिलेगी। शांति जब कभी मिलेगी, तो अपने अंदर में मिलेगी और अंतस्साधना से मिलेगी।
वास्तविक बात तो यह है कि मानव-जैसा -जैसा चाहता है, वैसा-वैसा होता नहीं। जो होता है, वैसा उसके मन को भाता है नहीं। जो उसके मन को भाता है, सुहाता है, वह टिकता है नहीं। जो टिकनेवाली चीज है, स्थिर है, उसमें वह मन लगाता है नहीं, तो शांति कहाँ से मिलेगी, सुख कहाँ से मिलेगा।? शांति और सुख तो तभी मिलेगा, जब विषयों से मन हटाकर निर्विषय की ओर ले जाएँगे। विषय दुःखदायी है और निर्विषय सुखदायी है। हम विषय से निर्विषय की ओर कैसे जाएँगे? यह ध्यान से होगा-‘ध्यानं निर्विषयं मनः।’
इसलिए हम ध्यान की क्रिया जानें। ध्यान में स्थूल ध्यान होता है, सूक्ष्म ध्यान होता है, सूक्ष्मतर ध्यान होता है और सूक्ष्मतम ध्यान होता है। इन प्रक्रियाओं को जानकर हम साधना करें। साधना करते-करते क्रम-क्रम से बढ़ते-बढ़ते एक दिन हम पूर्णता को प्राप्त करेंगे। जैसे बूँद-बूँद गिरते-गिरते पानी से घड़ा भर जाता है, एक-एक अक्षर पढ़ते-पढ़ते लोग विद्वान होते हैं; उसी तरह थोड़ी-थोड़ी साधना करते-करते एक दिन साधना में निष्णात होते हैं। भक्ति करते-करते भक्ति में पूर्णता प्राप्त करते हैं। आवागमन का चक्र छूटता है। दैहिक, दैविक, भौतिक; इन त्रितापों से मानव जो संतप्त होता रहता है, उससे सदा के लिए मुक्त हो जाता है। फिर कभी उसे दुःख का मुख नहीं देखना पड़ता; क्योंकि वह संसार में लौटकर आता नहीं।
“ न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।।”
भगवान ने कहा, ‘वहाँ जो कोई पहुँच जाता है, फिर वह संसार में नहीं आता है। जो संसार में नहीं आवेगा, वह दुःख का मुख क्यों देखेगा। इसलिए ईश्वर-भक्ति की सही साधना जानकर करनी चाहिए।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 16-1-2003 ई0 को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मार्च 2003 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं बहनो!
आपलोगों को ज्ञात है कि अखिल भारतीय संतमत सत्संग का 92वाँ वार्षिक अधिवेशन वृन्दावन में होनेवाला था; किन्तु वहाँ नहीं होकर यहाँ राँची में हो रहा है। लोगों की मन में जिज्ञासा होगी कि ऐसा क्यों? उत्तर में निवेदन है-
बात आज की नहीं, प्राचीन है। उस समय की बात है, जब भगवान श्रीकृष्ण परम धाम गमन कर चुके थे और कलियुग का आगमन हो चुका था। एक बार नारद मुनि कलियुगी लीलाओं को देखते हुए अवनितल पर विचरण कर रहे थे। भ्रमण करते हुए वे वृन्दावन पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि एक अतीव सुन्दरी युवती बैठी रो रही है और उसके निकट दो वृद्धजन अचेतावस्था में पड़े हैं। उस सुंदरी के ऊपर सैकड़ों महिलाएँ पंखा झल रही हैं और उन दोनों वृद्धों को चेतनावस्था में लाने की चेष्टा कर रही है। किन्तु प्रयत्न करने पर भी वह सफल नहीं हो पा रही है। इस कारण वह बहुत दुःखी है। नारदजी ने दूर से ही यह दृश्य देखा, तो उनके मन में बड़ा कौतुहल हुआ कि सैकड़ों महिलाएँ उसे पंखा झल रही हैं, उसपर भी यह सुंदरी रो रही है! नारदजी उसके पास गये। सुंदरी ने नारदजी को देखकर प्रसन्नता प्रकट करते हुए उनका अभिवादन किया और कहा, ‘महात्मन्! संतों का जीवन परोपकार के लिए होता है। मैं बहुत ही दुःखी हूँ, आप मेरे दुःखों को दूर कीजिए। मैं जीवन-भर आपकी आभारी रहूँगी।’ नारदजी ने कहा, ‘पहले तुम अपना परिचय दो, फिर बतलाओ कि तुम्हें क्या कष्ट है। मैं अवश्य ही तुम्हारे दुःखों को दूर करने की चेष्टा करूँगा।’ युवती ने कहा, ‘मेरा नाम भक्ति है। मेरा जन्म द्रविड़ में हुआ, मैं कनार्टक में बढ़ी। महाराष्ट्र में जहाँ-तहाँ मेरा बहुत सत्कार हुआ, पर जब गुजरात गयी, तो वहाँ बूढ़ी हो गयी। मेरा मन वहाँ नहीं लगा, तो मैं वृन्दावन आ गयी और पुनः पूर्ववत् युवती हो गयी। ये दोनों जो अचेतावस्था में पड़े हैं, इनमें से एक का नाम ज्ञान और दूसरे का नाम वैराग्य है। मैं इन दोनों को चेतनावस्था में लाना चाहती हूँ; लेकिन कितनी चेष्टा करने पर भी ये दोनों होश में नहीं आ रहे हैं। आप हमपर कृपा कीजिए।’ नारदजी ने कहा, ‘तुम शांत रहो, मैं इन्हें होश में लाने की चेष्टा करता हूँ।’ अब नारद जी सोचने लगे कि क्या उपाय किया जाए? तीर्थों में गये, तो वहाँ उन्होंने देखा कि पंडे लोग ब्रह्मज्ञान से दूर हैं। स्थूल पूजा करते हैं और अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए जजमानों से पूजा की सामग्रियाँ इकट्ठी करवाते हैं। तत्पश्चात् वे मठों और आश्रमों में गये। वहाँ उन्होंने देखा कि साधु सिर्फ कहलाने भर के लिए हैं, सभी पाख्ांडी हैं। वेश-भूषा तो साधु का है; लेकिन वे गृहस्थ से भी बदतर हैं। बेचारे गृहस्थ तो अपने बाल-बच्चे और परिवार के लिए मरते हैं; लेकिन ये संन्यासियों का वेश बनाकर न मालूम किसके लिए मरते हैं? दिन-रात संग्रह के पीछे पड़े हैं। घूमते-घूमते उन्होंने देखा कि थोड़ी दूर पर पाँच-पाँच वर्ष के चार बच्चे हैं। नारदजी उनके निकट गये। पहचाना, वे सामान्य बच्चे नहीं थे। वे थे-सनक, सनन्दन, सनत्कुमार और सनातन। नारदजी ने उन्हें प्रणाम किया और कहा, ‘आप देखने में बालरूप हैं, लेकिन आप बहुत महान् ऋषि हैं। आपका ज्ञान, आपकी तपस्या महान है। मैं आपके पास कुछ ज्ञान लेने के लिए आया हूँ।’ उन्होंने पूछा, ‘क्या चाहते हो, बतलाओ?’ नारदजी ने बतलाया कि ‘मैं घूमते-घूमते वृंदावन गया, वहाँ मैंने एक युवती को देखा, जो रो रही थी। उसने अपना नाम भक्ति बतलाया। उसके ऊपर सैकड़ों महिलाएँ पंखा झल रही थीं। दो वृद्ध पुरुष ज्ञान और वैराग्य उनके साथ में थे, जिसको वे होश में लाना चाहती थी, पर होश में नहीं ला पर रही थी। इस कारण वह दुःखी होकर रो रही थी। उसके दुःख से मैं भी दुःखी हो गया। आप कृपा करके कोई उपाय बतला दीजिए, जिससे उसका कष्ट दूर हो सके।’ उन ऋषियों ने कहा, ‘नारदजी! जबतक वह वृंदावन में रहेगी, युवती तो बनी रहेगी; किन्तु उसका मन दुःखी रहेगा। और दो व्यक्ति जो उसके साथ है, वे वहाँ होश में नहीं आएँगे; क्योंकि इन दोनों के ग्राही वहाँ नहीं हैं। अतः उसको चाहिए कि वह वृंदावन छोड़कर उस स्थान पर जाए, जहाँ अध्यात्म-ज्ञान रखनेवाले महापुरुष रहते हों और सत्संग-वार्ता होता हो। अध्यात्म-वार्ता सुनते-सुनते ज्ञान और वैराग्य दोनों होश में आ जाएँगे। वह भी सुखी रहेगी।’
इस प्रकार इस प्रसंग के द्वारा जाना जाता है कि वृंदावन में सगुण भक्ति की ही प्रधानता है। वहाँ ज्ञान और वैराग्य का स्थान नहीं है। और संतमत के सत्संग में भक्ति के साथ ज्ञान-वैराग्य भी सम्मिलित होता है। इसीलिए यह भक्ति-योग संयुक्त ज्ञान-यज्ञ वृंदावन के स्थान से राँची आ गया। (श्रोतागण की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि।)
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामचरित- मानस में लिखा है-
“ पावन पर्वत वेद पुराना ।
राम कथा रुचिराकर नाना ।।
मर्मी सज्जन सुमति कुठारी ।
ज्ञान विराग नयन उरगारी ।।
भाव सहित खोजै जो प्रानी ।
पाव भगति मणि सब सुख खानी ।।”
उसी भक्ति की चर्चा यहाँ पर होगी। लेकिन मात्र भक्ति अकेली नहीं है, उसके साथ ज्ञान और योग भी संयुक्त है।
आपलोगों ने पूर्व वक्ताओं से सत्संग के संबंध में बहुत-कुछ सुना होगा। इस सत्संग की क्या उपादेयता है? संसार के सभी प्राणी सुख चाहते हैं, कल्याण चाहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी बतलाते हैं कि सबसे बड़ा सुख और सबसे बड़ा दुःख कौन-सा है-
“ नहि दरिद्र सम दुख जग माहीं ।
संत मिलन सम सुख कछु नाहीं ।।”
तथा-
“ तात स्वर्ग अपबर्ग सुख, धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सत्संग ।।”
सात प्रकार के स्वर्ग हैं। इन सातो स्वर्गों के सुख को और अपवर्ग यानी मोक्ष के सुख को तराजू के एक पलड़े पर रख दीजिए और दूसरे पलड़े पर एक लव अर्थात् एक बार पलक गिरने में जो समय लगता है, उतने समय की सुखानुभूति को रख दीजिए, तो इस सत्संग के सुख के बराबर स्वर्ग और मोक्ष का सुख नहीं होगा।
श्रीमद्भागवत में कथा आयी है-महर्षि वशिष्ठ जी राजर्षि विश्वामित्रजी के यहाँ अतिथि रूप में गये। विश्वामित्रजी ने उनका यथोचित सत्कार किया। जबतक वे वहाँ रहे, विश्वामित्र जी ने सेवा में किसी प्रकार की कमी नहीं होने दी। जब वे वहाँ से प्रस्थान करने लगे, तो विश्वामित्रजी ने अपने एक हजार वर्ष के तपस्या का फल उन्हें विदाई-स्वरूप दिया। महर्षि वशिष्ठ अपने आश्रम आ गये। कुछ दिनों के बाद विश्वामित्र जी भी वशिष्ठजी के यहाँ पधारे। वशिष्ठजी ने भी उनका बहुत आवभगत किया। खाने-पीने, रहने आदि की समुचित व्यवस्था की। पश्चात् जब वे वहाँ से प्रस्थान करने लगे, तो वशिष्ठजी ने उन्हें अपने आधा पल सत्संग का फल विदाई-स्वरूप प्रदान किया। विश्वामित्र जी के मन में हुआ कि जब ये मेरे घर आए थे, तो मैंने इन्हें विदाई में एक हजार वर्ष की तपस्या का फल दिया था और ये मुझे आधा पल सत्संग का फल दे रहे हैं। कहाँ हजार वर्ष तपस्या का फल और कहाँ आधा पल सत्संग का फल! यह तो मेरा अपमान है। वशिष्ठजी तो ब्रह्मर्षि थे, उनके मन की बात भाँप गये और उनसे पूछा, ‘आपका मन खिन्न क्यों है?’ विश्वामित्रजी मन की बात को छिपा नहीं सके और सब खोलकर कह दिया। वशिष्ठजी ने कहा, ‘मुनिजी! ऐसा लगता है कि आप सत्संग की महिमा नहीं जानते हैं। मैंने जो आपको दिया, उसका मूल्यांकन आप नहीं कर सके।
अब हमलोग किसी व्यक्ति विशेष के पास चलें, जो इस बात का समाधान कर सकें।’ दोनों मिलकर ब्रह्माजी के पास गये और दोनों ने अपनी-अपनी बातें रखीं। ब्रह्माजी ने कहा, ‘मुझे सृष्टि करने से अवकाश नहीं है कि आपकी बातों को समझकर न्याय कर सकूँ। आप दोनों भगवान विष्णु के पास जाएँ, वे आपकी मदद कर सकते हैं।’ दोनों विष्णुजी के पास पहुँचे और अपनी-अपनी समस्या सुनायी। भगवन विष्णु ने कहा कि आपको तो इन विषयों के ज्ञाता के पास जाना चाहिए। जो सत्संग, योग, ध्यान आदि करते हों, वे ही आपका समाधान कर सकते हैं। मैं तो सृष्टि का पालनकर्ता हूँ। आपके विषय की मुझे जानकारी नहीं है। भगवान शंकर योगी हैं, आपलोग उनके पास जाइये। वे योग, ध्यान, सत्संग, जप, तप प्रभृति सबका रहस्य जानते हैं। वहाँ से भगवान शंकर के पास गये और दोनों ने अपनी-अपनी बातें सुनायीं।
भगवान शंकर ने सोचा कि बला कौन मोल ले! वशिष्ठजी तो शांत स्वभाव के हैं, संत हैं; ये कुछ नहीं बोलेंगे; लेकिन विश्वामित्र तो तप के धनी हैं और तपी को बहुत अहंकार होता है, कहीं शाप दे दिया तो अच्छा नहीं होगा। उन्होंने टालते हुए कहा कि देखिए, जबसे समुद्र में मंथन के बाद मैंने विषपान किया है, तबसे मेरा मस्तिष्क सही-सही काम नहीं करता है। इसलिए आपलोगों का न्याय करने में मैं सक्षम नहीं हूँ। आपलोग शेषनागजी के पास चले जाइए, वे आपका न्याय कर देंगे। दोनों मिलकर शेषनागजी के पास गये और अपनी-अपनी बात कहीं। दोनों की बातें सुनकर शेषनागजी ने कहा,‘ठीक है, मैं इन्साफ कर दूँगा। लेकिन विश्वामित्रजी! आपने जो हजार वर्ष तपस्या का फल इनको दिया है, उस फल के बल से थोड़ी देर के लिए पृथ्वी को आप धारण कीजिए। मेरे सिर पर पृथ्वी का बोझा है, मैं क्या बताऊँगा? हमारे सिर के बोझा को हल्का कीजिए, तब मैं कुछ बताऊँगा।’ हजार वर्ष तपस्या के फल का जोर लगाकर विश्वामित्रजी ने पृथ्वी उठाने का प्रयास किया; लेकिन पृथ्वी टस-से-मस नहीं हुई। फिर शेषनाग ने कहा कि वशिष्ठजी! आपने जो आधा पल सत्संग का फल विश्वामित्र जी को दिया है, उसके बल से पृथ्वी को उठाइये। वशिष्ठजी ने आधा पल सत्संग के फल को पृथ्वी को उठाने लगा। पृथ्वी अधर में उठ गयी। विश्वामित्रजी ने शेषनागजी से कहा, ‘अब तो आपका सिर हल्का हुआ, अब न्याय कीजिए।’ शेषनाग ने कहा, ‘आप तो प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि आपका हजार वर्ष का फल कुछ काम नहीं किया और आधा पल सत्संग का फल पृथ्वी को उठाए हुए हैं। अब कौन विशेष, कौन कम; सो समझ लीजिए।’ (श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)।
गोस्वामीजी द्वारा लिखित इस दोहा, ‘तात स्वर्ग अपबर्ग सुख----।’ को सुनकर कुछ सत्संगी सज्जनों के मन में जिज्ञासा हो सकती है कि भक्ति करने से मुक्ति मिलती है। और अपवर्ग या मुक्ति का फल लव सत्संग की बराबरी नहीं कर सकता, तो ऐसी भक्ति करके मुक्ति प्राप्त करने से क्या लाभ? उत्तर में निवेदन है कि अपवर्ग अर्थात् मुक्ति पाँच प्रकार की होती है-सालोक्य मुक्ति, सारूप्य मुक्ति, सामीप्य मुक्ति, सायुज्य मुक्ति और कैवल्य मुक्ति। यहाँ जिस मुक्ति के लिए कहा गया है, वह आरंभिक चार मुक्तियाँ हैं और ये चार मुक्तियाँ शरीर छूटने के बाद मिलती हैं। पाँचवीं मुक्ति कैवल्य मुक्ति जीवन-काल में ही मिल जाती है, संतों को यही मुक्ति मान्य है। यथा-
“ जीवन मुक्त सो मुक्ता हो ।
जब लग जीवन मुक्ता नाहीं, तब लग दुःख सुख भुगता हो।।”
-संत कबीर साहब
“ जीवत छूटै देह गुण जीवत मुक्ता होय ।
जीवत काटै कर्म सब, मुक्ति कहावै सोय ।।”
-संत दादूदयालजी
“ सुनि समुझहिं जन मुदित मन, मज्जहिं अति अनुराग ।
लहहिं चारि फल अछत तनु, साधु समाज प्रयाग ।।”
-गोस्वामी तुलसीदासजी
यहाँ जिन चार प्रकार की मुक्तियों की चर्चा की गयी है, उसका कैवल्य मुक्ति के साथ मेल नहीं है; बल्कि स्पष्ट बतलाया गया है-
‘पिण्डपातेन या मुक्तिः सा मुक्तिर्नतुमन्यते ।’
श्ारीर छूटने के बाद जो मुक्ति मिलती है, वास्तव में वह मुक्ति नहीं है। जिस देव की या इष्ट की जो कोई उपासना करते हैं, शरीर छूटने पर वे उन्हीं के लोक में जाकर रहते हैं, यह सालोक्य मुक्ति है। जैसे राम-रावण के युद्ध में जितने राक्षस भगवान राम के हाथों मारे गये थे, सब-के-सब वैकुंठ चले गये। उन्हें सालोक्य मुक्ति मिल गयी। सारूप्य मुक्ति का अर्थ है-इष्ट के रूप को प्राप्त कर उनके लोक में जाना। यथा-जिस समय रावण सीता का हरण करके आ रहा था, रास्ते में उनकी जटायु से भेंट हुई। जटायु और रावण का युद्ध हुआ। रावण की तलवार से घायल होकर जटायु पृथ्वी पर गिर गया। भगवान श्रीराम जब वहाँ आए, तो उन्होंने देखा कि जटायु मरणासन्न है। उनसे सब बातें पूछकर उनको अपना चतुर्भुजी रूप देकर बैकुंठ धाम भेज दिया।
“ गीध देह तजि धरि हरि रूपा ।
भूषण बहु पट पीत अनूपा ।।
स्याम गात विसाल भुज चारी ।
अस्तुति करत नयन भरि बारी ।।”
जटायु विष्णु भगवान का चतुर्भुजी रूप धारण करके वहाँ से बैकुंठ चले गये, यह है सारूप्य मुक्ति। जहाँ पर इष्ट होते हैं, उनके निकट उपासक रहते हैं, यह है सामीप्य मुक्ति। विष्णु भगवान के दरबार में जय और विजय रहता था, जिसको शाप दिया गया, तो वे ही दोनों रावण और कुंभकर्ण हुआ। भगवान के दरबार में रहने के कारण उन्हें सामीप्य मुक्ति प्राप्त थी। इष्ट के शरीर में ही समा जाना, सायुज्य मुक्ति कहलाता है। जैसे भगवान कृष्ण के हाथ से शिशुपाल का शरीर छूटता है, तो उसकी ज्योति भगवान कृष्ण में समा जाती है। कुंभकर्ण का शरीर भी जब छूटता है, तो उसकी ज्योति भगवान श्रीराम में समा जाती है। यह है सायुज्य मुक्ति। इन चारो प्रकार की मुक्तियों में शरीर रहता ही है; लेकिन जब सब शरीरों को छोड़ दिया जाता है, तब कैवल्य मुक्ति होती है। उस मुक्ति के लिए यहाँ नहीं कहा गया है। भगवान श्रीराम ने कहा हनुमान जी से कि इन चार प्रकार की मुक्तियों की मान्यता नहीं है। कैवल्य मुक्ति ही यथार्थ में मुक्ति है। इसमें जीवत्व छूटकर ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है। मुक्तिकोपनिषद् में लिखा है-
“ दर्शनादर्शने हित्वा स्वयं केवलरूपतः ।
य आस्ते कपिशार्दूल ब्रह्म स ब्रह्मवित्स्वयम् ।।”
अर्थात् हे हनुमान! दृश्य और अदृश्य को त्यागकर (पुरुष) कैवल्य-स्वरूप हो जाता है। वह केवल ब्रह्मज्ञानी नहीं, बल्कि स्वयं ब्रह्म ही है। जो अंतस्साधना करते हैं, वे अंतर्ज्योति और अंतर्नाद लाभ कर नाद से भी परे ‘निःशब्दं परमं पदम्’ में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। तब जो मुक्ति मिलती है, वस्तुतः वही मुक्ति है। सत्ंसग से जिस स्वर्ग और मुक्ति की तुलना की गयी है, वह इन्हीं चार मुक्तियों के लिए है।
सत्संग से सत् और संग; ये दो शब्द हैं। सत् क्या है? सत्स्वरूप सर्वेश्वर परमात्मा हैं उसका अभिन्न अंश शरीरस्थ जीवात्मा है। यह भी सत् है। इस अंश को उस अंशी से मिला देना यानी इस सत् को उस सत् से संग करा देना सर्वोत्कृष्ट सत्संग है। यह प्रथम श्रेणी का सत्संग है। जिन्होंने सत्य-स्वरूप सर्वेश्वर का साक्षात्कार कर लिया है, ऐसे शांतिस्वरूप महान संत के संग को भी सत्संग कहते हैं, यह द्वितीय श्रेणी का सत्संग हैं। संतों का संग महान फलदायक होता है। संत कबीर साहब तो यहाँ तक कह देते हैं-
“ परम पुरुष की आरसी, संतों की ही देह ।
लखा जो चाहे अलख को, इनहीं में लखि लेह ।।”
संतों का शरीर परम पुरुष की आरसी अर्थात् आइना है। हम अपना चेहरा देखने के लिए आइना सामने रखते हैं। उसी तरह परम प्रभु परमात्मा को देखने के लिए आइना है, वह संतों का शरीर है। परमात्मा को देखना चाहते हो, तो संतों को देखो। संत कौन होते हैं? केवल बाल बढ़ा लेने से या बाल मुड़ा लेने से, गैरिक वस्त्र धारण करने से या घर-वार छोड़ देने से कोई संत नहीं हो जाता। संत की यह परिभाषा नहीं है। संत का स्वभाव कैसा होता है, इसपर गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ तुलसी संत सुअम्ब तरु, फूलै फलै पर हेत ।
इतते वे पाहन हनै, उततें वे फल देत ।।”
संत आम वृक्ष के समान होते हैं। लोग इधर से पत्थर मारते हैं; लेकिन उधर से वह मीठा फल आम देते हैं। मार खाकर, कष्ट सहकर भी वृक्ष फल देता है। जो संत लोग होते हैं, वे सहना जानते हैं, प्रतिशोध की भावना नहीं रखते हैं। उल्टाकर कहना नहीं जानते, लड़ना नहीं जानते। कहनेवाले बड़े नहीं होते, सहनेवाले बड़े होत हैं। ईसा मसीह पर झूठा आरोप लगाकर उन्हें क्रॅास पर लटकाया गया, प्राणदंड दिया गया। वे सब कुछ सहते गये; सहन कर लिये। भगवान बुद्ध का सौरभ जब फैलने लगा, तो जिनको भगवान बुद्ध से ईर्ष्या थी, वे उनको निंदा कर झूठी बातों का दुष्प्रचार करने लगे। एक दिन का प्रसंग है-भगवान बुद्ध अपने आसन पर आसीन थे। दूर से ही उसने गालियाँ देनी शुरू की। भगवान बुद्ध सुनते रहे। जब वह आदमी नजदीक आया, तो भगवान बुद्ध ने कहा, ‘आओ मित्र बैठो।’ वह कहने लगा, ‘कौन तुम्हारा मित्र है, तुम ऐसे हो, वैसे हो, बहुत बुरा-भला कहा। बोलते-बोलते जब वह चुप हुआ, तो भगवान बुद्ध आदर से कहने लगे, ‘मित्र! क्यों गुस्सा करते हो?’ फिर भी वही गालियों की बौछार। पश्चात् जब वह चुप हुआ, तो उन्होंने आदर से उसको पास बिठाया और कहा, ‘मित्र! एक बात बतलाओ। कोई व्यक्ति संदेश लेकर किसी गृहपति के यहाँ जाए और गृहपति उस संदेश को स्वीकार नहीं करे, तो अतिथि उस संदेश को क्या करेगा?’ उस व्यक्ति ने कहा, ‘अपने साथ ले जाएगा और क्या करेगा!’ भगवान ने कहा, ‘मित्र! तुमने मेरे लिए जितने भी संदेश लाये, मैंने एक भी संदेश नहीं लिया। वह व्यक्ति लज्जित हो गया और भगवान बुद्ध के चरणों पर गिरकर उसने क्षमा याचना की। भगवान ने क्षमा कर दी। (श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
जो संत होते हैं, वे कटु-वचन और निंदा सुनते हैं, सहते हैं; किन्तु कहते नहीं हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
“ बुन्द आघात सहहिं गिरि कैसे ।
खल के वचन संत सह जैसे ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ साधो! मन का मान तियागो ।
काम क्रोध संगति दुर्जन की, ताते अहिनिसि भागो ।।
सुख दुख दोनों सम करि जानै, और मान अपमाना ।
हर्ष शोक ते रहै अतीता, तिन जग तत्त्व पिछाना ।।
अस्तुति निन्दा दोऊ त्यागै, खोजै पद निरवाना ।
जन नानक यह खेल कठिन है, कोऊ गुरुमुख जाना ।।”
जो साधु होते हैं, संत होते हैं, वे मान- अपमान से, निंदा-स्तुति से, हर्ष-शोक से ऊपर उठे हुए होते हैं। भगवान कहते हैं कि-
“ सबहिं मानप्रद आप अमानी ।
भरत प्राण सम सो मोहिं प्राणी ।।”
मान खोजने पर नहीं मिलता, माननीय जन को स्वतः मान मिलता है। हम उस योग्य होंगे, हममें पात्रता होगी, तो मान स्वयं आएगा। बल्कि मान के त्याग के लिए संतों ने कहा है-
‘मान मनी को यों तजै, जस तेली पीना रे ।’
(संत कबीर साहब)
आजकल तो खल्ली की भी कीमत हो गयी है। लेकिन कबीर साहब के जमाने में लोग तेल निकालकर खल्ली को फेंक देते थे। जिस तरह तेली तेल निकालकर खल्ली को फेंक देते थे, उसी तरह मान को त्याग देना चाहिए। संत सांसारिक आसक्ति से दूर रहते थे। उनकी ममता किसमें और कैसी होती है, गोस्वामी की वाणी में सुनिये-
“ तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार ।
राग न रोष न दोष दुख, दास भये भव पार ।।”
वे अपने परिवार की ममता में नहीं, राम की ममता में रहते हैं। वेषधारी साधु के विषय में संत कबीर साहब ने कहा है-
“ अवधू माया तजी न जाई ।।
घर को तजि के मठिया छाये, नारी तजि के चेरी ।
बेटा तजि के चेला कीना, तहु मति माया घेरी ।।”
अपने घर को तो छोड़ दिया; लेकिन मठिया बनाने में लग गये। अपनी पत्नी को तो छोड़ दिया; लेकिन चेली को नहीं छोड़ सकते। अपने बेटा को तो छोड़ दिया; लेकिन चेला को छोड़ नहीं सकते। ऐसे दंभी व्यक्ति कभी संत नहीं हो सकते।
साधु-संत कैसे होते हैं, इस संदर्भ में एक कथा है-एक साधु बाबा थे। वे जग में जल-कमलवत् रहते थे। उनको एक लड़का था। लड़का विवाह के योग्य हो गया, तो उनके शिष्यों ने उनसे कहा, ‘बाबा! आपका लड़का सयाना हो गया है, अब उसकी शादी कर देनी चाहिए।’ साधु बाबा ने उत्तर दिया,‘भाई! हम कहाँ लड़की खोजते फिरेंगे? आपलोग ही कहीं देख करके शादी कर दो।’ उन लोगों ने लड़की देखकर बात पक्की की और आकर साधु बाबा से कहा कि अमुक लड़की है, हमलोगों ने बात पक्की कर ली है। शादी की तिथि निश्चत हो गयी। शिष्यगण दुलहा-दुलहन के लिए कपड़ा खरीदने बाजार जाने लगे, तो साधु बाबा ने कहा कि भाई! कफन के लिए कपड़ा भी लेते आना। शिष्यों ने पूछा कि महाराज! इस शुभ घड़ी में आप कफन का कपड़ा लाने कहते हैं, यह तो ठीक नहीं लगता। साधु बाबा ने कहा कि अरे भाई! हम हैं, लड़का है, बहू आएगी, कभी-न-कभी तो किसी का शरीर छूटेगा ही। अगर घर में कफन का कपड़ा रहेगा, तो खोजना नहीं पड़ेगा। इसमें कौन-सी बुरी बात है! शिष्यों ने सोचा, गुरु महाराज की आज्ञा का पालन करना चाहिए। शादी के कपड़े के साथ-साथ कफन का कपड़ा भी आ गया। सब तैयारी हो गयी। पालकी की आवश्यकता पड़ी, जिसपर दुलहा बैठकर विवाह करने के लिए जाएँगे। शिष्यगण पालकी लाने के लिए जाने लगे, तो बाबा ने कहा कि पालकी के लिए जाते ही हो, तो एक अर्थी भी बनवाकर ले आना। लोगों ने पूछा, ‘महाराज! अथी का अभी क्या काम होगा?’ बाबा ने उत्तर दिया, ‘तुमलोग समझते नहीं हो, घर में ही पड़ा रहेगा, तो क्या हानि है?’ पालकी के साथ अर्थी भी आ गयी। लड़का शादी करने के लिए चला गया। शादी करके आया, तो लड़की (बहू) भी साथ में आयी। दुर्भाग्यवश उसी रात लड़के की मृत्यु हो गयी। साधु बाबा ने कहा, ‘अर्थी बनी हुई है और कफन का कपड़ा भी तैयार है, खरीदना नहीं पड़ेगा। तुमलोग लाश ले जाकर अंतिम संस्कार कर दो।’ लोगों ने कहा, ‘बाबा! आप भी तो गजब के महात्मा हैं! आप जानते थे कि लड़का मरेगा, इसलिए तो आपने कफन और अर्थी बनवाकर मँगवाए थे। जब आप जानते थे कि लड़का मरेगा, तो लड़की का जीवन आपने क्यों बर्बाद किया? आपको लड़के की शादी ही नहीं करनी चाहिए थी।’ साधु बाबा ने उत्तर दिया, ‘जब तुम जानते हो कि मैं यह बात जानता था कि लड़का मरेगा, तो मैं यह भी तो जानता हूँ कि लड़की का भविष्य क्या है? यह पूर्वजन्म की भक्तिन है। लड़का (इसका पति) इसके साथ में रहता, तो भक्ति में विघ्न होता। उस लड़के का जीवन इतने दिनों का ही था, वह चला गया। अब यह लड़की भक्ति करेगी, ध्यान करेगी और भगवान को प्राप्त कर लेगी। ऐसे होते हैं-साधु-संत और महात्मागण। साधुओ, संतों के संग-सत्संग की विशेषता बतलाते हुए भगवान श्रीराम ने कहा था-
“ बड़े भाग पाइय सतसंगा ।
बिनहिं प्रयास होय भव भंगा ।।”
जो बड़भागी होते हैं, उनको संतों का संग मिलता है, सान्निध्य मिलता है। इसीलिए कहा गया है-संतों का संग दुर्लभ है।
“ सत्संगति दुर्लभ संसारा ।
निमिष दंड भरि एकहु बारा ।।”
अगर सच्चे संत मिल जाएँ, तो हमारे पास कोई मोटर नहीं है, दृष्टि नहीं है कि हम उन्हें पहचान सकें और उनसे लाभ ले सकें। हमारे गुरु महाराज इतने बड़े महान संत थे, बहुतों को उनका सान्निध्य प्राप्त हुआ, पर लोग कितना लाभ उठा सके?
“ सद्गुरु सब कछु दीन्ह, देत कछु ना रह्यो ।
हमहिं अभागिन नारि, सुख तजि दुःख लह्यो ।।
गई पिया के महल, पिया संग न रची ।
हृदय कपट रह्यो छाय, मान लज्या भरी ।।”
गंगाजी की धारा बहती है, वह किसी से नहीं कहती तुमको एक किलो जल दूँगी, तुमको एक क्विंटल जल दूँगी या एक टन जल दूँगी। हमारे पास जितना बड़ा पात्र है, गंगाजी से हम उतना जल ले आते हैं। उसी तरह गुरु की कृपा प्रवाहित होती रहती है, लेनेवाले की पात्रता पर निर्भर करता है कि वह कितना ले पाता है। एक दिन मैंने गुरु महाराज से पूछा कि कबीर साहब की जो वाणी है-
‘सद्गुरु सब कछु दीन्ह, देत कछु ना रह्यो ।’
सद्गुरु तो केवल दीक्षा देते हैं, यत्न बतला देते हैं कि इस तरह से ध्यान करो। ‘सब कछु दीन्ह’ का क्या अर्थ हुआ? गुरु महाराजजी बोले कि कोई अपने खजाने की चाभी आपको दे दे, तो खजाना आपको मिल गया कि बाकी रह गया? जब चाभी दे दी, तो सब कुछ मिल गया। जब चाहेंगे हम ताला खोलकर ले लेंगे। उसी तरह परमात्मा को पाने के लिए चाभी दे दी गयी है, उसे प्राप्त कर व्यक्ति सब कुछ प्राप्त कर सकता है। परमात्मा ही तो खजाना है, माया का पट खोलिए और मायापति को पाइए।
एक वकील साहब गुरु महाराज से दीक्षा लेने के लिए आए। गुरु महाराज मेरा नाम लेकर बोले कि उनसे दीक्षा ले लीजिए, आजकल मैं दीक्षा नहीं देता हूँ। वकील साहब तो वकील साहब ही ठहरे, उन्होंने गुरु महाराज से कहा, ‘हुजूर! मेरा तो मन आपसे ही दीक्षा लेने का; लेकिन आप कहते हैं कि उनसे ले लीजिए।’ गुरु महाराज ने उत्तर दिया, ‘मान लीजिए, मेरी आलमारी में मेरे रुपये रखे हुए हैं और आपको रुपये की जरूरत पड़ गयी। आपने मुझसे रुपये के लिए कहा। तो मैंने अपने किसी आदमी को कहा कि आलमारी से रुपये निकालकर दे दो, तो रुपये निकालकर उसने आपको दे दिया। तो बताइये, मैंने दिये या उसने? (श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)। उसी तरह मैंने उनको आज्ञा दी है कि वे आपको दीक्षा बतला दें। वह ज्ञान तो मेरा ही है।
जिस समय में संत होते हैं, उस समय उनको पहचान ही नहीं हो पाती है। लोग उनको गालियाँ देना जानते हैं, अपमान करना जानते हैं, जान मारने के लिए भी जानते हैं; लेकिन उनसे ज्ञान के लिए नहीं जानते। यह तो हमारी दृष्टिहीनता-दुर्दीनता है। हम संतों की पहचान ही नहीं कर पाते हैं, तो फिर उनके संग का लाभ कहाँ से मिले? सर्वेश्वर को प्राप्त करने के कारण संत सत्-स्वरूप होते हैं और उनकी वाणी सत्-वाणी होती है। इसलिए म उन संत वाणियों का संग करें। उन्होंने क्या कहा है, उसके अनुकूल अपना आचरण बनावें, तो यह तीसरे दर्जे का सत्संग है। सत्संग से हमारा जीवन कल्याणमय होगा। सुन्दरदासजी महाराज कहते हैं-
“ जो कोइ जाय मिलै उनसूँ,
नर होत पवित्र लगै हरि रंगा ।
दोष कलंक सबै मिट जाए,
सुँ नीचहु जाइ सो होत उतंगा ।।
ज्यों जल मलिन महा अति,
गंग मिल्यो हुई जात है गंगा ।
सुन्दर शुद्ध करै तत्काल जु,
है जग माहि बड़ो सत्संगा ।।”
गंदे नाले का जल जब गंगाजी में जाकर मिल जाता है, तो वह पवित्र हो जाता है, गंगाजल हो जाता है। इसी तरह जो सत्संग में आते हैं, संतों का संग करते हैं, संतवाणियों कें अनुकूल आचरण करते हैं, उनका जीवन परम पवित्र हो जाता है, एक दिन वे भी संत हो जाते हैं।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 15-2-2003 ई0 को 92वें अखिल भारतीय संतमत-सत्संग वार्षिक महाधिवेशन, हाइटेन्सन मैदान, नामकुम, राँची में आयोजित सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अप्रैल 2003 ई0)

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माननीय मुख्यमंत्री महोदय, समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
आप जिन विज्ञ सज्जनों ने मुझ अज्ञ-अकिंचन का स्वागत और अभिनंदन किया है, उन सबका मैं हार्दिक अभिवंदन करता हुआ अनेकानेक धन्यवाद देता हूँ। माननीय मुख्यमंत्री श्रीबाबूलाल मरांडीजी की शालीनता, विनयशीलता, लोकप्रियता और लोकोपकारिता से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मैं इनको अनेकानेक धन्यवाद और शुभाशीर्वाद देता हूँ।
संतमत-सत्संग में संतवाणी की प्रधानता होती है। इसलिए सत्संग-आरंभ में किन्ही न किन्हीं संत की वाणी का पाठ किया जाता है। आपलोगों ने अभी रामचरितमानस का पाठ सुना, जिसमें मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने अपने राजत्वकाल में गुरुजन, पुरजन, सज्जन, जननिजन और भगिनीगण को सम्बोधित करते हुए उपदेश किया था। भगवान श्रीराम नरतन की उपदेयता बतलाते हुए कहते हैं-
“ बड़े भाग मानुष तन पावा ।
सुर दुर्लभ सब ग्रन्थहिं गावा ।।
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा ।
पाइ न जेहि परलोक सँवारा ।।”
“ सो परत्र दुख पावइ, सिर धुनि धुनि पछताय।
कालहि कर्महिं ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाय।।”
आपलोगों को जो नरतन मिला हुआ है, यह आपका बहुत बड़ा भाग्य है। आप्तवचन, आर्षवचन विश्वनीय होते हैं। विश्वास करने योग्य होते हैं। विचारणीय विषय यह है श्रीराम नर शरीर में थे और लंका का महाप्रतापी राजा रावण भी नर शरीर में ही था, पर क्या दोनों की तुलना की जा सकती है? जहाँ भगवान श्रीराम को हम एक महान देव की दृष्टि से देखते हैं, वहीं रावण को दानव की दृष्टि से देखते हैं। जबकि दोनों मानव शरीर में ही थे। हम सोचें कि देव कौन, दानव कौन और मानव कौन? एक बार का प्रसंग है।
देव, दानव और मानव ये तीनों ब्रह्माजी के पास उपनीत हुए। प्रणाम निवेदित कर तीनों ने प्रार्थना की-‘प्रभु! कुछ शिक्षा दी जाय।’ ब्रह्माजी ने उपदेश दिया-वर्णमाला का एक अक्षर ‘द’ और कहा तुम तीनों को मैंने ‘द’ का उपदेश दिया, अब जाओ। दानव जाने लगे तो ब्रह्माजी ने पूछा-‘‘मैंने जो ‘द’ अक्षर का उपदेश दिया, तुमने क्या समझा?’’ दानव ने कहा-‘‘जी हाँ, समझ लिया। हम दानव हैं, मार-काट, लूट-पाट, अपहरण, निदर्यता, क्रूरता इन सब अवगुणों से भरे पड़े हैं। आपने ‘द’ अक्षर का उपदेश देकर बताया कि दया करो।’’ ब्रह्माजी ने संकेत किया जाओ, तुमने ठीक समझा। दानव चले गये। देव चलने लगे तो ब्रह्माजी ने पूछा कि मैंने जो ‘द’ अक्षर का उपदेश दिया तुमलोगों ने क्या समझा? देवों ने कहा-‘‘जी हाँ, समझा। हम देव विषय- विलासी होते हैं, इन्क्तियों के बहावे में बह जाते हैं और जो मन कहता है, करने लग जाते हैं। आपने ‘द’ अक्षर का उपदेश देकर बतलाया है कि इन्क्तियों का दमन करो।’’ ब्रह्माजी ने कहा-‘ठीक है, जाओ, फिर ब्रह्माजी ने मानव से पूछा- “ मैंने जो ‘द’ का उपदेश दिया, तुमने क्या समझा?” उन्होंने कहा-‘हम तो मानव हैं, येन-केन- प्रकरेण धन-संग्रह करते हैं। आपने उपदेश किया है कि दान दिया करो। ब्रह्माजी ने कहा-‘तुमने भी ठीक समझा, जाओ।’
अब हम मन में विचार करें कि हम देव, दानव या मानव, किस श्रेणी में हैं? जब लंका में श्रीराम और रावण का युद्ध हो रहा था तो रावण अपनी माया से कभी बालू की वर्षा करता था, कभी रक्त की वर्षा करता था, कभी हड्डियों की वर्षा करता था, कभी अंधकार बना देता था, कभी रावण रथ के साथ गुप्त हो जाता था, तो कभी वह प्रकट हो जाता था। रावण ने कहा-‘राम! यदि तुम रण से भाग नहीं गए तो मैं तुम्हें निश्चय ही काल के हवाले कर दूँगा। आज तुम्हें कठिन रावण से पाला पड़ा है।’ भगवान श्रीराम ने उत्तर दिया-
“ सत्य सत्य सब तव प्रभुताई ।
जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई ।।”
“ जनि जल्पना करि सुजस नासहि नीति सुनहि करहि छमा ।
संसार महँ पूरुष त्रिविध, पाटल रसाल पनस समा ।।
एक सुमन प्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागही ।
एक कहहिं कहहि करहि अपर एक, करहिं कहत न बागही ।।”
अर्थात् रावण! तुम्हारी सारी प्रभुता सच है, पर बकवास करके तुम समय को बरबाद क्यों करते हो।’ अपना पुरुषार्थ दिखाओ। बकवास करके अपने सुयश का नाश न करो। क्षमा करना, तुम्हें नीति सुनाता हूँ। संसार में तीन तरह के पुरुष होते हैं। एक गुलाब फूल के समान, दूसरे आम के समान और तीसरे कटहल के समान। गुलाब में केवल फूल होता है, उसमें फल नहीं होता। उसी तरह संसार में ऐसे भी आदमी होते हैं, जो बातें तो बड़ी लंबी-चौड़ी बनाते हैं; लेकिन करते कुछ भी नहीं। दूसरे व्यक्ति होते हैं, आम के समान। आम में मंजर होता है और फल भी होता है। अर्थात् जो वे बोलते हैं, वे करके दिखला देते हैं। तीसरे कटहल के समान होते हैं। कटहल में फूल नहीं होता है, फल ही फल लगते हैं। उसी तरह कुछ व्यक्ति इस तरह के होते हैं, जो मुँह से कुछ नहीं कहते, पर करने योग्य काम को करके दिखला देते हैं।
शास्त्र कहता है इन तीनों के अतिरिक्त और भी चार तरह के लोग होते हैं। एक होते हैं बेर के समान, दूसरे होते हैं शिला के समान, तीसरे होते हैं नारियल के समान और चौथे होते हैं अंगूर के समान। बेर में ऊपर में गुद्दा होता है, पर उसके नीचे में गुठली बड़ी कड़ी होती है। उसी तरह कुछ लोग इस तरह के होते हैं कि ऊपर से मुलायम बात बोलते हैं; लेकिन उनका भीतर बड़ा कड़ा होता है। वे बहुत क्रूर होते हैं। दूसरे होते हैं शिला के समान। बाहर भीतर एक समान अर्थात् वचन भी कटु और हृदय भी पत्थर के समान। तीसरे होते हैं नारियल के समान। नारियल का ऊपर का भाग बहुत कठोर होता है; लेकिन भीतर का भाग बहुत ही मुलायम और स्वच्छ होता है। उसमें जल भी होता है। अर्थात् कुछ लोग इस तरह के होते हैं कि बोलने के समय वे कठोर वचन बोल देते हैं; लेकिन हृदय उनका बड़ा पवित्र, मुलायम और शीतलता लिये होता है। चौथे तरह के व्यक्ति अंगूर के समान होते हैं। अंगूर ऊपर से मुलायम और भीतर से भी मुलायम, खाइये तो मीठा और पौष्टिक भी। उसी तरह कुछ इस तरह के लोग होते हैं, जो वचन से मीठे होते हैं, व्यवहार से भी मीठे होते हैं। सब तरह से उपकारी होते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ विषयी साधक सिद्ध सयाने।
त्रिविध जीव जग वेद बखाने।।”
विषयी, साधक और सिद्ध; तीन तरह के लोग संसार में होते हैैैं। विषयी लोगों की उपमा गोबरैली मक्खी से दी जाती है। गोबरैली मक्खियाँ पखाने और गोबर की गोलियाँ बनाती रहती हैं और लुढ़काकर इधर से उधर, उधर से इधर करती रहती है। निकट ही अगर फुलवाड़ी में फूल खिले हों तो भी वे वहाँ नहीं जातीं। उसी तरह कुछ लोग विषयों में इतने रमे रहते हैं कि उनको सद्ज्ञान नहीं सुहाता, जहाँ सत्संग होता, वे वहाँ नहीं जाते। ऐसे लोगों के बारे में तुलसीदासजी कहते हैं-
“ निसि वासर रुचि पाप असुचि मन ,
खल मति मलिन निगम पथ त्यागी ।
सुत वित दार भवन ममता निसि ,
सोवत अति न कबहुँ मति जागी ।।”
दूसरे लोग जो साधक हैं। उनका मन घर की मक्खियों की तरह होता है। मक्खियाँ जहाँ मिठाइयों पर बैठकर उनका रसास्वादन करती हैं, वहीं यदि उन्हें मिठाइयों पर से उड़ा दीजिए वे नन्हें-मुन्नें के पखाने पर भी चली जाती हैं। पखाना को फेंककर साफ कर दीजिए तो वे फिर से उड़कर मिठाइयों पर चली जाती हैं। उसी तरह साधक का मन कभी विषय में जाता है और कभी निर्विषय-भगवान के भजन में भी जाता है।
तीसरे होते हैं सिद्ध वा संत। उनका मन मधु मक्खियों के समान होता है। मधुमक्खियाँ फूल के पराग को लेती हैं और उसका ध्यान इधर-उधर नहीं रहता। उसी तरह जो संत होते हैं, वे प्रभु के पाद-पद्मों में ही अनुराग रखते हैं। उन्हें सांसारिक विषय भोगों से कोई लगाव नहीं होता।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने चार प्रकार के भक्तों की चर्चा की है। यथा-आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी। आर्त भक्त वे होते हैं, जो किसी कारणवश दुःख पाकर उससे छूटने के लिए भगवान का स्मरण करते हैं। जैसे कौरवों की सभा में जब द्रौपदी की साड़ी खींची जाने लगी तो द्रौपदी ने आर्त पुकार की। भक्त के पुकारने में देर होती है, भगवान के पधारने में देर नहीं होती। अव्यक्त रूप से भगवान आकर द्रौपदी की साड़ी में प्रवेश कर गए। दुःशासन का भुजा-बल समाप्त हो गया; लेकिन साड़ी समाप्त नहीं हुई। द्रौपदी की प्रतिष्ठा बच गई। भगवान आर्त पुकार सुनते हैं।
दूसरे अर्थार्थी भक्त होते हैं, जो विपन्नता की स्थिति से उबरने के लिए प्रभु को याद करते हैं। बेचारे सुदामा अर्थहीन थे। अपनी गरीबी से तंग आकर भगवान कृष्ण के यहाँ गए, पर मित्रता के कारण लज्जा से कुछ बोल नहीं पाये। भगवान तो अंतर्यामी ठहरे, वे सुदामा के हृदय की बात समझ गये और उन्हे धन-धान्य से पूर्ण कर दिया।
तीसरे होते हैं जिज्ञासु। वे पारमार्थिक जिज्ञासा करते-फिरते हैं। स्वाध्याय करते हैं, सदग्रन्थों का अवलोकन करते हैं, सत्संग करते हैं, ज्ञानार्जन करते हैं और शान्ति की खोज भी करते हैं। जिस ज्ञान से मुक्ति मिलती है, मोक्ष मिलता है, आवागमन चक्र छूटता है, उसके लिए वे जिज्ञासा करते हैं। वे हैं जिज्ञासु भक्त।
चौथे होते हैं ज्ञानी, जिन्हें हम संत भी कहते हैं। उनको सांसारिक वस्तुओं की कुछ भी चाहना नहीं होती। वे आत्मा को पहचान कर आत्मनिष्ठ रहते हैं।
“ चाह गई चिन्ता मिटी, मनुवा बेपरवाह ।
जाको कछु न चाहिये, सोई साहंसाह ।।”
-संत कबीर साहब
संत को शाहंशाह कहा गया है, क्यों? इसलिए कि बादशाह बन जाने पर भी चाह बनी ही रहती है, पर संतों को कोई चाह नहीं होती।
एक समय का प्रसंग है। एक फकीर के मन में हुआ कि बादशाह अकबर बड़े दानी हैं, उनसे कुछ प्राप्त करें। यह सोचकर वे फकीर बादशाह अकबर के दरबार में गये। संयोग ऐसा था कि वह नमाज का समय था। बादशाह अकबर ने बड़े आदर-सत्कार से फकीर को बैठाया और कहा हज़रत थोड़ी देर तशरीफ रखें। मैं जरा नमाज अदा कर लेता हूँ, फिर आपसे बातें करुँगा। फकीर साहब वहाँ बैठ गए। बादशाह अकबर नमाज अदा करने के बाद अल्लाह से माँगने लगे-‘परवरदिगार! मुझे तन्दुरुस्ती दे, मेरी औलाद को खुशनसीब बना, मेरे खजाने में बरक्कत दे, मेरी फौज को कामयाब कर--- आदि आदि। बेचारे फकीर धीरे से उठकर चलने लगे। बादशाह अकबर नमाज तो अदा कर की चुके थे, देखा कि फकीर साहब जा रहे हैं। आगे बढ़कर बादशाह ने पूछा-फकीर साहब! मुझसे क्या खता हो गयी, आप मेरे पास आये और बिना कुछ बातें किये चले जा रहे हैं। फकीर ने उत्तर दिया-‘बादशाह! तुमसे कोई खता नहीं हुई, खता मुझसे हो गयी। मैंने सुना था कि तुम बहुत बड़े दानी हो, इसलिए तुम्हारे पास कुछ याचना करने के लिए आया था; लेकिन तुम तो खुद ही गरीब हो। मैंने अभी-अभी तुम्हें खुदा से बहुत कुछ माँगते सुना। सोचता हूँ कि तेरी खुशामद से अच्छा है कि तुम जिससे माँगते हो, मैं भी उसी से क्यों न माँग लूँ।’ जो बादशाह होते हैं उनमें भी चाह होती है; लेकिन जो संत होते हैं उनमें कोई चाहना नहीं होती है।
संसार में और भी चार तरह के व्यक्ति होते हैं। एक होते हैं मक्खीचूस, दूसरे होते हैं कंजूस, तीसरे होते हैं उदार और चौथे होते हैं दानी। मक्खीचूस ऐसे होते हैं कि घी में अगर मक्खी गिर गई हो तो निकालकर वैसे फेंकते नहीं; क्योंकि घी बर्बाद हो जाएगा, बल्कि उसे चूसकर तब फेंकते हैं। जो कंजूस होते हैं अपने लिए तो खर्च करते हैं, पर दूसरे को कुछ भी देते नहीं। जो उदार होते हैं, वे अपने लिए भी व्यवस्था करते हैं और दूसरे के लिए भी करते हैं। दानी व्यक्ति अपनी परवाह नहीं करके दूसरे का कल्याण कैसे हो, दूसरे को सुख किस तरह पहुँचे इसके लिए तन, मन, धन सब देने को तैयार रहते हैं। हमारे यहाँ दानियों में दाता कर्ण का नाम बहुत आदर से लिया जाता है।
महाभारत का युद्ध चल रहा था। अर्जुन के वाणों से घायल होकर कर्ण गिर पड़े। अभी प्राण-पखेरू उड़े नहीं थे; लेकिन असक्त हो गए थे। कौरव के दल में लोग दुःख मना रहे थे। भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डव दल में थे; लेकिन रह-रहकर आहें भरते थे। वे कहते थे-‘आज संसार का सबसे बड़ा दाता उठ गया।’ कर्ण की प्रशंसा करते थे। कर्ण की प्रशंसा अर्जुन के कर्ण को कब सुहाबे ? मन-ही-मन वह कहने लगा, पीछे उसने खुलकर भी कहा कि भगवान्! आप यह क्या कह रहे हैं। आपको मालूम नहीं है कि हमारे भाई युधिष्ठिर कितने बड़े दानी हैं, कितने बड़े सत्यवादी हैं। भगवान् ने कहा-‘तुमको पता नहीं, कर्ण कैसा दानी है। अब भी वह जीवित ही है, मरा नहीं है। चलो मेरे साथ, मैं दिखा दूँ।’ रात का समय है। अंधकार का साम्राज्य है। युद्ध के मैदान में गीदड़ों का राज्य है। भगवान् कृष्ण जाते हैं एक ब्राह्मण का वेश बनाकर। अर्जुन थोड़ी दूर पर उनके पीछे रहते हैं। दूर से ही भगवान् पुकारते हैं-‘दाता कर्ण! कहाँ हो?’ उस अवस्था में भी अपना नाम सुनकर कर्ण अपना सिर उठाते हैं और कहते हैं कि इस समय कौन मेरा नाम लेकर पुकार रहे हो, सामने आओ। भगवान् ब्राह्मण के वेश में वहाँ पर जाते हैं और कहते हैं-‘मैं एक ब्राह्मण हूँ।’ कर्ण ने कहा-‘क्या चाहिये आपको? उन्होंने कहा-‘मुझे दो सरसों के बराबर सोना चाहिए।’ कर्ण ने कहा-‘देखो ब्राह्मण देव! मैं तो मृत्युशय्या पर पड़ा हूँ, दो सरसों की बात कौन कहे, तुम जितना सोना लेना चाहो, मेरे घर चले जाओ, मेरी पत्नी वहाँ पर है, माँग लेना, तुम्हारी इच्छा पूरी कर देगी। ब्राह्मण वेशधारी भगवान् ने कहा-‘मैं तो तुमसे माँगने आया हूँ। हमारी पत्नी देगी, हमारा भाई-भतीजा देगा; यह बहलाने की क्या बात है ? देना है तुमको, तो दो, नहीं तो सीधा जबाब दो। यह बहानाबाजी क्यों ?’ कर्ण को याद आई कि मेरे मुँह में जो दाँत हैं, उनमें सोने लगे हुए हैं। उन्होंने कहा-‘ब्राह्मण देवता! मैं अशक्त हूँ, मेरे दाँतों में जो सोना लगा हुआ है, इसे निकाल लो। ब्राह्मण वेशधारी भगवान् ने कहा-‘ब्राह्मण हूँ इसलिये कि दूसरे के दाँतों को तोड़ूँ और फिर सोना लूँ। तुम मुझे क्या सिखला रहे हो? तू अपना सोना अपने पास रख।’ कर्ण फिर सम्भलता है और कर जोड़कर कहता है-‘ब्राह्मण देवता! वह पत्थर का टुकड़ा मुझे दीजिये। मैं स्वयं दाँत तोड़कर सोना निकाल कर आपको दूँगा। भगवान् ने कहा-‘तेरा नाम तो मैंने बहुत सुना था। आज प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। तू मुझसे चाकरी करवायेगा, तू मुझसे पत्थर ढुलावायेगा, फिर मुझे सोना देगा। वाह रे दाता, वाह रे दानी!’ यह सुनकर कर्ण स्वयं घिसककर येन-केन प्रकारेण उस पत्थर के पास जाता है और अपना मुँह उसपर दे मारता है। उसके दाँत टूट जाते हैं, सोना को वह हाथ में ले लेता है और कहता है-‘लीजिए ब्राह्मण देवता।’ वे तीन डेग और पीछे हो जाते हैं। ब्राह्मण देवता-‘अरे झूठा, ब्राह्मण को तू जूठा देता है! तू यही दानी है!’
उस अवस्था में भी कर्ण येन-केन प्रकारेण धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाता है और धरा पर वाण मारता है। तत्क्षण उससे पानी का फब्बारा निकल आता है। उसमें वह सोने को धोकर भगवान् के हाथ में रख देता है। अब भगवान् अपने रूप में प्रत्यक्ष उसके सामने हो जाते हैं और कहते हैं-‘कर्ण! मांग क्या मांगता है?’ कर्ण ने कहा-‘भगवन्! कर्ण तो मात्र देता ही है, वह लेना नहीं जानता और जब इस अन्तिम घड़ी में आप दर्शन दे ही रहे हैं, तो इसके अतिरक्ति मुझे अब क्या चाहिये?’ उनके चरणों पर सिर रखकर कर्ण लुढ़क जाता है और शरीर त्याग देता है। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि और सद्गुरु महाराज रो पड़े)
किसी समय गरुड़जी ने कागभुशुण्डिजी से पूछा था कि सबसे विशेष शरीर कौन है? तो इसके उत्तर में कागभुशुण्डिजी ने कहा-
“ नरतन सम नहिं कवनिउ देही ।
जीव चराचर जाचत जेही ।।
नरक सरग अपवर्ग निसेनी ।
ज्ञान विराग भगति सुख देनी ।।”
अर्थात् मनुष्य शरीर के समान और दूसरा कोई शरीर नहीं है। इस मनुष्य-शरीर को चर और अचर सब जीव चाहते हैं। इसी विशेषता यह है कि इसमें नरक में जाने का जीना है, स्वर्ग जाने की सीढ़ी है और नजात अर्थात् मुक्ति में जाने की निसेनी है।
जब हम कुरान शरीफ पढ़ते हैं, तो उसके सुरे फातिहा में ठीक यही बातें आयी हैं। यथा-‘ऐ कयामत के दिन का मालिक! मुझे सीधा रास्ता दिखला। मुझे वह रास्ता दिखला, जिसपर तुम्हारी मेहर हुई है। मुझे वह रास्ता नहीं दिखला, जिसपर तुमने गजब ढाया है।’
विचारणीय बात यह है कि अल्ला तो दयावान हैं, मेहरवान हैं, फिर उनकी मेहर किसपर होती है और क्रूर दृष्टि किसपर रहती है? रामचरितमानस में आया है-
“ एक पिता के विपुल कुमारा ।
होहिं पृथक गुन सील अचारा ।।
कोउ पंडित कोउ तापस ज्ञाता ।
कोउ धनवन्त सुर कोउ दाता ।।
कोउ सर्वज्ञ धर्म रत कोई ।
सब पर पितहिं प्रीति सम होई ।।”
इस लोक में जब पिता की दृष्टि सब संतानों पर सम होती है, तो जो परम पिता परमात्मा हैं, उसकी क्रूर दृष्टि क्यों और दया-दृष्टि क्या? रामचरितमानस में इसका उत्तर लिखा है-
“ जद्यपि सम नहिं राग न रोषू ।
गहहिं न पाप पून गुन दोषू ।।
करम प्रधान बिस्व करि राखा ।
जो जस करइ तस फल चाखा ।।”
परमात्मा राम सम हैं, उनमें राग-रोष नहीं हैं और न वे किसी का पाप-पुण्य या गुण-दोष ही ग्रहण करते हैं। उन्होंने विश्व में कर्म को ही प्रधान बना रखा है। जो जैसा करता है, वह वैसा ही फल भोगता है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है-
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।’
भगवान का कथन है कि तुम कर्म करो और तुम्हारे कर्मानुसार मैं तुम्हें फल प्रदान करूँगा। यद्यपि परमात्मा की दृष्टि अपनी सभी संतानों पर सम रहती है, वे किसी को दुःख देना नहीं चाहते हैं; लेकिन अपने कर्मानुसार ही अलग-अलग रूप में लोग फल-प्राप्त करते हैं। कुरान शरीफ में लिखा है कि जो बुरे-बुरे कर्मों को करते हैं-झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, व्यभिचार करते हैं, नशीली चीजों का सेवन करते हैं, मार-काट, लूटपाट, अत्याचार, अनाचार, दुराचार आदि दुष्कर्मों को किया करते हैं, अल्ला उनको दोजक (नरक) की आग में जलाते हैं और जो काय-वचन मन से परोपकारी होते हैं, दूसरों की भलाई करनेवाले होते हैं, शुभ कर्मों को करते हैं, पाप कर्मों से अलग रहते हैं, उन्हें अल्ला वहिश्त (स्वर्ग) देते हैं। इतना ही नहीं, जो व्यक्ति सीधा रास्ता पकड़ते हैं, अल्लाह उनको नजात (मोक्ष) देते हैं। वह सीधा रास्ता क्या है? दुनिया में कहीं सीधा रास्ता नहीं है। एक परम प्रभु परमात्मा के पास जाने का जो रास्ता है, वह भीतर का रास्ता है और वही एक सीधा रास्ता है। संत तुलसी साहब ने कहा है-
“ क्यों भटकता फिर रहा तू, ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए ।।
होगा फजल दर्गाह तक खौफो खतर की जा नहीं ।
सीधे चला जाना वहाँ मुर्शद ने यह फतवा दिया ।।
मनसूर सरमद बूअली और शम्श मौलाना हुए ।
पहुँचे सभी इस राह से जिसने कि दिल पुख्ता किया ।।”
अगर अल्लाह परवरदिगार के पास जाना चाहते हो, परम प्रभु परमात्मा से मिलना चाहते हो, तो एक ही रास्ता है और वह रास्ता शहरग में है। अरबी-फारसी में जिसको ‘शहरग’ कहते हैं-संस्कृत में उसी को ‘सुषुम्ना’ कहते हैं।
हिन्दू हो या मुसलमान, जैन हो या बौद्ध, सिक्ख हो या ईसाई, दुनिया के किसी धर्म,मजहब, या सम्प्रदाय के व्यक्ति हों, परमात्मा ने सबके देखने के लिए एक ही रास्ता बनाया है और वह रास्ता है आँखें। सबके सुनने का एक ही रास्ता है, वह है कान। गंध-ग्रहण करने का, श्वास लेने का, भोजन करने का और मल-मूत्र विसर्जन करने का एक-एक मार्ग निश्चित किया है। उसी तरह प्रत्येक मनुष्य के अंदर परमात्मा तक पहुँचन का एक ही मार्ग है।
कुरान शरीफ अलबकरा के पारा 2 और सूरा 2 में लिखा है, ‘आरंभ में सब एक ही मार्ग पर थे।’ वह एक मार्ग कौन-सा है? वह एक मार्ग भीतर का मार्ग है। हमलोगों के शरीर में 72 करोड़ नाड़ियाँ हैं। उन 72 करोड़ नाड़ियों में 101 नाड़ियाँ मुख्य हैं। उन 101 नाड़ियों में 9 नाड़ियाँ मुख्य हैं। उन नौ नाड़ियों में 3 नाड़ियाँ मुख्य हैं, जिन्हें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना कहते हैं। उन तीन नाड़ियों में एक मुख्य है-सुषम्ना। ये इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना कहाँ हैं? योगशिखोपनिषद् में लिखा है-
“ इडा तिष्ठति वामेन पिंगला दक्षिणेन तु ।
तयोर्मध्ये परं स्थानं यस्तद्वेद स वेदवित् ।।”
इड़ा बाईं ओर रहती है और पिंगला दाहिनी ओर। उन दोनों के बीच में जो स्थान है (सुषुम्ना), उसको जो जानता है, वही वेदज्ञ है।।
“ वामदक्षे निरुन्धन्ति प्रविशन्ति सुषुम्नया ।
ब्रह्मरन्ध्रं प्रविश्यान्तस्ते यान्ति परमां गतिम् ।।”
जो बायें और दायें को रोकता है अर्थात् इड़ा और पिंगला को रोकता है, वह सुषुम्ना में प्रवेश करता है। यह सुषुम्ना ही ब्रह्मरन्ध्र ब्रह्म में जाने का छिद्र है, जिसमें प्रवेश कर साधक मुक्ति को प्राप्त करता है। यह उत्कृष्ट कार्य मनुष्य-शरीर से ही होने योग्य है और यही इस शरीर की उपादेयता है। अब हम अपने लिए जरा सोचें कि हमको किधर जाना है। नरक दुःखालय है, इसलिए इसमें जाना कोई पसंद नहीं करता है। कुछ लोग स्वर्ग में जाना चाहते हैं; लेकिन भगवान श्रीराम कहते हैं-
‘स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई ।’
हम यहाँ से कुछ पैसे कमाकर घूमने के लिए विदेश चले जाते हैं, तो वहाँ हम कितने दिनों तक रहेंगे? जितने दिनों तक रहेंगे? जितने दिनों तक खर्च करने के पैसे हैं। पैसे समाप्त हुए, पुनः स्वदेश लौटना पड़ेगा। उसी तरह अर्जित पुण्य के बल पर स्वर्ग जाते हैं, पर वहाँ का सुख-भोग सब दिनों के लिए नहीं मिलता है। पुण्य समाप्त होने पर पुनः मर्त्यलोक वापस आना पड़ता है। इसलिए संत और भगवन्त कहते हैं, स्वर्ग की आशा मत करो। संत तुलसी साहब का वचन है-
“ नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहत पुकार ।।
सब कोइ कहत पुकार, देव देही नहिं पावै ।
ऐसे मूरख लोग, स्वर्ग की आस लगावै ।।
पुन्य छीन सोइ देव, स्वर्ग से नरक में आवै ।
भरमै चारिउ खानि, पुन्य कहि ताहि रिझावै ।।
तुलसी सत मत तत गहे, स्वर्ग पर करे खखार ।
नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहत पुकार ।।”
स्वर्ग से तो लौटना पड़ता है, पर जब अंतस्साधना के द्वारा निःशब्द परम पद में प्रतिष्ठित होते हैं, तो वही परमात्मा का धाम है, जहाँ से लौटकर दुःखमय संसार में आना नहीं पड़ता है। वह स्थान कैसा है?
“ न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।।”
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, उस पद को सूर्य, चन्द्र, अग्नि प्रकाशित नहीं करती है। उसमें जाकर फिर इस संसार में लौटकर आना नहीं पड़ता। ऐसा मेरा परम धाम है।
जब हम आँखें बंद करते हैं, तो अंधकार मालूम पड़ता है। हम इसी अंधकार में पड़े हुए हैं। जबतक इस अंधकार को देखते रहेंगे, तबतक हमारे लिए नरक जाने का रास्ता खुला हुआ है। जब हम अंतस्साधना करके अंतःप्रकाश पायेंगे, तो वह प्रकाश का मार्ग स्वर्ग का मार्ग है और प्रकाश-प्राप्ति के पश्चात् जो साधना करके अंतर्नाद प्राप्त करते हैं, वे ही परम प्रभु परमात्मा का साक्षात्कार कर मुक्ति-प्राप्त करते हैं। अतः नादानुसंधान ही नजात (मोक्ष) में जाने का रास्ता है। अर्थात् अंधकार नरक का, प्रकाश स्वर्ग का और शब्द-साधना मोक्ष का रास्ता है। मोक्ष का अर्थ है-जन्म-मृत्यु या आवागमन के चक्र से निकल जाना। वस्तुतः संसार में आवागमन ही सभी दुःखों का मूल कारण है। इस मूल को यह भगवद्भजन निर्मूल कर देता है। इसलिए इस मनुष्य -शरीर की उपादेयता विषय-भोगों की बहुलता में नहीं, बल्कि भगवद्भजन की मादकता में है। संतमत बतलाता है कि-घरवार, परिवार, रोजगार आदि छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। परिवार में रहो; लेकिन जल में कमलवत् रहो। अगर मन संसार में लगा हुआ है, तो घर छोड़ने से कोई संन्यासी नहीं होता है। गुरु महाराज कहते हैं-
“ अनासक्त जग में रहो भाई ।
दमन करो इन्द्रिन दुखदाई ।।”
पवित्र कमाई से अपना जीवन-यापन करो। परिवार का भरण-पोषण करो। अपनी योग्यता के अनुकूल विश्व की सेवा करो। संसार में अनासक्त रहते हुए अपने दायित्वों का निर्वहन करो। जब जीव, पीव से मिलकर एक हो जाएगा, तो यह मानव-जन्म सार्थक हो जाएगा। अगर हम ऐसा नहीं करते, तो भगवान श्रीराम कहते हैं-
“ सो परत्र दुख पावई, सिर धुनि धुनि पछताय ।
कालहि कर्महि ईश्वरहि, मिथ्या दोष लगाय ।।”
वह व्यक्ति परलोक में दुःख पाता है, सिर धुन- धुनकर पछताता है और काल, कर्म तथा ईश्वर को झूठा दोष देता है। संसार रूपी समुद्र को पार करने के लिए यह शरीर नाव है। परम प्रभु परमात्मा की अनुकम्पा अनुकूल वायु है और खोजने प कहीं- न-कहीं संत सद्गुरु मिल ही जाते हैं। फिर भी अगर संसार-सागर से पार नहीं होते हैं, तो भगवान श्रीराम कहते हैं
‘सो कृत निंदक मन्द मति, आतम हन गति जाय ।’
ऐसा कृतघ्न और नीच बुद्धि का व्यक्ति आत्महिंसक की गति को पाता है। एक लघु कथा कहकर मैं अपना प्रवचन में विराम देना चाहूँगा।
एक बार देव और दानव के बीच युद्ध हुआ। देवता की विजय हुई। मानव तो देवोपासी होते ही हैं, उन्हें देवताओं की विजय से बड़ी प्रसन्नता हुई। इस उपलक्ष्य में उन्होंने भंडारे का आयोजन किया, जिसमें देव और दानव दोनों को निमंत्रण दिया गया। दोनों नियत समय पर भंडारे में उपस्थित हुए। सारी भोज्य सामगियाँ तैयार थीं।
दानवों ने कहा कि हे मानव! तुम तो सदा देवताओं के पक्षधर रहे हो। तुम देवताओं को पहले भोजन कराओगे और हमें पीछे, पर हमें यह पसंद नहीं। मानव ने कहा कि हे दानव! अगर आपके मन में ऐसी बात है, तो पहले आपलोगों को भोजन करा देता हूँ। देवता लोग पीछे भोजन करेंगे। दानवों ने कहा, ‘ठीक है, हमलोगों को भोजन कराओ।’ आसन बिछा दिया गया। सभी दानव उसपर बैठ गये। भोजन की सारी सामग्रियाँ परोस दी गयी। अब वे लोग भोजन आरंभ करना ही चाह रहे थे कि भंडारा के आयोजक ने कहा, ‘हे दानवगण! सुनिये, आज मैंने एक संकल्प लिया है कि मैं जिनको-जिनको भोजन कराऊँगा, उन सबों के हाथ में एक गज की पतली लकड़ी (बत्ती) बाँधूँगा।’ दानवों ने पूछा कि क्या देवताओं को भी बाँधोगे? उन्होंने उत्तर दिया, ‘अपने संकल्प के अनुसार जिनको-जिनको भोजन कराऊँगा, उन सबको बाँधूँगा।’ दानवों ने कहा कि ठीक है, बाँधो। दानवों के हाथ में एक गज की लकड़ी बाँध दी गयी। सामग्रियाँ परोसी हुई थीं, वे लोग कौर उठाने लगे, पर हाथ में तो लकड़ी बँधी थी, हाथ मुड़े, तब तो कौर मुँह में जाय। जितनी सामग्रियाँ थीं, सब पीछे चली गयीं। पत्ता खाली हो गया। फिर दूसरा परोस दिया गया। फिर वही हालत, किसी के मुँह में एक कौर तक नहीं गया। मानव न कहा, ‘हे दानव! आधा घंटा से अधिक समय हो गया। देवता लोग भूखे हैं, उनको भी भोजन करवाना है। यह सुनकर सब-के-सब भूखे उठ गये।
देवताओं के लिए दूसरी पंक्ति लग गयी। सब देवतागण बैठ गये। उनमें से एक देवता ने कहा,सुनिये जिस समय समुद्र-मंथन हुआ था, उस समय अमृत का घड़ा निकला था। हमलोग इसी तरह एक पंक्ति में बैठे थे। बीच में एक राक्षस आकर बैठ गया और छिपकर अमृत पी गया, जो आजतक हमारा दुश्मन बना हुआ है। इसलिए हमलोग एक पंक्ति में नहीं बैठेंगे, हमें दो पंक्तियों में बैठाइये! आमने-सामने रहेंगे, ताकि हम देख सकें कि ये देव हैं कि दानव। देवताओं को दो पंक्तियों में बैठा दिया गया। और उन्हें भोजन की सारी सामग्रियाँ परोस दी गयीं। मानव ने कहा, ‘हे देवगण! आपलोग भोजन आरंभ करें, जब आपलोगों के हाथ में लकड़ी बाँध दी जाएगी।’ हर एक के हाथ में लकड़ी बाँध दी गई और कहा गया कि अब आपलोग भोजन कीजिए। देवता लोग आमने-सामने बैठे थे ही, स्वयं अपने मुँह में कौर डालने का प्रयास न कर सामनेवाले को खिलाने लगे। इस तरह एक दूसरे को खिलाकर सबने अपने पेट भर लिये।
कहने का तात्पर्य यह है कि जो देव वृत्ति के लोग होते हैं, वे एक दूसरे को खिलाकर संतुष्ट होते हैं और जो दानव वृत्ति के लोग होते हैं, वे अपना ही पेट भरना चाहते हैं, फिर भी उनका पेट नहीं भरता है। आप धर्मप्रेमी सत्संगियों ने मिलकर इन तीन दिनों के सत्संग से बहुत को भोजन कराया, बहुत की सेवा की। यह देव बुद्धि का परिचायक है। इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। इस सत्संग के आयोजन में जिन्होंने तन, मन, धन या वचन से सहयोग किया है, वे सभी पुण्य के भागी हैं। सबको शुभकामना सहित मेरा आशीर्वाद है। जो मुझसे श्रेष्ठ हैं, उनके लिए मेरा प्रणाम है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महाधिवेशन, राँची में
दिनांक 15-02-2003 ई0 को अपराह्णकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, जुलाई 2008 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
जिस प्रकार चंद्र और सूर्य का उदय संसार के कल्याण के लिए होता है; उसी तरह संतों का अवतरण जगन्मंगल के लिए होता है। संतों का ज्ञान महान होता है। उस ज्ञान को जो मानते हैं, उनका कल्याण होता है। संत जो कुछ कहते हैं, वह हमारे कल्याण के लिए ही कहते हैं। यदि हम संतों की वाणी के अनुकूल नहीं चलते हैं, तो हमारा अमंगल भी अवश्यम्भावी हैं जिसको साँप काट लेता है और उसका विष उसके शरीर में फैल जाता है, तो उसको नीम का पत्ता खिलाकर पूछिये कैसा लगता है, तो वह बतलाएगा कि मीठा लगता है। उसी तरह उसके मुँह में मिसरी दीजिए और पूछिये कि कैसी लगती है, तो वह बतलाएगा कि कड़वी लगती है।
अर्थात् मिसरी यदि किसी को कड़वी मालूम पड़े तो समझना चाहिए कि उसे साँप का विष चढ़ गया है। उसी प्रकार संतों की वाणी जिसको नीम के समान कड़वी लगती है, तो समझना चाहिए कि विषय-व्याल ने उसको काट खाया है, उसके मन में विषय-सुख का विष चढ़ गया है, आध्यात्मिक दृष्टि से उसको मृत्यु होना स्वाभाविक है। उसको कोई बचा नहीं सकता।
चाहे किसी देश, किसी वेश, किसी जाति- पाँति, धर्म, मजहब, सम्प्रदाय या रिलीजन के संत क्यों न हों, सबने एक ईश्वर की मान्यता स्वीकार की है। किसी भी धार्मिक पुस्तक में ऐसा नहीं लिखा है कि ईश्वर अनेक हैं, भिन्न-भिन्न भाषाओं में परमात्मा के लिए भिन्न-भिन्न शब्द हैं; परन्तु वह एक ही है। उसके पास जाने का रास्ता भी एक है। पहले भी वैसा ही था, अब भी वैसा ही है और भविष्य में भी वैसा ही रहेगा। वह एक ईश्वर कैसा है? कुरान शरीफ में लिखा है कि वह अखंड है। संत कबीर साहब ने भी उसे अखंड बताया है-
‘अखण्ड साहब का नाम और सब खण्ड है ।’
एकमात्र वह प्रभु ही अखंड है, उसका टुकड़ा नहीं होता। जो उस एक अल्लाह पर ईमान लाते हैं, वे मुसलमान कहलाते हैं। वेद कहता हे कि परमात्मा एक है, वह अनंतस्वरूपी है। संत-महात्मा भी यही कहते हैं। वह कहीं है और कहीं नहीं है; ऐसी बात नहीं। जो ईश्वर सर्वव्यापी है, उसमें जो ईमान लाते हैं, विश्वास लाते हैं, तो क्या उनसे कभी किसी प्रकार का पाप हो सकता है, हर्गिज नहीं।
प्राचीन काल में विद्यार्थी पढ़ने के लिए गुरुकुल जाते थे। भगवान राम के लिए रामचरितमानस में आया है-
“ गुरु गृह गये पढ़न रघुराई ।
अल्प काल विद्या सब पाई ।।”
भगवान राम और भगवान श्रीकृष्ण जैसे अवतारी पुरुष ने भी गुरुकुल में आकर पढ़ा। भगवान कृष्ण संदीपन मुनि के यहाँ पढ़ते थे। वे पढ़ाई के साथ गुरु-सेवा करते थे। जलावन की लकड़ी चुनने के लिए जंगल जाते थे। गुरुकुल में लौकिक एवं पारलौकिक दोनों तरह की शिक्षाएँ दी जाती थीं। प्राचीन काल में जो गुरुकुल जाते थे, उनको बतलाया जाता था कि ईश्वर एक है, वह स्वतंत्र है, सर्वत्र है। जो झूठ बोलेंगे, चोरी करेंगे, व्यभिचार करेंगे, हिंसा करेंगे, तो कहाँ करेंगे? संसार में ही करेंगे और संसार में हर जगह ईश्वर है, ईश्वर के रहते पाप करते हैं, तो इसका अर्थ है कि ईश्वर को सर्वव्यापक नहीं मानते हैं। संतों का ज्ञान बतलाता है कि एक सर्वव्यापी ईश्वर पर विश्वास करो। संतों के एक भी ज्ञान को संसार मान ले, तो संसार में जो अशांति फैली हुई है, वह शांति में परिणत हो जाएगी। संत लोग झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-इन पंच पापों की मनाही करते हैं। इन पाँच पापों में केवल एक असत्य-भाषण को छोड़ दीजिए। असत्य-भाषण नहीं करने पर कहीं लड़ाई-झगड़ा होगा? कहीं अपहरण होगा? चोरी-डकैती होगी? कोई पाप नहीं होगा। संत लोग हमारे कल्याण के लिए उपदेश करते हैं; लेकिन हम मानते नहीं हैं। जब मानेंगे नहीं, तो कल्याण कहाँ से होगा। संतों की वाणियों में हमारा कल्याण निहित है। शास्त्र कहता है, ‘अहिंसा परमो धर्मः।’ अर्थात् अहिंसा परम धर्म है। अगर सब मन, वचन और कर्म से अहिंसक बन जाएँ, तो कहीं कलह नहीं होगी, सर्वत्र शांति छा जाएगी। किसी को हम कटुवचन कह देते हैं, जिससे उसको दुःख हो जाता है। यह भी हिंसा है। लेकिन हिंसा, हिंसा में भेद है। गुरु अपने शिष्य को डाँटते हैं, तो शिष्य को दुःख होता है; लेकिन यह डाँटना शिष्य के कल्याण के लिए है। जैसे किसी बच्चे के शरीर में फोड़ा हो गया है, वह दुःखी है, पीड़ित है। उसके रोने पर माँ का हृदय करुणा से भर जाता है। बच्चे के दर्द को वह देख नहीं सकती है। वह उसे डॉक्टर के पास ले जाती है। डॉक्टर बच्चे के फोड़े का ऑपरेशन कराता है। अपनी गोद में बच्चे को बिठाकर ऑपरेशन करवाती है। बच्चे को ऑपरेशन में बहुत दुःख होता है, फिर भी माँ ऑपरेशन करवाती है। इसलिए कि बच्चों को आगे दुःख न हो। थोड़ा- सा दुःख सहने से बड़ा दुःख टल जाए, इसकें लिए माँ बच्चे को दुःख देती है। उसी तरह जो संत-महात्मा होते हैं, वे अपने शिष्यों को उपदेश देते हैं, डाँटते-फटकारते हैं। यह डाँट-फटकार उन शिष्यों के लिए दवाई है।
“ गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है, गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट ।
अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट ।।”
(संत कबीर साहब)
कुम्हार चाक पर कच्ची मिट्टी का बर्तन बनाता है। मिट्टी में जितने कंकड़ रहते हैं, निकाल देता है। एक भी कंकड़ रहने पर सही बर्तन नहीं बनेगा। कंकड़ बिल्कुल छाँटकर निकालने के बाद सानकर खूब गूँथते हैं, तब चाक पर चढ़ाकर बर्तन बनाते हैं।
उसी तरह जो गुरु होते हैं, अपने शिष्य के लिए वे कुम्हार के समान होते हैं। चाक पर से मिट्टी उछलकर नीचे आ जाए कि इतने चक्कर में कौन पड़े, तो क्या वह मिट्टी बर्तन बन सकेगी? जिस समय मिट्टी गूँथी जा रही हो, उस समय वह हाथ से निकलकर चली जाए कि इतनी मार कौन सहे, तो क्या वह बर्तन बन सकेगी? नहीं बन सकेगी।
गुरु, माता, पिता और अभिभावक बच्चों को डाँटते-फटकारते हैं, कभी-कभी मारते-पीटते भी हैं, तो वह उनके कल्याण के लिए ही। उस कल्याण को अगर कोई शिष्य अकल्याण समझता है, तो यह उसकी नादानी हैं अभिभावक ने यदि बच्चे को पढ़ने में लगाने के लिए थप्पड़ मार दिया और वह बच्चा दुःख मानकर घर से भाग जाए, तो वह सदा मूर्ख ही बना रहेगा, कभी विद्वान नहीं बनेगा, अच्छा आदमी नहीं बन सकेगा। वह गुण्डों, आवारों के साथ रहेगा, बदमाश के साथ रहेगा और वह वैसा ही बन जाएगा। पत्थर का टुकड़ा सड़क पर पड़ा है। सवारियाँ उसपर से जाती हैं, लोग पैरों से उसे रौंदते हैं, उस पत्थर की कोई कीमत नहीं। कोई कलाकार उसी पत्थर को घर ले आता है। घर में लाकर उसे तरासता है, काटता-छाँटता है और एक मूर्ति बना देता है। पत्थर का जो टुकड़ा सबके पैरों के नीचे रौंदा जाता है, उसीने जब मूर्ति का रूप धारण कर लिया, तो लोग उसे ले जाकर सजाते हैं, फूल-अच्छत चढ़ाते हैं, देवता मानते हैं और प्रणाम करते हैं। उसी तरह जो गुरु होते हैं, अपने शिष्य को ही तरासते हैं;उसमें जो दुर्गुण होते हैं, उसको निकालते हैं। जो शिष्य तरासने के कष्ट को झेलता है, तो उसका जीवन कल्याणमय होता है। नहीं तो अकल्याण उसके साथ लगा हुआ है ही। संतों का एक-एक ज्ञान अनमोल होता है। गुरु महाराज की वाणी में आया है-
“ बातें हैं अनमोल, मोल नहि एक-एक की ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’, कहुँ जो चाहूँ कहन ,
सन्त पद सिर निज टेकी ।।”
अनमोल बात है; लेकिन मोल समझता है कौन? अनमोल बातों का जो मोल समझते हैं, वे भी अनमोल हो जाते हैं। जो अनमोल बातों का मोल नहीं समझते, वे बिनमोल रह जाते हैं।
एक गड़ेरिया था। वह भेड़ चराता था। भेंड़ चराते समय एक दिन उसकी नजर मिट्टी के नीचे चमकीली चीज पर पड़ी। उसके मन में हुआ बहुत चमक रहा है, क्या चीज है? एड़ी से चोट देकर वह उसे निकालना चाहा। नहीं निकला, तो लाठी से मार-मारकर मिट्टी को हटाने लगा। पत्थर निकल गया, तो उसे भेंड़ के गले में बाँध दिया। संयोग से एक जौहरी उसी रास्ते से जा रहा था। उसकी नजर भेंड़ के गले पर पड़ गयी। चमकीले पत्थर को देखकर उसने गड़ेरिये से कहा, ‘यह पत्थर हमको दोगे?’ गड़रिये ने उत्तर दिया, ‘इतना सुन्दर पत्थर है, तुमको ऐसे कैसे दूँ?’ जौहरी बोला, ‘तुम्हें पाँच सौ रुपये दूँगा। यह मुझे दे दो।’ गड़ेरिया ने सोचा कि पाँच सौ रुपये मिल जाएँगे, तो हम कितनी भेंड़ें खरीद लेंगे। उसने तुरंत भेड़ के गले से खोलकर पत्थर जौहरी को दे दिए। पत्थर जौहरी के हाथ में जाते ही गिरकर टुकड़े-टुकड़े हो गये। जौहरी ने पत्थर से पूछा, ‘अरे! भेंड़ के गले में तुम बँधे थे, तो तुमको अच्छा लगता था और जब हमने तुमको अपने हाथ में लिया, तो तुम टुकड़े-टुकड़े हो गये, क्या बात है?’ पत्थर से आवाज आयी, ‘गड़ेरिया ने मुझे नहीं पहचाना था, इसलिए मैंने उसके पैरों की मार सही, लाठी की चोट सही। उसने मुझे कितनी चोट लगायी, भेंड़ के गले में मुझें बाँध दिया; लेकिन मुझे उसकी परवाह नहीं; क्योंकि वह पहचानता नहीं था। लेकिन मैं कौन हूँ, यह तुम जौहरी होने के कारण जानते हो। तुम जानते हो कि मैं हीरा हूँ और मेरी कीमत एक लाख रुपये हैं; लेकिन तुमने गड़ेरिये को मेरी कीमत 500 रुपये दिये। इसलिए मेरा हृदय विदीर्ण हो गया। उसी तरह जो सत्संग नहीं करते, उनको पता नहीं होता है कि संत क्या होते हैं, उनकी क्या महिमा और गरिमा होती है। जो संत को नहीं जानते हैं, वे यदि संतों का अपमान करें, उनको गाली दें, निंदा करें, तो दूसरी बात है। लेकिन जो नित्य सत्ंसग करते हैं, वे भी संतों की पहचान न करे और उसके अनुकूल व्यवहार न करे, तो क्या होगा? हीरे की तरह संत का हृदय विदीर्ण होगा। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
“ सुनिय गुणिय समझिय समझाइय ,
दशा हृदय नहीं आवै ।
जेहि अनुभव बिनु मोह जनित भव ,
दारुण विपत्ति सतावै ।।”
हम सत्संग की बातों को सुनकर गुनते हैं, विचारते हैं, समझते हैं और समझाते हैं। लोग हमारी बातों से प्रभावित होते हैं; लेकिन वैसा आचरण हममें न हो, तो परिणाम क्या होगा? हम दुःख में पड़े रहेंगे, हमारा कल्याण संभव नहीं है। कोई किसी को करोड़पति समझ ले; लेकिन उसके पास कौड़ी भी नहीं हो, हमारी अवस्था वैसी ही होगी। दूसरी ओर यदि कोई करोड़पति है और उसे कोई नहीं पहचाने, तो उससे उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा। मूल्यवान तो वह व्यक्ति है, जिसके पास ध्यानरूपी धन है। गुरु महाराज कहते हैं-
‘दृढ़ भजन धन ही खास हो, फिर त्रस क्या करे।’
लेकिन हम भजन-ध्यान को धन नहीं मान रहे हैं, बल्कि रुपये-पैसे और प्रतिष्ठा को धन मान रहे हैं। फिर जीवन का त्रस कैसे मिटेगा? असल धन ध्यान- भजन है। जागतिक जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ परिश्रम करके पवित्र कमाई अवश्य करो, पर शरीर छूटने के बाद का जो जीवन है, वह जीवन भी सुखमय हो, उसके लिए भगवद्भजन करना चाहिए। यह सबसे अच्छी कमाई है। भगवद्भजन से बढ़कर और कोई कमाई नहीं है, इसे याद रखें।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 30-3-2003 ई0 को महर्षि मेँहीँ आश्रम,
कुप्पाघाट, भागलपुर में रविवार के साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, जून 2003 ई0)
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सम्माननीय मुख्य अतिथि महोदय आदरणीय डॉ तौहीद साहब समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
नीति वाक्य है, ‘तालवृतेन किं कार्यम् लभते मलय मारुते।’ जहाँ मलयागिरि से शीतल मंद सुगंध समीर प्रवहमान हो, वहाँ ताड़ के पंखे की क्या आवश्यकता? उसी तरह जहाँ आपलोगों ने पूर्व विद्वान वक्ताओं के प्रवचन सुन चुके हैं, अब मेरे लिए कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह गयी है। फिर भी जब मेरे सामने माइक आया है, तो आपलोगों की सेवा में कुछ कहना आवश्यक है।
हमलोग परम पूज्य गुरुदेव के जन्म के 118वीं वर्षगाँठ मनाने के लिए यत्र-तत्र से ठाट के साथ कुप्पाघाट में उपस्थित हुए हैं। ‘जयन्ती’ शब्द स्त्रीलिंग है। इसका पुल्लिंग है- जयन्त, जिसका अर्थ होता है विजय। साधारणतया व्यक्ति विशेष की जन्मतिथि पर मनाए जाने वाले उत्सव को जयन्ती कहते हैं; किन्तु दूसरी तरह की भी जयन्ती होती है। जैसे प्राचीनकाल में एक राजा दूसरे राजा से युद्ध करते थे और युद्धोपरांत जो विजय प्राप्त करते थे, तो वे विजयश्री का जयन्ती मनाते थे। इसीलिए जयन्त शब्द का अर्थ विजय भी होता है। प्रश्न होता है कि एक राजा से दूसरे राजा युद्ध करके जीतते थे, तो जयंती मनाते थे; परन्तु हमारे गुरु महाराज ने किनके साथ युद्ध किया और कौन-सी विजय उन्होंने पायी कि उनकी जयन्ती मनाने के लिए हमलोग सम्मिलित हुए हैं?
जागतिक क्षेत्र में जागतिक राजा होते हैं, यद्यपि हमारे गुरुदेव जागतिक राजा नहीं थे, तथापि इनको भी युद्ध करना पड़ा; लेकिन वह युद्ध कहीं बाहर के शत्रुओं से नहीं, वरन अपने अंदर के शत्रुओं से था।
जो संत-महात्मा लोग होते हैं, उन्हें अंदर के विकार-काम, क्रोध, लोभ, मोह और मात्सर्य आदि से लड़ना पड़ता है। दूसरी बात यह है कि जो राजा होते हैं, उनके राज्य में प्रजा होती है। प्रजा का जो शासक होता है, वह राजा कहलाता है।
पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ; इन दश प्रजाओं के ऊपर मन एक राजा है। उस मन के साथ हमारे गुरुदेव ने आध्यात्मिक युद्ध कर विजय प्राप्त की है। शास्त्र कहता है-
“ इन्द्रियाणां मनो नाथो मनोनाथस्तु मारुतः ।
मारुतस्य लयो नाथस्तन्नाथं लयमाश्रय ।।”
इन्द्रियों का नाथ मन है, मन का वायु है और वायु का नाथ लय है; इसलिए लय का अवलम्बन करना चाहिए (अर्थात् लययोग का अभ्यास करना चाहिए) ।
इसी बिहार के सासाराम में एक मुसलमान लड़का रहता था, जिसका नाम था फरीद खाँ। अब वह बड़ा हो गया, तो उसने बंगाल के नबाव के यहाँ नौकरी कर ली। बंगाल टाइगर (बाघ) के लिए प्रसिद्ध है। फरीद खाँ का शरीर हट्टा-कट्टा और मजबूत था। साथ ही, वह निर्भीक और साहसी भी था। एक दिन एक शेर से उसकी भेंट हो गयी। उसने तलवार के एक ही प्रहार से उसको मार दिया। तबसे उसने अपना नाम शेर खाँ रख लिया। इतना ही नहीं, बंगाल के नवाब को मारकर वह नवाब बन गया। उस समय भारत का मुगल बादशाह हुमायूँ था। हुमायूँ ने कर माँगा, इसने कर देना अस्वीकार कर दिया। हुमायूँ ने उसपर चढ़ाई कर दी। इसने हिम्मत के साथ युद्ध किया, जिससे हुमायूँ भाग गया। इसने पीछा किया और जाते-जाते दिल्ली के तख्त पर बादशाह बनकर बैठ गया। कहने का तात्पर्य यह है कि जो शेर को मारता है, वह परिश्रम करके एक देश का बादशाह बन सकता है, तो जिसने चालीस सेर के एक मन को मारा, वह क्या होगा? वह तो शाहंशाह होगा। कैसा शाहंशाह?
जागतिक बादशाह को चाहना रहती है, इच्छा रहती है; लेकिन जो आध्यात्मिक शांहशाह संत होते हैं, उनमें कोई चाहना नहीं होती। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ चाह गई चिंता मिटी, मनुवाँ बेपरवाह ।
जाको कछु न चाहिये, सोई शाहंशाह ।।”
तो आज हम वैसे ही शाहंशाह की जयंती मनाने के लिए एकत्र हुए हैं। भगवान महावीर की वाणी है-
“ यो सहस्सं सहस्सैन संगामे मानुषे जिने ।
एकाहं जेय मत्तानं स वे संगामजुत्तमो ।।”
अर्थात् कोई हजार वार हजार संग्राम में हजारों को जीत ले, उससे कहीं श्रेष्ठ संग्राम-विजयी वह है, जो एक अपने को जीत ले।
हमारे गुरुदेव अपनी आत्मा को जीते हुए थे। उन्होंने कड़ी तपस्या की थी। पुरैनियाँ जिलान्तर्गत सिकलीगढ़ धरहरा में जमीन के अंदर छह महीने रहकर साधना की थी; परन्तु जिस सत्य की खोज में चले थे, उसकी प्राप्ति नहीं हुई। उन्होंने 1933-34 ई0 में यहाँ कुप्पाघाट की शांत-एकांत गुफा में बैठकर साधना करके सत्यज्ञान का प्रचार संसार के सामने किया। उस प्रचार में उनका आरंभिक क्षेत्र निट्ठाह देहात रहा, जहाँ शोषित, पीड़ित, दलित, अनाथ और शिक्षाहीन लोग रहते थे। उस समय उन दिनों के कुछ बुद्धिहीन लोग रहते थे। उस समय उन दिनों कुछ बुद्धिजीवी लोग इनकी खिल्ली उड़ाया करते थे। वे कहते थे कि अध्यात्म का निगूढ़ ज्ञान खुरपी, कुदाली चलानेवाले मूढ़ लोग क्या समझेंगे? लेकिन हमारे गुरुदेव धैर्य के साथ अपना कार्य करते रहे। उनलोगों के प्रश्न का उत्तर दिया कि जंगल से हम सुग्गा को ले आते हैं, उसको राम-नाम, शिव-शिव, वाह गुरु, सत्तनाम आदि सिखलाते हैं, तो वह कैसे सीख लेता है। जब जंगल का सुग्गा भगवान का नाम ले सकता है, तब मानव भगवान का नाम लेकर अपने कल्याण का माग्र प्रशस्त क्यों नहीं कर सकता। वे कहते, मैं नींव मजबूत कर रहा हूँ, जड़ मजबूत कर रहा हूँ, बढ़ते-बढ़ते एक दिन बढ़ेगा। उनकी भविष्यवाणी आज प्रत्यक्ष है। उनका ज्ञान भारत ही नहीं, अमेरिका, इंगलैंड, जापान, आस्ट्रेलिया, नेपाल, रूस प्रभृति देशों में प्रवेश कर चुका है।
हमारे गुरुदेव ने बतलाया है कि ‘एक ईश्वर’ पर विश्वास करो। उस ईश्वर की प्राप्ति बाहर संसार में नहीं अपने अंदर होगी। हम मंदिर, मस्जिद और गिरिजाघर देखते हैं। लेकिन दृढ़तापूर्वक समझ लीजिए कि न तो मंदिर में भगवान बैठे हुए हैं, न मस्जिद में खुदा बैठे हुए हैं और न गिरजा में गॉड बैठे हुए हैं। ये तो घर के कोलाहल से दूर होकर उपासना के लिए हैं। इसलिए हम मंदिर में जाकर प्रार्थना करते हैं, मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ते हैं और गिरिजाघर में प्रेयर करते हैं। ये सब तो पूजा-स्थल है। यदि जिज्ञासा हो कि मंदिर में भगवान, मस्जिद में खुदा और गिरजा में गॉड नहीं मिलेंगे, तो कहाँ मिलेंगे? इसका समाधान हमारे गुरुदेव इस प्रकार करते हैं-
“ निज तन में खोज सज्जन, बाहर न खोजना ।
अपने ही घट में हरि हैं, अपने में खोजना ।।”
यद्यपि परमात्मा सर्वव्यापक हैं, फिर भी वे जब कभी मिलेंगे, तो अपने अंदर में मिलेंगे। एक फकीर ने कहा है-
“ क्यों भटकता फिर रहा तू, ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए ।।”
परमात्मा के पास जाने का रास्ता एक है, जिसका आरंभ शहरग या सुषुम्ना से होता है। मानवकृत जितने रास्ते हैं, उनमें परिवर्तन होता रहता है; लेकिन ईश्वरकृत मार्ग में परिवर्तन नहीं होता है। वह एक-ही-एक था, है और रहेगा। परमात्मा ने हर एक काम के लिए भिन्न-भिन्न इन्द्रियाँ बनायी हैं। जैसे देखने के लिए उन्होंने आँख बनायी है। कोई अन्य किसी इन्द्रिय से देख नहीं सकता। सुनने के लिए एक रास्ता बनाया है कान। कान में भी दो छेद हैं, तो क्या कोई नाक से सुन सकते हैं? अथवा कान से गंध ग्रहण कर सकते हैं? केवल कान से सुन सकते हैं। इसी प्रकार नाक से गंध ले सकते हैं, इसके अतिरिक्त अन्य किसी इन्द्रिय से गंध नहीं ले सकते हैं। भोजन करने का रास्ता मुँह है और किसी इन्द्रिय से भोजन नहीं ले सकते। मल-मूत्र विसर्जन करने का भी एक-एक रास्ता नियुक्त है। इन रास्तों को कोई बदल नहीं सकता; उसी तरह परमात्मा के पास जाने का जो रास्ता है, वह भी एक-ही-एक है। उसको कोई बदल नहीं सकता। वह कौन-सा रास्ता है? वह है अंतर्ज्योति और अंतर्नाद। आँखें बंद कीजिए, अंधकार मालूम पड़ेगा और कुछ भी नहीं।
हम प्रार्थना करते हैं-तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय, मृत्योर्मा अमृतगमय।
हम प्रार्थना तो करते हैं, पर वहाँ तक पहुँचेंगे कैसे? साधना भी चाहिए। केवल प्रार्थना करने से ही काम नहीं चलता। आचार्य बिनोवा भावे ने बड़ा अच्छा कहा है-परमात्मा हमारी कुछ प्रार्थना सुनते हैं और कुछ नहीं भी सुनते हैं। कौन-सी प्रार्थना सुनते हैं और कौन-सी नहीं सुनते? इसपर उन्होंने एक उपमा दी है।
जैसे भागलपुर से विक्रमशिला ट्रेन दिल्ली तक जाती है। विक्रमशिला ट्रेन में आप बैठिए और परमात्मा से प्रार्थना कीजिए कि हे प्रभु! मुझे सकुशल दिल्ली पहुँचा दीजिए, तो यह प्रार्थना परमात्मा सुन लेंगे। लेकिन उसी विक्रमशिला ट्रेन पर बैठकर आप प्रार्थना करें कि हे परमात्मा! हमको सकुशल कलकत्ता पहुँचा दीजिए, तो यह प्रार्थना वे नहीं सुनेंगे। उसी तरह जिस सवारी से हम परमात्मा तक पहुँच सकेंगे, उसमें बैठने पर ही परमात्मा के पास पहुँच सकते हैं। वह सवारी क्या है? आप कुरान शरीफ पढ़िये। उसमें लिखा है कि इब्राहिम ने अपने पिता आजर से कहा कि आप गुमराहों की राह पकडे़ हुए हैं। मैं गुमराहों की गिरोह में शामिल नहीं होऊँगा। देखते-देखते उसके ऊपर रात छा गयी, अंधकार छा गया। वह उस अंधकार को देखने लगा। देखते-देखते वह देखता है कि एक तारा निकल आया है। इब्राहिम ने कहा कि यह हमारा प्रभु है, अल्लाह है। लेकिन देखते-देखते वह तारा विलीन हो गया और चन्द्रमा निकल आया। इब्राहिम ने कहा कि वह नहीं, यह मेरा प्रभु है। देखते-देखते चन्द्रमा विलीन हो गया। अब वह कहने लगा कि यह भी अल्लाह नहीं है। देखते-देखते सूर्य उदय हो जाता है, अब कहता है कि वह अल्लाह नहीं, अल्लाह यह है। यह हमारा प्रभु है। देखते-देखते वह भी डूब गया।
अब समझने की बात यह है कि इब्राहिम को अंधकार मालूम हुआ, तारा मालूम पड़ा, फिर उसे चन्द्रमा मालूम पड़ा और सूर्य भी मालूम पड़ा। तो क्या कोई बैठेगा और बैठते ही उसको तुरत अंधकार के बाद तारा, चन्द्रमा और सूर्य भी मालूम पड़ने लगेगा? यह कैसे हुआ? यह राज की बात है। यह कौन बतलाएगा?
“ मुर्शिदे कामिल से मिल, सिदक और सबूरी से तकी ।
जो तुझे देगा फहम, शहरग के पाने के लिए ।।”
हमारे गुरु महाराज की वाणी में है-
“ बिन दया संतन की मेँहीँ, जानना इस राह को ।
हुआ नहीं होता नहीं वो होनहार है नहीं ।।”
आप मस्जिद में जाकर उसमें लगे पताके को देखिये। उसमें चन्द्रमा और तारे का चित्र रहता है। क्या वह बाहर का तारा और चन्द्रमा है? नहीं, वह तो अंतस्साधना की अनुभूति का चित्र होती है। आप तुलसी साहब की वाणी पढ़िए, वे कहते हैं-
“ गगन द्वार दीसै एक तारा ।
अनहद नाद सुनै झनकारा ।।”
जो साधना करते हैं, उनको अंदर में वह तारा मालूम पड़ता है। परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में आया है-
“ छट-छट छट-छट बिजली छटके,
भोर का तारा दिखाता है ।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
अंतर में दीखनेवाला तारा कैसा है? गुरु महाराज व्याख्या करते हैं कि जैसे बाह्याकाश में भोर अर्थात् सुबह में बहुत बड़ा तारा दीखता है, सच्चे साधक को अंतराकाश में वैसा ही तारा मालूम पड़ता है। इब्राहिम को तारा के बाद चन्द्रमा के दर्शन हुए, फिर सूर्य के दर्शन भी हुए। अपने अंदर में जिनको चन्द्रमा के दर्शन होते हैं, उनको सूर्य के दर्शन भी होते हैं और अंतर्नाद की अनुभूति भी होती है। हमारे गुरुदेव कहते हैं-
‘चंदा उगत उदय हो रवि हू, धूर शब्द मिल जाता है।’
संत कबीर साहब की वाणी है-
“ कबीर कमल प्रकाशिया, उगा निर्मल सूर ।
रैन अंधेरी मिट गई, बाजै अनहद तूर ।।”
जीवात्मा के ऊपर जो अंधकार का आवरण है, वह आंतरिक सूर्य के दर्शन से हटता है। उस पवित्र सूर्य के दर्शन करनेवाले का अंतःकरण पवित्र हो जाता है। उस सूर्य के प्रकाश के संबंध में हमारे गुरुदेव कहते हैं-
“ जा सम्मुख या सूर्य अमित अंधार है ।
ऐसे सूर्य महान चन्द हद पार है ।।”
अपने अंदर के सूर्य का प्रकाश इतना प्रबल है कि उसके सामने बाहर का सूर्य अंधकार-सदृश है। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
‘तारा चड़िया लम्मा किउ नदरि निहालिआ राम ।’
मैं फाँदकर तारा पर चढ़ गया। मैंने अपनी आँखों आंतरिक दृश्यों को देखा। आंतरिक सूर्य-प्रकाश और नाद की सम्पुष्टि संत पलटू दासजी महाराज इस भाँति करते हैं-
“ उस देश की बात कहता हूँ,
आसमान के बीच सुलाख है जी ।
बादशाह उसी के बीच बैठा है,
सूझि पड़े बिन आँख है जी ।।
सूर्ख तो उसका चेहरा है,
आफताब तसद्दुक लाख है जी ।
पलटू हू हू की आवाज आवै,
वहाँ मेरा दिला मुस्ताख है जी ।।”
आफताब कहते हैं सूर्य को। यह अंतस्साधना की बात है। जबतक संत सद्गुरु से भेंट नहीं होगी और उसकी शिक्षा-दीक्षा के अनुरूप साधना नहीं करेंगे, तबतक यह अंतर दर्शन नहीं होगा।
संतमत अर्थात् संतों के मत में प्रभु-प्राप्त्यर्थ जप और ध्यान; ये दो बातें मुख्य होती हैं। इस्लाम धर्म के सूफी संप्रदाय में जप को जिकर और ध्यान को फिकर कहते हैं। ध्यान में स्थूल ध्यान, सूक्ष्म ध्यान, सूक्ष्मतर ध्यान और सूक्ष्मतम ध्यान। मानस ध्यान स्थूल ध्यान है। इस्लाम धर्म में जो सूफी लोग होते हैं, वे अपने मुर्शद का ध्यान करते हैं। वे ऐसा ध्यान करते हैं कि पहले फनाफिल मुर्शिद होते हैं, फिर फनाफिल रसूल होते हैं और होते-होते वे फनाफिल अल्लाह हो जाते हैं। मतलब यह कि वे इस तरह की साधना करते हैं कि अपने शरीर को फना कर देते हैं, शरीर का कुछ ज्ञान नहीं रहता है। गुरु महाराज की वाणी में आप पढ़ेंगे-
“ साधन में पगि जाइ, अतिहि गंभीर हो ।
या तन सुधि नहि रहे, धीर वर वीर सो ।।
साँझ भोर दिन रैन, कछू जानै नहीं ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’, बाहर जड़वत् रहै ,
माहि चेतन सही ।।”
भगवान महावीर ध्यान में बैठे हुए थे। चरवाहों ने उनके कानों में कील ठोक दी, फिर भी वे बैठे ही रहे, उन्हें कुछ पता नहीं चला। भगवान बुद्ध के शिष्य मौदगल्यायन थे। वे ध्यान में बैठे हुए थे। दुष्टों ने उन्हें इतनी मार मारी की हड्डी-हड्डी टूट गयी। उनको कुछ पता नहीं चला। ध्यान से नीचे उतरने पर उन्होंने देखा कि अब यह शरीर रखने योग्य नहीं है। उसी शरीर से वे पहुँच गये भगवान बुद्ध के पास और कहा, ‘प्रभु! मैं अन्तिम दशर््ान करने के लिए आ गया। अब यह शरीर रखनेयोग्य नहीं है। जितने संत हुए सब उसी साधना विधि से आगे गए। वह कौन-सी साधना थी? गुरुदेव कहते हैं-
जितने धर्म हैं, सब धर्मों में विन्दु और नाद ध्यान है। यह नाद साधना अंतिम साधना है। इसके पहले मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टि साधन है। भले ही विभिन्न देशों में विभिन्न भाषाओं के कारण शब्दान्तर हुआ है; लेकिन तत्त्वान्तर नहीं है। प्राचीन युनानी धर्म में इसी शब्द को ‘लागोश’ कहते हैं, यहूदी धर्म में हिब्रू भाषा में उसको ‘मैमरा’ कहते हैं। आरमीनी भाषा में उसी को ‘एमर’ कहते हैं। ईसाई धर्म में ‘वर्ड’ कहा हैं मौलाना रूम ने ‘इस्मे आजम’ कहा है। संत शम्स तबरेज ने इसको ‘शौत’ कहा है। फारसी धर्म में इसको ‘सरोज’ कहा गया है। थियोसोफिकल सोसाइटी ने इसको ‘Voice of the silence’ कहा है।
शेख मौलाना मुहम्मद अकरम सावरी ने अपनी पुस्तक इक्तवास उल अनवार में लिखा है कि हजरत मुहम्मद साहब गारे हुरा गुफा में बैठकर इस नाद की साधना करते थे। सूफी धर्म के प्रवर्तक ने भी इसी में बैठकर अंतर्नाद की साधना की थी।
इस नाद साधना के अंतिम चरण में परमात्मा के दर्शन होते हैं, अल्लाह का दीदार होता है और साधक आवागमन के चक्र से छूट जाता है। हमारे गुरुदेव ने जीवन भर इसी ज्ञान का प्रचार किया। इस प्रचार में गुरुदेव के सामने कुछ विरोधी लोग भी आए। वेदपाठी विद्वान कहते थे कि संतमत वेद ज्ञान से हीन है। उस समय के साधु-महात्मा लोग जो वेद नहीं पढ़े थे, वे कहते-संतों का गंभीर ज्ञान वेद में नहीं है। इस प्रकार दोनों आपस में लड़ते थे। लेकिन गुरु महाराज ने चारो वेदों का अध्ययन-मनन करके 108 मंत्रें को चुनकर, उसके अर्थ पर टिप्पणी लिखकर दिखा दिया कि जो संतों का ज्ञान है, वह वेद में है और जो वेद ज्ञान है, वह संतवाणी में है। दोनों में भेद नहीं है। भेद की गहराई को गुरु महाराज ने पाट दिया। उन्होंने जात-पात के भेद भाव को भी दूर किया। संतों के यहाँ-
“ जात पात पूछे नहिं कोई ।
हरि को भजै सो हरि का होई ।।”
वाली बात है। सत्य की जीत होती है। आरम्भिक कठिनाई के बाद लोग उनकी बातों को मानने लगते हैं। उन्होंने बतलाया, ईश्वर का भजन करो। परमुखापेक्षी मत बनो।
‘जीवन बिताओ स्वावलंबी भरम भाँड़े फोड़िकर।’
स्वावलंबी जीवन बिताओ, भीख माँगकर मत खाओ। बल्कि उनके जो गुरु थे (बाबा देवी साहब) उन्होंने उपदेश दिया था-‘बिना काम किये भोजन करोगे, तो तेरा खून खराब हो जाएगा।’ गुरुदेव ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की शिक्षा दी। क्या ब्राह्मण, क्या क्षत्रिय, क्या वैश्य, क्या शूद्र, क्या हिन्दू, क्या मुसलमान, क्या जैन, क्या बौद्ध, क्या सिक्ख, क्या ईसाई; उन्होंने सबको समान रूप से सम्मान दिया।
उन्होंने कहा, ‘घर-वार, परिवार में रहो, पवित्र रोजगार करो और भगवद्भजन भी करो। जो तुम्हारी योग्यता है, उसके अनुरूप परिवार का भरण-पोषण करो, योग्यतानुसार विश्व की सेवा करो। यही उनकी शिक्षा का सार है। आप सबों को धन्यवाद देते हुए मैं अपनी वाणी में विराम देता हूँ।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 15-5-2003 ई0 को महर्षि मेँहीँ जयन्ती के अवसर पर महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जनवरी 2003 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
सच्ची मैत्री समता में होती है, विषमता में नहीं। जैसे कोई दो विद्वान व्यक्ति हैं, तो दोनों में परस्पर मैत्री हो सकती है। एक विद्वान हों और दूसरे अविद्वान हों, तो उनकी मैत्री टिकती नहीं है। धनी- धनी में मित्रता हो सकती है। एक धनी हों और दूसरे निर्धन हों, उनमें मित्रता हो भी जाय, तो वह निभती नहीं है। दो व्यक्ति सत्यवादी हैं, तो उन दोनों की मैत्री निभ सकती है। एक सत्यवादी हों, दूसरे असत्यवादी, तो वह मैत्री नहीं टिकती। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ साँचे को साँचा मिलै, अधिका जुड़ै सनेह ।
साँचे को झूठा मिलै, तड़ दै टूटै नेह ।।”
एक नित्य पदार्थ है और दूसरा अनित्य पदार्थ; इनकी दोस्ती सब दिन के लिए नहीं रह सकती। कुछ दिन की दोस्ती रहेगी, फिर वह दोस्ती टूट जाएगी। हमलोगों का शरीर अनित्य है और इसके अंदर रहनेवाला जीव नित्य है, जो सदा जीवित रहनेवाला है। इन दोनों की दोस्ती कितने दिनों तक निभेगी? एक-न-एक दिन शरीर छूटेगा और दोस्ती समाप्त हो जाएगी।
“ सुन काया बौरी, चलत प्राण काहे रोई ।
कहै हंस सुन काया बौरी, मोर तोर संग न होई ।
तोहि अस मित्र बहुत हम त्यागा, संग न लीन्हा कोई ।।”
जीव के साथ शरीर का किस तरह का संबंध है? भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-जैसे हम पुराने-पुराने वस्त्रें को छोड़-छोड़कर शरीर पर नए-नए वस्त्रें को धारण करते हैं; उसी तरह यह जीव पुराने-पुराने शरीरों को छोड़-छोड़कर नए-नए शरीरों को धारण करता है।
“ वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।”
-श्रीमद्भगवद्गीता, अ0 2/22
इस जीव के संबंध में गो0 तुलसीदासजी ने बतलाया है-
“ ईस्वर अंस जीव अविनासी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ।।”
जीव नित्य है और शरीर अनित्य है। श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण का वचन है-
“ नैनं छिन्दन्ति शस्त्रणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।”
किसी अस्त्र-शस्त्र से जीव को काट नहीं सकते, टुकड़ा कर नहीं सकते। इस जीव को अग्नि जला नहीं सकती। पानी इसे भिंगा नहीं सकता। हवा इसे सुखा नहीं सकती। यह अजर, अमर, अविनाशी है, लेकिन जितने दिनों के लिए इस संसार में जीव और शरीर की दोस्ती है, संसार में हम कैसे रहें? जगत में जीने की कला संतों ने बतलायी है। गुरुदेव महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का वचन है-
“ अनासक्त जग में रहो भाई ।
दमन करो इन्द्रिन दुखदाई ।।”
संसार में रहो, लेकिन अनासक्त होकर। जो आसक्त होकर रहते हैं, वे दुःख पाते हैं। जो अनासक्त होकर रहते हैं, वे सुख पाते हैं। एक वृक्ष है, उस पर बंदर रहता है और चिड़ियाँ भी रहती हैं। वृक्ष को काट दीजिए। चिड़ियाँ उड़ जाएगीं, उनको कोई दुःख नहीं है, लेकिन बंदर डाल पकड़े हुए रहता है, जैसे ही वृक्ष गिरेगा, उसके साथ वह भी गिरेगा और उसकी हड्डी-पसली टूटेगी। आसक्ति है-पकड़े हुए है, तो उसको दुःख हो गया। उसी तरह जो संसार को पकड़े हुए रहता है, तो संसार छूटते समय उसे दुःख होता है। और जो पहले से संसार को छोड़े हुए है, उसको कोई दुःख नहीं होता। इसलिए संसार में जलजवत् रहो, जोंकवत् नहीं। गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
“ जैसे जल महि कमल निरालमु मुरगाइ नैसाणै ।
सुरत शब्द भवसागर तरिये नानक नाम बखानै ।।”
कमल की उत्पत्ति जल से होती है। जैसे-जैसे जल बढ़ता जाता है, कमल भी ऊपर उठता जाता है। वह जल कमल को डुबा नहीं सकता, चाहे वह कितना भी बढ़ जाय। कमल उस सरोवर की शोभा बढ़ाता है। अपनी सुगंध से चतुर्दिक सुगंधित करता है। उस सुगंध को पाने के लिए दूर-दूर से भौंरे आते हैं और पराग लेकर जाते हैं। संतजन कहते हैं-तुम भी इस मायामय संसार में जलकमलवत् रहो। मायाजल तुमको डुबा नहीं सके और तुम अपने में इतने सद्गुणों को भर लो कि लोग तुम्हारे पास से उन सद्गुणों को ले-लेकर जाएँ, लेकिन प्रश्न होता है-यह हो कैसे? यानी संसार-रूप सागर से ऊपर होने का, पार होने का यत्न-उपाय क्या है? गुरु नानकदेवजी ने इसका उत्तर दिया है-‘सुरत शब्द भवसागर तरिये ।’
अर्थात् संसार-समुद्र को पार करने के लिए सुरत-शब्द-योग की साधना कीजिए। जो उस साधना को करते हैं, उसमें संसार-सागर से उद्धार पाने की क्षमता आ जाती है।
श्रीरामकृष्ण परमहंसजी ने बड़ी सरल भाषा में कहा है- ‘तुमलोग कटहल की सब्जी खाते हो। कटहल को टुकड़ा करते हो, तो क्या निकलता है? उससे दूध निकलता है। वह लस्सा हाथ में लग जाए, तो उसे काट भी नहीं सकते हैं। इसलिए लोग कटहल को टुकड़ा करने के पहले हाथ में तेल लगा लेते हैं। जब हाथ में तेल लगाकर कटहल को टुकड़ा करते हैं, तब हाथ में लस्सा नहीं लगता है। उसी तरह भगवद्-भजनरूपी तेल से अपने हृदय को तर कर लो, भिंगा लो, फिर संसार के कामों को करो, तो निर्लिप्तता रहेगी, मायाजल डुबा नहीं सकता।
किसी सद्गृहस्थ ने श्रीरामकृष्ण परमहंसजी से पूछा-‘महाराज! आप तो विरक्त महात्मा हैं, भगवद्-भजन करते हैं, लेकिन क्या हम सद्गृहस्थों से ऐसा हो सकता है? हमारे बाल-बच्चे हैं, कुटुम्ब-परिवार हैं, समाज है, जीविका के लिए खेती, नौकरी, वाणिज्य, कुछ-न-कुछ करना ही पड़ता है। तो आपके जैसे हम कैसे रह सकते हैं? परमहंसजी ने पूछा-‘तुम्हारे पास गायें हैं?’ उसने कहा-‘हाँ, बहुत-सी गायें हैं।’ परमहंसजी-‘उन गायों के लिए तुमने क्या किया है?’ स्दगृहस्थ-‘उनकी सेवा के लिए नौकर बहाल कर दिया है।’ परमहंसजी-‘नौकर क्या-क्या करता है?’ सद्गृहस्थ-नौकर गाय को खिलाता है, समय पर पानी पिलाता है, समय पर नहलाता है। समय पर घर से बाहर करता है। जाड़े के समय में धूप में लाता है और गर्मी में छाया में ले जाता है। मूत्र-गोबर जितना होता है, सब साफ-सुथरा करता है। यानी गाय की जितनी भी परिचर्याएँ होनी चाहिए, सारी परिचर्याएँ करता है। परमहंसजी-‘अगर कोई गाय बियाती है, तो नौकर क्या कहता है?’ स्दगृहस्थ- नौकर कहता है कि मालिक की गाय बियायी है।’ परमहंसजी-‘यदि कोई बछड़ा मर जाए, तो क्या कहता है?’ सद्गृहस्थ कहता है कि मालिक का बछड़ा मर गया। परमहंसजी-‘नौकर सारी सेवा करता है, लेकिन वह जानता है कि वहाँ उसका कुछ नहीं है, जो है, सो मालिक का है। लाभ-हानि, सुख-दुःख सब मालिक का है। उसी तरह यदि तुम मालिक बने रहोगे, तो कभी खुश होओगे और कभी दुःखी होओगे। तुम उस सेवक के समान बनकर परिवार की सब सेवा करते रहो, लेकिन मन में जान रखो कि सब कुछ मालिक का है, मेरा कुछ भी नहीं। आसक्ति को छोड़ो। तुम्हें रहना तो इस संसार में ही है, इसे छोड़कर कहाँ जाओगे? जहाँ कहीं जाओगे, संसार ही मिलेगा।
स्वामी विवेकानंदजी किसी समय लंबा कुरता पहने थे। उस कुरते में बहुत-सी जेबें रहती थीं। उन जेबों में वे अखबार, कागज, कलम, किताब रखे हुए रहते थे। एक बार वे काशी गए। वहाँ बहुत-से बंदर हैं। विश्वनाथजी के दर्शन करके मंदिर से जब वे बाहर निकले, तो उन बंदरों के मन में हुआ कि स्वामीजी की जेब में कुछ खाने की चीजें हैं। वे बंदर उनके पीछे लग गए। स्वामीजी जा रहे हैं, बंदर यूथ भी उनके पीछे से जा रहे हैं। स्वामीजी उलटकर देखते हैं कि बहुत-से बंदर पीछे लगे हैं। उन्होंने अपनी डेग लंबी की। वे बंदर भी लंबी-लंबी डेग करके उनके पीछे-पीछे चलने लग गए। अपनी गति में जितनी तेजी इन्होंने की, बंदरगण भी उतनी ही तेजी करके पीछे-पीछे दौड़ने लगे। अब स्वामीजी ने देखा कि ये बंदर मानेंगे नहीं, तो इन्होंने दौड़ लगायी। जब इन्होंने दौड़ लगायी, तो बंदरों ने भी उनके पीछे दौड़ लगायी। अब जितने अगल-बगल के लोग तमाशा देख रहे थे, सब कहने लगे-‘स्वामीजी! रुक जाओ, स्वामीजी! रुक जाओ, नहीं तो बंदर काट खाएँगे। स्वामीजी खड़े हो गए, तो देखते हैं कि वे सभी बंदर भी खडे़ हो गए। इस प्रसंग पर स्वामी विवेकानंद ने लिखा है-‘संसार से भागकर कहाँ जाओगे? जहाँ जाओगे, वह बंदर की तरह काटेगा। इसलिए संसार में रहते हुए अपना काम करो।’
संतों ने कहा-पानी में नाव रहे, कोई हानि की बात नहीं, लेकिन नाव में पानी नहीं आना चाहिए, नहीं तो वह उसको डुबो देगा। उसी तरह भक्त संसार में रहे, कोई हानि की बात नहीं है, लेकिन भक्त में सांसारिकता नहीं आनी चाहिए, अन्यथा वह सांसारिकता उसको डुबो देगी। गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है-
‘जग ते रहु छत्तीस ह्वै, राम चरण छः तीन ।’
छत्तीस कैसे लिखते हैं? तीन के आगे छः लिखते हैं। दोनों अंक एक दूसरे के उलटे होते हैं। और जब तिरसठ लिखते हैं, तो छः और तीन का मुँह एक दूसरे से मिला हुआ होता है। गोस्वामीजी कहते हैं कि संसार से तो पीठ देकर छत्तीस की तरह रहो और परमात्मा से इस तरह प्रेम लगाओ, जैसे तिरसठ है, अंग-अंग में मिला हुआ है।
जबतक कोई संसार से अनासक्त नहीं होता है, तबतक भगवद्-भजन हो ही नहीं सकता। इस विषय पर श्रीरामकृष्ण परमहंसजी ने बहुत अच्छी-अच्छी उपमा दी है। उन्होंने कहा कि देहात में माई लोग ऊखल में धान कुटती है। एक माई ऊपर से चोट देती है और दूसरी माई हाथ से उसको समेटती भी है। कहीं बच्चा पीठ पर आ गया, तो उसको भी सँभाल लेती है। उससे यदि कोई बात करने के लिए आ जाती है, तो उससे वह बात भी करने लग जाती है, लेकिन मन उसका रहता है मूसल पर। उसी तरह दुनिया के सभी कामों को करो, लेकिन मन रखो प्रभु पर। गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है-
“ कर तें करम करो विधि नाना ।
सुरत राख जहाँ कृपा निधाना ।।”
इस संबंध में संत पलटू साहब ने बड़ी अच्छी-अच्छी उपमा दी है-
“ कमठ दृष्टि जो लावई सो ध्यानी परमान ।।
सो ध्यानी परमान सुरत से अंडा सेवै ।
आप रहै जल माहिं सूखे में अंडा देवै ।।
जस पनिहारी कलस भरे मारग में आवै ।
कर छोड़े मुख वचन चित्त कलसा में लावै ।।
फनि मनि धरै उतारि आपु चरने को जावै ।
वह गाफिल ना पड़ै सुरति मनि माहिं रहावै ।।
पलटू सब कारज करै सुरति रहै अलगान ।
कमठ दृष्टि जो लावई सो ध्यानी परमान ।।”
वे कहते हैं कि संसार में सांसारिक कामों को करो, लेकिन अपना ध्यान प्रभु पर लगाकर रखो। किस तरह रखो? जिस तरह कछुवी रहती है। कछुवी रहती है जल में और अंडा देती है थल में। जैसे चिड़िया अंडे पर बैठकर उसे सेती है, उसी तरह कछुवी अंडे पर बैठकर उसे सेती नहीं है। वह सुरत से अंडे को सेती है। लोगों का कथन है कि कोई व्यक्ति उस कछुवी को मार दे, तो अंडे सड़ जाते हैं। कछुवी का ध्यान अगर अंडे पर से हट जाय, तो भी अंडे सड़ जाएँगे। इसलिए वह सुरत से ही अंडों का सेवन करती रहती है। धीरे-धीरे अंडे बढ़ते हैं, पुष्ट होते हैं और फटते हैं, उन अंडों से बच्चे निकलते हैं।
संत पलटू साहब का कहना है-जिस तरह कछुवी थल में अंडा देती है, लेकिन जल में घूमती-फिरती है, खाती-पीती है, सब काम करती है। साथ ही उसकी सुरत की डोरी सदा अंडे से लगी रहती है। उसी तरह तुम संसार के सब कामों को करो, लेकिन कछुवी की तरह सुरत को प्रभु में लगाए रखो। संत कबीर साहब ने कहा-
“ जौं गुरु बसै बनारसी, शिष्य समुंदर तीर ।
एक पलक बिसरै नहीं, जो गुण होय शरीर ।।”
गुरु जहाँ कहीं भी हों, शिष्य की सुरत डोरी इष्ट पर लगी रहनी चाहिए। दूसरी उपमा पलटू साहब ने दी है पनिहारी की। यह आज के जमाने की बात नहीं है, पलटू साहब के जमाने की बात है। उस समय के लोग बालटी में रस्सी बाँधकर कुएँ से पानी निकालते थे, तब पानी मिलता था। पूर्व के जमाने में पनिहारी बालटी, घड़ा और रस्सी साथ लेकर सुदूर कुएँ पर जाती थी। पानी भरकर एक घड़ा वह माथे पर रखती थी और दूसरे को काँख में रखती थी। दाहिने हाथ में पानी से भरी बालटी और रस्सी लेती थी। बाएँ हाथ से काँख के नीचे घड़े को दबाकर रखती थी। सखी-सहेली से बातें भी करती जाती थी, किंतु सिर पर जो घड़ा रहता है, उसको वह सुरत से पकड़ी रहती है। इसकी उपमा देकर संत पलटू साहब कहते हैं-
“ जस पनिहारी कलस भरै, मारग में जावे ।
कर छोड़े मुख वचन चित्त कलसा में लावै ।।”
अर्थात् सिर के घड़े के साथ उसकी सुरत लगी हुई रहती है। उसी तरह तुम संसार के कामों को दोनों हाथों से करो और अपना ख्याल प्रभु पर लगाए रखो।
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया है-‘तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।’ युद्ध का मैदान है। आमने-सामने का समर है। शत्रु की ओर से जो तीर आ रहा है, उससे अपनी रक्षा करनी है और अपने तीर से शत्रु की जान लेनी है। इस प्रकार मैदान में कितनी सावधानी की आवश्यकता पड़ती है। फिर भी भगवान कहते हैं कि मेरा स्मरण करो और युद्ध भी करो। अर्जुन के सामने तो कुरुक्षेत्र का मैदान था और हमलोगों के सामने जो कार्यक्षेत्र है, वही मैदान है। कार्यक्षेत्र में कार्य की सँभाल करते हुए प्रभु पर अपना ध्यान लगाए रखें। तीसरी उपमा वे देते हैं-साँप की। जंगल में मनियार साँप होता है। जब कुछ रात बीत जाती है, तब वह भोजन की तलाश में बिल से बाहर निकलता है। उसके मुँह में जो मणि रहती है, उसको वह निकालकर रख देता है। उस मणि का प्रकाश दूर तक फैलता है। उस प्रकाश से आकर्षित होकर कीड़े-मकोडे़ आते हैं। साँप उनको खाता है। इस प्रकार साँप का ध्यान सतत मणि पर लगा रहता है। मणि के प्रकाश में घूम-घूमकर भरपेट खा चुकने के बाद वह उस मणि को मुँह में लेकर बिल में चला जाता है। संत पलटू साहब की इस वाणी में तीन तरह की उपमाएँ हुईं। पहली उपमा में कछुवी और उसके अंडे में दूरी की है। दूसरी उपमा में घड़ा पनिहारी के साथ है और तीसरी उपमा में साँप प्रकाश में घूमता है। मतलब यह कि पहले मानस जप करो और इस तरह से करो कि तार टूटे नहीं। इष्ट कहीं भी हों, लेकिन जप का तार टूटना नहीं चाहिए। यह है कछुवी की उपमा। दूसरी उपमा में घड़ा पनिहारी के अंग-संग ही है, उसी तरह जो तुम्हारे इष्ट हैं, उनका मानस रूप तुम्हारे अंग-संग है, उस पर ध्यान लगाओ। यह है मानस ध्यान।
तीसरी उपमा में साँप प्रकाश में आहार करता है। उसी तरह से तुम्हारी साधना इस तरह की हो कि तुम्हारे अंदर प्रकाश उत्पन्न हो जाए। उस प्रकाश में अपने को रखते हुए जागतिक कार्य-कलापों को करो। जैसे बाहर के प्रकाश में बाहर के कीडे़-मकोड़े जलकर नाश होते हैं; उसी तरह जब तुम्हारे अंदर प्रकाश होगा, तो उसमें तुम्हारे अंदर के कीडे़- मकोड़े-काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, राग, रोष, ईर्ष्या, द्वेष आदि सब जल करके समाप्त हो जाएँगे और तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल होगा। इस प्रकार मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टि साधना की क्रिया संत पलटू साहब बतलाते हैं। और चौथी क्रिया के संबंध में गुरु नानकदेवजी की वाणी आपने सुनी-
“ जैसे जल महि कमल निरालमु मुरगाई नैसाणै ।
सुरत शब्द भवसागर तरिअै नानक नाम बखाणै ।।”
अर्थात् संसार में जल-कमलवत् रहते हुए नादानुसंधान करो। इन चारो क्रियाओं को करते हुए इस संसार में रहो। तुम्हारे दोनों हाथों में लड्डू हैं। संसार में जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ उद्यम जरूर करो। चाहे कृषि करो, वाणिज्य करो या नौकरी करो, पर परमुखापेक्षी मत बनो।
‘जीवन बिताओ स्वावलंबी भरम भाँडे़ फोड़िकर ।’
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
जो तुम्हारी योग्यता है, उस योग्यता के अनुकूल काम करो। अपना जीवन निर्वाह करो और साथ ही परिवार का भरण-पोषण भी करो। योग्यता-अनुकूल समाज की सेवा करो, देश की सेवा करो, विश्व की सेवा करो। यह जगत में जीने की कला है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ सुकिरत करि ले, नाम सुमरि ले,
को जानै कल की, जगत में खबर नहीं पल की ।”
अच्छे-अच्छे कर्मों को करो। सत्कर्मों को करो। जो सत्कर्म करनेवाले होते हैं, उनका शरीर भले ही छूट जाता है, लेकिन वे अमर होकर संसार में रहते हैं। चाहे वे दीनहीन हों, गरीब हों, पर चरित्र जिनका पवित्र है, उनकी गुण-गाथा उसके दुश्मन भी गाते हैं। अतएव अपना चरित्र पवित्र रखो। इस प्रसंग में एक पौराणिक कथा याद आती है-‘जब लक्ष्मण के द्वारा इन्द्रजीत मारा गया, तो उसके सिर को राम दल में रख लिया गया था और धड़ को लंका भेज दिया था। उसकी दाहिनी भुजा को काटकर उसके अंतःपुर में फेंक दिया गया था। अंतःपुर में भुजा पहुँचती है। सुलोचना देखती है कि यह तो मेरे पति की भुजा है। युद्ध के मैदान में जाते समय मैंने इस भुजा की पूजा की थी। जब उसके मन में यह निश्चित हो गया कि ठीक ही वह मारा गया है, तो वह अपनी सास से कहती है कि मैं सती होऊँगी। मेरे पति का सिर तो राम दल में है, उसे मँगा दीजिए।
इस पर रावण कहने लगा-‘मैं दुश्मनों को नहीं छोड़न्न्ँगा। अभी जाता हूँ और राम-लक्ष्मण दोनों को बाँधकर तुम्हारे सामने लाता हूँ। दोनों की जीवन-लीला यहीं समाप्त कर दूँगा।’ रावण की लंबी-चौड़ी बातों को सुनकर सुलोचना ने अपनी सास से कहा-‘श्वसुर साहब तो बहुत कुछ कह रहे हैं, लेकिन उनको कौन मार सकता है! इतने दिनों से युद्ध हो रहा है, कितने असुर मारे गए। आज भी राम-लक्ष्मण को मारने की तैयारी ही हो रही है। मेरे पति का सिर कैसे आएगा? आप उसकी व्यवस्था कर दीजिए।’ मंदोदरी ने कहा-‘जाओ बेटी! तुम स्वयं राम दल में जाकर पति का सिर ले आओ। राम भगवान हैं, कृपालु हैं, तुमको देखकर तुम्हारे पति का सिर वे दे देंगे।’ रावण दल के सब लोग मंदोदरी से कहने लग गए कि आपका माथा तो कहीं खराब नहीं हो गया है! जिस राम की पत्नी का हरण कर आपके पति लाए हैं, युवती पतोहू को उसी दुश्मन के दल में भेज रही है। क्या यह वहाँ से पवित्र-सुरक्षित लौट सकेगी? मंदोदरी ने उत्तर दिया-‘मेरा माथा खराब नहीं है, माथा खराब तुमलोगों का है। परनारी का हरण करना राक्षसों का काम है, देवाधिदेव राम का नहीं। भगवान श्रीराम एकपत्नीव्रतधारी हैं। लक्ष्मणजी चौदह वर्षों से अपनी पत्नी से अलग रहकर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन कर रहे हैं। हनुमानजी जैसे बाल ब्रह्मचारी उस दल में हैं। इनके अतिरिक्त इसके श्वसुर भगवद्भक्त विभीषण वहाँ हैं, फिर संशय और भय कैसा? फिर अपनी पुत्रवधू-सुनयना से वह कहती है-‘जाओ बेटी! भगवान श्रीराम से माँगकर अपने पति का सिर ले आओ।’ सुलोचना जाती है और श्रीराम को प्रणाम कर अपने पति के सिर को माँगकर ले आती है।
कहने का तात्पर्य यह कि दुश्मन है, फिर भी चरित्रवान की प्रशंसा करती है। पवित्र चरित्र का यशगान सब कोई करते हैं। इसलिए चरित्र पवित्र रखो। जबतक पवित्र चरित्र नहीं होगा, आध्यात्मिकता में एक बाल के बराबर भी आगे नहीं बढ़ सकोगे। दुनियादारी में कमाने के लिए तो हम झूठ-साँच बोलकर धन-संग्रह कर सकते हैं, लेकिन जो आत्मधन है, परमात्म धन है, उसको सच्चाई और पवित्रता के बिना प्राप्त करना असंभव है। इसलिए संतों ने सदाचार पालन पर जोर दिया। सदाचार पालन करने के लिए झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इनसे बचना चाहिए। साधना के अंतर्गत मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टियोग और नादानुसंधान; ये चार क्रियाएँ हैं। अपनी योग्यता के अनुकूल इन क्रियाओं को करो और शुभ कर्मों को करो। अशुभ कर्मों से अपने को बचाए रखो। इस तरह तुम्हारा लोक-परलोक कल्याणमय होगा।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर मे दिनांक 18-05-2003 ई0 को सप्ताहिक सत्संग के शुभ अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, फरवरी 2004 ई0)

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